होम कविता अर्पण कुमार की कविता – होना विलक्षण, प्रेम में कविता अर्पण कुमार की कविता – होना विलक्षण, प्रेम में द्वारा अर्पण कुमार - September 26, 2021 216 1 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet वह विलक्षण है उसका प्रेम परे है किसी विशेषण से किसी सीमांकन से, विश्वास और अविश्वास दान और प्रतिदान अपेक्षा और उपेक्षा जैसे किसी सरलीकृत द्वैत में रखकर नहीं देखना है उसे अपने प्रेम को, वह बस चाहती चली आ रही है एक लड़के को शुरू से लेकर अबतक और यह तब से है जब पहली बार प्रस्फुटित हुआ था उसके भीतर कोई प्रेमांकुर, कोई रूहानी भाव उतरने लगा था उसके भीतर चुपचाप, कोई मधुर तान यक–ब–यक निकलना चाह रहा था उसके कंठ से, बन–मिट रही थीं जानी–अनजानी कई लहरें उसके मन–सागर में, सुगबुगाया था कोई स्वप्न उसकी अधपकी नींद में, उसके भीतर की चिड़िया पर फैलाना चाह रही थी, समुत्सुक आकाश साँस रोके जिसकी परवाज़ की प्रतीक्षा कर रहा था वह लड़का समझता रहा कुछ नहीं भी, उसके वास्ते लड़की के प्रेम पर मगर इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा वह अटूट प्यार करती रही उसे वह लड़की जिस घर जाकर पगफेरा करना चाहती थी नहीं पहुँच पाई मनोवांछित उस दहलीज़ नहीं लौट पाई कभी अपने मायके, शादी के नाम पर उसे भेज दिया गया किसी अभेद्य–से क़िले में जहाँ किसी भोग्या से अधिक कुछ नहीं समझा गया उसे कभी भी, वह लड़की से औरत बनी कच्ची उम्र में, नहीं सुन पाई कभी प्यार के दो मीठे–कोमल बोल अपनी ससुराल में, बर्दाश्त किया अपने तन पर ज़बरदस्ती के डंक को हर बार, दमन का हथौड़ा टूटता रहा उसपर मगर, नहीं स्वीकार पाई वह नन्हीं जान उस शख़्स की सत्ता को जिसे बताया गया था उसका नियंता, उसका अधेड़ पति ख़ूब अत्याचार करता उसपर उसे भूलने को कहता वह सुनहरा पन्ना उसके अतीत का जिसकी ख़ुशबू के सहारे वह जीती चली आ रही थी किसी नज़रबंद की–सी ज़िंदगी अब तक, सब कुछ सहा उसने चुपचाप मगर नहीं भूल पाई वह अपने पहले प्यार को, नहीं फाड़ पाई उस पन्ने को जिसके एवज़ में जाने कितनी बार तार–तार हुआ उसका वज़ूद, जलाकार स्वयं को उजाले के चंद क़तरों को बटोरती रही हर बार, बहते रहते उसके आँसू अपने आप सूखते रहते उसके आँसू उसे ही बिखरना था स्वयं उसे ही सँभलना था, जाने कैसे–कैसे ताने सहे उसने हर ओर से मगर तानकर कोई अदृश्य चादर प्यार की वह छाँव देती रही अपने घावों को फिर एक दिन वह मंज़र भी आया माँ बनी वह माँ के हिस्से का प्यार ख़ूब–ख़ूब लुटाई अपने बच्चे पर, पूरे किए उसने अपने सारे कर्तव्य रिश्तों की अलगनी से जुड़े थे जितने भी जैसे भी मगर, उस औरत के भीतर साँस लेती रही हरदम एक लड़की जिसने कभी हार नहीं मानी नहीं त्यागे कभी स्वप्न देखने जिसने नहीं छोड़ा चाहना उस लड़के को, वह हृदय में बसाए रही उसे अकारण बिना कोई उम्मीद रखे उससे कोई शिकायत किए बिना उससे, वह औरत पालती रही शिद्दत से अपने भीतर की लड़की को जैसे पाल रही हो कोई माँ अपनी बेटी को, अपनी स्त्री की दुर्बलता को खारिज़ करती रही वह अपने हिस्से आई नियती को भी बार–बार होकर चोटिल अपने विगत प्रेम को स्वीकारते और बसाए हुए अपने मन–आँगन में वह अस्वीकारती चली आ रही है अपना वर्तमान और इसके लिए वह ताक़त पाती है अपने अतीत की उसी स्नेहिल भूमि से जहाँ दो किशोर एक–दूसरे से मिले थे सकुचाते–लजाते हुए जहाँ दो जोड़े नयनों ने पसंद कर लिया था एक–दूसरे को, वह दृष्टि–मिलन अद्भुत था जिसके गवाह थे धरती–आकाश, हवा–धूप, जहाँ कोई ताक़तवर और कमज़ोर नहीं था, जहाँ बस एक लड़का था जहाँ बस एक लड़की थी जहाँ बस प्यार था एक–दूजे के लिए एक–दूजे की आँखों में पहाड़–से अत्याचार के नीचे पिसती हुई वह जैसे स्वयं अडोल–सी हो गई है, प्रेम, जिसके लिए नहीं रहा कभी कोई सौदा वह ऐसी सौदाई थी, किसी मलंग का–सा हो गया है मन उसका, इस दुर्लभ प्रेम–गाथा की रचयिता और नायिका है वह जो भी कहें, विलक्षण है वह और उसका प्रेम भी । संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं बिमल सहगल की कविता- जागी आँखों के सपने योगेंद्र पाण्डेय की कविता – गुलमोहर के फूल आशीष मिश्रा की कविता – शून्य है 1 टिप्पणी अर्पण जी शानदार प्रेम कविता जवाब दें कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.
अर्पण जी शानदार प्रेम कविता