23 जनवरी, 30 जनवरी, 06 फरवरी एवं 13 फरवरी, 2022 को क्रमशः प्रकाशित पुरवाई के संपादकीयों पर प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं
पुनीत बिसरिया
आपका लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है किन्तु मुझे लगता है कि जिस तरह से रूस ने क्रीमिया पर कब्ज़ा कर लिया था और सारे देश निंदा करते रह गए थे, वैसा ही कुछ इस बार भी होगा और रूस दोबारा यूक्रेन के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करके लौट जाएगा।
विभा सिंह
युद्ध एक वैश्विक समस्या है सर।युद्ध के भयावह परिणाम को जानते हुए भी विश्व शक्तियों का अपनी महत्वाकांक्षाओं के तुष्टिकरण को ही सर्वोपरि रखना मानवता के लिए शुभ नहीं।आपने बहुत ही विस्तार से अपने संपादकीय में इसकी विवेचना किया है। जहां तक साहित्यकार के अपने देश के प्रति कर्तव्य/जागरूक होने की बात है वो आप अच्छी तरह जानते ही हैं।रही बात नरेंद्र मोदी जी की,तो अगर भारत के हस्तक्षेप से कोई भी युद्ध/समस्या का समाधान यदि होता है तो यह न केवल देश बल्कि मानवता के लिए भी बड़ा योगदान होगा🙏
अरुण सभरवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी, संपादकीय पढ़ा।
हम भारतवासियों के लिए गर्व की बात है कि आदरणीय मोदी जी हमें विश्व की महाशक्तियों के पटल पर तीसरे स्थान पर ले आये हैं।
आशा करती हूँ इस तनाव को समाप्त करने के प्रयास में लगे देश सफल हों क्योंकि विश्व युद्ध के परिणामों को कौन नही जानता? ज्ञानवर्धक जानकारी के लिये बधाई हो।
अतुल्यकृति व्यास
तेजेन्द्र जी, पूरा मामला वर्चस्व की मान्यता का है… न्याय-अन्याय के नज़रिये से सभी पक्ष अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध और न्याय पाने के लिये कटिबद्ध हैं.
हाँ, नरेन्द्र मोदी की भूमिका इस मामले में महत्त्वपूर्ण और प्रभावी हो सकती है…
जहाँ तक साहित्यकारों की बात है, सामान्य रुप से उनकी वृत्ति निरपेक्ष रहने की ही होती है, वे अपनी कल्पना और भावनाओं को वशीभूत न तो सामयिक हो पाते हैं न दूरदर्शी… इसके अलावा वे अपनी आरामदायक जीवनशैली की रक्षा करने के लिये सरकार और प्रशासन को नाराज़ करने से भी बचते हैं…
मनीष श्रीवास्तव
तेजेन्द्र जी, समसामयिक ज्वलंत विषय पर एक बार फिर से आपकी लेखनी ने कमाल का लिखा है। इतने पेचीदा मुद्दे को इतने आसान शब्दों में आपने समझाया है। बहुत-बहुत बधाई सर 🥰🙏🏻👏💐
आज के दैनिक भास्कर ने अपने फ्रंट पेज पर main headline बनाया है इस मुद्दे को👍🏻👍🏻
मोनिका शर्मा
सर, राजनीति पर आपकी कलम का चलना उसकी सही जानकारी देना बहुत ही सही है… क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है।
देश विदेश में हो रही राजनीतिक हलचल को पढ़ना लिखना भी एक साहित्यकार का फर्ज है।आप बखूबी अपनी लेखनी से समाज की हर विधा को छूते है सर।
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सूर्यकांत सुतार
आदरणीय तेजेन्द्र जी, बहुत ही खूबसूरत तरीके से आपने हमारे नेताजी पर संपादकीय आलेख जोड़ा है। आपके लेखन के माध्यम से आज सही मायने में नेताजी को श्रद्धांजलि अर्पित हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकार करे इस सुसंक्षिप्त लेख के लिए।👌👍👏👏💐
राजनंदन सिंह
आदरणीय श्री तेजेन्द्र शर्मा जी,
बहुत हीं सुंदर एवं समसामयिक संपादकीय।
राजा जार्ज पंचम के प्रतिमा की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगना समुचे भारत एवं भारतीयों के लिए गर्व का विषय है।
