यह एक सच्चाई है कि कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ और उन्हें पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा। पाँच से सात कमरों में रहने के आदी परिवारों को 10 बाई 12 फ़ुट के टेंट में वर्षों रहना पड़ा। इस कारण उनकी एक पूरी पीढ़ी पैदा नहीं हो पाई। उन पर राजनीति बंद होनी चाहिये। भारत सरकार को एक आयोग का गठन करना चाहिये जो कि यह तय करे कि इस त्रासदी के ज़िम्मेदार कौन लोग हैं। बिट्टा कराटे और यासीन मलिक जैसे लोगों को उनके कृत्यों की सज़ा जल्द से जल्द मिलनी चाहिये। प्रत्येक भारतवासी को कश्मीरी पंडितों से क्षमा मांगनी चाहिये कि जब उन पर आपदा आई तो हम उनकी सहायता के लिये कुछ भी नहीं कर पाए।
भारत में इस समय तीन तरह के लोग हैं – पहले जिन्होंने ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ फ़िल्म देख ली है। दूसरे वो हैं जो अभी तक फ़िल्म देख नहीं पाए हैं और तीसरे अरविंद केजरीवाल जैसे लोग हैं जो कि इस प्रतीक्षा में हैं कि कब विवेक अग्निहोत्री अपनी फ़िल्म को यू-ट्यूब पर रिलीज़ कर दें ताकि वे उसे मुफ़्त देख सकें।
यह तो सच है कि ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ फ़िल्म ने व्यक्ति, समाज, देश सभी को झकझोर कर रख दिया है। बत्तीस वर्षों तक जिन तल्ख़ सच्चाइयों को छिपाया गया था उसे दो टूक लहजे में बिना किसी लाग-लपेट के सिने दर्शकों के सामने परोस दिया है।
फ़िल्म पर अपेक्षित प्रतिक्रियाएं सामने आईं – चाहे वे पत्रकारों की तरफ़ से हों, राजनीतिक दलों की ओर से हों या फिर नेताओं की ओर से। फ़ारुख़ अब्दुल्ला ने कहा कि कश्मीरी पंडितों का जनसंहार एवं पलायन एक साज़िश थी। 1990 की दर्दनाक घटनाओं का इससे बेहतर वर्णन करने वाला कोई दूसरा शब्द हो ही नहीं सकता था – साज़िश! बस सोचने की बात यह है कि साज़िश की किस ने थी। फ़ारुख़ अब्दुल्ला ने उंगली राज्यपाल जगमोहन और वी.पी. सिंह की सरकार पर उठाई है। जबकि हालात कुछ और ही कह रहे हैं।
फ़िल्म की सच्चाई पर भी उंगलियां उठाई गयीं हैं कि विवेक अग्निहोत्री ने उन दर्दनाक घटनाओं का एक ही पहलू दिखाया है। वहां तो मुसलमान भी मरे थे और दूसरे हिन्दू भी मरे थे। और यह बात काँग्रेस और नेशनल कांफ़्रेस के नेता कह रहे हैं। जी… आतंकवादियों की गोली का पहला शिकार तो एक मुसलमान हलवाई था।
हमारे नेता लोग कोई भी वक्तव्य देने से पहले अपनी शर्म-ओ-हया घर की अल्मारी में बंद कर आते हैं। उनसे कोई पूछे भाई आप लोगों को मरने क्यों दे रहे थे? क्या मुसलमानों और अन्य हिन्दुओं की हत्या कश्मीरी पंडितों की मौत और ज़बरदस्ती पलायन का औचित्य साबित कर सकती है? उस समय की सरकारों ने ऐसी हत्याएं होने कैसे दीं? इन दर्दनाक मौतों को देखकर वे लोग रात को सो कैसे लेते थे।
दूसरी बात जो बार-बार उठाई जा रही है कि यह फ़िल्म नहीं प्रोपेगेण्डा है। मगर कोई यह समझा नहीं पा रहा कि यदि फ़िल्म प्रोपेगैण्डा है तो कैसे है। क्या सच बोलना प्रोपेगैण्डा है? इस फ़िल्म में उठाये गये हर एक मुद्दे का सुबूत मौजूद है। तो क्या सच बोलना प्रोपेगैण्डा हो गया? बॉलीवुड तो एक लंबे अरसे से एक एजेण्डे के तहत ही फ़िल्में बना रहा है।
क्या होलोकॉस्ट पर बनी फ़िल्मों में किसी दूसरे पक्ष के सच के बारे में पूछा जाता है? यहूदियों का नरसंहार तो हिटलर और उसके सैनिक कर रहे थे। कुछ जर्मन वहां भी होंगे जिन्होंने यहूदियों को बचाने का प्रयास किया होगा। मगर हमें उन फ़िल्मों में ऐसे सवाल पूछने की आवश्यक्ता महसूस नहीं होती।
