जया का तबादला सुदूर पहाड़ी गाँव के सरकारी स्कूल में हो गया था. वह पसोपेश में बैठी सोच रही थी कि क्या करे? काफी सालों से उसकी पोस्टिंग अपने ही शहर व आसपास के लगे हुये स्थानों के स्कूलों में हो रही थी. इसीलिये वह किसी तरह से नौकरी चला पा रही थी पर इस उम्र में घर से दूर पवन को छोड़कर, कहाँ जायेगी और कैसे रहेगी. उसकी अभी 3 साल की नौकरी शेष थी. पवन इसी साल रिटायर हो गये थे. दोनों बच्चों की शादी करके वे जि़म्मेदारियों से भी मुक्त हो गये थे. एक दिल कर रहा था, नौकरी ही छोड़ दे. लेकिन सरकारी नौकरी….? इतने में पवन कमरे में आ गये.
“तुम यहाँ बैठी हो….कब से ढूंढ रहा हूँ….क्या हुआ?”
“कुछ नहीं…” वह अनमनी सी बोली.
“फिर उसी दुविधा में…मैंने कहा न…अब जरूरत क्या है नौकरी की….छोड़ो नौकरी को…” पवन रोमैंटिक होते हुये बोले, ”अच्छा है, दोनों लम्बे टूर पर चलते हैं….पोस्ट हनीमून मनाते हैं…”
“मैं कितनी टेन्शन में हूँ….तुम्हें मसखरी सूझ रही है…” जया झुंझलाती हुई बोली.
“अरे, इसमें टेन्शन वाली कौन सी बात है….मैं तुम्हें पहाड़ में रहने के लिये अकेले नहीं भेज सकता तो नहीं भेज सकता बस…दैट्स फाइनल…”
“तो तुम चलो मेरे साथ…दोनों वहीं रहेंगे….पोस्ट हनीमून वहीं मनायेंगे…” जया भी झूट मूट रोमैंटिंक होते हुये बोली. पवन ने इस अंदाज़ से उसे देखा के जया कि हँसी छूट गई…
“अच्छा चलो, थोड़ी देर कहीं घूम आते हैं…तुम्हारा मूड ठीक हो जायेगा…” पवन बोले.
लेकिन उसका मूड ठीक न हुवा बल्कि उसने पवन का मूड भी खराब कर दिया. उसने अपने तबादले पर जाने की पूरी तैयारी कर ली थी. पवन की चिन्ता नहीं थी. घर के आउट- हाउस में एक परिवार रहता था. वे पूरा खयाल रखेंगे पवन का और फिर वह भी आती जाती रहेगी. पर जो पवन हर वक्त उसके स्वास्थय व खाने पीने के लिये चिन्तित रहते हैं, उनके लिये उसे अकेले भेजना बहुत कष्टदायक था पर अपने विचार थोपना भी पसंद न था पवन को.
इसलिये शशी व किशोर को घर व पवन का ध्यान रखने को कहकर वह अपनी नौकरी पर चली गई थी और आज ज्वाइन भी कर ली थी. वर्षों बाद आई थी पहाड़…कभी बचपन में आती थी, नानी दादी के पास, छुट्टियों में. पर तब के और अब के परिदृश्य में बहुत बदलाव आ गया था. ग्रामवासियों का वह आँचलिक भोलापन मानो मुँह छिपाकर कहीं दुबक सा गया था. गाँव अब कस्बाई रूप ले चुके थे. उसे गाँव की वह खुशबू नसीब न हो पाई जो उसकी यादों में बसी थी.
पर परिवर्तन जीवन का नियम है और समय उसका आधार. परिवर्तन तो आना ही चाहिये. गाँव की पीढ़ी भी अब दूसरी, तीसरी सीढ़ी में प्रवेश कर चुकी थी. अपने रहने की व्यवस्था कर उसने गाँव के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से मुलाकात की. सरकारी स्कूल अभी गाँव की बहुत बड़ी जरूरत थे. गाँव का प्राकृतिक वातावरण भले ही उसके मन को बहुत भा रहा था पर पहाड़ों में रहने की आदत न होने के कारण उसे बहुत मुश्किल हो रही थी.
धीरे धीरे उसकी गाँव की बेटियों, बहुओं और औरतों से जान पहचान होने लगी। गाँव की अधिकतर लड़कियां अब दसवीं, बारहवीं पास तो करने ही लगी थी। जो पढ़ने में अच्छी थी, वे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिये शहरों का रूख कर रहीं थीं. लेकिन उसे खुशी हुई कि पढ़ने के कारण लड़कियों की विवाह की उम्र भी थोड़ी बढ़ गई थी.