मगर प्रतिमा की मुद्रा पर दुर्भाग्य से मुझे भी आपत्ति है। प्रस्तावित प्रतिमा में सलामी लेते हुए नेताजी की मुद्रा, सैल्यूट मारते हुए सिपाही का भ्रम कराती है। मेरी समझ में नेताजी के कद के लिए मनोवैज्ञानिक रुप से यह मुद्रा उचित नहीं है।
अलग-अलग व्यक्ति की अलग-अलग सोच होती है। संभव है मेरी सोच में हीं कोई कमी हो।
इस संबंध में ट्विटर पर मैंने प्रधानमंत्री जी को भी लिखा था और विकल्प के तौर पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस का एक फोटो भी भेजा था। कोई जबाब नहीं आया है और जबाब की उम्मीद भी नहीं है। मगर मुझे लगता है कि नीचे जो तस्वीर है यदि इसकी प्रतिमा लगती तो नेताजी के कद को ज्यादा प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करती।
नेताजी की 125 वीं जयन्ती पर उनकी एकमात्र पुत्री डा अनिता बोस को भी भारत बुलाया जाना चाहिए था। इसके लिए भी ट्विटर पर मैंने पीएमओ को लिखा था। दुर्भाग्य से अधिकारियों का ध्यान इस तरफ नहीं गया।
विरेन्द्र वीर मेहता
सर्वप्रथम आपने ‘बाऊजी’ से जुड़ी जिन स्मृतियों को सांझा किया उसके लिये साधुवाद और बाऊजी को सादर नमन। नेताजी की 125 वी जयंती के वर्ष में भारत सरकार द्वारा लिए गए निर्णय सहज ही वंदनीय हैं। इस घटनाक्रम पर होने वाली चर्चाओं और विपक्ष के रवैये के ऊपर आपके द्वारा अच्छी बेबाक और स्पष्ट विवेचना की गई, जिसके लिए आप बधाई के पात्र है। वर्तमान भारतीय राजनीति में एक बात तेजी से देखी जा रही है, वह है विपक्ष का रवैया। विपक्ष जिन मुद्दों को अपने कार्यकाल में नजरंदाज करता रहा है, वर्तमान में जब उन मुद्दों पर वर्तमान सरकार कोई एक्शन लेती है तो वह झुंझलाक़र सरकार के साथ उन मुद्दों के भी खिलाफ हो जाते हैं जो सहज ही उनकी हताशा का ही एक उदाहरण है।
हार्दिक सादुवाद सहित आदरणीय. . . 💐
तारा सिंह अंशुल
तेजेन्द्र जी, संपादकीय पढ़ा…
भारत के अमर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में अग्रणी , जंगे आजादी के महानायक , आजाद हिंद फौज के प्रमुख , नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर; इस बार लिखा गया ‘पुरवाई’ का संपादकीय आलेख समसामयिक है …
महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाने हेतु फिरंगियों ( अंग्रेजों ) से सूझ बूझ के साथ योजनाबद्ध तरीके से युद्ध किया।
दरअसल अंग्रेज उन्हीं से भयभीत रहते थे। नेता जी के शौर्य की यादें ताजा करने वाला यह संपादकीय दिलचस्प भी है।संपादक महोदय आदरणीय तेजेंद्र जी द्वारा अपने पिताजी के साथ अपने बचपन में सुने हुए संदर्भगत संस्मरण का उल्लेख किया गया है… जो मुझ पाठक को अपने बचपन में, अपने दादाजी और पापा जी से नेताजी सुभाष चंद्र बोस की योजनाबद्ध तरीके से आजाद हिंद फौज बनाकर फिरंगियों से लड़ाई की सुनी हुई बातों की याद ताजा कर देती है। उस समय उनकी लोकप्रियता कितनी ज्यादा रही होगी, इसका अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है। नेता जी वास्तव में भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने वाले महानायक सेनानी थे।
नेता जी ने नारा दिया था , ” तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा!” तमाम भारतीय जन गण मन उनके साथ था। मगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा, देश को आजाद कराने संबंधी जुझारू रण कौशल से अंग्रेजों को भयभीत कर दिया गया। जर्मनी और जापान के सहयोग से विजय हासिल कर, अंडमान निकोबार में पहले राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहरा कर, आजाद भारत घोषित करने वाले शौर्य को गौरतलब है कि तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं द्वारा बिल्कुल महत्व नहीं दिया गया।
