लघुकथा

(1) सक्षम 

पारुल बहुत बैचेनी महसूस कर रही थी। किसी काम में मन भी नहीं लग रहा था। प्रसव के बाद ऑफिस में पहला दिन था उसका ।

वहीं  मातृत्व की  छाया से दूर  अपनी सात माह की बिटिया को डेकेयर में पहली बार छोड़कर आई थी।

डेकेयर उसके ऑफिस की बिल्डिंग में ही प्रथम तल पर था व ऑफिस दसवीं मंज़िल पर।

वह  बार बार  बिटिया  के बारे में सोच  कर हलकान हुई जा रही थी — ‘पता नहीं अनजान लोगों के बीच कैसे रहेगी ! रो तो नहीं रही होगी?  मुझे न पाकर दूध भी पिया होगा कि नहीं?’

कनखियों से उसे  निहार रही , पास बैठी कलीग से, उसका यह हाल देखा नहीं गया , आखिर उसने कह ही दिया-” नीचे जाकर देख क्यों नहीं आती ? दिल को तसल्ली हो जाएगी।”

चाह तो वह भी यही रही थी, बस, ज़रा सा इशारा मिला सहेली का, तो भागी चली गई, बिटिया की टोह लेने।

कहीं बच्ची उसे देखकर परेशान न हो जाए ,यह सोचकर वह दरवाज़े की ओट से ही उसके क्रिया-कलाप को निहारने लगी।

अभी कुछ दिनों पहले ही थोड़ा सरकना  सीखी थी वह।

उसने देखा-

वह खिलौना हाथ में लिए खेल रही थी कि तभी उससे दो – तीन माह बड़ा बच्चा आया व खिलौना छीन कर ले गया। पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

मैम ने दूसरा खिलौना दे दिया, वह भी वही बच्चा फिर छीन कर ले गया, उसने फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

यही क्रम तिबारा दोहराया गया।

चौथी बार जब वह खिलौना छीनने आया तो बच्ची ने कस कर मुठ्ठी भींचकर, हाथों को कड़ाकर ज़ोर से  हूंहूं……..हूंहूं …किया तो वह बालक डर के खिलौना छोड़ कर भाग गया फिर दोबारा तंग करने नहीं आया।

यह देखकर पारुल के चेहरे पर आश्वस्ति के साथ मुस्कुराहट तैर गई।

डॉ नीरज सुधांशु

 

(2)  खरीदी हुई औरत

रशीद की पत्नि मीना की हालत बिगड़ती जा रही थी। घर पर बच्चा होने के बाद, रक्त्स्राव नहीं रुक रहा था। अस्पताल लाने पर, डॉक्टर भी आखिरी इलाज के तौर पर ऑपरेशन की हिदायत दे चुके थे।

घर के लोग व अन्य सगे संबंधियों की भीड़ इकठ्ठी हो चुकी थी। सब अपनी अपनी राय दे रहे थे।

“भई सोच समझ लो, बहुत पैसा खर्च होगा।” – चचा ने चिंता  जताई।

“इसका हाथ तो वैसे भी तंग रहता है, कहां से करेगा इंतज़ाम?” – चाची बोली।

“ऑपरेशन होने के बाद भी ठीक न हुई तो?” पीछे से आवाज़ आई।

“खून की भी जरूरत पड़ेगी, हम तो खुद ही हारे-माड़े हैं , अपना खून तो दे नहीं पाएंगे। वह भी बाज़ार से ही खरीदना पड़ेगा, तीन साल पहले तो खरीद कर लाया ही था इसे, तब भी पैसा खर्च हुआ था” बुआ ने याद दिलाया।

“पता होता कि बात इतनी बिगड़ जाएगी, तो पहले ही नहीं दिखा लेता डॉक्टर को”- सिर पकड़कर बैठे पति ने कहा।

“दवा में भी बहुत लगेगा, किस किस के सामने हाथ फैलाएगा, कमजोर तो वैसे ही है यह, सारी उमर दवा ही खिलाता रहेगा” जीजा ने प्रश्न किया।

धीरे धीरे भीड़ छंटने लगी।

“छोड़ न भाई जितने पैसे इस पर लगाएगा , उतने में तो नई बीवी आ जाएगी ।”

