अमीना को पैदा होते ही फूफी अम्मां ने मांग लिया था।
समी मियां उनके इकलौते बेटे थे… बड़े अरमानों की औलाद। शादी को जब पांच साल होने को आए और फूपी अम्मां कुल जमा दो बेटियों को ही जन्म दे सकीं तो उनका जी परेशान रहने लगा।… “अगर इस बार भी वली-अहद बहादुर ना पैदा हुआ तो क्या होगा?  सुसराल वालों को क्या मुंह दिखाउंगी और ‘वो’ भी कहीं खफ़ा हो गए तो क्या जवाब दूँगी?” 
तरह-तरह के सवाल परेशान किये जा रहे थे।  बेचारी फूफी अम्मां… उनके सीधे-सादे दिल और दिमाग़ पर बोझ बन रहे थे और पूरे नौ महीने वह यह गुत्थी ना सुलझा सकीं अगर बेटा ना पैदा हुआ तो उसमें उनका क्या क़ुसूर? मगर समाज से कौन टक्कर ले सकता है। यह हमारे ही समाज का बनाया हुआ तो कानून है कि अगर औलाद ना हो तो भी औरत का कुसूर और अगर बेटा ना हो तो भी औरत ही ज़िम्मेदार और फिर कमाल की बात तो यह है कि समाज के यह दस्तूर औरत ने भी मर्द के साथ मिलकर ही बनाए हैं। यहां औरत बिल्कुल बिल्ली के स्वभाव वाली बन जाती है यानी बिल्ली अपने बच्चे आप ही खा जाती है। फूफी अम्मा को चुनौती दे दी गई थी अगर इस मर्तबा बेटा ना पैदा हुआ तो वह कोई और घर देखेंगे और ऐसी लड़की लाएंगे जो उनको चांद सा पोता दे सके… गोया नई दुल्हन बेटा देने का सर्टिफिकेट लेकर आएंगी।  
फूफी अम्मां के वज़ीफ़े, नमाज़ें, दुआएं, तावीज़ गंडे उपयोगी साबित हुए और इन के आंगन में भी बहार आई। सही मानो मैं तो अब गोद भरी थी। वह एक खुश किस्मत मां थीं जिन्होंने बेटा जना था। अभी समी मियां को पैदा हुए चंद साल ही हुए थे के फूफी अम्मा ने जोश में आकर अपनी भावज  से आइंदा होने वाली भतीजी का सौदा कर लिया। बेचारी भावज  तो खुद भी बेटे की आस लगाएं बैठी थी। फूफी अम्मा ने अपनी काली ज़बान से न जाने किस वक्त यह मनहूस कलमात अदा किए कि  उनके यहां बेटी पैदा हो गई। ना दीप जले ना खुशियां मनाई गई। हत्ता कि दाई का मुंह भी उतरा हुआ था। उसका इनाम इकराम जो मारा गया। अगर मालूम होता की बेटी पैदा होने वाली है तो शायद वह यहां अपना वक्त बरबाद करने आती ही नहीं। 
अमीना को ऐसे लाकर दादी की गोद में फेंक दिया जैसे कोई बेजान खिलौना हो। औरत तो पैदा होते ही खिलौना बन जाती है। जिंदगी भर दूसरों का जी बहलाती है अगर ख़ुद टूट जाए तो जोड़ने वाला कोई नहीं होता। बेकार माल समझकर फेंक दिया जाता है। मगर औरत भी किस कदर मजबूत, बहादुर और सख्त जान होती है कि तूफ़ान के थपेड़ों से टकराती चली जाती है। जहां मौका आता है बिफरे हुए तूफान को सुकून बख्शती है, ठहराव पैदा करती है और फिर आगे बढ़ जाती है।
अमीना भी इसी तरह समी मियां के साथ एक ही आंगन में खेलते कूदते जवानी की तरफ़ बढ़ी जा रही थी। समी मियां के बड़े ठाठ थे नए-नए खिलौने फल मिठाई तरह-तरह की नेमतें गोया उन्हीं का नसीब थी। अमीना भी इन्हीं की बदौलत मज़े करती थी। बचपन ही से उसकी क़िस्मत एक नौसिखिये जैसी थी फिर बड़ी हुई तो एक दिन बड़ी धूमधाम से वह इसी आंगन में दुल्हन बना कर बैठा दी गई। समी मियां की ख़ुशी की इन्तहा ना थी। फूले ना समाते थे। शोख़ शरारती अमीना जो अपनी तेज़ी और फुर्तीलेपन से समी मियां को अक्सर मात दिया करती थी, आज वो ख़ुद मात खा कर समी मियां की संपत्ति बन चुकी थी।
