प्रो. योगेश सिंह

‘शिक्षक से संवाद’ साक्षात्कार शृंखला की तीसरी कड़ी में आज दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. योगेश सिंह से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की हैअपने तीन दशक से अधिक के अकादमिक जीवन में योगेश जी ने लगभग सभी प्रमुख अकादमिक पदों पर रहते हुए अपनी सेवाएं दी हैंदिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में पदभार ग्रहण करने से पूर्व आप दिल्ली टेक्नोलॉजीकल यूनिवर्सिटी के कुलपति, नेताजी सुभाष इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के निदेशक और एम.एस. यूनिवर्सिटी ऑफ़ बड़ौदा के कुलपति के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर चुके हैं। आज इस साक्षात्कार में योगेश जी से उनकी निजी जीवन-यात्रा के साथ-साथ शिक्षा जगत से जुड़े विविध पहलुओं तथा दिल्ली विश्वविद्यालय को आगे बढ़ाने के लिए उनके द्वारा किए जा रहे प्रयासों पर बातचीत की गई है। प्रस्तुत है।

प्रश्न – नमस्कार सर, ‘पुरवाई’ से बातचीत में आपका स्वागत है। बातचीत की शुरुआत इसी से करूंगा कि अपनी अब तक की अकादमिक यात्रा का मूल्यांकन आप किस रूप में करते हैं ?
प्रो. योगेश सिंह – मेरे पिता कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में गणित के प्राध्यापक थे। घर में रिसर्च स्कॉलर्स, प्रोफ़ेसर आदि का आना-जाना लगा रहता था। इसलिए मुझे बचपन से ही कैंपस लाइफ का अनुभव मिला। आगे चलकर जब मैंने कंप्यूटर इंजीनियरिंग में पीएचडी की तब लगा कि अध्यापन ही वो काम है, जिसमें मुझे मजा आता है। इसके बाद मैं अध्यापन के क्षेत्र में आ गया और ईश्वर की कृपा रही कि आगे भी सब अच्छा होता गया। आज मेरी इस यात्रा को तीस साल से ज्यादा हो गए हैं और अबतक मैंने लेक्चरर, असिस्टंट प्रोफेसर, रीडर, प्रोफ़ेसर, डीन, हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट, कण्ट्रोल ऑफ़ एग्जाम, प्रोक्टर आदि जो भी प्रमुख पद हैं, सब पर काम किया है। 2011 में मैं प्रतिष्ठित एम.एस. यूनिवर्सिटी ऑफ़ बड़ौदा का कुलपति बना। यहाँ एक कार्यकाल पूरा करने के बाद पुनः दूसरा कार्यकाल भी मिला। फिर अवसर मिला तो दिल्ली में नेताजी सुभाष इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी का निदेशक बनकर आया। इसके बाद दिल्ली टेक्नोलॉजीकल यूनिवर्सिटी का कुलपति बना। इसका दूसरा कार्यकाल चल रहा था तभी 2021 में मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति की जिम्मेदारी मिली। आज डेढ़ साल यहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय में भी हो गए। इसलिए मैं अपने आपको भाग्यशाली मानता हूँ कि ईश्वर ने मुझे मौका दिया कि मैं अपनी समझ से अपने छात्रों और जहां-जहां मैंने काम किया उन संस्थानों के लिए कुछ अच्छा कर सकूं। इस रूप में मैं अपने आपको काफी संतुष्ट महसूस करता हूँ।

प्रश्न – हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के सौ वर्ष पूरे हुए हैं। मेरी जानकारी में आया कि इस मौके पर विश्वविद्यालय ने अपने ऐसे पुराने छात्रों को डिग्री पूरा करने का मौका दिया जिनकी डिग्री किसी कारणवश छूट गई थी। इस पहल को कैसा प्रतिसाद मिला? और क्या यह व्यवस्था आगे भी जारी रहेगी?