संभवतः सोची समझी रणनीति के तहत इन की अनदेखी कर उन्हें महत्वहीन किया गया।
यूं अगस्त 1945 में विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की उद्घोषणा कराना भी. उनके क़द को छोटा कर समाप्त करने जैसी साजिश प्रतीत होता है।
वास्तव में यह सब ,उनके साथ ही नहीं, भारतीय जन मानस के साथ भी एक तरह से अन्याय और धोखा ही है।
इस संपादकीय इस शीर्षक से भी यह साफ़ हो जाता है कि उनके साथ घोर अन्याय हुआ है। भारत में जो प्रतिष्ठा , सम्मान , जंगे आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिलना चाहिए, वह देश आजाद होने के इतने वर्षों तक वर्तमान एनडीए सरकार से पहले की , केंद्रीय सत्ता द्वारा कदापि नहीं मिला।
हर तरह से अनदेखी की गई। और हम सब भारतवासियों के समक्ष उनसे संबंधित तमाम तत्कालीन अभिलेखों के प्रकाश में आने से उनके प्रति इस साजिशी अन्याय की तस्दीक होती हैं।
वर्तमान समय में एनडीए की भारतीय केंद्रीय सरकार की नेता जी सुभाष चंद्र बोस को उनका हक दिलाने के प्रतिबद्धता परिलक्षित हो रही है।
वर्तमान केंद्र सरकार का नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति शहीद स्मारक के उस खाली छतरी में लगाने का निर्णय किया, यह स्वागत योग्य है।
संपादक महोदय द्वारा पुरवाई के संपादकीय में ये उल्लेख किया गया है कि ” विपक्षी दल ख़ासतौर से कांग्रेस द्वारा नेता जी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति लगाने का विरोध किया है, और अमर जवान ज्योति को एक शहीद स्मारक पर ले जाने पर भी हो हल्ला मचाया गया। और ये आरोप भी लगाया जा रहा है कि पांच राज्यों में चुनाव को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा यह किया जा रहा है।
विपक्षी दल की ऐसी मानसिकता निंदनीय है। और यह इस बात की पुष्टि भी करता है कि ,…ये दल नेता जी के , उच्च क़द को , आजादी के महानायक के महत्त्व को भारत की जनता के सामने नहीं लाने देना चाहते हैं। दरअसल इससे विपक्ष की पोल खुल रही है। संपादक महोदय , आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी द्वारा संपादकीय में ,नेताजी पर यथार्थ का उल्लेख कर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विषय में तथ्यात्मक जानकारी को पाठकों तक पहुंचाया है।
बहुत अच्छा संपादकीय आलेख। इसके लिए संपादक महोदय को हार्दिक बधाई ।
सुरेश चौधरी, कोलकाता
तेजेन्द्र जी, यह सच है कि नेहरू गांधी इत्त्यादी नरम दल के नेता थे और इनकी लॉबी बहुत मजबूत थी। ये अंग्रेजों के साथ रहकर उनकी चंचवीरी करके कटोरे में आज़ादी लेना चाहते थे…. और हुआ भी वही। इल्ज़ाम संघ पर और सावरकर पर लगता है अंग्रेज़ों की चमचागिरी का… जबकि इतिहास बताता है कौन थे।
डॉ प्रभा मिश्र
सुभाषचंद्र बोस एक सच्चे देशभक्त थे ,देश की आजादी में उनका योगदान गांधी जी से कम नहीं था ।उनकी प्रतिमा को उनके कद के अनुरूप स्थान देकर वर्तमान सरकार ने सही कदम उठाया है राष्ट्र को गौरव का अनुभव हो रहा है।
सम्पादकीय में बाबूजी का संस्मरण यह दर्शाता है कि उस समय देश की राजनैतिक स्थितियां ऐसी थी कि गरम दल का साथ देने वालों को भी अपने जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ा ।संवेदनशील सम्पादकीय हेतु साधुवाद..