उसे 6 महीने हो गये थे यहाँ आये हुये. अब तो स्कूल आते जाते, कई हाथ, टीचर दीदी को नमस्ते की मुद्रा में उठते. गाँव की विवाहित या कुंवारी लड़कियां उसके आस पास मंडराती रहती या उसके पास आकर बैठ जाती.
कमसिन पहाड़ी, गोरी खूबसूरत, भोली बालाओं को देखकर, वह अभिभूत हो जाती. उनका अनछुवा, अनगढ सौंदंर्य, उसके लिये भी कुतूहल व आर्कषण का केंद्र था. तृप्ति, सौम्या, सचिना, सरिता, सविता….अब तो नाम व रंग ढंग का भी शहरीकरण हो चुका था. विवाहित बेटी, बहुओं के हाथों में मोबाइल…व उनकी वेशभूषा में भी काफी परिवर्तन आ चुका था.
अब न लगती बेटी और बहुयें अलग. सब एक जैसी खिलखिलाती, हँसती, बोलती, पहाड़ी नदी सी…उछलती, कूदती, उफनती सी दिखती. इन सभी लड़कियों में तृप्ति व सौम्या धीरे धीरे उसके बहुत नज़दीक आ गईं थीं. दोनों ने गाँवों के स्कूल से बारहवीं पास किया था. दोनों ही विवाहित. पास के ही गाँव से ही व्याह होकर आकर आईं थी.
23, 24 साल की, दोनों युवा, उम्र व खूबसूरती के वेग को थामे हुये, अपने अंदर जैसे एक तूफान सा समेटे हुये, जिस तूफान की वेगवती धारा पर बाँध बना उनके सहचर दूर देश में कुक, व ड्राइवर की नौकरी करने चले गये थे.
“कितने साल से नहीं आया रे तेरा पति…” उसने सौम्या को छेड़ते हुये एक दिन पूछा.
“शैलेन्द्र को गये 2 साल हो गये दीदी…शादी के बाद 2 ही महीने रहा था…” शहरी लड़कियों की ही तरह सौम्या भी धड़ल्ले से पति का नाम लेते हुये बोली. बोलते बोलते अनायास ही सौम्या की सुंदर आँखों में चंचल सपनीली चमक उभर आई थी.
“और तेरा…” वह तृप्ति की तरफ मुखातिब हुई.
“नरेश को गये तो 3 साल हो गये, अब छुट्टी आयेगा, फिर चला जायेगा. वह अपने लगभग सवा दो साल के बेटे को खामोश निगाहों से ताकते हुये बोली.
जया की निगाहों ने दोनों की आँखों की खामोश वीरानगी को ताड़ लिया. कान गले हाथों में सोने के गहने…पति कमाने के लिये गया है…इसलिये संपन्नता की झलक दिखाई देती थी उनके रहन सहन में…जिनके बेटे या पति विदेशों में कुक, ड्राइवर, या इसी तरह के दूसरे कार्यों के लिये गये हुये हैं. उनकी पत्नियों के पास रूपये पैसे की किल्लत नहीं दिखती. हर महीने बेटा या पति अच्छी घनराशि जो भेज देता है. पर क्या इन सुकुमारियों की आँखों की चमक स्थाई रख पाता है इनका हमराही..?
“दीदी शैलेन्द्र आ रहा है छुट्टी…एक हफ्ते बाद पहुँच रहा है…” खुशी से उमगते सौम्या ने एक दिन बताया. खुशी जैसे उसके अंग अंग से फूट रही थी.
उसकी सुदंर पनीली आँखों से फूटती, बहती प्रसन्नता जया को भी अदंर ही अदंर जैसे प्रेम रस में भिगो रही थी. अच्छी लग रही थी उसकी खुशी.
“दीदी, कुछ बताओ न…क्या करूं…सामने से थोड़े बाल काट दो मेरे…नीचे से बराबर भी कर दो…ब्लीच भी मिलता है भाष्कर की दुकान में…उसे लगा लूँ…?”
वह कुछ कुछ बोले चली जा रही थी. और जया उसकी आँखों में अपने प्रियतम के लिये पूरे संसार की खूबसूरती को अपने में समेटने की चाह को उसके दिल में हिलोरें लेते महसूस कर रही थी. जो 2 साल से उसने अपने अन्दर दबा रखी थी.
