Wednesday, September 18, 2024
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प्रगति गुप्ता की कहानी – इसको क्या कहेंगे!

घटना अभी ताजी ही थी, तभी डॉ. कृतार्थ को रह-रह कर याद आ रही थी। उसके लिए इस हादसे से बिखरे शून्य को तोड़ पाना, इतना आसान नहीं था। उसका कार्यक्षेत्र ही ऐसा था कि मरीज़ की शारीरिक जाँचे करते-करते उसकी और उसके साथ आए संबंधियों की मानसिकता को वह टटोलने लगता। उसे न जाने कितनी ही बार इलाज की सफलता के लिए उनकी मानसिक और शारीरिक सोच की भी मरम्मत करनी पड़ती। 
जितना वह भूलने की कोशिश कर रहा था, गुज़री हुई घटनाएं प्रकट होने लगीं। उस किशोरी की खामोशी में पसरा हुआ शोर जब बढ़ने लगा था। उसके मन-मस्तिष्क में माँ की मंदबुद्धि लोगों के लिए लिखी हुई कविता भी अकस्मात उलट-पलट करने लगी थी-   
“तुम्हारा न बोलना,सुनना या समझ पाना/ उन लोगों से कहीं खूबसूरत है/ जो स्वार्थनिहित बोल-बोलकर/ गंद ही कहते, सुनते हैं.. / उनकी दुनिया में वे सिर्फ़, स्वयं के लिए जीते हैं…/ ऐसे मनुष्य भी क्या मनुष्य होते हैं?… 
ईश्वर प्रदत्त विकलाँगताएँ/ नैसर्गिक-सी होती हैं/ उन्हें स्वीकार कर बढ़ना/ ईश्वर की ही चाहना होती है…/ तभी तो अक्षम कोई हो/ उसकी आँखों या भावों में/ सिर्फ़ खूबसूरती बसती है../ इसे महसूस कर पाना भी/ अपने–अपने हुनर की बात होती है…।” 
घर के संस्कारों का प्रभाव इतना प्रबल था कि चाहे-अनचाहे वह मरीजों से जुड़ जाता था।  पंद्रह दिन पहले की ही तो बात थी। जिस छोटे से प्राइवेट अस्पताल में वह काम करता था, घटना वहीं घटी थी। 
उस रोज इमरर्जेन्सी से ‘गैली’ नाम की मरीज़ा को देखने के लिए उसके पास कॉल आया था। कृतार्थ ने अपने सामने पड़ी हुई पर्ची पर जैसे ही मरीज़ा का नाम “गैली” पढ़ा, उसे अच्छा नहीं लगा। पर्ची के साथ एक छोटी स्लिप लगी थी।… ‘मरीज को साँस लेने में तकलीफ़। छाती रोग के विशेषज्ञ डॉ. कृतार्थ को दिखाना है।’ 
आज जब नाम रखने के लिए व्यवसायिक मदद ली जाती है या गूगल छाना जाता है, ऐसे में गैली नाम रखना एकाएक उसे परिवार का खानापूर्ति करने जैसा लगा। प्रायः कुछ लोग नाम रखते समय ज्यादा नहीं सोचते। वे बच्चे की हरकतों को देखकर भी उसके अनुरूप नाम रख देते हैं। कृतार्थ सोच रहा था कि जिस नाम से नकारात्मक तरंगों की ध्वनि गूँजती हो,  उसे नहीं रखना चाहिए। अचानक कृतार्थ की नज़र पास आती हुई मरीज़ा पर पड़ी। कृशकाय, अस्त-व्यस्त बालों वाली किशोरी का उसके तन-मन पर बस नहीं चल रहा था। साँसों के उतार-चढ़ाव में व्यवधान होने से वह बहुत बेचैन थी। बैठने का कहने पर भी, वह बैठ नहीं पाई। किशोरी के साथ आई उसकी दादी ने जिस सख्ती से पकड़कर उसे कुर्सी पर बैठाने की कोशिश की, निर्मम था। कृतार्थ के लिए उसे गैली पुकारना संभव नहीं था। उसने प्यार से कहा-