प्रो. योगेश सिंह – दिल्ली विश्वविद्यालय के सौ वर्ष पूरे होने पर, शताब्दी वर्ष में हमने सोचा कि विश्वविद्यालय में अबतक जो भी ऐसे विद्यार्थी रहे हैं जिनकी डिग्री किसी न किसी कारणवश अधूरी रह गई, उन्हें डिग्री पूरा करने का मौका देना चाहिए। हमने जब यह शुरू किया तब सोचा नहीं था कि इतना अच्छा प्रतिसाद मिलेगा। आपको हैरानी होगी कि Mindtree नाम की एक बहुराष्ट्रीय भारतीय कंपनी है, उसके सह-संस्थापक मिस्टर बागची ने हमें फोन किया कि जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब अपनी लॉ की डिग्री पूरी नहीं कर पाया। हमने उन्हें मौका दिया और वे परीक्षा देकर गए। ऐसे और भी बहुत-से लोग हैं। आपको जानकर ख़ुशी होगी कि 28 साल से लेकर 80 साल तक के नौ हजार से ज्यादा ऐसे छात्र थे, जिन्होंने इस व्यवस्था के अंतर्गत परीक्षा दी है। अब जहां तक इस व्यवस्था को जारी रखने की बात है, तो आगे यदि कोई ऐसे मामले सामने आएंगे तो हम उन्हें मौका देंगे। हालांकि हमेशा तो इसे जारी नहीं रख पाएंगे क्योंकि शताब्दी वर्ष के लिए यह स्पेशल विंडो खोली गई थी। लेकिन यह संभव है कि जरूरत पड़ने पर एक मौक़ा और दे देंगे।
प्रश्न – दशकों बाद देश को एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मिली है। इसमें मातृभाषा में शिक्षा से लेकर रोजगार-परक शिक्षा तक के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। आप इस शिक्षा नीति से देश के शिक्षा-तंत्र में किस तरह के बदलावों की संभावना देखते हैं? तथा इसके क्रियान्वयन हेतु दिल्ली विश्वविद्यालय किस तरह की तैयारी कर रहा है?
प्रो. योगेश सिंह – नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति समावेशी भी है और दूरगामी परिणामों की ओर भी देखती है। नीति बहुत ही अच्छे से बनी है। मैं मानता हूँ कि इस नीति में हर aspect को शामिल किया गया है। 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का जो माननीय प्रधानमंत्री जी का संकल्प है, उसमें शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। शिक्षित राष्ट्र ही विकसित राष्ट्र होता है। इस कारण नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपने आप में एक अच्छा और प्रभावी कदम है। लेकिन मूल बात शिक्षा नीति बनाने में नहीं, उसके कार्यान्वयन में है। इसका कार्यान्वयन अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है। यदि हम राष्ट्रीय शिक्षा नीति का कार्यान्वयन सही समय पर और सही तरीके से कर पाए तो देश को लंबे समय तक इसका फायदा होगा।
जहां तक दिल्ली विश्वविद्यालय की बात है, तो पिछले साल यहाँ जो सत्र शुरू हुए वो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप हमने शुरू किया है। इसके तहत हमने तय किया है कि जो भी स्टूडेंट आए उसे हर सेमेस्टर में कोर्स के साथ-साथ कोई न कोई एक स्किल सिखाई जाए; भाषा सिखाई जाए। इसके अलावा, कुछ वैल्यू एडेड कोर्सों जैसे कि भारतीय ज्ञान परंपरा, स्पोर्ट, सॉफ्ट स्किल के कोर्स आदि की हमने एक पूरी सूची बनाई है जिसमें से बच्चा अपनी रुचि के हिसाब से कोर्स ले सकता है। रह गई भाषाओं की बात तो हमने 23-24 भारतीय भाषाओं को एक विषय के रूप पढ़ाने की व्यवस्था की है। ऐसा प्रावधान किया गया है कि हर