हे राम !
मैं बनना चाहती हूँ
“सीता”
करना चाहती हूँ मन-प्राण से
अनन्य भक्ति
तुम्हारे श्री-चरण की,
चलना चाहती हूँ
तुम्हारे पद-चिन्हों पर
अहर्निश,
पीना चाहती हूँ विष,
झेलना चाहती हूँ वनवास,
छली जाना चाहती हूँ
एक और बार
उस मृगमरीचिका से,
गुजरना चाहती हूँ
सहर्ष ही
वेदना की वीथिका से,
मान लेना चाहती हूँ
अपनी नियति अशोक को
पर मिटाना चाहती हूँ
सदा के लिए
लंका के शोक को
रहे यक्षों के ही निमित्त
हो शांतचित्त,
बनना चाहती हूँ
रावण का
समूल नाश-कारण मैं
बुराई का बुरा परिणाम
देखना चाहती हूँ
जीवन- रण में,
सहूँगी
समर्पण की भी हार
तुम निश्चल- नेह बिसार
अकारण ही कर दो
मेरा परित्याग
लगाओ खूब जीभर
मेरे कोरे आँचल पर दाग
जिसके छोर में
तुमने ही बाँधे
सात वचन,
मेरी मान- मर्यादा-
रक्षा- संकल्प,
पति-व्रत धर्म- धागे,
मैं तोड़ कर वह बन्धन
त्याग एका- शक्ति
हो निढाल
चुपचाप प्रस्थान चाहती हूँ
वैभव विलासिता से,
चकाचौंध से,
मिलने भवितव्यता से
घोर निर्जन वन में
बसना चाहती हूँ
फिर जनना चाहती हूँ
निज कोख से
प्रेम, वात्सल्य
लुटाना चाहती हूँ
तुम्हारे अंश पर,
अब देने चली मैं प्राण
दुनिया के दंश पर,
मेरा मान
निर्भर तुम्हारे वंश पर
कितना सहेजेंगे मुझे
समझेंगे निर्दोष
अथवा वे भी दोष देंगे मुझे
पूर्वधारणा को मान
या लेंगे सत्य का संज्ञान,
मेरे जीने का विधान
मैं शांति से अब
करना चाहती हूँ होम
अपनी इच्छाएँ, अभिलाषाएँ,
हैं मृतप्राय मनुज की सम्वेदनाएँ
सुलगती द्वेष की दुर्भावनाएँ
क्या वे भी संग जलेंगी ?
देना चाहती हूँ
एक अग्नि- परीक्षा
समा जाना चाहती हूँ
धरती माता के अंक
धर सर सम्पूर्ण मिथ्या- कलंक!

हे राम ! सुनो,
हर बार यह अग्नि- परीक्षा
सच मानो ! मुझसे नहीं दी जाएगी ।

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