“बेटा! बस थोड़ी-सी देर के लिए हिम्मत करके कुर्सी पर बैठने की कोशिश करो। तुम्हारी जाँच करनी हैं। जल्द ही तुम्हारा इलाज शुरू करेंगे, और तुम ठीक होने लगोगी।”
कृतार्थ की बात सुनकर किशोरी ने हौले से मुस्कराने की कोशिश की। मगर वह निढाल होकर हाँफ़ने लगी। एकाएक उसके आँखों की नमी कोरों से उतर पड़ी। वह अपनी बढ़ी हुई तकलीफ़ की वजह से बुरी तरह पस्त थी। कृतार्थ को उसके हालात देखकर अंदेशा हुआ कि उसे सिर्फ़ फेफड़ों से जुड़ी बीमारी नहीं है। उसने मरीज़ा के परिवारिजन की ओर देखते हुए कहा-
“सबसे पहले इसका एक्स-रे और अन्य जरूरी जाँच करेंगे। फिर जैसा जाँचों में आएगा, इलाज शुरू कर देंगे।”  
अब कृतार्थ ने आदतानुसार मरीज और उसके परिवारिजन की प्रतिक्रियाओं पर भी गौर किया। किशोरी की आँखों में खुद को जल्द ठीक करने की याचना थी। प्रारंभिक जाँचें करने के बाद उसने रिश्तेदारों से पूछा-
“यह दिक्कत कब से शुरू हुई है?”
किशोरी का पिता कुछ बोलता उससे पहले उम्रदराज दादी ने रूखे स्वरों में उत्तर दिया-
“बहुत दिनों से इसकी छाती में दर्द और खाँसी है। बीस-पच्चीस दिनों से इसकी साँसे ऊँची-नीची चल रही हैं? गाँव में वैधजी को दिखाया था, मगर फ़र्क नहीं पड़ा। लड़की कई रातों से जाग रही है। लेटते ही उठकर बैठ जाती है। न सोती है, न सोने देती है।” 
किशोरी को स्थिर होकर बैठने में परेशानी हो रही थी। एकाएक दादी किशोरी को झिड़कते हुए फुसफुसाई- “तसल्ली से बैठ लड़की!
कृतार्थ ने उसकी बातें सुनते हुए जाँचे करना जारी रखा। उसने किशोरी से जो भी प्रश्न किये, वह जवाब देने में आंशिक रूप से सक्षम थी। वह न सिर्फ़ दिमागी तौर पर कमजोर थी, बल्कि उसे किन्हीं वजहों से न्यूमोथोरैक्स भी हुआ था। बहुत पूछने पर भी जब दादी और पिता किशोरी की बीमारी से जुड़ी जानकारी नहीं दे पाए, कृतार्थ ने गाँव वाले डॉक्टर की रिपोर्टस दिखाने को कहा। वे लापरवाही से बोले-
“इसकी रिपोर्टस तो हम गाँव ही भूल आए हैं डॉक साहिब! कल आपको लाकर दिखा देंगे।”
उनका जवाब सुनकर कृतार्थ ने तनिक गुस्से में कहा-
“किशोरी की तबीयत जब इतने दिनों से खराब थी… आपको अस्पताल लाना चाहिए था। ऐसी बीमारी में जल्द से जल्द विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए। आपके कोताही बरतने से ही मरीज के हालात बिगड़ गए हैं। इसका फेफड़ा फट गया है। इसकी छाती में हवा भर गई है। जल्द ही ट्यूब डालनी होगी, ताकि हवा निकाली जा सके। ऐसा करने के बाद ही उसे अच्छे से साँस आएगी। और हाँ!… एक और जरूरी बात, ट्यूब आई.सी.यू. में ही डाली जाएगी। बच्ची की चार से पाँच दिन खूब देखभाल करनी होगी। इसके ठीक होने के बाद ही आप घर ले जा सकते हैं।” 
