गाँव वालों के मन में नाटकों की भूख जगाता मण्डप रंगमंच का ‘देहात पर्व’

                                                              -विजयशंकर चतुर्वेदी, (वरिष्ठ पत्रकार)

दूध वाला सुबह-सुबह दरवाज़े पर घर की मालकिन को पुकारे और जवाब में उसे नाटकीय अंदाज़ में सुनाई दे- ‘मिस्टर काले, आपने कभी अपनी पत्नी को प्रेम-पत्र लिखे हैं?’, तो सोचिए उसके कुतूहल की सीमा क्या होगी! घर का सबसे छोटा बच्चा दोपहर में पुलाव की जगह अपनी माँ से मैगी बनाने की जिद कर रहा हो और अचानक कोई चिल्ला उठे- ‘अपना तो बस एक ही काम है- पेट भर मिठाई चाभना और राम भजन करना.’ सब्ज़ी वाला शाम को ठेले पर आलू, मटर, धनिया, पालक का ताज़ा रेट बता रहा हो और उसके ग्राहक पास के घर से किसी मर्द को सोहर गाते सुनें- ‘इस्क्यूज़ मी प्लीज़, ले लो न! ले धनिया औ मेथी, चौराई औ पालक, हो नेनुआ औ होरहा, हो तुरई औ मुरई, हो कुम्हड़ा औ आदा तुम ले लो न! सब टके सेर ले लो न!’, तो उस सब्ज़ी वाले पर क्या बीतेगी! पड़ोसी रात में अपनी पत्नी से चुहल कर रहा हो और अचानक कोई ललकार उठे- ‘ये पाप भयंकर है, इसमें न पड़ो राजन्‌! लौटा दो सविनय और क्षमायाचना पूर्वक पाण्डव को अक्षवतीजित्‌ पाण्डव का जीता सर्वस्व. यदि किया नहीं तुमने अपने अपराधों का निराकरण, तो अनिवार्य है महाभारत का रण’, तो भला कौन नहीं दहल उठेगा!
जी हाँ, रीवा (मध्य प्रदेश) के ग्रामीण क्षेत्र हिनौता की टीपीएस पब्लिक स्कूल में 28 जनवरी, 2019 को तीन दिवसीय ‘देहात पर्व’ शुरू होने के पहले पूरे गाँव का यही माहौल था. वजह थी यहाँ प्रस्तुत किए जाने वाले नाटकों की तैयारी. कोई स्कूल परिसर में मंच तैयार कर रहा था, तो कुछ तकनीशियन पटना से आए तकनीकी निर्देशक दीपक कुमार की देखरेख में लाइट और साउंड की व्यवस्था में जुटे थे, कलाकार अपने-अपने निर्देशकों के साथ दिन-रात अपने किरदारों में प्रवेश करने की रिहर्सल में लगे थे. सुस्वादु और बघेली ग्रामीण शैली के भोजन- इंदरहर, रिकमच की सब्ज़ी, बग़ल के खेत से सीधे आई मटर वाला पोहा, कचौरी आदि बनाती महिलाएँ कनखियों से आपस में इशारा कर लेती थीं कि यह शादी-ब्याह नहीं तो आख़िर हो क्या हो रहा है. एक ने कहा- ‘नाटक-ऊटक हो रहा है.’ दूसरी ने आश्वति जताई- ‘अच्छा, रामलीला करने वाले हैं’, और वह पिसान मांड़ने में तल्लीन हो गई।
.दरअसल रीवा के मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र ने स्थानीय रावेंद्र प्रताप सिंह शिक्षा सांस्कृतिक समिति के संयुक्त तत्वावधान में रंगमंचीय पर्यटन को फ़रोग देने के मक़सद से यह आयोजन रचा था. मण्डप संस्था के कर्ताधर्ता और भारतेंदु नाटक अकादमी के अध्यापक मनोज मिश्रा बताते हैं कि विंध्य के ग्रामीण केंद्रों में नाटक मेले लगाने के उद्देश्य से यह कदम उठाया गया है, ताकि हमारे स्थानीय, स्थायी, समझदार, विवेकशील और प्रतिबद्ध दर्शक तैयार होते चलें. अपने पैतृक गाँव हिनौता में समारोह की परिकल्पना करने और संचालन-सूत्र संभालने वाले अभिनेता विपुल सिंह गहरवार का कहना था कि अपने पिता जी की स्मृति में कुछ रचनात्मक करने की लालसा इस देहात पर्व की प्रेरणा बनी. यह दूसरा वर्ष है और आयोजन की पहली शाम बघेली कवि-सम्मेलन को समर्पित की गई. श्रीमती रुक्मिणी सिंह, उर्मिला सिंह, सोनल सिंह, विवेक सिंह, राजेंद्र प्रताप सिंह, योगेंद्र सिंह, श्रीराम सिंह आदि ने स्थानीय लोकसभा सांसद जनार्दन मिश्रा के साथ द्वीप प्रज्जवलित करके आयोजन का श्रीगणेश किया.