प्रोग्राम में एडमिशन लेने वाले विद्यार्थी साथ-साथ कोई न कोई भाषा भी जरूर सीखेंगे। लेकिन जहां तक शिक्षा के माध्यम की बात है, तो वो अभी तो हमारे यहाँ अंग्रेजी में चलता है और कुछ सेक्शन हिंदी में पढ़ाने के बनाते हैं। हालांकि मान लीजिये यदि मराठी भाषा में शिक्षा की बात आती है, तो हम मराठी भाषा तो पढ़ा सकते हैं, लेकिन उसके माध्यम से शिक्षा  महाराष्ट्र के विश्वविद्यालय जितना अच्छे से देंगे उतना अच्छे से हम शायद न दे पाएं। अतः सभी भाषाओं में शिक्षा का माध्यम तो संभव नहीं होगा। हाँ, यह जरूर है कि अभी हम अंग्रेजी और हिंदी में पढ़ा रहे हैं, लेकिन कल को अगर बहुत-से विद्यार्थियों ने किसी ख़ास भाषा में शिक्षा की मांग की तो हम उसपर भी खुले मन से विचार करने को तैयार हैं।

प्रश्न – आपके कुछ भाषणों को सुनते हुए लगा कि आप मूल्य-आधारित, संस्कार-आधारित शिक्षा पर विशेष बल देते हैं। आजादी के बाद से अब तक भारतीय शिक्षा व्यवस्था इस उद्देश्य में कितनी सफल रही है? और नई शिक्षा नीति से इस विषय में क्या कुछ उम्मीदें हैं?
प्रो. योगेश सिंह –  आजादी से पहले क्या और आजादी के बाद क्या, शिक्षा तो जब जिसके जीवन में आई उजाला ही लेकर आई है। हाँ, कम या ज्यादा उजाला लाने की बात हो सकती है। हमें समझना होगा कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है? रोजगार दिलाना एक उद्देश्य है, लेकिन केवल यही उद्देश्य नहीं है। शिक्षा का मूल उद्देश्य जो मैं कहता हूँ कि ‘समझ की समझ’ को विकसित करना ही शिक्षा है। ये जो ‘समझ की समझ’ है, इससे हमें जिंदगी में निर्णय लेते हुए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, को लेकर स्पष्ट दृष्टि मिलती है। शिक्षा ने इस दिशा में अभी तक कम काम किया है। इसीलिए संस्कार की बात करते रहना जरूरी है, क्योंकि अच्छाई बहुत कमजोर होती है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि अच्छाई को बार-बार सिखाना और बताना पड़ता है जबकि बुराई को सिखाना नहीं पड़ता। वो तो अपने आप बड़ी ताकत से आती है। जब कोई बच्चा इस दुनिया में आता है, तो बड़ा सौम्य, सहज और प्यारा होता है। आगे वो जो भी बनता है, वो दुनिया से सीखकर ही बनता है। शिक्षा तंत्र में हमारे पास अबोध-सा बच्चा आता है और फिर जब वो 22-23 साल में निकलता है, तो आशा की जाती है कि वो एक अच्छा इंसान बने जो सबके प्रति प्यार, सम्मान, अपनत्व रखे। आज इन सब मापदंडों पर काम करने की आवश्यकता है (पहले भी रही होगी), ऐसा महसूस होने लगा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इशारा करती है कि हमको इस विषय में काम करना चाहिए। अच्छे मनुष्य के निर्माण के लिए जो कुछ आवश्यक है, उसे शिक्षा में लाना और प्रैक्टिस करवाना, शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य है, जिसपर हम धीरे-धीरे प्रयास कर रहे हैं।
प्रश्न – भारत के विश्वविद्यालयों में जो शोध होते हैं उनकी गुणवत्ता पर अकसर सवाल खड़े किए जाते हैं। इसका सबसे आसान निशाना हिंदी भाषा-साहित्य को लेकर होने वाले शोध बनते हैं। आप इसे कितना सही मानते हैं? और क्या कला संकाय के विषयों से इतर विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी शोध गुणवत्ता के मानकों पर खरे होते हैं?