कृतार्थ ने जल्द इलाज शुरू करने की अनुमति लेने के उद्देश्य से किशोरी के पिता और दादी  की ओर देखा। जब उसे उनके चेहरे प्रतिक्रियाहीन नजर आए, उसने अपनी बात को कड़ाई से दोहराया- 
“आपकी बच्ची के लिए साँस लेना दूभर हो रहा है। हमें जल्द इलाज शुरू करना चाहिए। इसके हालात सामान्य नहीं हैं। आप जल्द ही निर्णय लेकर सहमति पत्र पर भी हस्ताक्षर करिए।”
डॉक्टर की बात को नज़रंदाज़ कर दादी उसकी दशा बताने लगी-
“यह गैली लेटे-लेटे झटके से उठ जाती है। इसका दिमाग भी सही से काम नहीं करता। कभी ठीक होती है। नहीं तो पगलेट-सी सारे घर में घूमती है। बचपन से ही ऐसी है। बोलती है तो बोलती ही जाती है, गुम हो जाए तो तीन-चार दिनों तक गुमसुम पड़ी रहती है।”
कृतार्थ को दादी द्वारा किशोरी के बताए विवरण से उसका “गैली” नामकरण होना काफी स्पष्ट हो गया था। वे फिजूल की बातों में अपना समय जाया कर रहे थे। उनकी हरकतों से लग रहा था कि उन्हें किसी भी निर्णय तक पहुँचने की कोई जल्दी नहीं है। उसने तनिक खीजते हुए किशोरी की दादी से पूछा-
“आपने इससे दिमाग के इलाज़ के लिए मनोरोग-चिकित्सक को दिखाया था?”
“नहीं दिखाया डॉक साहब! गाँव में सबने कहा जादू-टोटका करवा लो। वही करवाया, मगर इसकी दशा नहीं सुधरी।” एक गहरी साँस लेकर रूखे स्वरों में वह अपना स्वार्थ उगलते हुए बोली-
“हमारे पास इतना रुपया भी नहीं है कि अस्पतालों के चक्कर लगाते फिरें। मैं इस बुढ़ापे में बहुत दिन अस्पताल में नहीं रुक पाऊँगी डॉक साहिब।” 
“आप तो बस ट्यूब डाल दो, फिर हम घर जाएँगे।”… अबकी बार लड़की का पिता बोला था। 
कृतार्थ अभी तक उनकी सोच को अज्ञानता से जोड़ ही रहा था। जब उनकी अंतिम बात पर उसने गौर किया, तब परिवार की मानसिकता कुछ अधिक स्पष्ट हुई। उसने कड़े स्वरों में किशोरी के पिता से कहा-
“अब मैं आप दोनों की बाकी सब बातें बाद में सुनूँगा। आपकी सहमति से पहले ट्यूब डालेंगे, ताकि मरीज को आराम आए। इस बीमारी में अस्पताल से जल्दी छुट्टी लेना, मरीज के लिए ठीक नहीं है। मरीज के इस बीमारी से उबरने के बाद मैं आपको दिमाग के इलाज के लिए भी अच्छा डॉक्टर बता दूँगा।”
डॉक्टर की बात सुनकर जैसे ही किशोरी के पिता ने अपनी माँ की ओर देखा, उसने सिर हिलाकर सहमति दे दी। कृतार्थ स्टाफ को बुलाकर थिएटर से जुड़े निर्देश दे ही रहा था कि दादी की आवाज गूँजी-
