Saturday, July 27, 2024
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शिवकांत (लंदन) की वॉल से – कुलविंदर कौर के थप्पड़ का मुहब्बत की दुकान से क्या संबंध है?

भारत में कितने संगठन होंगे जो अपने-अपने समुदाय के सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों में लगे हैं? दारुल उलूम देवबंद, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, तबलीग़ी जमात, पसमांदा मुस्लिम महाज़, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, संत निरंकारी मिशन, बाइबल सोसाइटी, नेशनल काउंसिल ऑफ़ चर्चिज़, क्रिस्टियन यूनियन, बुद्धिस्ट सोसाइटी और इंटरनेशनल बुद्धिस्ट कॉन्फ़ेडरेशन जैसे दर्जनों संगठन हैं जो सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों के साथ-साथ राजनीतिक विचारधाराओं को भी प्रेरित करते हैं।
कभी आपने इनके बारे में वैसी भाषा का प्रयोग सुना जैसा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के लिए किया जाता है। निक्कर चड्ढी या केवल संघी शब्द में इतनी नफ़रत भर दी गई है कि सुनने वाले को बुरा लगता है। सत्तर के दशक तक यह स्थिति नहीं थी। क्योंकि तब तक जनसंघ और भाजपा की हैसियत आज की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह कुछ सीटों तक ही सीमित थी। आपात-काल के बाद जैसे-जैसे कांग्रेस का राजनीतिक पतन और भाजपा का उदय शुरू हुआ संघ को लेकर फासीवादी नैरेटिव और हव्वा खड़ा किया जाने लगा। यहाँ तक कि भाजपा समर्थकों को भी भक्त और अंधभक्त कहा जाने लगा और राष्ट्र नायकों में भी भेदभाव बरता जाने लगा। वीर सावरकर सरीखे स्वातंत्र्य सेनानी माफ़ी-वीर बना दिए गए।
वाजपेई सरकार के ज़माने में भी भाजपा वालों को निक्कर और संघी कौन कहता था? 
कांग्रेस ने देश पर पहले चालीस साल लगभग एकछत्र राज्य किया। उनका या उनके वैचारिक गुरू कम्युनिस्टों के तो कभी इस तरह के नफ़रती नाम नहीं घड़े गए। तो आज ये जो मोहब्बत की दुकान लिए देश को जोड़ने की यात्राएँ करते घूम रहे हैं इनसे पूछा जाए कि राजनीतिक नफ़रत के बीज बोए किसने थे? 
जवाब में शायद कहा जाए कि राजनीतिक नहीं, हम तो सांप्रदायिक नफ़रत को मिटा कर मोहब्बत बहाल करना चाहते हैं। तो इनसे पूछा जाए कि जिस अल्पसंख्यक राजनीति के बल पर इनकी सत्ता चली उसका आधार क्या है? 
सारे भारतीय एक ही नस्ल के हैं इसलिए नस्ली आधार पर तो कोई अल्पसंख्यक हो नहीं सकता। जातियों का वर्गीकरण ही अलग है तो फिर अल्पसंख्यकता का आधार क्या है? धर्म ही तो है! तो फिर अल्पसंख्यकों की राजनीति करना कैसे सांप्रदायिक नहीं है और बहुसंख्यकों की राजनीति करना कैसे सांप्रदायिक हो जाता है? 
जिस सांप्रदायिक नफ़रत को दूर करने के लिए आप मोहब्बत की दुकानें खोलते फिर रहे हो उसे अल्पसंख्यक राजनीति करके फैलाया किसने?
जब नागालैंड, मिज़ोरम और मणिपुर में हिंदूईसाई, कश्मीर में हिंदू-मुसलमान और पंजाब में हिंदू-सिख नफ़रत फैल रही थी तब न संघ की कोई राजनीतिक हैसियत थी और न भाजपा की। 
यह जो कथित किसान की बेटी आहत हुई है इनकी माता जी जिस आंदोलन में बैठी थीं उसके नेताओं ने लाल किले से तिरंगा उतार कर खालिस्तानी झंडा फहरा दिया था तब ये आहत क्यों नहीं हुईं? 
अमेरिका की संसद पर धावा बोलने वाली ट्रंप के गुंडों की भीड़ जिसे लेकर पूरी लोकतांत्रित दुनिया आहत हुई घूमती है, उसमें और लाल किले से तिरंगा उतार कर वहाँ खालिस्तानी झंडा फहराने में क्या ख़ास फ़र्क़ है?
आप कहेंगे कि इसमें कुलविंदर कौर की माता जी का क्या कसूर है? वे तो अपनी माँगों के लिए आंदोलन में गई थीं! तो हाँ, बिल्कुल नहीं है। पर आंदोलनों में भाग लेने से पहले आपको यह सोच कर जाना चाहिए कि वे एक राजनीतिक प्रक्रिया होते हैं जिसका समर्थन भी होता है और विरोध भी। 
आप आंदोलन करेंगे तो आपसे असहमति रखने वाले लोग आपकी आलोचना भी करेंगे। यदि हर आंदोलनकारी आलोचना की कड़वी बातों से आहत होकर असहमति रखने वालों को तमाचे रसीद करने लगा तो फिर राहुल गाँधी, सोनिया गाँधी, प्रियंका, मोदी हर किसी को तमाचे खाने के लिए तैयार रहना होगा। 
यदि आप आहत भावना वाले सिपाही के तमाचे की हिमायत करेंगे तो आप सुरक्षा बलों में अनुशासनहीनता को न्योता दे रहे हैं। 
जैसे श्रीलंका की परेड में वहाँ के सैनिक ने स्वर्गीय राजीव गाँधी पर बंदूक का हत्था जड़ दिया था और इंदिरा जी के शरीर में उनके अपने अंगरक्षकों ने दर्जनों गोलियाँ उतार दी थीं वैसे ही कोई भी सिपाही किसी भी बात से आहत होकर किसी के साथ कुछ भी कर सकता है। आख़िर सिपाही भी इंसान है और हर सिपाही किसी न किसी की किसी न किसी बात से आहत रहता है! क्या आप यह होते देखना चाहते हैं कि वह खुद को पहुँचे आघात के बदले उसी पर आघात कर दे जिसकी रक्षा लिए उसे तैनात किया गया है? क्या ऐसी जंगलराजी अराजकता चाहिए?
एक सिपाही के आहत होकर एक जनप्रतिनिधि पर वार करने का मोहब्बत की दुकान से संबन्ध यह है कि जब आप कानून और अनुशासन को ताक पर रखकर अपने से असहमति रखने वालों के प्रति नफ़रत और हिंसा के बीज बोयेंगे और अनुशासन व कानून तोड़ने वालों की हिमायत करेंगे तो आप मोहब्बत की दुकान का बोर्ड लगा कर नफ़रत का ज़हर बेच रहे हैं जो ज़हर का बोर्ड लगाकर ज़हर बेचने वाले आतंकियों से भी घटिया और ख़तरनाक काम है। 
यह काम उस परिवार का वारिस करे जिसके दो पुरखे इसका घातक अंजाम झेल चुके हों तो और कुछ कहने को बाक़ी क्या रह जाता है?