एक ज़माना था कश्मीर का इस्तेमाल फ़िल्मों में केवल रोमांस के लिये किया जाता था। जब जब फूल खिले, कश्मीर की कली जैसी फ़िल्मों में कश्मीर केवल सैर सपाटे तक सीमित रखा जाता था।
हिन्दी सिनेमा ने ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा जमुना’ जैसी काल्पनिक फ़िल्मों के ज़रिये डाकुओं को हीरो बनाने का काम शुरू किया। ‘दीवार’, ‘सत्या’ और ‘रईस’ जैसी तमाम फ़िल्मों ने अपराध जगत और अंडरवर्ल्ड को हीरो बनाने का काम किया। ‘मिशन कश्मीर’ और ‘फ़िज़ा’ जैसी फ़िल्में आतंकवादियों को हीरो बनाने का मिशन ले कर निकलीं। ‘हैदर’ और ‘शिकारा’ जैसी लचर फ़िल्मों का काश्मीरी पंडितों की त्रासदी से कुछ लेना देना नहीं था। यानी कि आजतक कोई ऐसी फ़िल्म नहीं बनी थी जिसमें कश्मीरी पंडितों के नरसंहार या पलायन को अपना विषय बनाया हो।
2006 में एक आयोग द्वारा कश्मीर पर एक रिपोर्ट जारी की गयी थी। इस आयोग के अध्यक्ष थे हामिद अंसारी। टाइम्स नाऊ द्वारा इस डॉक्युमेंट को दिखाते हुए बताया गया कि इस आयोग ने कश्मीर घाटी में उन मुसलमानों को स्थापित करने के लिये सिफ़ारिश करते हुए उन्हें नौकरियां और मुआवज़ा देने की बात कही है और कश्मीरी पंडितों के बारे में कहा कि यदि कोई नौकरियां उपलब्ध हों तो उन्हें भी दी जाएं। यह व्यक्ति दो बार भारत का उपराष्ट्रपति बना।
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने विधानसभा में मूर्खतापूर्ण बयान देते हुए ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ को एक झूठी फ़िल्म बताते हुए सवाल खड़ा किया कि देश के प्रधानमंत्री क्यों इस फ़िल्म की पब्लिसिटी कर रहे हैं और पूरी भाजपा इसके पोस्टर लगा रही है। यदि केजरीवाल को ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ को एंटरटेनमेंट टेक्स से छूट नहीं देनी थी तो कोई बात नहीं। मगर विधानसभा में कश्मीरी पंडितों के दर्द का मज़ाक तो नहीं उड़ाना चाहिये था।
वैसे दिल्ली सरकार ने पूर्व में ‘सांढ की आँख’, ‘पी.के.’, ‘83’ और ‘निल बटे सन्नाटा’ जैसी फ़िल्मों का एंटरटेनमेंट टैक्स माफ़ किया है। इन फ़िल्मों के लिये केजरीवाल ने ट्वीट भी किये हैं। तो क्या मान लिया जाए कि केजरीवाल और आम आदमी पार्टी इन फ़िल्मों के पोस्टर लगा रही थी। वैसे फ़िल्म ‘83’ में दिखाया गया कि पाकिस्तानी सेना गोलाबारी रोक देती है ताकि भारतीय सेना के जवान स्कोर सुन सकें। क्या ऐसा हुआ था… क्या यह सच्चाई है? दरअसल एजेण्डा ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ से कहीं अधिक तो भारत के राजनीतिक दलों में दिखाई देता है।
अब सवाल उठता है कि क्या विवेक अग्निहोत्री और उनकी टीम ने अपनी फ़िल्म में केवल झूठ परोसा है। फ़िल्म की कहानी की ओर यदि ध्यान दें तो एक परिवार है जिसका मुखिया है – पुश्कर नाथ (अनुपम खेर)। पुश्कर नाथ अनुपम खेर के पिता जी का नाम था जिसे इस फ़िल्म में ख़ास तौर पर इस्तेमाल किया है। इस परिवार में बेटा, बहू, और दो बेटे शिवा और कृष्णा।
चार दोस्त हैं आई.ए.एस. अधिकारी ब्रह्म दत्त (मिथुन चक्रवर्ती), डी.जी.पी. हरिनारायण (पुनीत इस्सर), पत्रकार विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव), डॉ. महेश कुमार (प्रकाश बेलावड़ी)। ये एक लंबे अर्से के बाद इकट्ठे होते हैं क्योंकि उनके दोस्त पुश्कर नाथ का पोता कृष्णा कश्मीर आने वाला है।
फ़ारुख़ अहमद दार (बिट्टा कराटे) का किरदार निभाया है मराठी कलाकार चिन्मय मंडलेकर ने। वह एक आतंकवादी है और कश्मीरी पंडितों की हत्या करता है और अपने टीवी इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार भी करता है।