“डॉक साहब! इसका इलाज शुरू करने से पहले हमें सारा खर्चा बता दो।”
कृतार्थ को उनके पहनावे से ऐसा नहीं लगा कि वे इलाज नहीं करवा सकते। लड़की के पिता के हाथ में कम कीमत का ही सही, मगर स्मार्ट फोन था। अब वे बेकार की बातों में समय जाया कर रहे थे, और कृतार्थ से किशोरी की बेचैनी देखी नहीं जा रही थी। उसने सभी खर्चों को कम करवा कर प्राइवेट में होने वाला खर्च बता दिया। साथ ही उसने कहा-
“आप चाहे तो सरकारी अस्पताल में भी दिखा सकते हैं। जो भी करना है, जल्द से जल्द  निर्णय लें। नहीं तो इसकी जान को खतरा भी हो सकता है।”
कृतार्थ के समझाते ही एक और नई बात सामने आई। दादी हड़बड़ाती हुई बोली-
“डॉक साहब! हम पहले वहीं गए थे, अब नहीं जाएँगे। हमें वहाँ कोई बड़ा डॉक्टर नहीं मिला। दो घंटे बैठे रहे, किसी ने नहीं देखा। भीषण गर्मी में बरामदे में बैठे-बैठे बस हमारे प्राण ही नहीं निकले।”
दादी को भीषण गर्मी में खुद के प्राणों के छूटने की तो चिंता थी, मगर किशोरी की टूटती साँसों की नहीं। किशोरी के परिवार की मंशा समझ आते ही कृतार्थ ने उन्हें पुनः समझाने की कोशिश की-
“अस्पताल अगर मेरा होता तो और भी रुपया कम कर देता। मैं फिर भी कोशिश करूँगा।  अगर कुछ और कम हो सकता होगा, तो करवा दूँगा। प्राइवेट अस्पताल में इससे कम खर्च नहीं होगा। आप चाहे तो पता कर सकते हैं।”
अचानक किशोरी ने तेजी से उखड़ती साँसों के साथ अपनी दादी का हाथ कसकर पकड़ लिया। दादी ने बेरुखी भरे स्वरों में कहा-
“आप इलाज शुरू करो डॉक साहब! हम रूपयों का कुछ न कुछ इंतजाम करेंगे।”
परिवार के व्यवहार में फिलहाल खर्च और खुद के आराम की चिंता थी। तभी अचानक कृतार्थ को दादी की बुदबुदाहट सुनाई दी-
“जब से पैदा हुई है, इसने परेशानियाँ ही बढ़ाई हैं। अभी भी.. !”
दादी आगे कुछ बोलती, उससे पहले ही किशोरी ने टूटते हुए स्वरों में दादी से कहा- 
“अम्मा! साँस नहीं आ रही; कुछ तो कर। मर जाऊँगी मैं।” 
अपनी करुण गुहार लगाकर, किशोरी ने पिता की ओर भी मासूमियत से देखा। ऐसे में भोली किशोरी को क्या समझ आया! क्या नहीं! कृतार्थ को नहीं पता, मगर वह स्वयं कहीं भीतर तक हिल गया था। जैसे ही उन्होंने सहमति दी, वह अपने विचारों को झटक कर आई.सी.यू. की ओर बढ़ गया। 
आई.सी.यू में नर्सिंग स्टाफ ने किशोरी को प्रसीजर के लिए तैयार कर बेड पर लेटा दिया। कृतार्थ जैसे ही उसके पास पहुँचा, उसने हाँफते हुए हुए कहा-
“मुझे साँस नहीं आ रही, बचा लो।”
कृतार्थ ने उसकी करुण पुकार सुनकर उसे साँत्वना देते हुए कहा- 
“तुम ठीक हो जाओगी! बस हिम्मत रखो; कुछ नहीं होगा तुम्हें!”