प्रो. योगेश सिंह – देखिये, अंग्रेजों ने जब देश में नया शिक्षा तंत्र लाया जो कि 1857 के करीब लागू हुआ, उस शिक्षा तंत्र का मूल उद्देश्य था कि ब्रिटिश इंडिया में ब्रिटिश सरकार को चलाने के लिए अच्छे अधिकारी और क्लर्क तैयार किए जाएं। इस उद्देश्य में वो शिक्षा तंत्र सौ प्रतिशत सफल रहा। उस शिक्षा तंत्र में बहुत बड़े वैज्ञानिक बनाने, अच्छे लेखक-कवि तैयार करने जैसी कोई दृष्टि नहीं थी। हालांकि उस दौर में भी स्वामी विवेकानंद, गांधी आदि बहुत से अच्छे लोग भी निकले, क्योंकि अच्छा व्यक्ति तो अपना रास्ता तलाश ही लेता है। नदी जब चलती है, तो पत्थरों के बीच से भी अपना रास्ता निकाल लेती है। लेकिन शिक्षा के माध्यम से समाज को आगे बढ़ाने का जो एक सिस्टमेटिक प्रयास होना चाहिए, वो कम हो पाया। यही कारण है कि हमारे शिक्षा तंत्र में मौलिकता और रचनात्मकता कम रही। हम नई चीजें नहीं बना पाए।

पिछले डेढ़-दो सौ सालों में भारत से बहुत बड़े उत्पाद नहीं आ पाए, जबकि पहले हमारे देश से खूब नए प्रोडक्ट निकलते थे। यही कारण है कि आज भी तमाम लोगों को लगता है कि भारत में बढ़िया रिसर्च नहीं हो रही है। लेकिन अब बदलाव हो रहा है। सबका फोकस बदला है और समझ आने लगा है कि पीएच.डी. केवल नौकरी/प्रमोशन पाने के लिए नहीं करनी, बल्कि हमें कुछ नया करना है। दुनिया को कुछ देना है। हम अब शोधार्थियों में यह भाव पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं कि कुछ क्रिएट करो और दुनिया को कुछ देकर जाओ। इस भाव से जब रिसर्च होती है, तो आदमी को कुछ नया बनाने का प्रयास करता है। अब इस दिशा में प्रयास हो रहे हैं। हालांकि शिक्षा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें परिणाम तुरंत नहीं मिलते। लेकिन यदि दिशा सही है और हिम्मत-मेहनत से काम हो रहा है, तो आने वाले समय में इसके अच्छे परिणाम मिलेंगे।
भारत में होने वाले शोध दोयम दर्जे के हैं, ऐसा मैं नहीं मानता हूँ। लेकिन हाँ, अभी इस दिशा और काम करने की जरूरत है। भारत में आजादी से पहले और बाद दोनों समय अच्छे लेखक, विचारक सब हुए हैं। वर्तमान में ओरिजिनल थिंकिंग को बढ़ावा देने के प्रयासों को यदि हम सही ढंग से लागू कर पाए तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा।
अभी देश में परीक्षा की जो पद्धति है, उसमें याद करने पर विशेष जोर है। आप याद करके आइये, पांच सवाल आएँगे, जवाब दे दीजिये और काम हो गया। इस पद्धति में भी बदलाव की आवश्यकता है। पढ़ाने से लेकर मूल्यांकन तक के नए तरीकों की आवश्यकता है। इस दिशा में काम हो भी रहा है और मैं तो बहुत आशावान हूँ कि इसके बहुत अच्छे परिणाम देश को जल्दी-ही देखने को मिलेंगे।
प्रश्न – प्रत्येक वर्ष आने वाली वैश्विक रैंकिंग में भारत के विश्वविद्यालयों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रहती है। आपके विचार में इसका कारण क्या है? और इस स्थिति को बदलने के लिए बतौर कुलपति आप किस तरह के प्रयास कर रहे हैं?
