संस्कृतियां और भाषाएं दोनों एक दूसरे की वाहक होती हैं। इसके बिना मनुष्य जीवन तो अधूरा है ही चर अचर भी अधूरा है।
दो सौ वर्षों का साम्राज्यवादी शासन झेलने के बाद हिंदी नष्ट होने के बजाय और गतिशील होती चली गई।
साधु संतों फकीरों व्यापारियों शासकों धर्मिक स्थलों और आम जनता ने जिस हिंदी को गढ़ा वो दक्षिण में अपनी पहचान दक्खिनी के रूप में बनाती रही या जो हिन्दी हिदुई,हिंदवी,एंदुई,या फिर रेख़्ता – रेख्त हो कर स्वतंत्रता आन्दोलन का माध्यम बनी। चाहे वो समाचार पत्रों के माध्यम से हों या जन जागरण के गीतों के माध्यम से हो।
कहने का आशय यह है कि स्वाधीनता दिलाने से ले कर स्वभाषा, स्वदेशी, सुराज,तक की यात्रा में हिंदी को परिष्कार, संशोधन और समन्यव्य की अनेक स्थितियों से हो कर गुजरना पड़ा है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पश्चिमी घाट से ले कर अरुणाचल तक देश के सांस्कृतिक विस्तार में हिंदी की बहुत बड़ी भूमिका है।
विभिन्न जो छोटी बड़ी संस्कृतियां हैं, उनकी अपनी अलग भाषाएं हैं हर भाषा की अपनी एक संस्कृति होती है जो हजारों वर्षों में विकसित होती है जिसके मूल में हिंदी हैं।
जिस भी देश ने, भाषा ने अपने सांस्कृतिक द्वार नहीं खोले, अपने को विस्तार नहीं दिया वो सिकुड़ कर दम तोड़ देती हैं उनका विलोपन हो जाता है।
वहीं हिंदी सहज प्रवाह में निरन्तर आगे बढ़ रही है जिसे छोड़ना है छोड़ दिया और जिसे साथ लेना है उसे परिष्कृत कर आत्मसात कर रही है।
साहित्य, वाचिक परम्परा, कला, सिनेमा,नृत्य, ड्रामा, गीत संगीत, सामाजिक परिवेश, सोच, जीवन शैली सब भाषा के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।
हिंदी के प्रचार प्रसार के नाते जो हिंदी का पाठक वर्ग है वो दूसरी संस्कृतियों से परिचित हो रहा है “भारतीय संस्कृति कोई एकल संस्कृति नहीं है”
यह बहुविधि संस्कृतियों का समुच्चय है। विभिन्न संस्कृतियों के खान पान आचार विचार रहन सहन धर्म जाति। देश की अखंडता के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरे भाषाओं के धर्म का, समाज का जो सामाजिक ताना बाना है उसमें जो कुछ अच्छा है उसका आदान प्रदान करें।
पूर्वोत्तर में बहुत सी पहाड़ियां है। हर पहाड़ी की अलग भाषा है,शैली है। एक पहाड़ी के लोग दूसरे पहाड़ी के लोगों से अपरिचित रहते हैं वहां हिंदी ही संपर्क की भाषा बनी हुई है।
हिंदी भाषी संस्कारों के लोग दुनियां के हर मुल्क में पहुंच चुके हैं। वहां वे हिंदी में ही खबर सुनते हैं हिन्दी में ही लिखते पढ़ते हैं। विदेशों से हिंदी के अनेक साहित्यिक पत्र पत्रिकाएं निकलती हैं।
संपर्क भाषा के रूप में हिंदी एक दूसरे को जोड़ने का काम करती है।
प्रादेशिक लोक पर्व छट पूरे देश में मनाया जाता है यह लोक संस्कृतियों के विस्तार का सामाजिक ढांचा है। इसका श्रेय हिन्दी को ही जाता है।
यह नवीन और प्राचीन का समन्वय है इकबाल को पंक्तियां हिंदी भाषा पर सटीक बैठती हैं कि
“ईरान मिश्र रोमा सब मिट गए जहां से
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरें जहां हमारा।”
हिंदी “उच्छल जलधि तरंग” की तरह बहती जा रही है नए स्वरूप नए रंग और नए ढंग में।
भाषा समाज की रचना का मुख्य आधार है और समाज की प्रगति में भाषा का मुख्य आधार है। हिंदी देश को अखंड भारत बना कर एक सूत्र में बांधने का काम तो कर ही रही साथ ही यह अपनी सरहदों से बाहर जाकर भी अपना जश्न मनाती है।