अब तक चुप मां उसके बच्चों की ओर देख कर अचानक फट पड़ी—“ पैसा… पैसा… पैसा…क्या लगा रखा है  ये ? तेरे पैसे बीवी दिला सकते होंगे पर मां किसी बाज़ार में नहीं बिकती ………….।”

 

(3) अप्रत्याशित

दीदी जी!  ओ दीदी जी! ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा रहे थे वे घर के गेट पर।

उनकी तीखी आवाज़ें कानों में सीसा सा घोल रही थीं उसके,  “इन्हें क्या फर्क पड़ता है, कोई जिए या मरे,  इन्हें तो बस अपनी ही चिंता है” बड़बड़ाती हुई अपना ही जी जला रही थी महिमा।

वैसे तो वह कभी ऐसा नहीं सोचती थी, पर जब से उसकी मां का देहांत हुआ था, वह चिड़चिड़ी सी रहने लगी थी।

यूं तो मां की हर सीख विदाई के साथ ही चुनरी की गांठ में बांधकर लाई थी वह। बचपन से ही मां के दिए संस्कार समस्याओं पर अक्षुण्ण तीर से साबित होते।

मां की कही बात रह-रह कर गूंजने लगी थी कानों में,  ‘बिटिया ! घर के दरवाज़े से कोई खाली हाथ न जाए , अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिए|’

दीदी जी! ओ दीदी जी!  आवाज़ें लगातार धावा बोल रही थीं।

“अरे भाई दे दो इनका दीपावली का ईनाम, वही लेने आए होंगे, हम तो दीपावली नहीं मनाएंगे, पर ये तो हर होली, दिवाली की बाट जोहते हैं न! इन्हें क्यों निराश करना” पति ने आवाज़ पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा।

“दी…दी… जी  !! अबकी बार स्वर और तेज़ था ।

उनका स्वर व उसका गुस्सा आपस में मानो प्रतिस्पर्धा पर उतर आए थे।

“आ रही हूं”  अलमारी में से पैसे निकाल कर भुनभुनाती हुई चल दी वो गेट खोलने ।

” दीदी जी, हम तो आपका दुख बांटने आए हैं।  दिल तो हमारे पास भी  है, मां से जुदा होने का दुख हमसे बेहतर कौन जानता है । बस आपको देख लिया , जी को तसल्ली हो गई, भगवान आपका भला करे।”  आशीर्वादों की बौछार करते व  ताली बजाते हुए, चल दिए वो, अगले घर की ओर।

महिमा की मुट्ठी में  नोट व  जले कटे शब्द ज़बान में ही उलझ कर रह गए ।

 

 (4)   संकल्प

घर में नन्हें मेहमान के आने की खुशी में ममता के पांव ज़मीं पर नहीं पड़ रहे थे, वह दौड़ दौड़ कर बच्चे के स्वागत की तैयारियों में जुटी हुई थी। उसका उत्साह देखते ही बनता था। अचानक फोन की घंटी बजी। ममता ने रिसीवर उठाया। उसके बाद उधर से जो कहा गया, वह सुनकर ममता को काटो तो खून नहीं। रिसीवर हाथ से छूट गया। वह संतुलन खोकर गिर ही जाती, कि तभी पति ने उसे बांहों का सहारा देकर बचा लिया। आँसू थे कि रुकने नाम ही नहीं ले रहे थे।

“ हुआ क्या है? यह तो बताओ।” सुमित ने हिचकियाँ लेकर रोती ममता को संभालते हुए पूछा।

“क्‍या सचमुच मैं किसी बच्‍चे को कभी माँ का प्‍यार नहीं दे पाऊँगी।“ सिसकते हुए ममता ने सवाल किया।    सुमित ने उसे पलंग पर लिटाया व सांत्वना देते हुए उसके बालों को सहलाने लगा। वह उसकी मनःस्थिति व दर्द को शिद्दत से महसूस कर रहा था।