पल्लवी जोशी बनी है राधिका मेनन जो की दो लोगों के जीवन पर आधारित है – निवेदिता मेनन और अरुंधति राय। जे.एन.यू. विश्वविद्यालय बन गया है ए.एन.यू. विश्वविद्यालय। पत्रकार विष्णु राम बरखा दत्त पर आधारित है जो वही संवाद बोलता जिनके वीडियो यू-ट्यूब पर बरखा दत्त की आवाज़ में मौजूद हैं। बरखा दत्त इकतरफ़ा एजेण्डा आधारित पत्रकारिता के लिये ख़ासी बदनाम रही हैं। अमित बहल छोटी सी भूमिका में फ़ारुख़ अबदुल्ला के रूप में दिखाई देते हैं।
मेरा मानना है कि किसी भी समाज के बहुसंख्यक शरीफ़ लोगों का कोई महत्व नहीं होता। थोड़े से गुन्डे, मवाली या आतंकवादी उन्हें अपने सामने झुका लेते हैं और वे अपनी इज्ज़त और परिवार की महिलाओं और बच्चों को बचाने में जुट जाते हैं। यह कोई नहीं कह रहा कि कश्मीर घाटी के सभी मुसलमान आतंकवादी हैं। मगर वहीं कश्मीरी पंडितों का भी तो एक दृष्टिकोण है न।
सचिन तेंदुलकर की बैटिंग पर तारीफ़ करने वाले बच्चे की पिटाई सच्ची घटना है क्योंकि एक युवा ने दावा किया है कि वह बच्चा वही है। पति के ख़ून से सने चावल पत्नी को खिलाना अधूरा सच है… क्योंकि असल घटना में बच्चों को भी खाने को मजबूर किया गया था। एअरफ़ोर्स के जवानों की हत्या एक सच्ची घटना है जिसका आरोप सीधे-सीधे यासीन मलिक पर लगा है। आतंकवादियों द्वारा सेना के जवानों की यूनिफॉर्म पहन कर चौबीस या पच्चीस लोगों की हत्या भी सच्ची घटना है। तो फिर झूठ क्या है?
कश्मीर की मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर धमकियां दी जाती थीं। या तो इस्लाम कबूल कर लो, या घाटी छोड़ जाओ या फिर मर जाओ। कश्मीर बनेगा पाकिस्तान के नारे हवा में गूंजते रहते थे। एक वाजिब सवाल यह भी बनता है कि 1990 के बाद जितनी भी सरकारें जम्मु-कश्मीर में बनीं, या फिर केन्द्र में बनीं, उन्होंने कश्मीरी पंडितों को वापिस कश्मीर में बसाने के लिये क्या कदम उठाए। जो फ़ारुख़ अबदुल्ला आज जांच आयोग बिठाने की माँग कर रहे हैं, उन्होंने तब क्यों नहीं बैठाया जब उनकी या उनके पुत्र की सरकार बनी थी?
यह एक सच्चाई है कि कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ और उन्हें पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा। पाँच से सात कमरों में रहने के आदी परिवारों को 10 बाई 12 फ़ुट के टेंट में वर्षों रहना पड़ा। इस कारण उनकी एक पूरी पीढ़ी पैदा नहीं हो पाई। उन पर राजनीति बंद होनी चाहिये। भारत सरकार को एक आयोग का गठन करना चाहिये जो कि यह तय करे कि इस त्रासदी के ज़िम्मेदार कौन लोग हैं। बिट्टा कराटे और यासीन मलिक जैसे लोगों को उनके कृत्यों की सज़ा जल्द से जल्द मिलनी चाहिये। प्रत्येक भारतवासी को कश्मीरी पंडितों से क्षमा मांगनी चाहिये कि जब उन पर आपदा आई तो हम उनकी सहायता के लिये कुछ भी नहीं कर पाए।
बेहतरीन विश्लेषण। हर उस प्रश्न का सिलसिलेवार उत्तर, जिस पर लोग बेवजह की राजनीति करने पर उतारू हैं। यह पहली बार नहीं है कि ऐसा विरोध किया गया है, दरअसल यह उस मानसिकता का परिचायक है जो पूरी तरह हिंदू संस्कृति (और उसे फॉलो करने वाली पार्टी) की विरोधी रही है। फ़िल्म के हर घटनाक्रम पर आपका विवरण सहज ही मंथन योग्य है। कश्मीर फाइल पर आपकी स्पष्ट दूसरी समीक्ष्य कड़ी के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।
नमन। सटीक विश्लेषण । सचमुच सर शरम से झुक गया । किसी ने सच कहा है आतंक शरीफ़ों की सहिष्णुता से बढ़ता है । बहुत सटीक विश्लेषण । कंगन को आरसी क्या? अब भी नकारा जाए तो वो इंसान कहने के लायक़ नहीं….. ।
Congratulations Tejendra ji for raising very pertinent questions.