प्रो. योगेश सिंह – देखिये, वैश्विक रैंकिंग देने वाली एजेंसियों के पैमाने अलग तरह के हैं। लेकिन मैं ये नहीं कह रहा कि वो पैमाने बदलने चाहिए। जो भी उनके मानक हैं, यदि हमें उन्हीं पर खेलना है, तो भी हमें उस दिशा में मेहनत करने की जरूरत है। ये रैंकिंग सिस्टम भारत के लिए नया है, इसलिए भी हमारे विश्वविद्यालय इसमें कम आ पाते हैं। इसमें बहुत ज्यादा वेटेज इस बात का है कि विश्वविद्यालय के रिसर्च की गुणवत्ता कैसी है। अब पिछले सवाल के जवाब में यह कहा जा चुका है कि रिसर्च में हमें इम्प्रूवमेंट की जरूरत है। अब जैसे-जैसे हमारे रिसर्च की क्वालिटी बढ़ेगी, जैसे-जैसे देश से नए प्रोडक्ट्स आएँगे, वैसे-वैसे हमारी रैंकिंग सुधरती जाएगी। नए प्रोडक्ट्स धीरे-धीरे आने भी लगे हैं। उदाहरण के तौर पर मैं यूपीआई का उल्लेख करूंगा। यह एक सॉफ्टवेयर आधारित पेमेंट तकनीक है, जिसे नेशनल पेमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया ने बनाया है। आरबीआई और इंडियन बैंकिंग एसोसिएशन ने मिलकर इस कंपनी को प्रोमोट किया। इसके जरिये जितनी ट्रांजेक्शन आज भारत में होती है, दुनिया में शायद कहीं नहीं होती। देश के गाँव-गाँव में आज लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। मोबाइल से पैसे ट्रांसफर करने का यह एक अद्भुत काम देश में हुआ है। कहने का आशय है कि भारत में इनोवेशन हो रहा है और उसका इम्पैक्ट भी दिखाई दे रहा है। इस तरह की चीजों का असर भी रैंकिंग में दिखाई देगा।
दूसरी चीज कि परसेप्शन से भी बहुत फर्क पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रैंकिंग बनाते हुए जब प्रोफेसरों से पूछा जाता है कि दुनिया के कौन-से दस-बीस विश्वविद्यालय आपको अच्छे लगते हैं तो उसमें भारत के विश्वविद्यालयों का नाम यदि नहीं आता, तो इसका कारण है कि अभी तक हमारी ग्लोबल प्रजेंस कम रही है। अब धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था, रक्षा आदि तमाम क्षेत्रों में हमारी ग्लोबल प्रजेंस बढ़ रही है, तो इन सबका परिणाम भी इस रैंकिंग में आपको धीरे-धीरे नजर आएगा।
प्रश्न – एक साक्षात्कार में आपने कहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय को सरकार से एक हजार करोड़ की राशि मिलती है। लेकिन इसका बहुत बड़ा हिस्सा तनख्वाह और पेंशन में खर्च हो जाता है। अतः संस्थान को आय के कुछ अन्य स्रोत भी विकसित करने चाहिए। इस विषय में क्या आपके पास कोई योजना है?
प्रो. योगेश सिंह –  मैं जब एक हजार करोड़ की बात कर रहा था, तो वो विश्वविद्यालय के Operating Expenditure की बात कर रहा था यानी विश्वविद्यालय को चलाने के लिए जो राशि खर्च होती है, उसकी बात कर रहा था। उसमें इतना खर्च तनख्वाह और पेंशन में होता है। लेकिन सरकार से हमें इसके अलावा प्रोजेक्ट ग्रांट भी मिलती है। जब हम कोई स्पेशल प्रोजेक्ट बनाते हैं। दूसरा, सरकार ने एक HEFA Fund बनाया है, जिसके माध्यम से भी सरकार से हमें काफी धनराशि मिलने वाली है। ये तो हुई सरकार की बात। इससे इतर हमने University of Delhi Foundation बनाई है, जिसका काम Fundraising करना है। हम कोशिश करेंगे कि हमारा जो एलुमनाई नेटवर्क है उसके माध्यम से विश्वविद्यालय के लिए कुछ Fundraise किया जाए। सीएसआर का जो फण्ड आता है, उसमें से भी कुछ व्यवस्था बनाने का प्रयास करेंगे। एलआईसी में भी हमने अभी अपना एक शेयर स्थापित किया है, जिसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालय को एक करोड़ की धनराशि दी है। लेकिन अभी ये सब बहुत शुरूआती चीजें हैं। मैं समझता हूँ कि आने वाले वक़्त में हमारी जो University of Delhi Foundation है, वो विश्वविद्यालय के लिए अच्छा पैसा इकठ्ठा करेगी जो विश्वविद्यालय के विकास में लगेगा।
लंदन में पुरवाई की संरक्षक ज़किया ज़ुबैरी के आवास पर प्रो. योगेश सिंह
प्रश्न – विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की बात देश में हमेशा से कही जाती रही है। इस विषय में आपकी क्या राय है?
प्रो. योगेश सिंह –  जो आदमी वाईस चांसलर बनता है, उसके अंदर नेतृत्व क्षमता होनी चाहिए तभी वह एक सफल वाईस चांसलर बन सकता है। नेतृत्व क्षमता में सबसे बड़ी बात होती है कि उसका शानदार ट्रैक रिकॉर्ड होना चाहिए। जैसे कि जब वो हेड था, डीन था या किसी और जिम्मेदार पद पर था, तब उसने वहाँ क्या किया। यदि किसीने हेड या डीन होते हुए कुछ अच्छा नहीं किया तो वो वाईस चांसलर बनके कुछ अच्छा कर लेगा, ऐसा होता नहीं है। ये क्रिकेट की तरह है कि यदि आपने रणजी ट्राफी में अच्छा नहीं किया लेकिन सोचो कि इंटरनेशनल टेस्ट, वन डे या टी-20 के खेल में अच्छा कर लोगे, तो ऐसा बहुत कम होता है। डायरेक्ट एंटरी सचिन तेंदुलकर जैसे बहुत कम लोगों की होती है, जो Exceptionally Outstanding लोग होते हैं। सामान्यतः पहले से जिसे बहुत अच्छा अनुभव होगा वही अच्छा वाईस चांसलर बन सकता है।
जहां तक राजनीतिक हस्तक्षेप की बात है, तो ये कह देना बहुत सरल है कि राजनीतिक हस्तक्षेप से होता है। वाईस चांसलर को चुनने की एक पद्धति है और उसी तरीके से वाईस चांसलर की अपॉइंटमेंट होती है। जब भी, जो सरकार रहती है, उसका प्रयास होता है कि सक्षम व्यक्ति को लाएं। कई बार इसमें सफलता मिलती है, कई बार नहीं भी मिलती है। लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ कि जो पद्धति है, उसी से अपॉइंटमेंट होती हैं।
प्रश्न – यह अकसर कहा जाता है कि हिंदी में रोज़गारों की कमी है। रोज़गार के लिए तकनीकी शिक्षा जरूरी है। आपके विचार से इस कथन में कितनी सत्यता है?
प्रो. योगेश सिंह – देखिये, तकनीकी क्षेत्र में तो रोजगार ज्यादा होते ही हैं। कम्पनियों की मार्केटिंग, मैनेजमेंट और व्यापार की भाषा अभी अंग्रेजी ही मानी जाती है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह बात ठीक भी है। लेकिन भारत में अभी देश के अंदर जो व्यापार होता है, उसमें काफी हद तक हिंदी भाषा इस्तेमाल होती है। हिंदी जानने वाले लोग बहुत अच्छा कर रहे हैं। भारत एक बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र है और हमारा इंटरनल ट्रेड बहुत ज्यादा है। सो जो कंपनी भारत में काम करती हैं, उनमें हिंदी में ही काम चलता है। अतः मैं तो हिंदी की अच्छी स्थिति देखता हूँ और हिंदी में जो लोग अपना भाषा-व्यवहार करते हैं, वे प्रायः सफल ही होते हैं। रही बात हिंदी माध्यम में तकनीकी शिक्षा की तो वो अभी शुरू हो रही है। लेकिन यदि कोई मेहनत से पढ़ने वाला और हुनरमंद आदमी है, तो उसे काम के दौरान हिंदी से आगे बढ़ने में मदद ही मिलेगी, ऐसा मेरा मानना है।

प्रश्न – हाल ही में यू.जी.सी. ने ऐसी घोषणा की है कि देश में विदेशी शिक्षण संस्थान खोले जाएंगे। आपके विचार से इससे भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थिति पर कैसा प्रभाव पड़ेगा? कहीं वे इस दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएंगे ?
