Monday, May 20, 2024
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रीता गुप्ता की कहानी – मीनू जाओ न

रंजना फोन के उस पार से सुपर्णा की चहकती हुई सी आवाज सुन रही थी। रंजना के मन में जैसे कुछ बुझ गया। उससे ज्यादा सुनी नहीं गयी और उसने हूँ-हाँ कर मोबाईल ऑफ कर दिया। अपनी सखी के लिए हर पल सुखद कामना करने वाली रंजना को उसकी चहचाहट – उसकी प्रसन्नता बर्दास्त नहीं हो रही थी। उसने ऐसा तो नहीं चाहा था….  
सुपर्णा की आवाज देर तक गूँजती प्रतीत होती रही मन के द्वारे, अचानक लगा जैसे कुछ दरक गया। मन की इच्छाएं जब विछिन्न होती हैं तो किरचें चुभती ही हैं। जो एक सपना बुन लिया था, मीनू के जाने की बाद की उसके धरे रह जाने पर उसे क्यूँ दुख हो रहा, ये बात रंजना को खुद अपनी नजरों में गिराने लगा। 
रंजना और सुपर्णा दोनों बचपन की सहेलियाँ, बचपन यानि कि बिल्कुल बालपन की, लगभग तीन वर्ष की उम्र में शुरू हुई थी ये दोस्ती। दोनों के माता-पिता की दोस्ती थी तो उन दोनों की भी दोस्ती बनी रही और चलती रही उम्र के ढलान तक। बाद में तो वर्षों बरस उनका मिलना नहीं हुआ पर नेह बंधन जुड़ा रहा। पिताओं के तबादलों ने भले दूरियाँ ला दी पर चिट्ठियों और बाद में टेलीफोन ने उनके दिलों के तार को जोड़े रखा। रंजना की शादी और फिर बच्चें जल्दी हुए सो उसका जिंदगी में जल्दी व्यस्त होना शुरू हुआ, वहीं जब सुपर्णा के बच्चें छोटे ही थे तब तक रंजना अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बहुत हद तक निपट चुकी थी। 
सुपर्णा का बड़ा बेटा बहुत ही मेघावी था और सुपर्णा आए दिन उसके किस्से सुनाती। शादी से ले कर बच्चों के बड़े होने तक में दोनों सखियाँ मिल नहीं पाईं थी। अपनी बेटी के बारें में सुपर्णा याद-कदा ही चर्चा करती या नहीं ही करती। और फिर वर्षों बाद कुछ ऐसा क्रमचय संयोजन हुआ कि दोनों एक शहर और एक मुहल्ले में रहने आ गईं। अब तक जो बातें दूरभाष पर थी वह प्रत्यक्ष थी। 
बचपन से हर कक्षा में प्रथम आने वाली,  मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाली उसकी दोस्त की जिंदगी इस कदर ईश्वर ने बोझिल कर रखी है। रंजना की विचलन और बढ़ गई थी जब सुपर्णा के पति से मिली। उनका व्यवहार बहुत सही नहीं लगा था, अजीब तरह की चुप्पी का चादर पड़ा था उनपर। उसकी तेजस्विनी दोस्त, के चेहरे से वह कान्ति ही लुप्त थी जो उसकी साँवली रंगत को भी विशिष्ट बनाती थी। सुपर्णा का बेटा देश के सबसे प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला ले चुका था और ‘बेटी मीनू’ जिसे देख रंजना को एक पल को काठ मार गया था, कोई बारह तेरह वर्ष की थी उस वक़्त। शरीर से तो हृष्ट पुष्ट  पर आत्मलीन व्यक्तित्व। आवाज नहीं पर उसकी उपस्थिति से मानों सब कोलाहल में डूबे हों। रंजना उस दिन सो नहीं पाई थी जब उसने जाना कि सुपर्णा की बेटी को एक बुरे किस्म का ऑटिज़म है, एक प्रकार का मानसिक विकार।
रंजना देखती सुपर्णा एक संकोच से भर जाती जब कभी मीनू अचानक ‘आँ आँ’ की शोर मचाती, बिल्कुल रुआन्सी हो जाती और चेहरा क्लांत हो जाता। सुपर्णा बताती,