It is indeed unfortunate and worrisome that the KASHMIRI PANDITS have had to suffer so much. And the redressal is still awaited.
Thanks n regards
Deepak Sharma
नमस्कार तजेंद्र जी
समपदिकय के माध्यम से हर एक सवाल का जबाव बडे ही सुन्दर ढंग से दिया गया है ।पाठकों को बडी उतसुकता से इतजार था ।आप ने सारी शकाएँ दूर कर दी ।ऐसा लग रहा है जैसे आप ने दद महसूस किया है गुणी सहित्य कार की यही पहचान होती हैं आप को साधुवाद।
बहुत अच्छा आलेख। केजरीवाल जैसे नेताओं का ही परिणाम कश्मीरी पंडितों का सामूहिक संहार और पलायन था। यही उस दौर के नेता भी कर रहे थे ,अब तो ये बात स्पष्ट हो गयी है।
” कश्मीर फाइल ” में दिखाए गए सच को जो लोग अतीत समझ के बैठे हैं, ये उनकी सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि ये कभी भी उनका भविष्य हो सकता है, क्योंकि केजरीवाल जैसे नेता अभी हैं।
बहुत अच्छे आलेख के लिए आपको धन्यवाद! एवं बधाई।
यह सिर्फ़ सोशल मिडिया की वजह से संभव हुआ वरना कश्मीर की सच्चाई की तरह इस फ़िल्म को भी दबा दिया जाता। शुरू में किसी भी बड़ी मिडिया हाउस ने फ़िल्म की प्रोमोशन के लिए प्लेटफार्म नहीं दिया पर जब सोशल मिडिया पर हर तरफ़ इसकी चर्चा होने लगी तो टी आर पी के लिए सारे मीडिया हाउस ने ‘The Kashmir Files’ टीम का इंटरव्यू लिया। इससे यही स्पष्ट होता है कि मिडिया हाउसेज़ को बस बिज़नेस से मतलब है। मीडिया को मैं सबसे अधिक ज़िम्मेवार मानता हूँ इस घटना को दबाने के पीछे।
हमेशा की तरह बेहतरीन विश्लेषण एवं सारगर्भित संपादकीय के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।
बहुत ही सटीक और टू दि पॉइंट विश्लेषण किया है. इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. कुछ लोग इसे पचा नहीं पाएंगे क्योंकि यह एक कटु सत्य है. इसकी परवाह किए बिना तेजेन्द्र जी ने अपनी संपादकीय को विशेष धार दी है और बड़ी निर्भीकता से अपनी बात रखी है. बधाई और हार्दिक अभिनंदन
एक सुविचारित संपादकीय के लिए धन्यवाद, सच को बताने के लिए जिस देश में 32 साल लगे, उस देश के दुर्भाग्य को बताने के लिए शब्द कम हैं। आजाद कश्मीर एक सुनियोजित साज़िश है, हमारे तथाकथित स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की। गाँधी को राष्ट्रपिता और नेहरू को गाँधी के कहने पर प्रधानमंत्री बनाया जाना काश्मीर फ़ाइलस की आधारशिला है। शेख अब्दुल्ला तो बस काश्मीर भुनाने के लिए बिठाए गये थे। कश्मीर एक ऐसी रोटी है, जिसे केंद्र की कांग्रेस सरकार और कश्मीरी नेताओं ने पेट भर के खाया। वी पी सिंह के काल में यह घटना हुई, इसीलिए कांग्रेस पर सीधे इल्ज़ाम नहीं आया, पर आधी अधूरी सी वी पी सिंह की सरकार कुछ करने लायक थी भी नहीं। दुःख नपुंसक बनाए गये मीडिया का है, जिसकी नपुंसकता का श्रेय कांग्रेस शासन को जाता है। भाग्य था भारत का जो मोदी जैसा नेता आया, जिसके शासन में यह सच बाहर आया। सोशल मीडिया का भी आभार जिसने इस फिल्म को रुकने नहीं दिया। जो कश्मीर में हुआ, वही बीर भूमि में हो रहा है. इस फ़िल्म ने एक बार गंदी राजनीति के कुरूप चेहरा दिखाया, अब शायद कांग्रेस अगले चुनाव घोषणा पत्र में 370 फिर से लागू करने की बात न कहे. आगे जिम्मेदारी भारत के नागरिकों की है कि इस सत्य को धुँधला न होने दें, पीड़ित पंडितों को न्याय मिलने और भारत के सुनियोजित इस्लामीकरण की प्रक्रिया ख़त्म होने तक.