“कितने महीने के लिये आ रहा है…?” जया उसकी उमगती खुशियों को आँखों से समेटते हुये बोली.
“2 महीने के लिये…” थोड़ी देर बाद सौम्या चली गई. पर उसके ह्रदय में जैसे उसकी खुशी रचबस सी गई. फिर 2 महीने तक न दिखी सौम्या उसे.
तृप्ति ने बताया. कुछ दिन घर पर रहकर, कुछ दिन के लिये पति के साथ अपने मायके और फिर घूमने के लिये जायेगी. वह उदास सी थी.
“तू क्यों उदास हो रही है…” जया उसके फूल से चेहरे को 2 उंगलियों से उठाती हुई बोली.
“नहीं….उदास नहीं हो रही दीदी….बस ऐसे ही…”
“नरेश भी तो आने वाला था छुट्टी…क्या हुआ उसका…?”
“इस साल नहीं आ रहा…अगले साल आयेगा…” उसकी आँखों से टप टप आँसू टपकने लगे. उसके टपकते आँसू जया के ह्रदय में शूल की तरह चुभ कर बहुत कुछ बहाये दे रहे थे.
“तो अगले साल आ जायेगा…” वह उसका सिर सहलाकर, उसे दिलासा देती हुई बोली. बोलने को तो वह बोल गई थी. पर तृप्ति के अन्दर अचानक उग आये, रेगिस्तान की मृग मरीचिका की प्यास…उसके खुद के ह्रदय को भी गहराई तक एक अजीब सी तृष्णा से भर गई थी. तृप्ति उठ कर चली गई थी।
जया बाहर आकर, खड़ी हो, सामने खड़ी पहाड़ी को देखने लगी. बसंत रितु अपने उफान पर थी. जगह जगह पीले फ्यौंली के फूल अपनी छटा बिखेर रहे थे. गर्मी आते ही ये मुर्झा जायेंगे. कितने सुंदर, कोमल, दिलकश, लुभावने लगते हैं ये फूल…जैसे उमंगों से भरपूर…किसी भी युवा ह्रदय में प्रेमरस घोलने में सक्षम.
ये युवा बेटियां बहुयें, जिनके पति या तो फौज में हैं या फिर विदेशों में पैसे कमाने के लिये गये हैं….अपनी फ्यौंलियों को यूं तड़फता छोड़कर. पता नहीं क्यों तृप्ति की उदासी जया के ह्रदय को भी अनायास उदास कर गई थी. इस उम्र में भी वह पवन से लंबे समय तक दूर नहीं रह पा रही थी. उनके अपने आस पास होने का अहसास अजीब सा सुकून देता है. फिर ये युवतियां….जिनकी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक जरूरतें, इच्छायें, भावनायें, उमंगे…अभी अपने उफान पर हैं…कैसे थाम पाती होंगी ये अपने ह्रदय के आवेगों को.
लेकिन पैसा कमाने की प्यास और सुखद भविष्य की आस, इन प्रेम में पगी आत्माओं को एक दूसरे से दूर किये दे रही थी. रोजी रोटी के लिये गाँव से क्या देश से भी पलायन इनकी नियति बन चुकी थी. कई बसंत आते हैं और गुज़र जाते हैं इनके जीवन में बस यूँ ही…ऐसे ही…छू भी नहीं पाते हैं इनके ह्रदयों को….सोचकर उसके ह्रदय में भी बहुत कुछ रीत गया.
काफी दिनों तक तृप्ती भी न दिखी उसे. पता किया तो पता चला कि मायके गई है कुछ दिनों के लिये, ‘चलो अच्छा है…कुछ दिन मन लग जायेगा उसका..” खुशी हुई उसे सोचकर.
काफी दिन बीत गये. स्कूल के फाइनल इम्तिहान चल रहे थे. इसलिये जया की व्यस्तता बढ़ गई थी. एक दिन जया स्कूल से लौट रही थी कि पेड़ के नीचे के झुरमुट के पीछे निगाह गई. एक युवक युवती बैठे दिखाई दिये. मन ही मन मुस्कुरा गई. गाँव तक भी फैल गया है प्रेम रोग…अब गाँव में भी प्रेम विवाह होने लगेंगे….जांत पांत से परे…अच्छा है. तभी युवती की जानी पहचानी खिलखिलाहट कानों में पड़ी. उसने तमक कर पीछे देखा और जड़ हो गई. तृप्ति गाँव के शंकर के साथ बैठी थी, कुछ इस अंदाज़ में जिसे सहज तो नहीं कहा जा सकता.