समी मियां ने उसको हमेशा अपनी जायदाद ही समझा। बोने जोतने वाली ज़मीन, खेल-कूद का मैदान। चार दीवारी खड़ी करके सर छुपाने वाली जगह। उसका भी उन्होंने यही इस्तेमाल समझा था। दफ़तर जाने से पहले से ही अमीना की ड्यूटी शुरू हो जाती। बेड-टी की फ़रमाइश… अगर अमीना घंटी बजा कर मुलाज़िम से चाय मंगवाने की कोशिश करती तो नखरे से कहते, ‘’मुझे तो तुम्हारे हाथ की सादी चाय में भी ‘अर्ल्स-ग्रे’ की ख़ुशबू आती है।’’ रातों को देर से सोई हुई अमीना खुद ही बावरची-खाने की तरफ भागती। वह चाय पी कर हवाखोरी के लिए निकल जाते और अमीना को नाश्ते की लिस्ट बता जाते। इसमें भी पराठे अमीना के अपने हाथों ही के होने चाहिएं… क्योंकि अमीना के हाथों के पके कौर्न ऑयल के पराठों में भी असली घी की ख़ुशबू आती थी! 
अमीना बीबी, जी जान से लग जातीं तरह-तरह की पकवान नाश्ते में होते क्योंकि उनका कहना था कि नाश्ता इन्सान को सब खानों से बेहतर खाना चाहिए। सारा दिन मेहनत जो करनी होती है। चहल-कदमी से वापस आकर नाश्ते की मेज़ को देखते हुए समी बेपरवाही से कहते ‘’भई अमीना आप तो बिला वजह इतना तकल्लुफ करती हैं!…’’ हाथ धोकर नाश्ते पर बैठते और बिल्कुल पूर्बी अंदाज में नाश्ता करते यानी ख़ामोशी से खाते ही चले जाते… ना इधर देखते ना उधर… मजाल है कभी फूटे मुंह से अमीना के लिए दो शब्द भी तारीफ़ के बोल देते। मुंह में घुगनियाँ डालें बैठे रहते। खाने से फ़ारिग होकर अमीना से सवाल करते ‘’क्या मेरे कपड़े तैयार हैं?’’ यह सुनते ही अमीना नाश्ता छोड़कर कमरे की तरफ़ भागती एक मर्तबा और इत्मीनान कर लेती कि क़मीज़ और सूट से मैचिंग टाई कहीं ग़लत रंग की तो नहीं रख दी है!
मोज़ों का रंग तो ठीक है या नहीं? इन रंगों की मिलावट में उसका अपना रंग पीला पड़ता जा रहा था। और जब समी मियां अमीना के मिलाए हुए रंगों को पहनकर निकलते तो अमीना बड़े प्यार से अपने शाहकार को जाता हुआ देखती। जाते जाते वह सारे कामों की लिस्ट का डिक्टेशन उसको देते हुए कार की तरफ बढ़ते जाते और शोफ़र के खोले हुए दरवाजे में रोबोट की तरह दाखिल हो जाते। बिल्कुल जीती जागती मशीन, बेहिस जज़्बात से ख़ाली। अमीना कार को हाथ हिला-हिला कर उनको बड़े प्यार से रुखसत करती। बड़ी प्यार भरी नजरों से कार को जाता हुआ देखती और अपने कमरे की तरफ थके हारे जुआरी की तरह लौट आती। समी मियां के जाते ही घर की सारी भाग दौड़ खतम हो जाती अब ऐसा लगता जैसे इस घर में वही एक जानदार व्यक्ति हो। बाकी तो सब बेजान और बेकार लोग हैं।
अमीना नहा धोकर फिर दोपहर के खाने, शाम की चाय और रात के खाने की तैयारी में लग जाती। घर तो घर ही नहीं था। बिल्कुल होटल, जिसका हर कमरा समी मियां के लिए तय था। अमीना बेहद हंसी खुशी इस होटल का इंतजाम संभाले हुए थी। बेहद गर्व महसूस करती जब समी मियां अपने दोस्तों के लिए हुए प्रकट होते और आवाज देते, “भई अमीना! कहां हैं आप? चाय वगैरह भिजवा  दीजिएगा, तीन लोग और भी साथ हैं।” और अमीना बेगम गुनगुनाती हुई नौकरों के साथ चाय के इंतजाम में लग जातीं। एक-एक प्याली का मुआयना करतीं कि कहीं कोई धब्बा ना लगा रह गया हो, नैपकिंस में कलफ़ और इस्त्री बिल्कुल ठीक हो वरना समी मियां को कुछ नागवार गुजरा तो आफ़त आ जाएगी और अमीना के सारे दिन की मेहनत बर्बाद हो जाएगी। 
