पुस्तक: मछली-मछली कितना पानी, लेखक- प्रताप सहगल प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002। संस्करण 2021 मूल्य 295/- रुपए मात्र
साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में प्रताप सहगल एक बड़ा और समादृत नाम है। उन्होंने साहित्य से जुड़ी लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। कविता, उपन्यास, कहानियाँ, नाटक, रेडियो नाटक, यात्रा-वृत्तांत और डायरी लेखन आदि। उनके नाटकों का मंचन तो देश भर में समय-समय पर होता ही रहता है। वे असाधारण प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं। कई सम्मानों से अलंकृत।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद उनकी ग्यारह कहानियाँ उनके कहानी-संग्रह ‘मछली मछली कितना पानी’ में संकलित हैं, जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसका दूसरा संस्करण पिछले माह निकला है। (इस आलेख का आधार यही कहानियाँ हैं) उनकी यह कहानियाँ आज के समय से सीधा साक्षात्कार करवाती हैं। इन्हें वर्तमान समाज का प्रतिबिंब कहा जा सकता है। पारिवारिक मूल्यों का विघटन, बदलते हुए सामाजिक मूल्य, राजनीतिक एवं धार्मिक विसंगतियाँ तथा मानवीय व्यवहार इन कहानियों का केन्द्र है।
भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज है। पिता ही परिवार का मुखिया और परिवार की रीढ़ की हड्डी है। उसी पर सब दायित्त्व है। परिवार की शाखाओं एवं पत्तों का उत्तरदायित्त्व मुख्यत: उसी पर होता है। हिन्दी में पिता को आधार बनाकर हम ज्ञानरंजन की ‘पिता’, ऊषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ का विशेष रूप से उल्लेख कर सकते हैं। इसी संदर्भ में प्रताप सहगल की कहानी ‘अंडा’ का उल्लेख किया जा सकता है। यह एक मार्मिक कहानी है।
यह बात सही है कि माता-पिता और संतान के संबंधों में तनाव पहले के समय से कहीं अधिक है। अभी भी अधिकांश भारतीय परिवारों में परिवार का बोझ पिता के सिर पर ही है। वही अपनी संतानों को पालता-पोसता है। त्रासदी यह है कि वही पिता बुढ़ापे तक आते-आते
संतान के लिए मात्र गीली रुई का बोझ बनकर रह जाता है। बेटा यह बोझ उतारकर दूसरे के कंधों पर डालना चाहता है। ‘अंडा’ कहानी का पिता मेघराज पहलवान से कंकाल तक होने का सफर तय करता है और अंत में अंडा खाने की एक छोटी सी साध पूरी होते ही दम तोड़ देता है। यह कहानी नए कलेवर और नए मूल्यों की कहानी कही जा सकती है। बेटों, बहुओं की उपेक्षा का शिकार होने के बावजूद उसमें एक जुझारूपन है। अचल संपत्ति का मालिक होने के बावजूद वह भिखारी सा जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। बेटे उसे सरकारी अस्पताल में दाखिल करवा कर अपने दायित्त्व से मुक्त होना चाहते हैं। सेवा करने के लिए किसी के पास समय नहीं। मेघराज के जीवन की सबसे बड़ी विसंगति यही है कि एक पहलवान जैसा जीवन जीने के बाद वह अपनी पसंद का भोजन अंडा खाने के लिए तरस जाता है। अंतिम समय में भी कोई बेटा उसके पास नहीं। केवल दामाद पवन है। वह संवेदनशील व्यक्ति है। वही मेघराज के अंतिम समय में अंडा खाने की  उसकी अतृप्त साध पूरी करता है। कहानी कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती है। अंत में एक अंडे का नाचना एक ऐसी विसंगत स्थिति से सामना करना है, जिसे हम अपने आसपास रोज़ किसी न किसी रूप में घटित होते हुए देखते हैं
परिवार की विसंगत स्थितियों के बरक़्स हम ‘एक और कुकुरमुत्ता’ कहानी को देखें तो यह धार्मिक पाखंड और विसंगतियों की कहानी है। धर्म के नाम पर बाबा, छ्द्म गुरू और आडंबर। इस कहानी का नायक प्रियकांत आर्य समाज में दीक्षित होने के बावजूद धर्म के आडंबर को ही अपने भौतिक उत्थान की सीढ़ी बना लेता है। समकालीन परिवेश में प्रताप सहगल की यह कहानी बहुत ही प्रासंगिक तो है ही, सोचने के लिए भी विवश करती है कि आखिर हम और हमारा समाज किस दिशा की ओर जा रहा है। बाबाओं का जाल, धर्म के छद्म आवरण में उनकी आर्थिक एवं दैहिक महत्त्वाकांक्षाएँ इस कहानी का केन्द्रीय तत्त्व है। धर्म आज कोई मिशन नहीं, व्यवसाय है। इस बात को यह कहानी सशक्त ढंग से रेखांकित करती है। इसी जाल का हिस्सा बनता है शेखर। वह भी महत्त्वाकांक्षी है, लेकिन प्रियकांत उसे भी इस्तेमाल करके अपने खेमे से बाहर कर देता है। त्तभी उसे एहसास होता है कि यह धर्मगुरु वस्तुत: कुकुरमुत्ते हैं। इनसे न छाया मिलेगी, न प्रकाश। क्या सचमुच  हम आज अपने आसपास रोज़ उगते हुए कुकुरमुत्ते नहीं देख रहे?
