अशोक रावत
के शीघ्र प्रकाशित होनेवाले ग़ज़ल संग्रह ‘मैं परिंदों की हिम्मत पे हैरान हूँ ‘ से से कुछ ग़ज़लें.
01
डर मुझे भी लगा फ़ासला देखकर, / पर में बढ़ता गया रास्ता देखकर.
ख़ुद ब ख़ुद मेरे नज़दीक आती गई, / मेरी मंज़िल मेरा हौसला देखकर.
मैं परिंदों की हिम्मत पे हैरान हूँ, / एक पिंजरे को उड़ता हुआ देखकर.
खुश नहीं हैं अॅधेरे मेरे सोच में, / एक दीपक को जलता हुआ देखकर.
डर सा लगने लगा है मुझे आजकल, / अपनी बस्ती की आबो- हवा देखकर.
किसको फ़ुर्सत है मेरी कहानी सुने, / लौट जाते हैं सब आगरा देखकर.
02
लक़ीरें खींचने में और फिर उनको मिटाने में, / न जाने क्या मज़ा आता है हमको सर खपाने में.
न हों दो चार मुश्किल सामने तो जी नहीं लगता, / हमें आराम सा मिलता है ख़ुद को आज़माने में.
अँधेरों ने यही समझा कि उनसे डर गए हैं हम, / ज़रा सी देर क्या हम से हुई दीपक जलाने में.
मछलियाँ फ़रियाद लेकर भी कहाँ जाएँ, / समंदर ख़ुद लगा हो जब मछेरों को बचाने में.
गले में जो ग़मों को डाल कर रखता हो मफ़लर सा, / कहीं हम सा भी कोई सरफ़िरा होगा ज़माने मे.
कोई अब आइनों का नाम भी लेता नहीं लेकिन, / क़सीदे जुड़ गए हैं पत्थरों के हर फ़साने में.
बड़ी मुश्किल से हम दो चार ग़ज़लें सिर्फ़ कह पाए, / लगा दी जबकि पूरी उम्र ही लिखने लिखाने में.
मेरी तक़दीर में वो था नहीं, मालूम था दिल को, / मगर दिल साथ देता ही नहीं उसको भुलाने में.
कोई मौसम हमारी नींद के आड़े नहीं आता,कहीं भी सो गए फुटपाथ पर या शामियाने में.
03
इसलिये कि सीरत ही एक सी नहीं होती, / आग और पानी में दोस्ती नहीं होती.
आजकल चराग़ों से घर जलाये जाते हैं, / आजकल चराग़ों से रौशनी नहीं होती.
कोई चाहे जो समझे ये तो खोट है मुझमें, / मुझसे इन अँधेरों की आरती नहीं होती.
तुमको अपने बारे में क्या बताऊँ कैसा हूँ, / मेरी ख़ुद से फ़ुर्सत में बात ही नहीं होती.
कोई मेरी ग़ज़लों को आसरा नहीं देता, / सोच में अगर मेरे सादगी नहीं होती.
शायरी इबादत है, शायरी तपस्या है, / काफ़िये मिलाने से शायरी नहीं होती.
04
रिश्ते हैं पर ठेस लगानेवाले हैं, / सारे मंज़र होश उड़ानेवाले हैं.
अब क्यों माँ को भूखा सोना पड़ता है, / अब तो घर में चार कमानेवाले हैं.
कहने को हमदर्द बहुत हैं, लेकिन सब, / खैनी, गुटखा पान चबानेवाले हैं.
प्यास बुझानेवाला दरिया एक नहीं, / सारे दरिया प्यास बढ़ानेवाले हैं.
पाँव ज़मीं पर पड़ते कब हैं इनके जो, / गाड़ी, बंगला, ठौर ठिकानेवाले है.
नाम सियासत, काम दलाली,क्या कहिए, / सब पुरखों की साख मिटानेवाले हैं.
चाय समौसे,गपशपवाले प्यारे दोस्त, / आख़िर किसका साथ निभानेवाले है.
प्यार मुहब्बत पर करते हैं क्या तक़रीर, / ख़ंजर पे जो आब चढ़ानेवाले हैं.
05
सीरतों पर कौन इतना ध्यान देता है, / ये ज़माना सूरतों पर जान देता है.
सिर्फ़ दौलत की चमक पहचानते हैं लोग, / आदमी को कौन अब पहचान देता है.
आज ये किस मोड़ पर आकर खड़े हैं हम, / बाप पर बेटा तमंचा तान देता है.
तू उसे दो वक़्त की रोटी नहीं देता / सोच में जिस शख़्स के ईमान देता है.
फूल हैं या ख़ार अंतर ही नहीं कोई, / तू महकने के जिन्हें वरदान देता है.
जब कोई अरमान पूरा ही नहीं होना, / आदमी को किस लिये अरमान देता है.
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