युवा कवि अमित शुक्ला के जोशीले संचालन में उमेश मिश्र लखन, कामता माखन, प्रोफ़ेसर डॉ. आरती तिवारी, हास्य कवि रामलखन सिंह बघेल महगना, गीतकार डॉ. राजकुमार शर्मा राज ने अपनी रचनाओं से गाँव वालों को मंत्रमुग्ध कर दिया. लोगों का मनोरंजन करने के लिए मिमिक्री कलाकार सिद्धार्थ दुबे भी हाज़िर थे. लोक कवि सुधाकांत बलाला की पंक्तियाँ देखें- ‘कोदौ-कुटकी खाइ के हम तौ समय बिताईथे, हम गँवई के मनई मन से प्रेम लुटाईथे, सबकेऊ मिल जुटि जोग करी कुछु अपने-अपने गाँव मा, मेल-जोल के बात करी कुछु बैठ के पीपर छाँव मा, काहे मनई दिल से छोट है काहे दिल से काला, काहे मनई मनई के दुसमन काहे मुँह पर ताला, काहे भाई-भाई के बीच मा रुंध गै बारी गाँव मा, मटरा जैसन बड़े बड़ेन के मूड़े सीस उनाई थे, हम गँवई के मनई मन से प्रेम लुटाई थे.’
नाटकों की प्रस्तुति दूसरे और तीसरे दिन हुई और मंचन का शुभारंभ लोकरंग समिति, सतना के नाट्य दल ने अपने ‘भाड़ से आए हैं’ नाटक के साथ किया. बादल सरकार लिखित यह नाटक हास्य रस से भरपूर है, जिसका निर्देशन मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित शुभम बारी ने किया. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगकर्मी द्वारिका दाहिया ने अपने जीवंत अभिनय से कुनबे के सरदार का प्रभावी किरदार साकार किया. इस नाटक की विषय-वस्तु हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाती है, जहाँ पैसा-कौड़ी का मूल्य शून्य है और अपना-अपना काम पूरी ईमानदारी से निभाने का आग्रह करने वाले निवासी केवल प्यार को जीवन की कुँजी बताते हैं. लेकिन किसी आदर्श समाज में ढलने का कोई ठोस अथवा व्यावहारिक मॉडल पेश न कर पाने के कारण नाटक में संदेश के अधूरेपन का अहसास होता है. हम जानते हैं कि धनलिप्सा से दूर रहने और सदाचारी जीवन बिताने का उपदेश देना आसान है, लेकिन बुरे पेशों का विकल्प प्रस्तुत करना कठिन होता है. हालाँकि बेचा की भूमिका निभा रहे रोहित खिलवानी और ठगा की भूमिका में अक्षय वालेजा ने अपने चरित्र के साथ पर्याप्त न्याय किया. तबेले की मालकिन के रूप में पायल गुप्ता, नागरिक शुभम पिंजानी, शुभम जैन, होटल मालिक बने कपिल सुंघवानी ने ठीक-ठाक अभिनय किया।
नाटक में पुष्पेंद्र पाण्डे और ढोलक वादक दिवाकर पाण्डेय का गीत-संगीत तथा अभिनेताओं का गायन पक्ष असरदार रहा- ‘मन का पंछी बन के तू अपनी कला के पर लगा, इस ख़ुशी के आसमाँ पे अपने पर तू खोल, उड़ता जाए रे हाए उड़ता जाए रे!’ लेकिन ध्वनि का मिश्रण उपयुक्त न होने से कई बार अभिनेताओं की संवाद अदायगी तेज़ संगीत में दब जाती थी. मंच बाह्य-अंगी होने के चलते अंकित बर्मन की प्रकाश-व्यवस्था बिखर रही थी. वस्त्र-विन्यास सविता दाहिया ने चुना था, जो दूसरी दुनिया के नागरिकों के कोमल और पवित्र मनोभावों को सघन बना रहा था. चरित्रों में विविधता के अभाव के चलते मेक-अप में कुछ खास कमाल दिखाने का अवसर नहीं था, फिर भी पायल गुप्ता का टच-अप दूर से ही चिह्नित किया जा सकता था.
इसके बाद रंग अनुभव ड्रामेटिक आर्ट्स, रीवा ने अपनी प्रस्तुति ‘अस्तित्व’ का मंचन किया. कड़ाके की ठंड में शकुनि, विदुर, पाण्डवों और दुर्योधन व दु:शासन को पूरे वस्त्रों में न पेश करना निर्देशक-कलाकार प्रदीप तिवारी का साहसिक और जोखिम भरा निर्णय था. यह कलाकारों की रंगमंच के प्रति निष्ठा और समर्पण का ही प्रमाण था कि बिना दाँत कटकटाए वे लंबे-लंबे संस्कृतनिष्ठ गीतात्मक संवाद उन पौराणिक चरित्रों की दैहिक भाषा अभिव्यक्त करते हुए बोलते रहे. शकुनि की भूमिका में प्रदीप तिवारी का अभिनय, चेहरे के अवयवों का इस्तेमाल और गले का उतार-चढ़ाव अलग से रेखांकित किया जा सकता था, लेकिन दुर्योधन बने योगेश द्विवेदी अपनी भरपूर ऊर्जा के बावजूद आदि से अंत तक एक ही टोन में क्रोध से चिल्लाकर बात करते रहे. यह निर्देशक की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने कलाकारों को अंक और दृश्यों के मूड के साथ-साथ उन्हें किसी खास सिचुएशन में प्रतिक्रिया देने का अंदाज़ भी सुझाए.