   ‘क्रास रोड्स’ कहानी आत्महत्या के संदर्भ में जिजीविषा की कहानी है। कहानी वेंकटरमण की आत्महत्या की सूचना से खुलती है। वर्तमान समय में हम देखते हैं कि व्यक्ति कहता कुछ है, सोचता कुछ और करता कुछ है। वेंकटरमण ऐसा ही एक व्यक्ति है जिसकी आदर्शमूलक बातों और यथार्थमूलक व्यवहार में एक बड़ी फाँक है। यही फाँक उसकी महत्त्वाकांक्षा का कारण है और इसी वजह से वह आत्महत्या कर लेता है। नैरेटर का अंतर्द्वंद्व इस कहानी की रीढ़ की हड्डी है। उसका आत्म-विश्लेषण ही उसे आत्महत्या से बचा लेता है और वह जीवन के लिए बेहतर विकल्पों के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। आत्महत्या का दर्शन और आत्महत्या विरोधी दर्शन का विमर्श इस कहानी को एक सशक्त कहानी बनाती है। यहाँ हमारे सामने जीवन और आत्महत्या से जुड़े कई पहलू एक साथ खुलते हैं। आत्महत्या के कारण के बारे में पूछे जाने पर जब एक पात्र बताता है कि आत्महत्या की “वजह तो होगी, पर क्या, कई बार होता है न कि बेवजह ही कुछ या फिर आपको जो वजह लगती है, वह दूसरों को नहीं लगती या बेवजह मे से ही कोई वजह ढूँढने की कोशिश की जाती है”। कथावाचक स्वयं अवसाद की स्थिति जी चुका है और वह वेंकटरमण की आत्महत्या की सूचना से अंदर तक हिला हुआ है। ऐसे में ही उसे जीने के कोई कारण ईजाद करना पड़ता है। बेहतर विकल्प। एक तरह से कहानी आत्महत्या पर जिजीविषा के विजय की कहानी है। क्रास रोड्स बौद्धिकता और संवेदनशीलता को एक साथ बाँधकर स्थितियों का निर्माण करती है। मंजुल भगत की कहानी ‘आत्महत्या से पहले’ इसी प्रश्न पर अलग तरीके से विचार करती है।
गतिशीलता, भागमभाग और महत्त्वाकांक्षाओं की इस दुनिया में सुविधाएँ जुटाने के लिए व्यक्ति इस कदर उलझ गया है कि उसके सामने नैतिकताओं से प्रश्न गौण हो गए हैं। ‘चलो कहीं घूम लेते हैं’ पूरी तरह से एक शहरी कहानी है। इस तरह की घटनाएँ हम दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में रोज़ घटित होते देखते हैं। लालबत्ती पर खड़ी लिफ़्ट माँगती एक संभ्रात महिला और उसे अपनी कार में लिफ़्ट देने वाला नीलेश आपको कहीं आसपास ही मिल जाएँगे। स्त्री का खुला निमंत्रण, नीलेश का अंतर्दंद्व, घर बैठी नीलेश की पत्नी सुधा, नीलेश की बेटी के विवाह की बात करने आने वाले लोग आदि घटना-प्रसंग इस कहानी का ताना-बाना हैं। नीलेश के मन में भी कहीं दबी हुई इच्छा है कि वह भी दूसरी औरत का संसर्ग प्राप्त कर सके। लेकिन परिस्थितियाँ और उसके जीवन-मूल्य उसे बरज देते हैं। स्त्री द्वारा बार-बार कार के पीछे-पीछे स्कूटर पर आता हुए पहलवान का भय वस्तुत: प्रतीकात्मक रूप से सामाजिक वर्जनाओं का भय है। यही भय उसे सामाजिक अनैतिकता से बचा लेता है।
‘जुगलबंदी’ संभवत: लेखक-प्रकाशक के बनते और बनकर छूटते संबंधों की हिन्दी में पहली कहानी है। इस कहानी की स्थितियाँ व्यंग्यात्मक होने के साथ परिहासात्मक भी हैं। नए लेखकों के सामने आने वाली दिक्कतों और प्रकाशक की कलाबाज़ियों का सशक्त चित्रण है यह कहानी। जब कहानी का नायक मनीष मोहन प्रकाशक रूपसिंह महान के प्रकाशन की गुणवत्ता और अशुद्धियों की बात करता है तो प्रकाशक का तर्क कि इस ‘किताब को पढ़ेगा कौन, पढ़ा लिखा ही तो पढ़ेगा न, वह खुद ही समझ जाएगा कि फलाँ सबद यह नहीं, यह है और अनपढ़ तो इसे पढ़ेगा नहीं, तो परेशानी क्या है।’ मनीष मोहन अपनी रचनाओं का प्रकाशन और विस्तार तो चाहता है, लेकिन वह अपनी छवि को लेकर भी सतर्क है। प्रकाशक हर तरह से उसे भ्रष्ट करना चाहता है। कुछ समय के लिए मनीष मोहन अनजाना सा हो भी जाता है लेकिन अंतत: उसका लेखक उसमें जागता है और शराब का गिलास पीने के बजाए खिड़की से बाहर उँडेलकर खुले आसमान की ओर देखने लगता है। यही इस कहानी की असली टेक है। भ्रष्ट प्रकाशक का एक लेखक से हारना ही इस कहानी का संदेश माना जा सकता है।
“मैं यह बात मानने के लिए तैयार नहीं कि वह कोई चालू लड़की हो सकती है। मुझे दूर से ही संभ्रात लग रही है” यह संवाद ‘टाईमपास’ कहानी के नैरेटर का है। एक लड़की का रात में दिल्ली जैसे शहर में सड़क किनारे खड़ा होना एक सामान्य घटना भी हो सकती है लेकिन समाज में उस लड़की के प्रति जो धारणा बनती है, समाज की इसी मनोवृत्ति का सशक्त चित्रण इस कहानी में है। अकेली लड़की देखी और लाईन लगाना शुरू। कहानी का अंत अत्यंत रोचक तरीके से हमारे सामने आता है। जब वह लड़की, जो वस्तुत: एक कालगर्ल ही है और अपने लिए अपना रेट खुद तय करती है। क्या यह भी एक तरह से उस स्त्री का सशक्तीकरण नहीं है, जो अपनी मर्ज़ी से इस पेशे में आती है और अपने कायदे खुद तय करती है। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसपर अलग-अलग राय हो सकती है। कहानी की रोचकता इस कहानी का सबसे प्रबल पक्ष है।
‘बाब’ एक ऐसे महत्त्वकांक्षी युवा की कहानी है, जो अपनी महत्त्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जी-जान से जुटा रहता है लेकिन अपने लिए सही राह न चुन पाने की स्थिति में तनावग्रस्त हो जाता और अपनी पत्नी पर भी लांछन लगाने से नहीं चूकता -“बहुत घर हैं इस कंजरी के, वो अब रखे न इसे” जैसे संवाद उसकी निर्दोष पत्नी नीलम को पुरुषवादी सत्ता का शिकार बना देते हैं। बाब की तिकड़मबाज़ी, बाज़ारवाद, मीडिया का प्रपंच आदि के सामने वह अपने को अर्थहीन बनाता जाता है। वस्तुत: यह बाब और कोई नहीं, हम और आपमें से ही बहुत से जन हैं। कहानी के नैरेटर के अंतर्द्वन्द्व से कहानी की संवेदना को विस्तार मिलता है।
‘मछली मछली कितना पानी’ स्त्री-पुरुष के अहं के टकराहटों और उससे टूटते परिवारों की कहानी है। कहानी का नायक मनोहर और नायिका प्रिया के बीच वर्चस्व की लड़ाई उन्हें पाइंट आफ़ नो रिटर्न पर ले जाती है। अपनी-अपनी स्पेस खोजते नायक और नायिका उसी तरह से अपनी स्पेस नहीं जानते, जिस तरह पानी में तैरती मछलियाँ नहीं जानतीं कि किसके पास कितनी स्पेस है। क्या यही हमारी नियति नहीं है कि हम अपनी स्पेस नहीं जानते और अधिक से अधिक स्पेस पर अपना प्रभुत्त्व कायम करने के चक्कर में अपनी असली स्पेस भी खो देते हैं। नासिरा शर्मा का उपन्यास शाल्मली और अभिमान फ़िल्म भी पुरुष एवं स्त्री के वर्चस्व की लड़ाई की ही कहानियाँ हैं, लेकिन हर कहानी का परिवेश और उसका ट्रीटमेंट अलग होता है। ‘मछली मछली कितना पानी’ इस संग्रह की एक सशक्त कहानी है।