उसको हर आने वाले वक्त से डर लगा रहता था। जब वोह दफ्तर से आएं तो सब कुछ मुकम्मल होना चाहिए। फिर मेहमान आएं तो खातिर तवज्जो में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। रात का खाना तो ऐसा हो कि देखते ही उनकी थकान दूर हो जाए, भूख खुल जाए और  वह जी भर कर खा सकें। जिंदगी का मकसद सिर्फ़ समी मियां के गिर्द घूमते ही रहना था, मेरी-गो-राउंड की तरह का चक्कर, बैठते तो बेहद शौक से हैं मगर उतरते वक्त झंझोड़ कर रख देते हैं। 
अमीना की जिंदगी भी ऐसे ही चक्कर में फंसकर रह गई थी। एक रहट थी जो खेतों को पानी देकर फसल को हरा भरा और शादाब रखती है मगर वक्त के साथ-साथ एक-एक पुर्ज़े में ज़ंग लग जाता है। किसान पुरानी रहट बदलकर नई लगा लेता है जिससे फसल पर बुरा असर ना पड़े और हरियाली कायम रहे… सदा कायम। अमीना तो समी के रंग में रंगी हुई, उनकी खिदमत और सेवा को इबादत समझती हुई जिंदगी के दिन हंसी खुशी गुजारे जा रही थी और आसापास के माहौल से उदासीन। एक ही धुन सवार थी सिर्फ एक ही धुन कि सरताज का मन खुश रहे। उसके ही सर का ताज बने रहें कोई दूसरी औरत उन पर नज़र-ए-बद ना डालने पाए और समी मियां उसके अलावा किसी और का ख्याल भी दिल में ना ला सकें। यह सब सोचती और फिर अल्लाह से तौबा करती कि मैं कैसी पापिन हूं कि अपने नेक और सीधे शौहर के लिए ऐसी वैसी बातें सोचती रहती हूं।
समी मियां खुशी से फूले न समाए थे जब उन्हें मालूम हुआ कि वे बाप बनने वाले हैं। उस दिन दफ्तर पहुंचे तो सभी के साथ खुशमिजाजी से पेश आते रहे। दफ्तर का माहौल ही बदला हुआ था बिला वजह ही घंटी पर हाथ मार देते। कभी मैनेजर को बुला लेते और कभी सेक्रेटरी को और शरमा कर कह देते “माफ करना भूल गया क्यों बुलाया था”? 
सभी परेशान थे कि माजरा क्या है? मालिक आज मुस्कुरा रहे हैं, गुनगुना रहे हैं, गलती करके सॉरी भी कह देते हैं। एक मसला था समझने का ना समझाने का। शाम तक दफ्तर वालों ने यह सोच कर इत्मिनान कर लिया कि कारोबार में कोई बड़ा फायदा हुआ होगा। समी मियां  के लिए इससे बढ़कर कोई और खुशी की बात ही नहीं हो सकती थी। 
यह गुत्थी उस दिन सुलझी जब समी मियां एक दिन दफ्तर जरा देर से पहुंचे और मालूम हुआ कि अमीना अस्पताल गई हुई है। एक नई मुन्नी सी गुड़िया तशरीफ लाई है। रवायत के मुताबिक समी मियां भी अमीना से ख़फ़ा-ख़फ़ा रहे, आंखों ही आंखों में कहते, “नालायक बीवी!… इसी दिन के लिए तुम्हारे नख़रे उठा रहा था कि तुम मुझको एक और बेटी की लानत से नवाज़ दो?” पर करते क्या? मजबूर थे। यह सोचकर तसल्ली कर ली कि चलो अल्लाह ने चाहा तो फिर कभी बेटा भी हो जाएगा। मगर बी अमीना ने तो गोया कसम ही खा ली थी बेटे की। दूसरी बार भी बेटी ही का अवतार हुआ। अमीना बेचारी शरम और ख़ौफ़ से कांप-कांप गई कि अब समी मियां को क्या मुंह दिखाएगी।