“जब तक बेटा था तब तक मीनू की उपस्थिति उतनी नहीं खलती थी, शॉक अब्सॉर्बर की तरह वह हमारे ध्यान को अपनी तरफ मोड़ लेता। अब जब वह हॉस्टल चल गया है तो सिर्फ मीनू ही मीनू दिखती है मानो”
“पहले ये इतने गंभीर और खड़ूस से नहीं थे। हम तीनों हर वीकेंड मूवी जाते, होटल में खाते और शॉपिंग करते हुए घर आते। बिल्कुल जैसे तुम अभी जाती हो। पर अब तो वर्षों हो गयें होंगे जो हम सिनेमा या होटल गये होंगे। मन ही नहीं करता, बेटा के जाने के बाद एक दमघोंटू मनहूसियत पसर गया है हमारे बीच। मीनू को ले कर कहीं जाना बहुत मुसीबत है, एक तो वह असहज हो जाती है और दूसरे बेकार में हर जगह एक सीन क्रिएट हो जाता है। सो घर पर ही रहना ठीक है, बाबा”
कहते कहते सुपर्णा की आँखों से आँसू निकल जाते। अब तक उसने एक क्षद्म पर्दा बनाए रखा हुआ था अपने और रंजना के बीच, जिससे उसकी बचपन की दोस्त को सिर्फ उसकी जिंदगी के हसीन पल ही दिखते थे पर अब पास रहने की वजह से सब बेपर्द हो गया था। रंजना भी महसूस करती उसकी असहजता को। सुपर्णा और उसके पति के बीच के तनाव को भी वह भांप रही थी, बेटी की मानसिक रुग्णता पूरे परिवार की खुशी पर हावी रहती थी। 
छुटपन में जब से मीनू की तकलीफ समझ आई थी, सुपर्णा अपनी नौकरी छोड़ उसे स्पेशल बच्चों के स्कूल ले कर जाने लगी थी। घर का सारा रूटीन दैनिक दिनचर्या सब मीनू के अनुसार ही चलते थें। सुई की नोक जितनी भी बातें मीनू सीखती थी तो सुपर्णा की खुशी का ठिकाना न रहता। उतना खुश तो सुपर्णा उस दिन भी नहीं हुई थी जब बेटे का सिलेक्शन एक प्रिमियर इंस्टिट्यूट में हुआ था जितना एक दिन मीनू के द्वारा प्लास्टिक के डब्बे के ढक्कन को खोल अंदर से बिस्कुट निकालने पर हुई थी। बार बार सुपर्णा रंजना को बताते रही थी कि कैसे मीनू ने न सिर्फ ढक्कन खोल लिया बल्कि बिस्कुट निकाल कर फिर बंद भी कर लिया। 
रंजना उस खुशी के पैमाने के सिरे को खोजती रह गई थी।   
रंजना जब मिल कर आती अपनी दोस्त से, देर तक तड़पती रहती, अनगिनत पल बचपन के, याद आ जाते जो सुपर्णा के साथ उसने बिताए थे खुशियों भरे पल स्वच्छंदता भरी उड़ान। कितनी खुश थी सुपर्णा शादी के बाद भी, मीनू ने आ कर उसकी जिंदगी ही पलट दी है। जब जब ये ख्याल आता, रंजना मीनू के अस्तित्व को ले प्रश्न चिन्ह के सलीब पर लटक जाती। सुपर्णा का हर पल मानों मीनू को समर्पित था, कभी उसे टॉयलेट में बैठाती तो कभी उठाती। कभी कुछ खाने-खिलाने की जद्दोजहद में रहती तो कभी उसकी आँ आँ की टेर को सुलझाती दिखती। सच पूछा जाए तो सुपर्णा के लिए जिंदगी में किसी के लिए अब कोई वक़्त नहीं था, न पति न बचपन की सहेली ना ही रिश्तेदारी। हर फूल मीनू देवी पर। 
उसके बेटे को सब चाहते थे पर मीनू हमेशा अवांछित ही बनी रही अपने ददिहाल में। सुपर्णा की जिठानी ने अपने बच्चों की शादी में भी सगे देवर के परिवार को नहीं बुलाया था। ये एक तरह का सामाजिक बहिष्कार था जिसे सुपर्णा झेल रही थी। रंजना को लगता कि यदि मीनू न हुई होती तो उसकी दोस्त की जिंदगी कितनी हसीन होती। वह अक्सर सुपर्णा की मम्मी से भी इस विषय पर चर्चा करती। 
“आंटी मीनू ने सुपर्णा को बदल दिया है। यह वह रही ही नहीं जो हुआ करती थी, आज कितनी बड़ी पोस्ट पर होती यदि इसकी नौकरी जारी रहती”…. 
कुछ इसी तरह की बाते करती तो आंटी भी इन्हीं विचारों को समर्थन देते हुए कहती,
“मुझे तो अपना ये जमाई पसंद ही नहीं, सुपर्णा का जीवोन का सर्बोनास कर दिया है। हाम लोग तो सुपर्णा को बोलता है कि उसको छाड़ी दायो, उसका बेटी को उसको ही दे कर चोले आसो। पर सुपर्णा तो पागोल है, आमरा की कोरते पाड़ी” 
आंटी बांग्ला-हिन्दी मिश्रित दुखी स्वर में कहती। इस तरह से वह मायके-ससुराल दोनों तरफ से उपेक्षा झेल रही थी। माँ की इस शर्त को कि बेटी को छोड़ कर हमेशा के लिए चले आओ उसने कभी नहीं स्वीकारा, उल्टे मायके जाना ही बंद कर दिया। 
“क्या करूँ माँ, ट्रेन या प्लेन में मीनू परेशान होने लगती है। दिनचर्या में हल्का बदलाव भी वह बर्दास्त जो नहीं कर पाती है” 
सुपर्णा अपनी माँ को कह देती। 
दो वर्ष ही दोनों सखियाँ साथ रहीं फिर मुहल्ला शहर के साथ साथ राज्य भी बदल गयें। फिर से फोन बनने लगा सेतुबंध। धीरे वह भी कम होने लगे कि लगभग तीन चार साल के बाद एक दिन सुपर्णा के बेटे की फोन आई,
“आंटी मम्मी गहरे अवसाद में चली गई है, किसी से बातचीत नहीं करती और न ही उन्हे खाने-पहनने का होश है। आप एक बार आइए कहीं उन्हे अच्छा लगे, डॉक्टर ने ही ये सुझाव दिया है”
रंजना दौड़ी गई थी उसके शहर,
पर वहाँ तो उसकी दोस्त उसे मिली ही नहीं। पहले कम से कम अपने दर्द तो कहती थी अब तो बस सूनी विस्फारित नेत्रों से जाने किस क्षितिज के पार देख रही थी। बगल में बैठी मीनू जो अब बड़ी बड़ी लग रही थी वैसे ही आँ आँ चिल्ला रही थी। बेटा नौकरी से छुट्टी ले कर सुपर्णा का इलाज करवा रहा था, मनोचिकित्सक से। उस के पति से भी रंजना का सामना हुआ, वह भी मानों किसी और दुनिया में ही लगा। एक मीनू और पूरा घर इस हाल में – रंजना सोचती रह गई मीनू के होने का औचित्य। 
सुपर्णा की जिंदगी में पर जीवन फिर लौटा, उसके बेटे के ही कारण। जब वह एक लड़की को ले कर एक दिन घर आया, सबसे मिलवाने। सुपर्णा की होने वाली बहू, वह सब जानती थी। उसने आते ही मीनू को गले लगा लिया, सुपर्णा की हथेलियों को पकड़ कहा,
 ‘आप मीनू की चिंता छोड़िए ये हमारी जिम्मेदारी है”
सुपर्णा को कई लोग कह देते थे कि तुम्हारे बेटे से कौन शादी करेगा, अब जब बहू सामने आ गई तो मानों फिज़ा बदल गया। एक अरसे के बाद रंजना को उसने फोन कर चहक चहक बताया कि,
“मैं जाती-धर्म नहीं देखूँगी, अब यही मेरी बहू बनेगी। तुम्हें शादी में आना है इत्यादि इत्यादि.. जानती हो मीनू के पापा भी बहुत खुश हैं”
सचमुच मीनू के जन्म के पश्चात वह पहली खुशी होगी जो सुपर्णा के घर सेलब्रैट की गई। बहू वाकई बेहद समझदार थी, बेटे ने सही निर्णय लिया था उसे चुन कर। ईश्वर यूँ भी सारे दरवाजे कभी नहीं बंद करता है किसी के लिए भी। पहली बार शायद पुत्रीवत सुख उसे प्राप्त हुआ था, पुत्री तो वर्षों से थी पर सुख वर्षा में अब भींग रही थी सुपर्णा। जीवन की गाड़ी फिर वैसे ही हिलती-डोलती पटरी पर आ लड़खड़ाती खटर पटर कर सरकने लगी कि एक दिन रंजना को फिर उसका फोन आया,
“मीनू की बच्चेदानी में बड़ा सा ट्यूमर हो गया है, डॉक्टर को कैंसर की आशंका है। आनन फानन में कल ही ऑपरेशन होगा। शायद ट्यूमर फट चुका है, रंजना तुम प्रार्थना करना कि सब ठीक हो। मेरे पास तो वक़्त ही नहीं कि ईश्वर को प्रार्थना भी करूँ”
रंजना के मन में अचानक खयाल आया सब ठीक तो मीनू के जाने के बाद ही होगा। प्रार्थना तो उसने की पर मीनू के न बचने की। उसे लगा कि आखिर खुशियों को सुपर्णा के घर का पता मिल ही गया, इतनी अच्छी बहू मिल गई और अब मीनू न रहेगी तो वह अपनी जिंदगी अभी से भी जीने लगेगी। ढेरों स्वार्थी स्वप्न उसने सहेली के लिए सजा लिए। उम्र गिनी तो पाया कि 22 वर्ष की ही रही ये तकलीफ। 