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शन्नो अग्रवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी, बातें हैं, बातों का क्या। जैसा राहुल गाँधी के बारे में सुना जाता है उनकी जुबान पर जो आता है कह देते हैं। शायद खुद भी समझ नहीं पाते कि वह कह क्या रहे हैं। कभी-कभी चूहों का मन भी शेर की तरह दहाड़ने को करता है। चाहे वह सही हों या न हों। वही हाल है राहुल जी का भी। 🙏🏻
डॉक्टर तारा सिंह अंशुल
तेजेन्द्र जी, मैंने संपादकीय पढ़ा…
इस बार बहुत महत्वपूर्ण ,.समसामयिक व तथ्यात्मक मुद्दे पर अपनी लेखनी चलायी है ।
राहुल गांधी ( इन्हें पप्पू अनायास ही नहीं कहा जाता है ) के गैर-जिम्मेदाराना बयानबाज़ी पर बिना लाग लपेट के
पुरवाई के पाठकों के समक्ष राहुल गांधी की वास्तविकता क्या है… आप ने खोल कर रख दिया।
यकीनन कांग्रेस जैसी वंशवादी पार्टी के चश्मो-चिराग़ राहुल गांधी द्वारा दिया गया यह उल-जुलूल, बिना सिर पैर वाली बयानबाजी सचमुच भारत माता की आत्मा को घायल करती है।
राहुल गांधी द्वारा संसद में ऐसी बयान बाजी को संगीन अपराध श्रेणी का माना जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ” गौरतलब है कि संपादक महोदय तेजेंद्र जी ने अपने संपादकीय आलेख में जिक़्र किया है कि –
“मोहम्मद अली जिन्ना ने तो टू नेशन थ्योरी दिया , मगर राहुल गांधी ने तो मल्टी नेशनल थ्योरी पेश कर दिया…” यह प्रासंगिक है।
“यदि सचमुच राहुल गांधी के इस बयान को गंभीरता से लेकर कुछ राज्य विद्रोह पर उतर आएं तो क्या होगा ?
राहुल गांधी उर्फ़ पप्पू का यह बयान बाजी या इस तरह के ना जाने कितने बयान भारत के संसद में और
संसद के बाहर कांग्रेस पार्टी की जन सभाओं में , हमारी
भारत माता की अस्मिता के विरुद्ध हैं… जो माफ़ी योग्य नहीं हैं।
देश की अखंडता संप्रभुता को हल्के में लेने का किसी को अधिकार नहीं है , राष्ट्रीयता और राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है।
देश का जन गण मन कब माफ़ करने वाला है। सबक तो सिखा ही दिया है कि कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी पतनोन्मुख हो गयी है।..
संपादक महोदय तेजेन्द्र शर्मा जी को ऐसे समसामयिक विषय पर आलेख के लिए हार्दिक बधाई अनंत शुभकामनाएं..