समी मियां की भी अल्लाह ने सुन ली और दो अदद बेटीयां पाने के बाद बेहद खुश हुए बेटे से। अमीना तो उसी तरह चक्की में गेहूं की तरह पिसती रही। समी मियां के नखरों में कोई कमी ना आई बड़ी बाकायदग़ी से वह अपने रोज़ाना के रूटीन पर कायम रहे। बड़े गर्व से यह कहते “चार बच्चों का बाप हो गया हूं मगर आज भी वही मामूल है जो शादी के वक्त था” कभी पलट के फूटे मुंह यह ना पूछा की बीवी की भी कुछ आकांक्षाएं थीं? कोई जीवन था, कोई शौक था, कोई ख्वाहिश थी या तमन्ना थी? अब तो बहुत देर हो चुकी थी। अमीना बच्चों की देखभाल में ऐसी उलझी कि उसको खुद की भी खबर ना रही। 
कब दिन हुआ? कब रात हुई? क्या खाया, क्या पिया, कपड़े क्या पहने? दिनों आसमान ना देख पाती, उसको नीला आसमान और आसमान पर अठखेलियाँ करते बादल… चांदनी रात और हल्की हल्की फुहार बहुत पसंद थी… मगर सब यादें माज़ी होकर रह गया। अजीब अधूरी सी जिंदगी थी मगर एक इत्मिनान था, सुकून था, सोचती थी कि चार बच्चे पाल रही है वही उसका कारनामा है… उसकी उपलब्धि… और पति की देखभाल में भी कमी नहीं आने दी… वह भी ख़ुश है।
एक  दिन समी मियां ने बताया कि वह कुछ दिनों के लिए ब़िज़नस के सिलसिले में बाहर जा रहे हैं। अमीना कांप उठी कि वह कैसे रहेगी उनके बगैर… परेशानी प्रकट करते ही जवाब में बेभाव की पड़ी, “चार बच्चों की मां बन गई हो मगर अब भी बच्ची बनी हुई हो! मैं कोई  हमेशा के लिए थोड़े ही जा रहा हूं। महीने भर में वापस आ जाऊंगा।” बेचारी ने डरते डरते अकेलेपन का इजहार किया कि “मैं सिर्फ मर्द नौकरों के साथ अकेली  कैसे रहूंगी?” तो बड़ा अहसान किया और इजाज़त दे दी कि “गांव से खालाजान से कहकर कोई नौकरानी बुला लो।” और अमीना मुस्कुरा दी क्या अच्छा तरीका समझाया है।
समी मियां चले गए… और अकेलेपन से तंग आकर अमीना को एक मददगार महिला को बुलाना  नहीं पड़ा। खाला जान ने अमीना का खत मिलते ही नूरां को गाड़ी पर बैठा दिया कि अमीना को ज्यादा दिन अकेले ना रहना पड़े। इसके आने से अमीना को वाकई सहारा हो गया। कोई बोलने वाला तो मिला। उसने बच्चों को संभालने में भी पूरा हाथ बंटाना शुरू कर दिया और अमीना को उसकी  आदत सी हो गई। वह नूरां को अपनी छोटी बहन की तरह प्यार करने लगी… अपने कपड़े दे दिए कि नहा धोकर बदलने के लिए काफी जोड़ें हो जाएं वरना यह गरीबों की लड़कियां तो एक ही जोड़ा धो-धो कर पहनती रहती हैं जब तक के तार तार होकर शरीर ना नजर आने लगे। 
नूरां सतरह साल की थी मगर समय की सख्तियों  ने वक्त से पहले ही बचपन से उठाकर एक भरपूर जवान औरत में परिवर्तित  कर दिया था। चेहरे पर मासूमियत और बचपना था मगर शरीर पूरे तौर से गदरा चुका था जवानी कपड़ों के नीचे से फटी पड़ती थी, जिम्मेदारी और हर वक्त काम में ऐसे लगी रहती जैसे अमीना की ही उम्र की हो। 
अमीना को उस पर बहुत दया आती कि  इतनी छोटी सी उम्र में कितना काम करती है। अपने मां बाप को छोड़कर अमीना और बच्चों की खिदमत करने आई है। अमीना को कहां मालूम इस गरीबों की न तो संवेदनाएं अपनी होती हैं और न ही भावनाएं। वे दूसरों ही के लिए पैदा होते हैं और दूसरों ही के लिए मर जाते हैं। उनकी मौत पर न कोई रोता है और न मातम करता है क्योंकि ग़रीब तो कई बार मरता है… फिर भला कितनी बार मातम किया जाए… किसके पास है इतना समय।