जब भारत के किसी भी क्षेत्र का रहवासी विदेश में कहीं जाता है तो वहां उसकी पहचान किसी क्षेत्र विशेष से नहीं अपितु उसके हिन्दू राष्ट्र और हिंदी से होती है।
जन गण मन की भाषा हिन्दी सरकारी दफ़्तर में अनुशासित और लोक व्यवहार में बहुत ही सरल हो जाती है। मुहावरों, कहावतों के माध्यम से गागर में सागर भरती है।
हिंदी की देवनागरी लिपि बहुत ही सर्व सिद्ध मान्य रूप से मनोवैज्ञानिक है।
इसे हम जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते हैं इसमें कोई भी बनावटीपन नहीं परंतु बहुत ही सरल और सहज और आत्मीय भाषा है और जो सरल होता है उसको परिभाषित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है।
मानक हिंदी ने देशी विदेशी अनेक शब्दों को ग्रहण किया और अपने परिवार की अनेक बोलियों और भाषाओं के प्रभावकारी तत्वों और शक्तियों को मिला कर एक परिष्कृत खड़ी बोली का शानदार रूप गठित किया है जो आज राजभाषा का गौरव बन गई है।
कोई कहीं से भी आए किधर भी आए सबके साथ घुल मिल जाती है।
इसमें पश्चिमी की अकड़ता और पूर्वी हिंदी कि मधुरता का सुंदर समन्वय किया है।
लोक भाषाओं बोलियों को उदरस्थ कर अपना स्वास्थ्य पाया है।
हिंदी के नए समाजशास्त्र ने हिंदी के एजेंडे को बदल कर रख दिया है। हिंदी की व्यापकता को देखते हुए यह कहना असंगत न होगा कि कई माध्यमों से इसने ख़ुद को विस्तार दिया है माध्यम चाहे हमारे रहन सहन का हो, बोल चाल का हो, व्यापार का हो, मनोरंज का हो हिन्दी कि चादर फैलती जा रही है।
हिंदी की पहुंच को वैश्विक बनाने में इंटरनेट का अप्रतिम योगदान है। यह माध्यम हिंदी भाषियों को जोड़ने के लिए सेतु का काम कर रहा है। गांव खेत खलिहान से लेकर सात समन्दर पार तक तक हिंदी की संप्रेषणीयता बढ़ी है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी कि स्वीकार्यता बढ़ी है। इसके केंद्र में वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा है।
अक्सर तीर्थ स्थलों पर बड़ी संख्या में विदेशियों का ग्रुप हरे रामा हरे कृष्णा का जाप करते हुए दिख जाता है। कहना गलत न होगा कि यह भारतीय दर्शन, सांस्कृतिक परम्पराओं और हिंदी का आकर्षण ही है।
गिरजा कुमार माथुर की पंक्तियां स्मरण हो रही हैं कि…
“सागर में मिलती धाराएँ
हिंदी सबकी संगम है,
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे
एक भरोसा अनुपम है,
गंगा कावेरी की धारा
साथ मिलाती हिंदी है”
पूरब-पश्चिम/ कमल-पंखुरी
सेतु बनाती हिंदी है।
सांस्कृतिक विस्तार केवल संस्कृति तक सीमित नहीं रहता है इसका प्रभाव हर क्षेत्र में पड़ता है। हमारे जीवन में लोगों को स्वतः जिज्ञासा होने लगती है जिससे न केवल हमारा सम्मान बढ़ता है बल्कि हमारी आर्थिक प्रगति के दरवाजे भी खुल जाते हैं।
हिंदी हमारे सांस्कृतिक विस्तार की एक ऐसी मजबूत कड़ी है जिसके द्वारा ही हम अपने वैभव को एकीकृत रूप से और अपनी पहचान स्थापित करते हुए विश्व को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं।
“मानस भवन में आर्य जन जिसकी उतारें आरती
भगवान विश्व भर में गूंजे हमारी भारती”
यह सच है कि “हिंदी भारतीय सांस्कृतिक विरासत को समझने और खोलने की कुंजी है।
उम्दा लेख,,,आपको हार्दिक बधाई शैलजा जी