Tuesday, October 8, 2024
होमकहानीजयंती रंगनाथन की कहानी - कच्ची लकड़ी-पक्की लकड़ी

जयंती रंगनाथन की कहानी – कच्ची लकड़ी-पक्की लकड़ी

पीं, पों, पीं, पों…ढमढमढम…चर्रर्रर
सडक़ किनारे दुकान का यही नुकसान है। हर वक्त ट्रैफिक की आवाज। फायदा भी है। छोटे से कस्बे में आवाजाही बस इस सडक़ पर ही रहती है। सो ग्राहक भी दुकान पर टपक पड़ते हैं। बिलकुल बगल में हलवाई की दुकान है। दूसरी तरफ मोटर साइकिल रिपेयरिंग की।
बीचोबीच फर्नीचर की दुकान। बाहर से ही पता चल जाता है। लकड़ी और प्लास्टिक की कुर्सियां, टेबल, तिपाई, मंदिर, टीवी स्टैंड। दुकान के अंदर कतार में लगे सोफे, पलंग और ड्रेसिंग टेबल। लगभग एक ही डिजाइन के। मांग ही कुछ ऐसी है यहां। ज्यादातर लोग शादियों के सीजन में खरीदते हैं।
चार कारपेंटर दुकान के पीछे बने वर्कशॉप में लगे रहते हैं। अगर दुकान के बाहर ट्रैफिक की आवाज आती है, तो दुकान के भीतर घिसाई की, कटाई की, ड्रिलिंग की।
बाहर पता नहीं कितने साल पुरानी तख्ती टंगी है–मनोहर फर्नीचर मार्ट। अकसर लोग दुकान में आ कर मनोहरजी को पूछते हैं। काउंटर के पीछे झल्लाया से बैठा राकेश यह भी नहीं बताता कि मनोहर जी को गुजरे सालों हो गए हैं। मनोहर जी, उनके ससुर, उनकी पत्नी वर्षा के पिता, उसके मालिक, इस नामालूम से कस्बे के एक नामी व्यक्ति।
सडक़ की दाईं तरफ स्टेशन की ओर जो रास्ता जाता है, वहां पहली कोठी मनोहर जी ने बनाई थी।कभी आलीशान रही होगी। अब तो दूर-दूर तक कच्चे-पक्के घर बन गए हैं। उनकी कोठी को भी अब कोई कोठी नहीं कहता। वैसे सच तो यह है कि राकेश को कोई नहीं पूछता। एक वक्त कहा जाता था कि कस्बे में शादी-ब्याह तब तक नहीं होते थे, जब तक वहां मनोहर जी ना पहुंच जाएं। अब कोई राकेश को न्योता तक नहीं भेजता।
क्या इससे राकेश को फर्क पड़ता था? नहीं जी, बिलकुल नहीं। उसे तो इस बात से कोफ्त होती थी कि लोग उसकी दुकान में आते ही क्यों हैं?
राकेश की भी एक कहानी है।
सालों पहले, तकरीबन पच्चीस साल पहले वह ना जाने कहां से यहां आ टपका था। सातेक साल के बच्चे को वैसे भी बहुत कुछ कहां पता होता है? वो भी उन दिनों। राकेश शायद तुतला कर बोलता था, वो भी अजीब सी भाषा में। सांवला रंग, काले घुंघराले बाल, छोटे से कद का वो बच्चा शिवजी के मंदिर के सामने घूमता मिला था।
वहीं कुछ खा लेता, वहीं सो जाता। मनोहर जी की अम्मा सुबह-शाम मंदिर जाती थी। उनका दिल आ गया बालक पर। कई दिनों से वह देख रही थी उसे। समझ गई कि या तो कोई उसे छोड़ गया है, या कहीं से छूट गया है। कितना पूछा, पर अपने बारे में कुछ बता नहीं पाया। मनोहर ने अनुमान लगाया—हमारी तरफ का तो नहीं लगता। देखो अम्मा, कैसी अजीब सी बोली बोलता है वो क्या तामिल जैसी। तुम्हें कुछ साल पहले मैं ले कर गया था ना रामेश्वरम, कुछ-कुछ वहीं का सा लगता है।
अम्मा ने भी सिर हिला दिया।
जब महीने भर तक बच्चे को पूछने कोई नहीं आया, तो अम्मा उसे घर ले आई। नाम भी रख दिया राकेस। अम्मा के हाथ का खाना खा कर राकेश का हुलिया ही बदल गया। रंगत निखर आई। कद बढऩे लगा। शरीर भर गया। वो स्कूल भी जाने लगा। हालांकि मास्टर जी हर दूसरे दिन शिकायत करने घर पहुंच जाते–बालक गड़बड़ी बहुत करता है। स्कूल का काम पूरा करके नहीं देता। ना जाने क्या सोचता रहता है।
अम्मा परेशान हो जाती, ‘मास्टर, अनाथ लडक़ा है। ना जाने इसके सगे वाले कहां हैं? ठीक से पढ़ा दे इसे। कुछ बन जाएगा।’
वैसे धीमी गति का बालक था राकेश, पर मनोहर जी का हर काम फर्राटे से करता  उनके जूतों पर फस्ट क्लास पॉलिश लगाता, रोज रात सिर पर तेल मालिश करता।
बाद में तो मनोहर जी को राकेश की इतनी आदत हो गई कि वे अपने बड़े कमरे में एक खाट डाल कर उसे वहीं सुलाने लगे। राकेश बारहवीं के बाद आगे पढ़ नहीं पाया। मनोहर जी की बड़ी इच्छा थी कि वह कुछ अंग्रेजी बोलना सीख ले। पढ़ाई को छोड़ कर राकेश उनसे दूसरे काम सीख गया।
मनोहर जी की बेटी थी वर्षा। राकेश से दो साल छोटी। बचपन से उसे मिर्गी का दौरा पड़ता था। जाहिर है, मनोहर जी के पास पैसा था, जम कर बेटी का इलाज करवाया। बहुत कम पढ़ पाई वो। शायद जबसे वे राकेश को घर ले कर आए, मन में कहीं ना कहीं यह बात थी कि उसे अपना घर जमाई बना लेंगे।
जयंती रंगनाथन
जयंती रंगनाथन
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार, संपादक एवं कहानीकार हैं. संपर्क - [email protected]
RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest