Saturday, July 27, 2024
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डॉ. उर्वशी की कलम से – मुरारी मयंक जी की पुरुषोत्तम की पदयात्रा

प्रत्येक जागरूक तथा संवेदनशील व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है। जीवन में आनंद का संबंध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है और इसकी शुरुआत होती है– उसकी अंतर्यात्रा से। ऐसे ही अंतर यात्रा पर आधारित पुस्तक है ‘पुरुषोत्तम की पदयात्रा’ जिसके लेखक हैं डॉ मयंक मुरारी। 2022 में प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक मनुष्य को परिष्कृत, निर्मल बनाने, आनन्द से भरपूर करने, पूर्णता का एहसास कराने में सफल है।आध्यात्मिक ज्ञान मानव को पतन की ओर अग्रसर होने से रोकता है। 
वर्तमान सदी में भौतिकता के कारण इंसान के अंदर जो अंधकार उत्पन्न हुआ है, उसे अध्यात्म के प्रकाश से ही दूर किया जा सकता है। भूमंडलीकरण की संस्कृति और बाजारवादी प्रवृत्ति से बचने के लिए आध्यात्म ही एकमात्र सहारा है। आध्यात्मिक ज्ञान ही मनुष्य को यह समझाने में सहायक हो सकता है कि इस जगत का असली सृष्टिकर्ता और सर्वेसर्वा ईश्वर है। मानव तो उसकी एक रचना मात्र है। यहां तक कि मानव का जीवन भी नश्वर है और एक न एक दिन वह नष्ट हो जाएगा। फिर भी इस नश्वरता के पीछे इतनी आपाधापी क्यों है? 
अध्यात्मिकता वह है जो व्यक्ति को सुधारने, जानने और संवारने का मार्ग है। यह स्वयं का अध्ययन है और भाव संवेदनाओं का जागरण है, आत्म तत्व का बोध है, धर्म का मर्म है और स्व का ध्यान है। अध्यात्मिकता का उद्देश्य किसी व्यक्ति को आस्तिक या नास्तिक बनाना नहीं है और न ही किसी धर्म के पक्ष या विपक्ष में प्रचार करना है। बल्कि मनुष्य के धार्मिक जीवन से संबंधित सभी पक्षों को भलीभाँति समझना एवं उनका तर्कसंगत तथा निष्पक्ष मूल्यांकन करना है।
धर्म मनुष्य जीवन जीने का वह परम साधन है, जो मनुष्य को न केवल मोक्ष तक ले जाने के काम आता है, बल्कि ईश्वर के दर्शन और ईश्वरत्व को प्राप्त करने के मार्ग पर हमें चलाता है। धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। राष्ट्र, समाज, परिवार और मानव मात्र के हित में जो करने योग्य है, वही धर्म कहलाता है।
मयंक मुरारी जी की पुरुषोत्तम की पदयात्रा नामक इस पुस्तक में अंदर स्थित प्रकाश की खोज से मिटेगा जीवन का अंधकार,अच्छाई की अनंत यात्रा की शुरुआत अंतर्यात्रा से जरूरी, पुरुषोत्तम की यात्रा में मर्यादा की कसौटी,रात्रि में ईश्वरीय ऊर्जा की खोज करें तो जीवन आलोक से भरेगा,धन पद ही सबकुछ होता तो महात्मा बुद्ध राजपद छोड़ते!,ईश्वर का है समस्त परिवर्तनशील जगत् और इसकी हरेक वस्तु , ईश्वर की इस दुनिया में दुःख की समस्या क्यों है ?, ईश्वर का गुरुत्वाकर्षण है चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाना,जिंदगी की गुत्थियाँ सुलझाते हुए दिव्य मानव की ओर आरोहण, व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ती है हमारी प्रार्थना, नचिकेता के सवालों में जीवन की जिज्ञासा की अनंत यात्रा, एक सुंदर संबंध से जुड़ी हैं अस्तित्व की सारी रचनाएँ,जानने से ज्यादा जरूरी है जीवन को मानना,जन्म-मृत्यु से छूटने की तैयारी है पूजा-पाठ,जीवन पर चिंतन के लिए नियमित रूप से विराम लेना जरूरी,जीवन में साथी की खोज, चेतना का विकास नहीं तो मृत्यु की प्रतीक्षा है जीवन, वस्तु की भाँति है शरीर,आंतरिक सुख के लिए वृक्ष को जीवन के केंद्र में लाइए,शिक्षा का लक्ष्य ही है ज्ञान और चरित्र के आलोक की खोज,चेतना के आरोहण में निहित है श्रीराम की खोज , जीवन से दूर होते रस-रंग में स्वयं की खोज, जीवन में हम कहाँ पर अपने सिर को झुकाएँ , दो साँसों के बीच लयबद्धता पर निर्भर है स्वास्थ्य, करुणा का चरमोत्कर्ष