यह फ़िल्म नहीं हक़ीक़त का पूरा अफ़साना है ।सम्पादकीय का विश्लेषण पढ़कर फिल्म भावनाओं में उतर आई देखने पर दिल को दहलाने वाला मंजर होगा।इस माध्यम से भारत के हर कोने में रहने वाले नागरिकों को उस समय की असलियत का पता चला है जो तत्कालीन राजनीतिक दलों के द्वारा प्रसारित नहीं हो सका ।कश्मीर पर फिल्में बनीं प्रेम कहानी और मधुर संगीत पर आधारित रहीं आतंकवादी ताकतों के षड्यंत्र को उजागर करने वाली फ़ाइल अब खुली है ।
सम्पादकीय में रेखांकित करने वाले बिंदु है साज़िश शब्द पर आपके विचार, फारुख अब्दुल्लाह की कूटनीति हामिद अंसारी की राष्ट्र विरोधी सोच ।और उस समय की लचर केंद सरकार ।आपने सही कहा भारत के हर राजनीतिक दल को, हर देशभक्त को कश्मीरी पंडितों से माफ़ी मांगनी चाहिए और साज़िश में शामिल लोगों पर कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
सच को सच की तरह कहा। सुविचारित, सुचिंतित, महत्वपूर्ण विश्लेषण। सबकी आँखें खोलनेवाला।
दर्द को महसूसने, सहलाने, दूर करने की जरूरत है, राजनीति की लहलहाती आँच पर जला देने की कत्तई नहीं।
अब तो समझें, स्वीकारें, सुधारें सब, बतकुचन में न पड़ें… उनके घावों के और रिसने की वजह न बने।
सटीक सारगर्भित विश्लेषण, एक-एक बात की जड़ तक पहुंचकर आपने प्रश्न उठाए हैं। बदकिस्मती से हमारे यहाँ अच्छाई और सच्चाई की प्रशंसा करने की जगह विरोध किया जाता है और गलत को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया जाता है।यही कह सकते हैं, हे प्रभु उन्हें सद्बुद्धि दे।
सर! कश्मीरी पंडितों के दर्द को लेकर जिस तरह से विवेक अग्निहोत्री जी ने समाज को आइना दिखाने का कार्य किया है, बहुत हद तक आपका सम्पादकीय भी वैसा ही मर्म को झकझोरने और आँख खोलने वाला है। …… साजिश किसकी थी और कैसी थी, इस पर से परदा अब पूरी तरह से हट चुका है। ….. पाँच-सात कमरों में रहने का आदी, मर्यादा और संस्कारों का पोषक, समाज दस बाई बारह फुट के टेंट में रहने को मजबूर और एक पूरी पीढ़ी को जन्म देने से वंचित हुआ। ….. वास्तव में साजिश को समझते हुए विट्टा कराटे और यासीन मलिक जैसे लोगों को कठोर से कठोर सजा देने का समय आ गया है। ….. यह बात जितना मायने रखती है कि आतंकवादियों की हिंसा का पहला शिकार कोई मुसलमान हुआ, क्योंकि यह भी अन्तरराष्ट्रीय साजिश का शायद एक हिस्सा हो सकता है, उससे कहीं अधिक यह बात मायने रखती है कि सचिन तेंदुलकर की बैटिंग की तारीफ़ करने वाले बच्चे को बुरी तरह पीटा गया, मायने यह बात भी रखती है कि पतियों और पिताओं के खून से सने चावल (भात) उनकी पत्नियों और बच्चों को खाने के लिए मजबूर किया गया। नाबालिग बच्चियों की अस्मिता उनके पिता और भाई के सामने उन्हीं के घरों में, यहाँ तक कि खुलेआम चौराहे पर तार-तार की गयी। वहशी और क्रूर दरिन्दों ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं। एअरफोर्स के जवानों की नृशंस हत्या की गयी। आतंकवादियों द्वारा सेना के जवानों की यूनीफॉर्म पहनकर चौबीस-पच्चीस लोगों की जघन्य हत्या कर सेना की वर्दी को कलंकित किया गया। मस्जिदों में बँधे से लाउडस्पीकरों से एलान किया गया कि या तो इस्लाम स्वीकार कर लो, अन्यथा घाटी छोड़ने या मरने के लिए तैयार हो जाओ। ….. ऐसे में किस तरह लोगों ने अपने दीन और धर्म को बचाया होगा ….. सोचकर भी रूह काँप जाती है। ….. विस्थापन से पुनर्स्थापन तक के संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता। सवाल यह नहीं है कि उस समय केन्द्र में किसकी सरकार थी, या किसके समर्थन से सरकार चल रही थी! सवाल यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी स्थिति आयी ही क्यों और फिर ऐसा क्या किया जाये कि ऐसी स्थिति दुबारा न आये। ….. इस त्रासद पीड़ा को आपने जिस तरह शब्द दिया है, उसके बाद मैं बस यही कहना चाहूँगा कि यदि अब भी नहीं चेते तो शायद फिर कभी नहीं चेतेंगे।