“लेकिन हुआ क्‍या? “ सुमित ने पूछा।

लेकिन जब ममता कुछ न बोली, तो उसने खुद ही फोन लगाया।

ममता की बार बार टूटती आस ने उसे अंदर से भी तोड़ दिया था। तीन-तीन वर्षों के अंतराल पर तीन बार- गर्भ ठहरने के बावजूद उसका गर्भपात हो गया था। गहराई से जांच करवाने पर गर्भाशय में रसौली होने का पता चला था। चिकित्सकों की राय पर शल्य क्रिया द्वारा रसौली के साथ गर्भाशय भी निकाल देना पड़ा था। उसके माँ बनने की रही सही उम्मीद खत्म हो चुकी थी। वह उदास रहने लगी थी। तभी एक खुशी की किरण उसके अंधेरे जीवन में उजाला बनकर आई। कितनी खुश थी वह, जब देवर-देवरानी ने दिलासा दिया कि  उनकी जो भी पहली संतान होगी, उसे वे ममता की झोली में डाल देंगे। बड़ी प्रतीक्षा के बाद वह घड़ी आई थी।

तो…. सुमित फोन पर छोटे भाई से कह रहा था, “नहीं छोटे, कोई बात नहीं। अगर तुम दोनों चाहते हो कि बच्‍चे को तुम्‍हीं पालो, तो यह तुम्‍हारा अधिकार है। मैं तेरी भाभी को समझा दूँगा। बच्‍चा वहाँ रहे या यहाँ, आखिर कहलाएगा तो हमारे परिवार का ही।“

अब तक ममता ने भी अपने आपको संभाल लिया था। उसने आत्मविश्वास व प्रण के साथ ऐलान किया , “नहीं, अब मैं किसी का बच्चा गोद नहीं लूँगी, बल्कि हर उस बच्चे की माँ बनूँगी, जो माँ के प्यार से वंचित है।“

सुमित ने मुस्‍कराते हुए ममता के कंधों पर हाथ रखा और बोला, “यह हुई न ममता वाली बात।“

 

 

(5)   डर!!

पुलिस मैन लाठी फट्कारते हुए  बोला, “क्यों बे लड़कों! तुम इतने सारे खड़े तमाशा देख रहे थे, तुमसे एक आदमी को नहीं बचाया गया पेड़ पर लटकने से?”
वह पीक थूककर फिर चिल्लाया , “बोल्लो सालो ! जवाब दो।”
“साब! मैं तो खुद ही एक पैर से बेकार…..।”  पास ही खड़े लड़के ने कहा।
“अच्छा….! और तू…!”
“साब! मैं तो भाषण दे रहा था।”
“हूं……,मतलब  नेत्ता है तू.। और तू बता तेरे क्या मेंहदी लगी थी हाथ में ?”
“साब ! मुझे तो पेड़ पर चढ़ना ही नहीं आता।” शहरी सा लग रहा था वह।
“हंम्…….। देख्खा तो तूने भी था न !” डंडे की नोंक चौथे आदमी की ठोडी से अड़ाते   हुए सिपाही दहाड़ा।
“स..स..स….सर! मैं तो फो…टो खींच रहा था।” हकलाते हुए वह बोला।
“और तू क्या कर रहा था बे आम आदमी?”
“साब ! बचा तो लेता , पर डर लगता है…” उसने डरते हुए हाथ जोड़्कर कहा।
“डर! किससे डर लगता है?”
“साब आपसे॥”

डॉ नीरज सुधांशु

 

(6) कुदरत की नैमत

 

गुप्ता जी का पालतू कुत्ता टॉमी, जब भी गले में चमचमाते पट्टे व जंजीर के साथ घूमने निकलता तो उसका सामना रोज़ ही मोती व अन्य गली के कुत्तों से होता। वो उन्हें मुंह चिढ़ाता, हिकारत भरी नज़रों से देखता, नाक भौं सिकोड़ता हुआ शान से गरदन उठा कर चलता। गली के कुत्तों को उसकी ये हरकत नागवार गुज़रती।
एक दिन जैसे ही वो घर से निकला, सबक सिखाने के इरादे से मोती व अन्य कुत्तों ने उसे घेर लिया।
मोती ने पूछा,  “क्यों रे! ऐसा क्या है तेरे पास, जो तू इतना इतराता फिरता है?”
टॉमी ने मूंछों को ताव देते हुए कहा,  “देखो! मैं कितनी शान से रहता हूं। बढ़िया-बढ़िया खाता हूं, मखमली बिस्तर पर सोता हूं, घर के लोग मुझसे कितना प्यार करते हैं, मालकिन अपने बेटे की पिटाई करती हैं, पर मुझे बड़े प्यार से रखती हैं। मैं वफादारी से उनके घर की चौकीदारी करता हूं। दो वक्त बाहर घूमने भी जाता हूं। है तुम्हारे पास मेरे जितनी सुविधाएं?”
अब जवाब देने की बारी मोती की थी।

मोती ने भी मूंछों को ताव दिया और बोला, “देखो टॉमी ! शान से तो हम भी रहते हैं, पेटभर खाते हैं, धरती माता की गोद में मज़े से सोते हैं, सारे मोहल्ले के लोग हमसे प्यार करते हैं। वफादारी से हम भी सारे मोहल्ले के लोगों के घरों की देखभाल करते हैं। जब चाहे, जहां चाहे घूम भी लेते हैं। जो जो तुम्हारे पास है, वो सब कम या ज्यादा हमारे पास भी है। हां….! बस एक चीज़ नहीं है हमारे पास और उसका न होना ही कुदरत की सबसे बड़ी नैमत है।“
टॉमी ने आंखें फाड़ते हुए पूछा,  “वो क्या?”
मोती ने गरदन उठाकर शान से कहा, “गले का पट्टा!”

 

डॉ नीरज सुधांशु

 

(7) जीत

 

“मैं हाथ जोड़ती हूं आप सबके – मैं ये पाप नहीं करवाना चाहती। ये मेरी बच्ची है, मैं अपने खून से सींच रही हूं इसे । ऐसा अन्याय कैसे होने दूं ! मैं मां हूं कोई कसाई नहीं ।”  रोते हुए रीना ने अपनी ममता की बहुत दुहाई दी, पर घर में किसी पर, उसकी किसी भी विनती का कोई असर नहीं हो रहा था।

नीलेश ने अपने डॉक्टर मित्र से जबसे चोरी छुपे भ्रूण के लिंग की जांच करवाई थी , घर में कोहराम सा मचा था।
जीवन भर हर इच्छा की पूर्ति की कसम खाने वाला, हर सुख दुख में साथ निभाने वाला पति नीलेश भी, घर वालों के दबाव के कारण ,उसके साथ नहीं था। वो बिल्कुल अकेली पड़ गई थी।
नीलेश जबरदस्ती उसे अस्पताल ले गया।
अभी उनका नंबर आने में समय था।
समय बिताने के लिए वह उठ कर वहां लगे पोस्टर देखने लगा।
सुंदर सुंदर बेटियों के पोस्टर लगे हुए थे और बेटियों का महत्व समझाने वाली बातें लिखी हुई थीं।वो उनमें खो सा गया । अचानक उसे लगा जैसे पोस्टर के पात्र सजीव हो उठे हैं और वह घिरा है नन्हीं-नन्हीं गुडियों से , जो उसे घेर कर हाथों में हाथ लिए खेल रही हैं — हरा समंदर गोपी चंदर………… धीरे धीरे वह भी खेल  का हिस्सा बनता जा रहा है , उसे बड़ा आनन्द आ रहा है ,अचानक वह एक के बाद एक गुड़िया को उठाता है और बेतहाशा चूमने लगता है।

“चलिए , अगला नंबर आपका है मिस्टर नीलेश” –नर्स के पुकारने पर उसकी तंद्रा टूटी ।

रीना को लेकर अगले ही पल वह डॉक्टर के चेंबर में था, “ डॉक्टर साहिबा ! रीना का अच्छे से अच्छा इलाज कीजिए ताकि वह एक  स्वस्थ बच्ची को जन्म दे सके।“ कहकर  पनियाली आंखों को छुपाते हुए उसने राहत की सांस ली।

रीना अवाक् उसे देखे जा रही थी व मन ही मन बहुत खुश भी थी ।

मन के राक्षस पर पिता की जीत जो हुई थी।

 

डॉ नीरज सुधांशु

आर्य नगर , नई बस्ती

बिजनौर- 246701

MO–09412713640

 

 

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