घबराकर वह जल्दी जल्दी कदम बढ़ाती हुई चली गई. कहीं तृप्ति उसे देख न ले. उस दिन घर जाकर जया, अजीब से कशमकश में घिर गई. जैसे तृप्ति के अन्दर की वीरानगी और आवेश उसके अंदर एकसाथ समा गये हों.
काफी दिन लगे उसे उस दिन का मंजर भुलाने में. लेकिन फिर एकदिन उसका आमना सामना हो गया तृप्ति और शंकर से. उन्हें देखकर उस दिन भी वह जल्दी जल्दी कदम बढ़ाना चाहती थी. लेकिन पैर एक पत्थर से टकरा गया और न चाहते हुये भी मुँह से आह निकल गई. तृप्ति की निगाह उस पर पड़ी और दोनों की निगाहें चार हो गईं.
वह तेजी से घायल पैर का दर्द दबाये पहाड़ी रास्ते पर उतरती चली गई. घर जाकर कपड़े बदल कर बैठी ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई. उसने दरवाजा खोला. सामने तृप्ति खड़ी थी, चेहरे पर दिल चीरने वाली ठंडी खामोशी ओढ़े. बिना कुछ बोले वह वापस पलट गई. पीछे पीछे तृप्ति भी अन्दर आ गई. जया पलंग पर बैठ कर एकाएक उठ आये अपने आवेश को काबू कर रही थी.
“दीदी…” तृप्ति उसके पैरों के पास बैठ, उसकी गोद में अपनी हथेलियों को रखती हुई बोली, ”बहुत नाराज़ हैं मुझसे..?”
“नहीं..” वह बिना उसकी तरफ देख कर बोली.
“तो फिर सवाल कीजिये…जो कुछ पूछना चाहती हैं…पूछ लीजिये…”
“क्या पूछूं तृप्ति…” उसका कंठ अवरूद्व हो गया, ”क्या यह सही है….विश्वासघात कर रही है तू अपने पति के साथ…वो तुम्हारे लिये, पैसा कमाने के लिये दिन रात एक कर रहा है…और तू…?” बोलते बोलते जया उत्तेजित हो गई.
“दीदी, किसने कहा था नरेश को कि इतना कमा कि हम साथ न रह पायें….कितना रोका था मैंने…कैसे जिंदगी बिताऊँ, आप ही बताइये…नरेश फिर 2 महीने के लिये आयेगा और सब्ज बाग दिखाकर 3 साल के लिये चला जायेगा…आप ही बताइये दीदी…ये बूटी न खाई होती तो स्वाद भी न पता होता, पर जब प्रेम की बूटी एक बार खा लो तो इसका स्वाद भी तो पता हो जाता है न…”
तृप्ति की आँखें छलछला आईं, ”तन मन की अपनी इच्छायें हैं दीदी, इन सामाजिक रिश्तों से परे…इससे तो अच्छा था, मेरा विवाह होता ही नहीं…” वह जया की गोद में सिर रखकर फूट फूट कर रो पड़ी.
जया हतप्रभ सी तृप्ति को देखती रह गई, फिर उसका सिर सहलाने लगी. तृप्ति का सिर सहलाते सहलाते सोच रही थी उसे भी नहीं करनी है अब नौकरी, वापस चली जायेगी पवन के पास…3 साल का समय बहुत होता है. एकाएक उसकी आँखों से आँसुवों की अविरल धारा बहने लगी. इन अभिसारिकाओं के दर्द ने उसके ह्रदय को अंदर तक बींध डाला था.
गाँव के अमूमन हर दूसरे घर की यही कहानी थी. पति पैसा कमाने के लिये या तो विदेशों में या फौज में. विदेश में रह रहा पति कब आयेगा पता नहीं और फौज में भर्ती, देश की सीमा पर तैनात पति कब अपनी प्रेयसी से मिले बिना ही अलविदा कह जाय कौन जाने.
“तृप्ति…” उसने कुछ कहना चाहा. पर एकाएक तृप्ती अपनी रुलाई रोकती हुई दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई. बाहर का मौसम अचानक बिगड़ गया था. बादल गरज रहे थे. बिजली कड़क रही थी. उसने तृप्ति को आवाज देकर रोकना चाहा पर उसकी आवाज को अनसुना कर, वह तेजी से पहाड़ी रास्ता उतरती हुई भागी चली गई थी और वह हताश सी उसे भागते हुये देखती खड़ी रह गई.
सुन्दर और मर्मस्पर्शी
धन्यवाद कमलेश जी