सर!आपने कश्मीर फाइल्स पर सुस्पष्ट, सटीक,क्रमबद्ध ढंग से फिल्म और यथार्थ का तुलनात्मक विश्लेषण किया है। यह फिल्म निश्चय ही कश्मीरी पंडितों के दर्द को उभारने में और इसके माध्यम से लोगों को सोचने के लिए विवश करने में कामयाब हुई है।
सर जब मैंने फिल्म देखी तब ऐसा ही महसूस किया था कि हकीकत इससे कहीं ज्यादा खौफनाक रही होगी।आपके लेख ने ओर भी सत्य उजागर किए। इस दर्द को जिस तरह से आपने महसूस किया और लिखा । निशब्द हूं मैं
बेहतरीन विश्लेषण। हर उस प्रश्न का सिलसिलेवार उत्तर, जिस पर लोग बेवजह की राजनीति करने पर उतारू हैं। यह पहली बार नहीं है कि ऐसा विरोध किया गया है, दरअसल यह उस मानसिकता का परिचायक है जो पूरी तरह हिंदू संस्कृति (और उसे फॉलो करने वाली पार्टी) की विरोधी रही है। फ़िल्म के हर घटनाक्रम पर आपका विवरण सहज ही मंथन योग्य है। कश्मीर फाइल पर आपकी स्पष्ट दूसरी समीक्ष्य कड़ी के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।
विरेन्द्र भाई सारगर्भित टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
नमन। सटीक विश्लेषण । सचमुच सर शरम से झुक गया । किसी ने सच कहा है आतंक शरीफ़ों की सहिष्णुता से बढ़ता है । बहुत सटीक विश्लेषण । कंगन को आरसी क्या? अब भी नकारा जाए तो वो इंसान कहने के लायक़ नहीं….. ।
धन्यवाद पद्मा जी। आपने संपादकीय के मर्म को पकड़ लिया है।
Congratulations Tejendra ji for raising very pertinent questions.
It is indeed unfortunate and worrisome that the KASHMIRI PANDITS have had to suffer so much. And the redressal is still awaited.
Thanks n regards
Deepak Sharma
Deepak ji, thanks so much for your continued support.
नमस्कार तजेंद्र जी
समपदिकय के माध्यम से हर एक सवाल का जबाव बडे ही सुन्दर ढंग से दिया गया है ।पाठकों को बडी उतसुकता से इतजार था ।आप ने सारी शकाएँ दूर कर दी ।ऐसा लग रहा है जैसे आप ने दद महसूस किया है गुणी सहित्य कार की यही पहचान होती हैं आप को साधुवाद।
मुक्ति जी, सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
एकदम सही और सारगर्भित संपादकीय
धन्यवाद आलोक
बहुत अच्छा आलेख। केजरीवाल जैसे नेताओं का ही परिणाम कश्मीरी पंडितों का सामूहिक संहार और पलायन था। यही उस दौर के नेता भी कर रहे थे ,अब तो ये बात स्पष्ट हो गयी है।
” कश्मीर फाइल ” में दिखाए गए सच को जो लोग अतीत समझ के बैठे हैं, ये उनकी सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि ये कभी भी उनका भविष्य हो सकता है, क्योंकि केजरीवाल जैसे नेता अभी हैं।
बहुत अच्छे आलेख के लिए आपको धन्यवाद! एवं बधाई।
मधु जी, इस सामयिक चेतावनी के लिए धन्यवाद।
यह सिर्फ़ सोशल मिडिया की वजह से संभव हुआ वरना कश्मीर की सच्चाई की तरह इस फ़िल्म को भी दबा दिया जाता। शुरू में किसी भी बड़ी मिडिया हाउस ने फ़िल्म की प्रोमोशन के लिए प्लेटफार्म नहीं दिया पर जब सोशल मिडिया पर हर तरफ़ इसकी चर्चा होने लगी तो टी आर पी के लिए सारे मीडिया हाउस ने ‘The Kashmir Files’ टीम का इंटरव्यू लिया। इससे यही स्पष्ट होता है कि मिडिया हाउसेज़ को बस बिज़नेस से मतलब है। मीडिया को मैं सबसे अधिक ज़िम्मेवार मानता हूँ इस घटना को दबाने के पीछे।
हमेशा की तरह बेहतरीन विश्लेषण एवं सारगर्भित संपादकीय के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।
आशुतोष आपने एक महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान दिलवाया है। साधुवाद।
बहुत ही सटीक और टू दि पॉइंट विश्लेषण किया है. इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. कुछ लोग इसे पचा नहीं पाएंगे क्योंकि यह एक कटु सत्य है. इसकी परवाह किए बिना तेजेन्द्र जी ने अपनी संपादकीय को विशेष धार दी है और बड़ी निर्भीकता से अपनी बात रखी है. बधाई और हार्दिक अभिनंदन
धन्यवाद भाई रमेश जी।
एक सुविचारित संपादकीय के लिए धन्यवाद, सच को बताने के लिए जिस देश में 32 साल लगे, उस देश के दुर्भाग्य को बताने के लिए शब्द कम हैं। आजाद कश्मीर एक सुनियोजित साज़िश है, हमारे तथाकथित स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की। गाँधी को राष्ट्रपिता और नेहरू को गाँधी के कहने पर प्रधानमंत्री बनाया जाना काश्मीर फ़ाइलस की आधारशिला है। शेख अब्दुल्ला तो बस काश्मीर भुनाने के लिए बिठाए गये थे। कश्मीर एक ऐसी रोटी है, जिसे केंद्र की कांग्रेस सरकार और कश्मीरी नेताओं ने पेट भर के खाया। वी पी सिंह के काल में यह घटना हुई, इसीलिए कांग्रेस पर सीधे इल्ज़ाम नहीं आया, पर आधी अधूरी सी वी पी सिंह की सरकार कुछ करने लायक थी भी नहीं। दुःख नपुंसक बनाए गये मीडिया का है, जिसकी नपुंसकता का श्रेय कांग्रेस शासन को जाता है। भाग्य था भारत का जो मोदी जैसा नेता आया, जिसके शासन में यह सच बाहर आया। सोशल मीडिया का भी आभार जिसने इस फिल्म को रुकने नहीं दिया। जो कश्मीर में हुआ, वही बीर भूमि में हो रहा है. इस फ़िल्म ने एक बार गंदी राजनीति के कुरूप चेहरा दिखाया, अब शायद कांग्रेस अगले चुनाव घोषणा पत्र में 370 फिर से लागू करने की बात न कहे. आगे जिम्मेदारी भारत के नागरिकों की है कि इस सत्य को धुँधला न होने दें, पीड़ित पंडितों को न्याय मिलने और भारत के सुनियोजित इस्लामीकरण की प्रक्रिया ख़त्म होने तक.
शैली जी आपने बहुुत सी राजनीतिक गतिविधियों का अनावरण किया है। धन्यवाद।
यह फ़िल्म नहीं हक़ीक़त का पूरा अफ़साना है ।सम्पादकीय का विश्लेषण पढ़कर फिल्म भावनाओं में उतर आई देखने पर दिल को दहलाने वाला मंजर होगा।इस माध्यम से भारत के हर कोने में रहने वाले नागरिकों को उस समय की असलियत का पता चला है जो तत्कालीन राजनीतिक दलों के द्वारा प्रसारित नहीं हो सका ।कश्मीर पर फिल्में बनीं प्रेम कहानी और मधुर संगीत पर आधारित रहीं आतंकवादी ताकतों के षड्यंत्र को उजागर करने वाली फ़ाइल अब खुली है ।
सम्पादकीय में रेखांकित करने वाले बिंदु है साज़िश शब्द पर आपके विचार, फारुख अब्दुल्लाह की कूटनीति हामिद अंसारी की राष्ट्र विरोधी सोच ।और उस समय की लचर केंद सरकार ।आपने सही कहा भारत के हर राजनीतिक दल को, हर देशभक्त को कश्मीरी पंडितों से माफ़ी मांगनी चाहिए और साज़िश में शामिल लोगों पर कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
प्रभा जी आपने एकदम सही कहा है कि हर देशभक्त को कश्मीरी पंडितों से माफ़ी मांगनी चाहिये।
सच को सच की तरह कहा। सुविचारित, सुचिंतित, महत्वपूर्ण विश्लेषण। सबकी आँखें खोलनेवाला।
दर्द को महसूसने, सहलाने, दूर करने की जरूरत है, राजनीति की लहलहाती आँच पर जला देने की कत्तई नहीं।
अब तो समझें, स्वीकारें, सुधारें सब, बतकुचन में न पड़ें… उनके घावों के और रिसने की वजह न बने।
अनिता आपने सही कहा है कि दर्द को महसूसने, सहलाने और दूर करने की ज़रूरत है।