है आँसू, सर्वश्रेष्ठ के लिए जरूरी है चेतना को उत्कृष्ट बनाना, श्रेष्ठ जीवन जीना चाहिए, लेकिन परिवार कहाँ है ?, समाज की स्वीकार्यता पर ही निर्भर है श्रेष्ठता की पहचान, स्वतंत्रता के लिए खुद को कर्म से अलग करना जरूरी, जीवन में संपूर्ण सुख का नाम है ईश्वर, जीवन को अर्थपूर्ण बनाती है फूलों की दुनिया, जीवन में गलत हो रहा हो तो पीछे मुड़कर देखें,जीवन प्रतिपल नया है, यदि हर क्षण का उत्सव मनाएँ, जो संसार में निःशुल्क है, वही जीवन के लिए बेशकीमती, जिसमें समाहित सबकुछ, वही है आकाश, वर्तमान में है आनंद, दिव्यता की अनुभूति का नाम है ईश्वर,आनेवाले कल का निर्धारण करती है हमारी दृष्टि, हमारी सार्थकता की पूर्णता में छिपा है जीवन का लक्ष्य,आत्म- जागरण से शुरू होती है जीवन की अनंत यात्रा, शांत मस्तिष्क से ही संभव है निराशा पर विजय, नदी की तरह बहने में है जीवन की मिठास, व्यक्ति का विकास नहीं हुआ तो समाज का विकास नहीं होगा ,व्यक्ति के अधिकार का पैमाना हो उसकी चेतना का विकास,सुबह सौंदर्य की शुरुआत तो शाम उसका चरमोत्कर्ष है,सरलता में सिमटी दिव्यता, दो साँसों के बीच है जीवन, जीवन में सुख की खोज, खुद जीवन की खोज है,सर्वात्मवाद से साकार होगा सर्वमंगलम्, आध्यात्मिकता का अर्थ है संतुलन का जीवन उपशीर्षकों में मनुष्य जीवन, अध्यात्म और जीवन में अध्यात्म का महत्व पर बातें की गई हैं।
मनुष्यता की मूल प्रकृति है निर्दोष, सहज और आनंद से परिपूर्ण जीवन जीना । जबकि आज उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में मनुष्य का जीवन यंत्र मय हो गया है। मनुष्य को आवश्यकताओं के अनुकूल ग्रहण करना चाहिए और इससे आगे कोई लालसा नहीं रखनी चाहिए। जब तक और अधिक पाने की लालसा बनी रहेगी, तब तक मनुष्य अन्य जीवों का हितैषी नहीं बन सकता है। जब वह सादगी अपनाकर अपनी आवश्यकताओं को समेट लेता है, उसके लिए संरक्षक की मूल भूमिका निभाना संभव हो जाता है। यह प्रयास ही आध्यात्मिक विकास है। 
यदि हम अध्यात्म की आवश्यकता पर बात करें तो यह स्पष्ट होता है कि यह मानव जीवन में संतुलन लाता है। जीवन में वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों की उपयोगिता से भी इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे मानव की सोच आधुनिक हुई है तथा उसके जीवन में आर्थिक प्रगति हुई है । लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि मानव सुख-सुविधाओं और भोग-विलास में पड़कर नैतिक पतन की ओर बढ़ने लगा है। आध्यात्मिक ज्ञान मानव को इन सबसे रोक सकता है। दुविधा और संकट की दशा में आध्यात्मिक ज्ञान सही दिशा दिखा सकता है। अध्यात्म मानव‌ की आत्मा के उत्थान के लिए भी जरूरी है। 
भौतिकवाद जीवन की ऐसी पद्धति है जो सुख-सुविधाओं, भोग-विलास और आधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण होती है। यूरोपीय देशों में विज्ञान का अधिक विकास हुआ है। इन लोगों ने अपने जीवन को भौतिकवादी बना लिया। उनका जीवन उन्हीं सुख-सुविधाओं पर आधारित है। बहुत अधिक भौतिक साधनों के संचय की इस भूख के चलते मनुष्य जल्दी ही ईमानदारी, नीति, न्याय और धर्म की सीमा लांघकर अनुचित और असत्य की राह पकड़ लेता है। तेज गति से चलता हुआ वह परमात्मा से इतनी दूरी बना लेता है कि उसकी आवाज भी सुनाई नहीं देती। ईर्ष्या, छल-कपट, असत्य और अनीति का मजबूत आवरण उसे मार्ग से भटका देता है। अपने जीवन का उद्देश्य मनुष्य भूल जाता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है? इसके उत्तर में कह सकते हैं कि मानव जीवन के सत्य को जानना, समझना, उस पर गहनता से विचार करना तथा मानव के रूप में इस धरती पर आने के उद्देश्य को समझना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।  