बहरहाल युधिष्ठिर की भूमिका में सत्यम छेत्री निर्णायक द्यूत में पाँसे फेंकते हुए असरदार और गरिमापूर्ण दिखे. अर्जुन बने दिव्यांशु, नकुल बने अंश राजपाल, सहदेव बने अंकुश पटेल को मुण्डी झुकाकर एकाध संवाद बोलने से ज्यादा कोई काम नहीं था. लोक-कल्पना में बसे गदाधारी भीम (भरत तिवारी) को बलवान दिखना चाहिए था, जबकि मंच पर उनका गदा तक नज़र नहीं आया. हालाँकि दु:शासन की भूमिका में अमर द्विवेदी को अपने अभिनय के जौहर दिखाने का ख़ूब मौका मिला. विदुर की भूमिका के साथ विवेक सेन ने अधूरा न्याय किया. उनकी संवाद अदायगी किसी नीतिज्ञ की नहीं, योद्धा की-सी थी. द्रौपदी की भूमिका में अंजली राठौर का अभिनय साधारण रहा. उच्चारण अस्पष्ट होने के कारण उनकी संवाद अदायगी दर्शकों तक पहुँच ही नहीं पाई।
अंकित मिश्रा की प्रकाश-व्यवस्था बेहतर थी. द्यूत-क्रीड़ा के दृश्य में वह विशेष प्रभावकारी सिद्ध हुई. दुर्योधन के अहंकार और हर बार हारने पर युधिष्ठिर की छटपटाहट और पछतावे को उभारने में रोशनी के आरोह-अवरोह ने उत्प्रेरक का काम किया. कास्ट्यूम के नाम पर किरदारों ने कमर के नीचे सिर्फ धोती धारण कर रखी थी और पैरों में आदिवासियों की तरह कड़े पहन रखे थे. बालकृष्ण आरबी और सिद्धार्थ दुबे ने संगीत को प्रभावोत्पादक बनाने का प्रयास किया, विशेष तौर पर नगाड़ों का वादन राजसी माहौल उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हुआ. द्यूतक्रीड़ा के समय द्रुत विलंबित ताल वाद्य सर्वथा संगत और सहभागी बने. द्रौपदी की दारुण दशा के समय तार वाद्य संगीत दिल को चीरने वाला था।
विषयवस्तु के लिहाज से यह नाटक शकुनि के उकसावे पर दुर्योधन द्वारा पाण्डवों को द्यूतक्रीड़ा के लिए बुला भेजने, पाण्डवों की सर्वस्व हार के बाद महात्मा विदुर द्वारा दुर्योधन को नीति का पाठ पढ़ाने, अहंकारी दुर्योधन द्वारा द्रौपदी को बाल पकड़ कर भरी सभा में घसीट लाने का दु:शासन को आदेश देने और द्रौपदी व भीम द्वारा कौरवों का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा लेने का आख्यान है. मगर यह खटकता है कि महाभारत के इस जगतप्रसिद्ध प्रसंग का समकालीकरण क्यों नहीं किया गया. प्रस्तुति भी शीर्षक से मेल नहीं खाती. निर्देशक प्रदीप तिवारी बताते हैं कि यह नाटक तमिल के महाकवि सुब्रमण्यम भारती की एक कविता का रूपांतर है. जो भी हो, कलाकारों ने इसमें अपनी जान उड़ेल दी है. देह के संयोजनों से ही मंच पर हाथी, रथ और सिंहासन साकार कर देना मामूली काम नहीं था. अगर इस नाटक के संवाद अधिक संप्रेषणीय बना दिए जाएँ और द्रौपदी की भूमिका काफी उभार दी जाए, तो आगे की प्रस्तुतियों तथा शीर्षक को औचित्य एवं सार्थकता प्रदान की जा सकती है.
मंचन के लिए दूसरे दिन चुने गए नाटकों की पृष्ठभूमि जहाँ दार्शनिक रही, तो तीसरे और अंतिम दिन के दोनों नाटकों ने विशुद्ध हास्य-व्यंग्य परोसा. मण्डप ने अंकित मिश्रा ने निर्देशन में चंद्रशेखर फणसकलर का लिखा नाटक ‘टैक्स फ़्री’ प्रस्तुत किया, जो अंधों के एक क्लब को केंद्रीय स्थल बनाकर जीवन की संगीन स्थितियों में भी मज़ा लेने को प्रेरित करता है. नाटक लगभग एकांकी के स्वरूप का है, लेकिन इसमें विस्तार और कुतूहल भरपूर है. सभी शौकीन टाइप अंधे बुजुर्ग पात्रानुरूप भाषा बोलते हैं, फिर चाहे वह क्लब का संस्थापक मास्टर केंजरे (अंश राजपाल) हो, गैराज से रिटायर हुआ मैकेनिक विट्ठल पंढरपुर (अंकुश पटेल) हो, सेहत के प्रति सतर्क सजीला अध्यापक रघु जगताप (अमर द्विवेदी) हो, प्रोफ़ेसर सदाशिव काले (सत्यम छेत्री) हो. सबसे आख़िर में क्लब ज्वाइन करने वाले सोनावड़े (दिव्यांशु परिहार) और सन्नाटा (अमित पटेल) को संवाद नहीं दिए गए हैं. इस नाटक में रोशनी दृश्यों की माँग और पात्रों के भावों की परवाह किए बिना क्रम से लाल-पीली-हरी-नीली होती रही. तारीफ करनी होगी अभिनेताओं की कि वे अंधों की भूमिकाएँ स्वाभाविकता से निभाते हुए चेहरे के हाव-भाव सहजता से बदलने में सक्षम रहे. अभिनेता रघु द्विवेदी और सत्यम छेत्री ने इस मामले में बाज़ी मार ली.