नूरां को अच्छा खाना पीना और अमीना की मोहब्बत और खुलूस नसीब हुए तो देखते ही देखते जिस्म भर गया क़द लम्बा हो गया… उसके गालों के गड्ढे भर गए… लम्बे लम्बे  बालों में चमक आ गई… फुर्ती से दौड़ती हुई चलती… तो एक लम्बी सी चोटी जिस्म के साथ लहराती रहती उसकी अपनी पीठ में उसको गुदगुदाती रहती… हंसती तो लंबी लंबी पलकों वाली आंखें हल्की सी बंद हो जातीँ तो बेहद प्यारी लगती। 
अमीना के लिए मुश्किल हो गया उसकी देखभाल करना। घर के मुलाज़िम ओवरटाइम करने के लिए बेचैन रहते… हर शख्स को अमीना बेगम साहिबा से बेहद हमदर्दी हो गई… हर काम करने वाला मोहब्बत का पुतला बन गया। अमीना को नूरां के साथ बच्चों की परवरिश में इतना मज़ा आने लगा कि देखते ही देखते पूरा महीना खत्म हो गया और समी मियां भी वापिस तशरीफ़ ले आए। आते ही उनके नखरे भी शुरू हो गए… 
मगर अब हर काम आसानी और वक्त पर होता चला जा रहा था, जैसे जिंदगी में ठहराव सा  गया आया हो… तूफान थम गया हो… समी  मियां वैसे ही उठते, टहलने जाते, नाश्ता करते, सजते-बनते, दफतर जाते… वापस आते… कुछ मित्र लोग भी साथ आते खाते पीते… कुछ कारोबार की बातें होतीं… कुछ पीठ पीछे दूसरों की बुराइयां की जातीं  और कुछ अमीना की आलोचना… और इन सब प्रिय मसलों से फुरसत पाकर समी मियां घड़ी देखकर बेचैन होते और अपने कमरे की ओर रवाना हो जाते। अंधेरे की चादर फैल चुकी होती रेशमी ड्रेसिंग गाउन पहने बच्चों के कमरे की तरफ जाते गुडनाइट  कहते और याद दिलाते कि वह उनके बाप है। वापस जाते समय अमीना को भी हाथ हिलाकर गुडनाइट इशारे से कर लेते और आरामगाह की तरफ रवाना हो जाते।
अमीना को फूफी अम्मा ने बचपन ही से सूर्योदय से पहले की नमाज़ अदा करने की आदत ऐसी डाली थी कि चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए नमाज नहीं छुट्ती थी। बच्चों की वजह से अक्सर समी के कमरे में नमाज़ पढ़ने चली जाती। कभी-कभी अमीना अगर चंद लम्हे देर से आती तो वे सवेरे की सैर के लिए जा चुके होते। मगर उस दिन जब वह कमरे में आई तो समी मियां सोए हुए थे। चटा-पटी की रज़ाई सर तक ओढ़े हुए… अमीना घबरा गई, “या अल्लाह खैर करना”। 
कहीं खुदा-ना-खास्ता इनकी तबीयत खराब तो नहीं हो गई… कहीं रात को साथ वाले कमरे में छोटा वाला रो रहा था, उससे नींद तो नहीं टूट गई! या अल्लाह अपना करम करना, इनको कुछ ना हो… इनकी आई मुझ पर आ जाए। फिर खुद ही चौक पड़ी कि मैं खड़ी-खड़ी उलटी-सीधी बातें सोचे जा  रही हूं… बढ़कर हाथ रखकर देखूं तो बुखार तो नहीं हो गया है… लड़खड़ाते क़दमों से आगे बढ़ी समी मियां कि धनक के रँगों में असली रेशम की नरम ओ नाज़ुक रज़ाई को हल्के से खिसका कर झुकी तो रज़ाई हाथ से वहीँ  छुट गई। 
सक्ते का आलम था… दो बड़ी बड़ी आंखें अमीना के सामने झुकी हुई थीं… नर्म सुनहरे रेशमी बाल सुराहीदार गरदन में लिपटे हुए थे। अमीना ने काँपती हुए ख़ुश्क गले से फंसी फंसी आवाज़ में… बेहद मुश्किल से उसके मुंह से बस इतना निकला, “नूराँ ! तुम हो?”
ज़किया ज़ुबैरी वरिष्ठ साहित्यकार एवं पुरवाई की संरक्षक हैं. लंदन में रहती हैं.

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