सटीक सारगर्भित विश्लेषण, एक-एक बात की जड़ तक पहुंचकर आपने प्रश्न उठाए हैं। बदकिस्मती से हमारे यहाँ अच्छाई और सच्चाई की प्रशंसा करने की जगह विरोध किया जाता है और गलत को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया जाता है।यही कह सकते हैं, हे प्रभु उन्हें सद्बुद्धि दे।
उषा जी सारगर्भित टिप्पणी के लिये धन्यवाद
सर! कश्मीरी पंडितों के दर्द को लेकर जिस तरह से विवेक अग्निहोत्री जी ने समाज को आइना दिखाने का कार्य किया है, बहुत हद तक आपका सम्पादकीय भी वैसा ही मर्म को झकझोरने और आँख खोलने वाला है। …… साजिश किसकी थी और कैसी थी, इस पर से परदा अब पूरी तरह से हट चुका है। ….. पाँच-सात कमरों में रहने का आदी, मर्यादा और संस्कारों का पोषक, समाज दस बाई बारह फुट के टेंट में रहने को मजबूर और एक पूरी पीढ़ी को जन्म देने से वंचित हुआ। ….. वास्तव में साजिश को समझते हुए विट्टा कराटे और यासीन मलिक जैसे लोगों को कठोर से कठोर सजा देने का समय आ गया है। ….. यह बात जितना मायने रखती है कि आतंकवादियों की हिंसा का पहला शिकार कोई मुसलमान हुआ, क्योंकि यह भी अन्तरराष्ट्रीय साजिश का शायद एक हिस्सा हो सकता है, उससे कहीं अधिक यह बात मायने रखती है कि सचिन तेंदुलकर की बैटिंग की तारीफ़ करने वाले बच्चे को बुरी तरह पीटा गया, मायने यह बात भी रखती है कि पतियों और पिताओं के खून से सने चावल (भात) उनकी पत्नियों और बच्चों को खाने के लिए मजबूर किया गया। नाबालिग बच्चियों की अस्मिता उनके पिता और भाई के सामने उन्हीं के घरों में, यहाँ तक कि खुलेआम चौराहे पर तार-तार की गयी। वहशी और क्रूर दरिन्दों ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं। एअरफोर्स के जवानों की नृशंस हत्या की गयी। आतंकवादियों द्वारा सेना के जवानों की यूनीफॉर्म पहनकर चौबीस-पच्चीस लोगों की जघन्य हत्या कर सेना की वर्दी को कलंकित किया गया। मस्जिदों में बँधे से लाउडस्पीकरों से एलान किया गया कि या तो इस्लाम स्वीकार कर लो, अन्यथा घाटी छोड़ने या मरने के लिए तैयार हो जाओ। ….. ऐसे में किस तरह लोगों ने अपने दीन और धर्म को बचाया होगा ….. सोचकर भी रूह काँप जाती है। ….. विस्थापन से पुनर्स्थापन तक के संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता। सवाल यह नहीं है कि उस समय केन्द्र में किसकी सरकार थी, या किसके समर्थन से सरकार चल रही थी! सवाल यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी स्थिति आयी ही क्यों और फिर ऐसा क्या किया जाये कि ऐसी स्थिति दुबारा न आये। ….. इस त्रासद पीड़ा को आपने जिस तरह शब्द दिया है, उसके बाद मैं बस यही कहना चाहूँगा कि यदि अब भी नहीं चेते तो शायद फिर कभी नहीं चेतेंगे।
आपने तो संपादकीय की बेहतरीन समीक्षा कर दी है भाई चन्द्रशेखर तिवारी जी।
इस निष्पक्ष और बेबाक संपादकीय के लिए मैं आपको सैल्यूट करती हूं सर।
धन्यवाद दिव्या
सर!आपने कश्मीर फाइल्स पर सुस्पष्ट, सटीक,क्रमबद्ध ढंग से फिल्म और यथार्थ का तुलनात्मक विश्लेषण किया है। यह फिल्म निश्चय ही कश्मीरी पंडितों के दर्द को उभारने में और इसके माध्यम से लोगों को सोचने के लिए विवश करने में कामयाब हुई है।
सारगर्भित टिप्पणी के लिये धन्यवाद जया
सर जब मैंने फिल्म देखी तब ऐसा ही महसूस किया था कि हकीकत इससे कहीं ज्यादा खौफनाक रही होगी।आपके लेख ने ओर भी सत्य उजागर किए। इस दर्द को जिस तरह से आपने महसूस किया और लिखा । निशब्द हूं मैं
धन्यवाद अंजु। आपकी प्रतिक्रिया महसूस कर पा रहा हूं।