चौथी और अंतिम प्रस्तुति रही आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा एक ही दिन में लिखे गए कालजयी प्रहसन ‘अंधेर नगरी’ की. यह भी मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र, रीवा की ही प्रस्तुति थी, जिसे निर्देशक विनोद कुमार मिश्रा ने ‘हरिश्चंद्र के चौपट राजा’ शीर्षक से पूर्ण विदूषक शैली में मंचित करने का निर्णय किया था. अच्छी बात यह रही कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में लिखा गया यह प्रहसन कुछ समकालीन प्रसंगों को समोते हुए प्रस्तुत किया गया. हालांकि वर्तमान चौपट नीतियों और प्रवृत्तियों को सम्मिलित करते हुए इसे और प्रासंगिक बनाए जाने की गुंजाइश और ज़रूरत है. भारतेन्दु ने चौपट राजा के माध्यम से राजनीतिक भ्रष्टाचार, नेतृत्व की अदूरदर्शिता और कौशलहीनता की पोल खोली थी.
वर्तमान समय के राजनीतिज्ञ, उच्चाधिकारी और मठाधीश भी इसी चौपट राजा के वर्ग से सम्बंधित हैं. उनके मूर्खतापूर्ण नियामक कार्य और निर्णय भी गुमराह जनता के लिए आदर्श बन जाते हैं और वे जनता की क्षणिक स्वीकृति को स्वयं के सर्वज्ञ, श्रेष्ठतम और पथ-प्रदर्शक बन जाने का स्थायी हलफनामा मानने लगते हैं. अंग्रेज़ी राज की ही तरह आज के सत्ताधीशों द्वारा भी पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, सदाचार-दुराचार आदि की परिभाषा बदल दी गई है. इसीलिए अंधेर नगरी की प्रस्तुति कभी बासी नहीं होती. हालाँकि मण्डप की प्रस्तुति में बाज़ार का वातावरण इतना लंबा और घसड़पसड़ था कि पात्रों को पहचानना मुश्किल हो गया और चौपट राजा की कई करतूतें संपादित करनी पड़ीं. दर्शक विवेक सिंह का कहना था कि इसके बजाए अगर निर्देशक महोदय वर्तमान परिस्थितियों को लेकर चौपट राजा से दर्शकों का सीधे सवाल-जवाब करवा देते, तो प्रयोग अभिनव और ज़्यादा मज़ेदार हो जाता।
महंत की भूमिका में मनोज मिश्रा सबसे अलहदा दिखाई दिए और आँखों के सामने ही सह-अभिनेताओं की कमजोरी छिपाने में सफल रहे. चेले गोवरधन दास का किरदार निभा रहे विपुल गहरवार ने कई जगह बेहतर इम्प्रोवाइज़ेशन करते हुए दर्शक दीर्घा को मंच से सीधे जोड़ दिया और अपने अभिनय से लोगों को पेट पकड़कर हँसने के लिए मजबूर किया. मूल नाटक के पाँचवें दृश्य में गोवरधन दास का गाया गीत- “अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका से भाजी टका सेर खाजा॥“ वैसे तो राग काफी में है, लेकिन विपुल ने उसे बघेली लोकगीत का रूप देकर मज़ेदार बना दिया. ऐसा अवश्य लगा कि अनुभवी और प्रतिष्ठित कलाकार राजमणि तिवारी भोला को महज एक सिपाही की भूमिका देकर उनकी प्रतिभा को जाया कर दिया गया है. हालाँकि चौपट राजा का किरदार सिद्धार्थ दुबे ने बड़े मज़ाकिया और खिलंदड़े अंदाज़ में निभाया, लेकिन चने वाले की भूमिका में अंकित मिश्रा, नारंगी वाले नीरज मिश्रा और चेला नारायण दास की भूमिका में बालक राजवीर तिवारी को अपने किरदार में थोड़ा और चमक लाने की ज़रूरत है. कसाई बने शंकर दयाल शर्मा कोई पहुँचे हुए कसाई दिखे.