प्रो. योगेश सिंह – यू.जी.सी. ने इस (विदेशी विश्वविद्यालयों के) संबंध में बहुत सख़्त नियम बनाए हैं, जिसके लिए मैं उन्हें बधाई दूंगा। नियम है कि जो विदेशी विश्वविद्यालय रैंकिंग में शीर्ष 500 के अन्दर आते हैं, वे ही भारत में खुलेंगे या जो बहुत ही उत्कृष्ट संस्थान हैं, उन्हें आने दिया जाएगा। अब यदि ऐसे विश्वविद्यालय भारत में अपने कैंपस खोलते हैं, तो हमारे बच्चों के लिए नए अवसर और नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे। मुझे नहीं लगता कि भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए इससे कोई कठिनाई पैदा होगी। उनका अपना स्पेस होगा, हमारा अपना स्पेस है। देश के शिक्षा जगत में एक स्पर्धा होगी, जिसमें सबके लिए आगे बढ़ने के मौके होंगे। कुछ वो हमसे सीखेंगे, कुछ हम उनसे सीखेंगे। भारत एक बहुत बड़ा देश है। सो, यदि कुछ विदेशी विश्वविद्यालय आते हैं और हमारे बच्चों का भविष्य बनाने में मदद करते हैं, तो मैं समझता हूँ कि ये एक अच्छा कदम है।
प्रश्न – आपने बहुत-सी विदेश यात्राएं की हैं। सो, मैं जानना चाहूँगा कि विदेशों में हिंदी की स्थिति के बारे में आप क्या सोचते हैं?
प्रो. योगेश सिंह – बहुत सारे देशों में हिंदी बोलने वाले और हिंदी से प्यार करने वाले लोग पाए जाते हैं। बहुत सारे विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई भी जाती है। जहां-जहां भी भारत के लोग गए हैं, वो अपने साथ हिंदी लेकर गए हैं। दक्षिण भारत का भी व्यक्ति विदेश में हिंदी में बात करने में सहज महसूस करता है। सो, विदेशों में हिंदी प्यार, अपनत्व और भारत की पहचान की भाषा के रूप में मिलती है। इस कारण अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप के कुछ देशों, यहाँ तक कि मध्य एशिया के कुछ देशों में भी हिंदी के साथ आप बहुत सहज महसूस करते हैं और हिंदी बोलने वालों के प्रति एक अच्छा भाव यहाँ दिखाई देता है। अभी उज़्बेकिस्तान के बच्चे हमारे यहाँ आए थे और उन्होंने अपने कार्यक्रम में जिस तरह शुद्ध उच्चारण के साथ बॉलीवुड फिल्मों के गाने गाए, उसे सुनते हुए मुझे लगा कि इतना अच्छा तो शायद भारत के बच्चे भी नहीं गा सकते। हिंदी की एक बड़ी खासियत यह है कि ये वो भाषा है, जिसे कभी किसी काल में सरकारों का सहयोग नहीं मिला। ये सरकारों के सहयोग के बिना बढ़ने वाली भाषा है। यही हिंदी की ताकत है। ये सामान्य लोगों की भाषा बन गई, प्यार की भाषा बन गई और मन में बसने वाली भाषा बन गई। मनोरंजन और व्यापार की भाषा बन गई। इस तरह आगे बढ़ते हुए आज ये विश्व में सार्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है। अतः मैं मानता हूँ कि हिंदी सरकारों के सहयोग के बिना भी आगे बढ़ी है और सरकारों के सहयोग से भी आगे बढ़ेगी।
पीयूष – पुरवाई से बातचीत के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
प्रो. योगेश सिंह – धन्यवाद।     
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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