‘मुक्ति’ कहानी को दो प्रकार से देखा जा सकता है। पहला कहानी में स्त्री के रूप-सौंदर्य की अपेक्षा उसके गुणों को प्राथमिकता दी गई है। दूसरा कहानी का नायक कहानी की नायिका मंजरी को उसकी कमियों और उससे जुड़ी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के साथ स्वीकार करता है। इस मायने में यह प्रताप सहगल की अनूठी कहानी है, जहाँ वह मंजरी को उसके मंगोलियन भाई, अँधे पिता और कुबड़ी माँ के साथ न केवल स्वीकार करता है, उन उत्तरदायित्त्वों का अपनी शक्ति के अनुरूप निर्वहण भी करता है। मंजरी के माता-पिता के तानों और विरोधों को झेलता हुआ भी वह उन सबकी सेवा में लगा रहता है। यहीं कथाकार यह स्थापित करता है कि एक ओर तो कथानायक मनोज इन परिस्थितियों में तनाव-ग्रस्त है और दूसरी ओर मनु अपनी तरह प्राकृतिक रूप से अभिशप्त जीवन जी रहा है। मनु की मृत्यु होते ही कथाकार यह प्रश्न उछाल देता है कि वस्तुत: मुक्ति मनु की हुई थी या मनोज की? और निर्णय पाठक पर छोड़ देता है।
‘वह आदमी’ कहानी एकांत (सालिट्यूड) बनाम अकेलेपन (एलियेशन) की कहानी है। महेश अपनी पत्नी के साथ डलहौज़ी घूमने आता है और वहाँ देखता है कैलाश को। महेश उसे अकेला पाकर हैरान भी है और उसे एकांत में जीता देखकर ईर्ष्यालु भी। वह भी ऐसे ही एकांत में जीना चाहता है लेकिन पत्नी हमेशा साथ होती है। वह नहीं जानता कि एकांत और अकेलेपन में बड़ा फर्क़ होता है यही फर्क़ तब खुलता है जब खज्जियार में दोबारा कैलाश से मिलने के बाद महेश के सामने कैलाश की कहानी खुलती है और खुलता है अकेलेपन में जीने का दर्द। कैलाश का यह संवाद -“जिसे आप एकांत कह रहे हैं न, वो मेरा एकांत नहीं, अकेलापन है” कथाकार ने एक तरह से इस कहानी को अध्यात्म से जोड़ दिया है कि बाह्य और आंतरिक स्थितियाँ अलग-अलग होती हैं।
‘सरदार नच्छतर सिंह’ पारिवारिक संपत्ति के लिए झगड़ते दो बेटों के बीच पिसते एक पिता की मार्मिक गाथा है। बेटों के झगड़ों में पिसते बाप को न रिश्तेदार बचा पाते हैं, न मोहल्ले वाले। बात जब पुलिस तक पहुँचती है तो वही पिता जो अपने बेटों के आतंक से आज़िज़ आ चुका था, बेटों को पुलिस से बचाता है। जैसे अंडा कहानी पारिवारिक मूल्यों के विघटन की कहानी है, उसी तरह से सरदार नच्छतर सिंह भी। सरदार नच्छतर सिंह अपमानित होने के बाद भी बेटों के लिए मंगलकामना ही करता है।
इतनी कहानियों पर चर्चा करने के बाद प्रताप सहगल के कथा-लेखन के संदर्भ में कुछ सूत्र हाथ लगते हैं। पहला यह कि हर कहानी का कथ्य अलग है और वस्तु भी। यानी कोई भी कहानी दोहराव का शिकार नहीं हुई। दूसरा यह कहानियाँ मूलत: महानगरों की कहानियाँ हैं। महानगरों में जीवने जी रहे लोगों की कहानियाँ हैं। तीसरा इनमें धार्मिक, सामाजिक राजनीतिक एवं पारिवारिक विसंगतियों की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। चौथा कोई भी कहानी उपदेशात्मक नहीं है लेकिन अंत में सोच-विचार के लिए कुछ बिंदु छोड़ जाती है। इस तरह से यह कहानियाँ पाठक के मन में परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू कर देती हैं। पाँचवां सभी कहानियों में लेखक अनुपस्थित रहकर भी उपस्थित है। छठा कुछ कहानियों में नैरेटर है और कुछ कहानियाँ अन्य पुरुष में बुनी गई हैं। सातवाँ कथाकार के अनुभव सुचिंतित तरीके से ध्वनित होते हैं और अंतिम बात यह कि प्रताप सहगल की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि कहानियों को एक अलग आयाम देती है।

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