कृतार्थ ने लोकल एनेस्थीसिया दिलवा कर जैसे ही फेफड़ों में ट्यूब डाली, थोड़ी देर बाद किशोरी की साँसों ने धीमे-धीमे कर सुचारू रूप से चलना शुरू कर दिया। उसका सिकुड़ा हुआ फेफड़ा भी धीरे-धीरे फैलकर सामान्य होने लगा। किशोरी के हालात सुधरने लगे। वह लंबे समय से बेहाल थी। साँस सुचारु रूप से चलने से वह गहरी नींद में चली गई। 
सात-आठ घंटे गुजरने के बाद जब वह राउन्ड पर आया, उसे किशोरी होश में आते हुए दिखाई दी। वह कुछ अर्नगल बातें करने लगी। फिर एकाएक शांत होकर कृतार्थ को ताकने लगी, मानो उसकी आँखों में कृतज्ञता के भाव तैर गए हों। 
तीन दिन गुजरने के बाद जब कृतार्थ ने वापस एक्सरे करवाया। उसे महसूस हुआ कि मरीज़ा पहले से बेहतर है, मगर एक-दो दिन अस्पताल में रहने के बाद, और अधिक स्वस्थ हो जाएगी। कृतार्थ को संशय था कि दिमाग से कमजोर किशोरी का घर पर ख्याल नहीं रखा जाएगा। उसकी दादी और पिता को तो पहले दिन से ही उसे घर ले जाने की जल्दी थी। उसने मरीज़ा के हालात की जानकारी देते हुए कहा-
“किशोरी के हालात अब पहले से बेहतर हैं, मगर अभी इसे एक-दो दिन और निगरानी में रखना होगा। इसका फेफड़ा जब अच्छे से काम करने लगेगा, हम नल्की हटा देंगे। छुट्टी भी दे देंगे।”
डॉक्टर की बात सुनते ही दादी के चेहरे के भाव बदल गए। उसने तनिक विरोधी स्वरों में  कहा-
“गैली अगर ठीक है, हम उसे घर ले जाएँगे। मैं अब अस्पताल में नहीं रुकूँगी। इसकी माँ गाँव में है। वही इसका ख्याल रखेगी। हमारा गाँव बहुत दूर नहीं है। हम तीन-चार दिन बाद वापस दिखाने आ जाएँगे। अभी तो…”
कृतार्थ को दादी का व्यवहार बहुत कठोर लगा। उसने स्वयं से कहा- ‘जब किशोरी की माँ को ही उसका ख्याल रखना है, तो दादी मरीज़ा के साथ क्यों आई?’ उसने किशोरी के पिता की ओर देखकर कहा-
“आप गाँव से इसकी माँ को बुला लें। किशोरी को अस्पताल में ही भर्ती रहने दें। अभी बच्ची पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। उसका अपने दिमाग पर बस नहीं है। उसने नासमझी में ट्यूब खींच दी तो मुश्किलें बढ़ जाएँगी। वापस ट्यूब डालना बहुत तकलीफदेह होता है।”
कृतार्थ की बात को सुनकर भी अनसुना करते हुए किशोरी के पिता ने कहा-
“डॉक साहब! हम ध्यान रख लेंगे। वह ट्यूब नहीं खींचेगी। इसकी माँ ध्यान रख लेगी। आप तो…”
कृतार्थ ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की। जब वह टस से मस नहीं हुए, उसने किशोरी की पर्ची पर लिख दिया कि ‘मरीज़ा के परिवार ने उसे भर्ती रखने से मना कर दिया है। वह उसे ले जाना चाहते हैं।’ इसके अलावा कृतार्थ ने उन्हें ट्यूब का कैसे ध्यान रखना है, वह भी समझा दिया।  
अगले दिन सवेरे जब कृतार्थ अस्पताल में राउन्ड ले रहा था, किशोरी अपने बेड पर नहीं थी। कृतार्थ को बेहद अफसोस हुआ। वह किसी हद तक ही मरीज को समझा सकता था। अभी दो दिन ही गुजरे होंगे कि आउटडोर में उसे वापस वही लोग किशोरी को लेकर आते हुए दिखाई दिए। 
जैसे ही किशोरी को लेकर वह नजदीक आए, कृतार्थ की आँखें उसके हालात पर जम गई। लड़की तड़प रही थी, यानि उसका फेफड़ा वापस फट गया था। कृतार्थ जानता था कि किसी भी मरीज के फेफड़ों में वापस ट्यूब डालने में कितनी पीड़ा होती है!… जैसे ही दादी ने बुड़बुड़ाते हुए कहा-