शिवकांत (लंदन)
मोबाइल – +44 7305 177949
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2 टिप्पणी

  1. आपने जो नफरत की राजनीति और लोगों को मानसिकरूप से बाँटकर शत्रुता का बीज वपन करने के मुद्दे को जिस शालीनता और निष्पक्षता से लिखा है। इसके लिए आपको साधुवाद।

  2. आपने बहुत सही लिखा शिवकांत जी !आपकी हर बात से हम पूरी तरह से सहमत हैं!
    एक प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए अगर आप उस पद का सम्मान नहीं कर पाते हैं तो यह बड़ा अपराध है।
    आपने बहुत ही शालीनता से बिना नाम लिए अपनी बात कही। पर चंद दिनों पहले ही इस विषय पर काफी बहस हुई है।
    थप्पड़ मारकर भले ही आप आत्मसंतुष्टि कर लें लेकिन जो गलत है ,वह गलत ही है।
    विधायक और सांसदों को या किसी भी नेता को भी चाहिए कि अपनी भाषा में मर्यादा रहे । नियम सबके लिए एक से होते हैं।कुर्सी की गर्मी किसी को इतनी भी न हो कि वह आदमी को आदमी ना समझे।
    बेहतरीन लेख के लिए बधाई आपको।
    आपने बहुत सही लिखा शिवकांत जी !आपकी हर बात से हम पूरी तरह से सहमत हैं!
    एक प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए अगर आप उस पद का सम्मान नहीं कर पाते हैं तो यह बड़ा अपराध है।
    आपने बहुत ही शालीनता से बिना नाम लिए अपनी बात कही। पर चंद दिनों पहले ही इस विषय पर काफी बहस हुई है।
    थप्पड़ मारकर भले ही आप आत्मसंतुष्टि कर लें लेकिन जो गलत है ,वह गलत ही है।
    विधायक और सांसदों को या किसी भी नेता को भी चाहिए कि अपनी भाषा में मर्यादा रहे । नियम सबके लिए एक से होते हैं।कुर्सी की गर्मी किसी को इतनी भी न हो कि वह आदमी को आदमी ना समझे।
    बेहतरीन लेख के लिए बधाई आपको।
    प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का शुक्रिया।
    पुरवाई का आभार।t

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