अगले दिन, दिन भर कोई फोन नहीं आया, ज़्यूँ ज़्यूँ वक़्त बीत रहा था रंजना को महसूस होने लगा था कि मीनू शायद न बची।  पर… पर… शाम को सुपर्णा का फोन आया चहकते हुए,
“रंजना, तुम्हारी प्रार्थना सफल हुई। खतरा टल गया है यूटरस और ट्यूमर निकाल दी गई है और वैसे तो अभी जांच के लिए गया हुआ है पर कैंसर नहीं है ऐसा डॉक्टर ने कहा। मुझे लग रहा था कि मीनू को कुछ हो जाता तो मैं कैसे जीती, मेरे इतने वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाता। उसके पापा भी कह रहें सारी उम्र हमने इसके लिए पैसा जमा किया कंजूसी से रहते हुए और ये ही कैसे चली जाती। मेरी बेटी सदा मेरे साथ रहेगी”
सुपर्णा ने जल्दी जल्दी उसे खबर दी और साथ ही कहा,
“अब फोन काटती हूँ रे, माँ को भी अभी नहीं खबर दी हूँ कि मीनू का ऑपरेशन सफल रहा। और लोगो को भी बताना है, सोचती हूँ पहले मंदिर ही चली जाऊँ। अच्छा हुआ न अब उसे हर महीने की मासिक तकलीफ से भी छुटकारा मिल गया। मीनू की कुछ तस्वीरें तुम्हें व्हाट्सएप करती हूँ, कितनी प्यारी लग रही है सोती हुई अर्धबेहोशी में”
सुपर्णा की खुशी फोन से बाहर निकल कर कमरे में फैलती जा रही थी। 
सुपर्णा तो चुप हो गई थी, फोटो आने की नोटिफिकेशन साउंड कमरे की नीरवता भंग करने लगी। हर टिकटिक उसके दिल पर वार कर रही थी। दिल हमेशा सही नहीं होता… उसे वार सहन करना ही होगा। 
 रंजना मोबाईल हाथ में लिए काठ बन बहुत देर तक आत्मग्लानि से गलती रही, आखिर वह भूल कैसे गई थी कि सुपर्णा सिर्फ उसकी सहेली नहीं एक माँ भी है। कितना गलत होता जो ईश्वर आज उसकी सुन लेता? क्या सुपर्णा की ये चहकती आवाज वह फिर कभी सुन पाती। जैसी भी है “मीनू” वह उसकी सहेली के वर्षों के मेहनत का फल है। अचानक माँ का स्वरूप इतना बड़ा होता दिखा कि सहेली की आँखें चुँधिया गई। जिस तस्वीर के समक्ष बैठ आज दिन भर उसने प्रार्थना की थी मीनू को उठाने की, उसी के सामने सर झुका कर धन्यवाद देने लगी,
“हे भगवान अच्छा हुआ आपने मेरी अर्जी को नामंजूर कर दिया। मुझे माफ कर दीजिए”
अगले ही पल रंजना सुपर्णा को फोन लगाने लगी,
“सुपर्णा तू कहे तो कुछ दिन तुम्हारे पास आ जाऊँ? तुम आराम कर लेना और मैं मीनू को संभाल दूँगी”
रीता गुप्ता 
राँची 
204 BW, Koylavihar Apartment,
Kanke Road, RANCHI,
Jharkhand-  834008 
मोबाइल – 9575464852  
ईमेल – rita204b@gmail.com 
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2 टिप्पणी

  1. रीता गुप्ता जी आज फिर आप कि कलम से एक बेहद मर्मस्पर्शी कहानी “मीनू जाओ ना” पढ़ने को मिली l माँ और बच्चे के प्रेम को दरक्षति ये कहानी अंतस तक छू गई l भले ही मीनू को परिवार में किसी का प्यार ना मिला हो, भले ही केवल सुपर्णा अकेले ही उस को पालती रही हो पर मीनू सुपर्णा की धड़कन बन गई है, इसे उसकी करीबी मित्र रंजन भी ना जान सकी l रंजन के माध्यम से आपने समाज की सोच को दर्शाया है कि कैसे हम विशिष्ट बच्चों के लिए कठोर हो जाते हैं l हमें उँ बच्चों को पालना नहीं होता l और बाहर से बैठ कर हम माँ की परेशानियाँ ही गिनते हैं उनका प्रेम हम नहीं देख पाते l इस संवेदनशील कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई

  2. माँ तो माँ ही होती है। बच्चा कैसा भी हो, वह उसके लिए ही हंसती है, उसी के लिए रोती है। मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कहानी। बधाई रीता जी।

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