1 – जीवन की डगर
“बाल सखा विवेक की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाए और  इंतजार करते हमें लगभग साढ़े तीन वर्ष हो गए हैं, रुचिका! कठोर शब्दों के लिए क्षमा चाहता हूँ – या तो वह स्वेच्छापूर्वक कहीं चला गया है, या उसके साथ कुछ ऐसा घटित हुआ कि वह लौट आने में असमर्थ रहा।”
“मेरे मन में भी ऐसी ही आशंकाएँ घर बनाती जा रही हैं। पर किससे कहूँ?” रुचिका निराश थी।
“अनाम रिश्ते की डोर पकड़ कब तक आता-जाता रहूँगा? युवाओं का मेलजोल दस तरह के प्रश्न खड़े करता है। अफवाहों से हलकान माँ मुझे घर बसाने को कह रही हैं। मेरी टालमटोल से उन्हें अकारण शंका हो रही है। आप मेरे प्रस्ताव के बारे में जल्द से जल्द कोई फैसला करें,रुचिका!”, हिम्मत जुटा कर रोहन एक ही साँस में सब कह गया।
रुचिका निरूत्तर बैठी सोचती रही। विवेक के समक्ष एवं बाद में भी रोहन घर में आता-जाता रहा। दोनों में मित्रता तो थी ही, पर उसे विवेक का स्थान देना? पति के लौटने की उम्मीद अभी भी कहीं बाकी थी। फैसला भी करना था, वरना दोस्त और बेटी का अभिभावक खो बैठेगी।
दिल मजबूत कर  कहा, “आपका विवाह मुझसे हुआ तो संग एक जिम्मेदारी भी आयेगी – रुनझुन।”
“जानता हूँ रुचिका! वही तो है मेरा सहज आकर्षण – विवेक की निशानी, जिसकी चिंता मुझे अब तक घर बसाने से रोकती रही। एक जोड़ी बच्चों वाली नई चाँदी की पायल खरीदकर लाया हूँ। अनुमति हो तो उसे पहना दूँ। तुम मेरी जीवनसंगिनी बनना चाहती हो या नहीं, तुम्हारा स्वतंत्र फैसला होगा, वक्त ले लो। पर बिटिया मेरी ही रहेगी। तुम मेरे जीवन में आई तो मेरी पुत्री, नहीं तो मेरी दत्तक पुत्री…”
“अगर मैं कहूँ कि मैं अपनी पुत्री के साथ-साथ अपनी जिम्मेदारी भी आपके कंधे पर डालना चाहती हूँ तो क्या कहोगे?” रुचिका नजरें झुकाए बोली।
2 – हट के
“माँ ! छोटी ने कहा कि आपने मेरे लिए एक चाय वाली पसंद की है! तस्वीर देखी उसकी, शक्ल-सूरत अच्छी है। पर मैं जीवनसाथी के रूप में किसी कामकाजी लड़की की तलाश में था। चाय वाली का क्या मतलब हुआ? क्या वह चाय कॉफी की स्टॉल या कैफे चलाती है?”
“लड़की मेरे स्कूल की पूर्व छात्रा है और मेरे सहकर्मी की बेटी भी। वनस्पति विज्ञान से स्नातक करने के बाद ‘टी-टेस्टर’ का कोर्स किया है। अपने क्षेत्र में बढ़िया काम भी कर रही है। उसकी शर्त है कि शादी के बाद माता-पिता भी उसके साथ ही रहेंगे। बात कहीं बन नहीं पा रही है। लड़का-लड़की के माता-पिता एक ही घर में, जैसे म्यान में दो से अधिक तलवारें! बात बने भी तो कैसे बने? कुछ दिनों पहले उसकी माँ ने स्टाफ रूम में कुछ अंतरंग मित्रों के सामने यह चर्चा की तो मैंने एकांत मिलते ही तुम्हारा नाम सुझाया।”
“ठीक है माँ! पर तस्वीर के साथ बायोडाटा कहाँ है? तिसपर तस्वीर के नीचे छोटी का स्पेशल टैग, ‘कन्या चाय वाली है!’ क्या कहूँ?”
“छोटी का खिलंदड़ापन तू जानता ही है, ऐसी ही है वह। व्हाट्सएप करती हूँ बायोडाटा। विचार कर लो तो मीटिंग भी तय कर दूँगी। इकलौती है, माता पिता के लिए उसकी चिंता उसकी नेक नियति का सबूत लगी मुझे। तभी…”
“तुम शिक्षिका हो, तुमसे वाद-विवाद में कौन कब जीत पाया है,माँ ? मीटिंग फिक्स कर दो। अपने प्रोफेशन के कईयों से मिल चुका हूँ, जरा इस लीक-से-जुदा से भी मिलकर देखा जाए।”
“बेटा! तुझे कैसी लड़की चाहिए, मुझे इसका अनुमान था। उससे मिलने के बाद तुम भी मेरे विश्वास पर विश्वास कर पाओगे..।”
“हो सकता है माँ! तुमसे बेहतर मुझे कोई जानता भी तो नहीं।”
पटना साइंस कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय से जंतु विज्ञान में स्नातकोत्तर। पिछले डेढ़ वर्षों से देश के समाचार पत्रों एवं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लघुकथायें अनवरत प्रकाशित, जैसे वीणा, कथाबिंब, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, आलोक पर्व, प्रखर गूँज साहित्यनामा, संगिनी, मधुरिमा, रूपायन, साहित्यिक पुनर्नवा भोपाल, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, डेली हिंदी मिलाप-हैदराबाद, हरिभूमि-रोहतक, दैनिक भास्कर-सतना, दैनिक जनवाणी- मेरठ इत्यादि। संपर्क - maurya.swadeshi@gmail.com

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