इस प्रस्तुति को कॉस्ट्यूम ड्रामा कहने में भी गुरेज नहीं होना चाहिए. राजा से लेकर, मंत्री, बकरी का मालिक, कल्लू बनिया, चूने वाला, कुंजड़ा, सिपाही, भिश्ती, मछलीवाली, हलवाई, खोमचेवाला, कोतवाल आदि सारे ही पात्र क्लाउन के वेश में थे. कभी वे खुद को राजा का सिंहासन बना देते थे तो कभी अटारी. सोहर जैसी गीतों की लोकशैलियों का प्रभावी इस्तेमाल किया गया. रितेश अग्रवाल का संगीत संयोजन और दिवाकर के ताल वाद्य इस प्रहसन की जान बन कर उभरे. प्रकाश-व्यवस्था बालकृष्ण गौतम ने संभाल रखी थी, जो पात्रों एवं दृश्यों के हल्के-फुल्के मूड के साथ सटीक ढंग से मिश्रित हो रही थी. बीच-बीच में कलाकारों द्वारा स्थानीय बघेली में बोले गए हास्यपूर्ण संवाद दर्शकों को लोट-पोट कर देते थे.
रंगकर्म देहात में हो या शहर में, नाटक से जुड़े सभी विभागों के लोगों को एक पैर पर खड़े रहना पड़ता है और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की कोशिश करनी पड़ती है. यही कारण है कि स्पॉट मार्किंग, अत्याधुनिक प्रकाश व ध्वनि-व्यवस्था तथा समृद्ध मंचीय तामझाम की अनुपस्थिति में भी अभिनेताओं, निर्देशकों और तकनीशियनों ने इस देहात पर्व को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार, कवि एवं रंग समीक्षक विजयशंकर चतुर्वेदी का शॉल एवं पुष्पगुच्छ देकर सम्मान किया गया. वातावरण का सकारात्मक पहलू यह रहा कि आस-पास के गाँवों के लोग आयोजकों से अपने यहाँ भी नाटक करने का बुलावा देते देखे गए।
बड़े-बड़े शहरों में अधिकतर नाट्य-प्रस्तुतियाँ फूहड़ मनोरंजन अथवा सोच को कुंद करने का हथियार बन गई हैं. यथास्थितिवाद और निराशा ने उनकी मानसिकता को अपने कब्ज़े में कर लिया है. ऐसे में गाँव एक बड़ी संभावना है. बदलाव की चाहत में ग्रामीण कला के विविध रूपों को अंगीकार कर रहे हैं. मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र के ‘देहात पर्व’ की उपलब्धि यह है कि फ़िल्म-टीवी के दुष्प्रभाव से लोक-नाट्य के विभिन्न अंगों की विस्मृति के बावजूद गाँवों में सोद्देश्यपूर्ण नाटक देखने की इच्छा जाग रही है. अगर यह अभियान व्यावसायिक चकाचौंध और गिरफ़्त से खुद को बचा ले गया, तो अवश्य ही ‘चलें गाँव की ओर’ का नारा सफल और सार्थक सिद्ध होगा.
विजयशंकर चतुर्वेदी

 

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