एक वैदिक प्रार्थना बहुत प्रचलित है ’असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतम् गमय’। इसमें कहा गया है कि ‘हे सृष्टि बनाने, चलाने व इसकी प्रलय करने वाले परमात्मन् ! आप सत्य व असत्य को जानते हैं। आप हमें असत्य से हटा कर सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा करें। मैं असत्य का आचरण न करूं और जीवन में सदैव सत्य का ही आचरण करूं, सदा सत्य व प्रकाश के मार्ग पर ही चलूं और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाऊं।’ इस वैदिक प्रार्थना में जो कुछ कहा गया है, उससे कोई भी मनुष्य असहमत नहीं हो सकता। एक अन्य उक्ति है ‘सत्यमेव जयते’। इसका अर्थ है कि सत्य की ही सदा विजय होती है। सत्य कभी पराजित नहीं होता। अतः जिसकी सदा विजय हो और जो कभी पराजय को प्राप्त न हो, उसी को हमें मानना चाहिये और उसी को आचरण में लाना चाहिये।
जब हम अपने देश के प्राचीन ऋषि व विद्वानों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि उनका जीवन सत्य को जानने व उसके आचरण को ही समर्पित था। सत्य अर्थात् ईश्वर के सत्य गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उनके अनुरूप स्तुति व स्तवन करना ही ईश्वर की पूजा कहलाता है। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि स्तुति का अर्थ स्तोत्य वस्तु के सत्य गुणों को जानकर उसका वर्णन करना होता है। ईश्वर की स्तुति की बात करें तो इसके गुणों सत्य, चित्त, आनन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निरभिमानी, पवित्र, धार्मिक, पक्षपात रहित होकर न्याय करने वाला, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, अजन्मा, सृष्टि को बनाने, चलाने, पालन करने व प्रलय करने वाला, सब जीवों को उनके कर्मों का फल देने वाला, जीवात्माओं को जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म देने वाला, अजर, अभय आदि गुणों का उच्चारण व प्रशंसा कर अपने गुणों को भी इसके अनुसार बनाना होता है। यह भी सर्वमान्य सत्य है कि ईश्वर व अपने से बड़ों की स्तुति करने से अहंकार का नाश होता है। ईश्वर व किसी महापुरुष के प्रति नत-मस्तक होने से अहंकार दूर हो जाता है। उसके प्रति श्रद्धा व आदर की भावना उत्पन्न होती है। ईश्वर सबसे महान व सर्वोत्तम सत्ता है जिससे संसार के सभी मनुष्य व प्राणी लाभान्वित हैं। महापुरुषों के जीवन में अधिकांश ईश्वर के समान व उनके जैसे न्यूनाधिक गुण होते हैं जिससे संसार के सभी लोग, कोई किसी भी मत का अनुयायी क्यों न हो, उन महापुरुषों का मत-पन्थ की संकीर्ण मान्यताओं से ऊपर उठकर उनका सम्मान करते हैं। 
‘पुरुषोत्तम की पदयात्रा’ पुस्तक में मयंक मुरारी जी ने यह घोषणा की है कि आध्यात्मिकता की ओर बढ़े बिना मानव का उद्धार संभव नहीं है और यह आध्यात्मिकता तभी हमें हासिल होती है जब हम अपने आपको यानी अपनी आत्मा को पहचानते हैं स्वयं को पहचाने बिना परमात्मा को पहचानना असंभव है। स्वयं के भीतर यह पदयात्रा जब प्रारंभ होती है तब ही आत्मा जागृत अवस्था में पहुंचती है। 
वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति आध्यात्मिकता, धर्म-दर्शन, जीवन मूल्यों को नकारती है। लेकिन मानव के विकास के लिए अध्यात्म की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। भारतीय परंपरा एवं जीवन मूल्यों पर अध्यात्म का अकाट्य प्रभाव रहा है। इसे जागृत किए बिना भारतीय जीवन मूल्यों को फिर से पाया नहीं जा सकता है। यह पुस्तक इस तथ्य को अनेक उदाहरणों से प्रकट करती है। प्रभात प्रकाशन से पेपरबैक संस्करण में ₹300 मूल्य की यह पुस्तक हम सभी को जरूर पढ़नी चाहिए।
डॉ कुमारी उर्वशी
सहायक प्राध्यापिका,
हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज 
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