“इस पगली ने ट्यूब खींचकर अपनी जगह से हिला दी है डॉक साहब! जब से पैदा हुई है, इसने कष्ट ही कष्ट दिए हैं।… मरती भी…।”
जैसे ही कृतार्थ ने दादी की बुड़बुड़ाहट सुनी, सिहर गया। उसके मुँह से अनायास निकल गया-
“आपकी पोती दिमाग से कमजोर है, मगर जिंदा है। उसे भी दर्द-पीड़ा होती है। अब यह किशोरी जो दर्द झेलेगी, उसके जिम्मेदार आप लोग होंगे। आप अगर इसे घर लेकर नहीं जाते तो आज यह ठीक होती। अब मैं इसके ट्यूब तभी डालूँगा, जब आप इसे यहाँ भर्ती रहने देंगे।”
डॉक्टर की बात सुनकर दादी खीजते हुए बोली-
“हमें तो आज ही गाँव वापस जाना पड़ेगा। कुछ जरूरी काम है। आप इसकी ट्यूब हटाकर टेप लगा दो, और खाने की दवाइयाँ दे दो। हम कल सवेरे वापिस आ जाएँगे।” 
दादी की जिद्दी और अमानवीय-सी बातें सुनकर कृतार्थ ने गुस्से में कहा-
“आप क्यों नहीं समझना चाहते है कि बच्ची का इलाज खाने वाली दवाइयों से नहीं होगा। ट्यूब ही वापस डालनी होगी। आपमें से जिसको काम है, वह गाँव चला जाए। एक जन यहीं रुक जाए, ताकि इलाज शुरू करूँ।”
कृतार्थ के बहुत समझाने पर दादी धीमे से फिर से बुड़बुड़ाई। कृतार्थ के कानों तक उसकी बुड़बुड़ाहट पहुँच ही गई-
“इसके पीछे तीन और हैं। मर भी… कौन-सी कम हो जाएंगी। वह तो इसकी माँ पीछे पड़ गई, लेकर आना पड़ा। इलाज का भी क्या फायदा, सारी उम्र ऐसे ही घूमेगी।”
अचानक कृतार्थ को उससे वितृष्णा हो गई। किशोरी के पिता के मुँह में मानो कोई जुबान ही नहीं थी। वह हर निर्णय में अपनी माँ को ताकता था। स्त्री होकर उसके मन में किशोरी की स्वस्थ माँ की इज्ज़त नहीं, तो अस्वस्थ लड़की की दुर्गत होगी ही। किशोरी के पिता के मन में भी उसका अच्छे से इलाज करवाने की मंशा नहीं थी। कृतार्थ ने बहुत समझाया-
“कोई पागल हो या स्वस्थ  सभी के भीतर जान होती है। इसका इलाज तो करवाइए। आप बच्ची की बीमारी में उसका साथ छोड़ना चाहते है!… यह गलत है। बच्ची को अगर कुछ हो गया तो आप सब उसके जिम्मेदार होंगे। सबसे पहले इसे बचाने की इच्छा रखो। इलाज न होने पर बच्ची कभी भी खत्म हो सकती है।”
सभी बातों से आगाह कर उसने अंत में कहा-
“आप चाहोगे तो मैं सरकारी अस्पताल में मित्र डॉक्टर से बात कर लेता हूँ। वे किशोरी को भर्ती कर लेंगे। वहाँ आपका रुपया भी खर्च नहीं होगा।”
कृतार्थ की बात सुनकर किशोरी के पिता ने सहमति में जब सिर हिलाया। उसने अपने मित्र विभोर को फोन करके मरीज के बारे में जानकारी दे दी। फिर किशोरी के पिता को तत्काल जाने को कहा। 
तीन दिन बाद कृतार्थ के मित्र डॉक्टर विभोर का अन्य किसी काम से फोन आया। कृतार्थ ने उससे मरीज़ा के बारे में पूछा। विभोर ने अचरज भरे स्वरों में कहा- 
“तुम्हारे भेजे हुए मरीज को तो वे परसों लेकर आए थे। उसके हालात बहुत ही सीरियस थे, जैसे ही मैंने चेस्ट ट्यूब डालने की कोशिश की, किशोरी की साँसों ने साथ छोड़ दिया।”
विभोर की बात सुनते ही कृतार्थ एकाएक खुद की हार को स्वीकार नहीं कर पाया। किशोरी बच सकती थी, मगर परिवार की जानबूझ कर की गई लापरवाही की वजह से नहीं बच पाई। वह कितना तड़पी होगी, यह बात सिर्फ वही महसूस कर सकता था। अब उसके दिमाग में बार-बार विचार उठ रहा था कि- ऐसे परिवार में किशोरी अगर जीवित रहती तो किन दुर्गतियों को झेलती, क्या पता!’