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विजय नागरकर
बहुत अच्छा लेख, हमें स्कूल जाना है या धर्मांध अंधेरा कुआ अपनाना है। जितना पुनर्जागरण, परिवर्तन हिंदू सहित अन्य धर्मों में हुआ है,उतना बहुत कम मुस्लिम धर्म में हुआ है। अभी भी मूल्ला मौलवी की जकड़ में समाज फिर अंधा युग की ओर अग्रसर हो रहा है।
विनोद पांडेय
प्रणाम सर,सामयिक मुद्दे को बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ आपने सम्पादकीय का विषय बनाया और एक एक शब्द के साथ न्याय किया l मज़े की बात देखने को मिल रही है कि जो प्रोग्रेसिव होने का दावा कर रहे हैं वहीं हिजाब की वकालत कर रहे हैं l हिजाब पहनने पर कहीं पाबंदी नहीं है ,लोग खूब पहने लेकिन शिक्षा के मंदिर के धर्म से इतर एक विद्यार्थी बन कर जाना चाहिए जहाँ धर्म और संस्कृति की बारीकियों को समझने का भी तर्क उत्पन्न होता है l अगर सब अपने अपने हिसाब से पहनने लगे तो स्कूल भी अखाड़ा हो जाएगा और सब दलील देते फिरेंगे ,मेरा पहनावा अच्छा है ,मेरी संस्कृति अच्छी है ,मेरा धर्म अच्छा है l विद्यालय एकता का प्रदर्शन है जहां प्राथमिकता है एक जैसा दिखें ,एक जैसा पढ़े और एक जैसा लिखें l
आपका सम्पादकीय बहुत सार्थक लगा सर ,सच में विद्यालय को ऐसी चीजों से अलग रखना पड़ेगा बाक़ी हिजाब पहनने से किसे कौन रोक सकता है ? भारत से ज़्यादा आज़ादी कहीं नहीं है ये सब जानता है l
अपूर्वा सिंह
सही कहा सर आपने यह लोग केवल अपना राजनीतिक स्वार्थ देखते हैं। इनको कोई चिंता नहीं है लड़कियों के विकास से….. बहुत चिंताजनक स्थिति है, समझ नहीं आता कि आजादी के 75 वर्ष बाद ऐसे गैरजरूरी मुद्दों पर राजनीति हो रही है…
शन्नो अग्रवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी,
धर्म के नाम पर लोगों की सोच अजीब रही है।
कभी हिजाब, कभी तीन तलाक और कभी हलाला जैसे मुद्दे मुस्लिम स्त्री समाज में दहशत के कारण बने रहे हैं। सहानुभूति होती है उन महिलाओं से जिन्हें इन मुद्दों को लेकर अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।
मलाला तो अच्छी जिंदगी जी रही हैं अब किंतु मलाल तो उनके बारे में है जो आधुनिक समाज में रहते हुए, शिक्षा के दौरान अपने धर्म के रूढ़िवादी नियमों के खिलाफ जाने के खौफ से जिंदगी बसर कर रही हैं। सवाल पैदा होता है कि कालेज में हिजाब न पहनने वाली लड़की ऐसा क्या गुनाह कर रही है जिसे इतनी गंभीरता से लिया जा रहा है?
समय के साथ दुनिया में परम्पराएं बदल रही हैं। तो फिर मुस्लिम समाज क्यों इतना कट्टरवादी है? क्यों इस बात को लेकर इतनी जिरह?
अनिल गांधी
तेजेन्द्र भाई, बेबाकीयत से लिखे गए सम्पादकीय ‘लडकियों की पढाई में कितने रोड़े’ के लिए बधाई। मलाला का हिजाब की वकालत करना शर्मनाक है। अगर नोबेल पुरस्कार वापिस लेने का प्रावधान है तो नोबेल पुरस्कार कमेटी को इस बाबत गभीरता से विचार करना चाहिए।
शुभम राय त्रिपाठी
सर, पुरवाई के संपादकीय के संदर्भ में…
शिक्षा, संगति के चलते अलग नजरिया है। दुखद स्थिति यह है कि आखिर भारतीय मुस्लिम महिलाएं इराक, सीरिया पाकिस्तान अफगानिस्तान की भयावह परिस्थिति को जानबूझकर अनदेखा कर रही हैं।
बदलाव सभी को पसंद आता है… बदलाव वही उपयोगी है जिसमें सामाजिक सांस्कृतिक, बौद्धिक विकास परिष्कृत हो। न कि धर्म की बेड़ियों में जकड़ता चला जाए। भारत की युवा मुस्लिम छात्राएं महिलाएं स्वयं तय करें उन्हें कैसा वातावरण और कितनी स्वतंत्रता चाहिए।
डॉक्टर ऋतु माथुर
आदरणीय,
आपके संपादकीय गहन व महत्वपूर्ण मुद्दों का उद्घाटन करते रहे हैं, जो वास्तव में विचारणीय हैं। हिजाब प्रकरण में जो मेरा मत है वो यही है,कि शिक्षण संस्थानों में और खास तौर पर छात्राओं के विद्यालयों में इसकी कोई आवश्यकता मुझे नहीं समझ आती, किंतु उनकी धार्मिक पाबंदियों, पहनावे अथवा (ख़ासतौर )पर छात्राओं की इच्छानुसार सह-शिक्षा संस्थानों में इसे लागू करने की छूट दी जा सकती है।