लड़कियों के प्रति ऐसी अपाहिज मानसिकता उसे तोड़ रही थी। मगर कुछ लोगों की मानसिकताएँ इतनी अमानवीय होतीं हैं, जो न टूटती थी, न हारती थी। सामाजिक स्तर पर ऐसी सोच का बदलना जरूरी था। वह तो बस अपने हिस्से की आहुति ईमानदारी से डालने की कोशिश कर रहा था।   
आज माँ जीवित नहीं थी, मगर उसे अपने मन के साथ-साथ कविता में छिपा माँ का मन भी टूटकर बिखरता महसूस हुआ। उसके मन की बेचैनी अब प्रश्न बनकर खड़ी थी… “परिवार के इस कृत्य को क्या कहेंगे? और इसकी सजा…!”


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12 टिप्पणी

  1. ओह!!! बेहद!!! बेहद !!! मार्मिक कहानी है आपकी प्रगति जी। हम उसे लड़की की पीड़ा की कल्पना कर सकते हैं। हम तो शारीरिक तकलीफ जरा सी भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। कहानी की वह लड़की जीवित होकर हमारी आँखों के सामने घूम रही है। अस्पताल के नाम से तो पता नहीं कितना कुछ याद आ जाता है। अगर कोई हमसे पूछे कि नर्क क्या है तो हम बताएँ कि अस्पताल चले जाओ सारा नरक वहाँ दिखाई दे जाएगा।
    और दादी के ऊपर तो बहुत ज्यादा गुस्सा आ रहा है।महिलाओं की क्रूरता भी कुछ कम नहीं होती।
    बहुत ही दुखी कर देने वाली कहानी है यह तो!!!
    ऐसी कहानियों के लिए बधाई देना समझ नहीं आता। लेकिन आपने बहुत जीवन्त वर्णन किया इसके लिए तो आप बधाई की पात्र हैं।
    कृतार्थ नाम अच्छा लगा।

  2. नीलिमा जी नमस्कार
    आपको कहानी ने स्पर्श किया, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आपने अपनी टिप्पणी में कहानी के उन सूक्ष्म बिंदुओं को भी रेखांकित किया, जिनकी वजह से परिवार में रोगियों की उपेक्षा होती है।

  3. लड़कियों के प्रति आज भी कुछ परिवारों में, विशेषतया ग्रामीण क्षेत्र में उपेक्षा एवं तिरस्कार के भाव पाये जाते हैं। यथार्थ चित्रण। बधाई आपको।

  4. सुधा आदेश जी आपने सही कहा। आपकी टिप्पणी मेरे लिए सुखद है। बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

  5. जीवंतता से परिपूर्ण कहानी, अत्यंत मार्मिक पर सच भी ऐसा ही है, और हम अपने आसपास ही रोज देखते हैं।
    बहुत अच्छी रचना।
    बधाई

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