‘नवगीत दशक— दो’ और ‘नवगीत अर्द्धशती’ (सम्पादक: डॉ. शम्भुनाथ सिंह) में ससम्मान संकलित प्रख्यात कवि-आचार्य श्रद्धेय राम सेंगर जी का यह सारगर्भित साक्षात्कार उनके आत्म-परिष्कार, आत्म-अवलोकन, आत्म-मंथन से आविर्भूत वस्तुगत जगत का मनन एवं चिंतन को पूरी रचनात्मक ईमानदारी से व्यंजित करता प्रतीत होता है। अपनी नवगीत-सर्जना को आत्म-साधना—जीवन-साधना मानने वाले श्रद्धेय राम सेंगर जी शायद अपनी इसी विशेषता के कारण लोक-भाषा एवं लोक-चेतना को विस्तार देने वाले अपनी धज के सर्वसमर्थ साहित्यकार हैं। यहाँ मुझे यह कहने में गर्व महसूस हो रहा है कि मुझ जैसे साधारण पाठक के लिए इस सहज, स्वाभाविक, संतोषी, सहनशील, प्रसन्नचित्त, स्पष्वादी एवं जीवट व्यक्तित्व के धनी कलमकार के टटके देसज-शब्द, गहन संवेदना, उत्कट जिजीविशा, जीवंत वैचारिकी एवं प्रतिरोधी स्वर से उदभूत विराट स्वरुप को समझ पाना सहज संभव नहीं; फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस प्रकार के रचनाकार सर्व-समाज का कल्याण करने में समर्थ होते हैं और कालांतर में सफल भी।

सवाल  आपकी काव्ययात्रा में कुल कितने मोड़ आये, अर्थात आप कबकब किन काव्य प्रवृत्तियों या काव्यान्दोलनों से प्रभावित रहे और उन आंदोलनों को क्यों और कैसे छोड़ दिया? नवगीत की ओर आपका झुकाव कब, क्यों और कैसे हुआ? आपने पहला नवगीत कब लिखा?

राम सेंगर मैंने अपनी काव्ययात्रा सन 1964 से प्रारंभ की। (इससे पहले मैं महज़ शौक़िया तुकबंदी किया करता था) तब तक छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता आंदोलनों के सारे रूपरंगस्वर सामने चुके थे। उस वक्त तक मैं स्वयं भी नहीं जानता था कि मैं क्या लिख रहा हूँ। क्यों और किसके लिए लिख रहा हूँ। अपनी कच्ची समझ के द्वारा अपने आपको तथा दुनियाजहान को जाननेसमझने की मेरी जिज्ञासाओं और प्रयासों का प्रारंभिक दौर यही था। लोग, चीजें, घटनाएँ एवं परिस्थितियाँसब मेरे लिए सपाट थे।  मैं उनके भीतर की सच्चाई नहीं जानता था, मगर जानना चाहता था। संघर्ष का लगभग सारा यथार्थ मेरे लिए भोगने को पड़ा था। जीवन उस वक्त तक मेरे लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बन पाया था और सही मायने में तब तक मेरी कोई मूल्यदृष्टि ही विकसित हुई थी। 

धीरेधीरे मैंने एक जिज्ञासु बालक की तरह कविता के बारे में सूचनात्मक जानकारी हासिल करना प्रारंभ किया और मानवीय संवेदना के मर्मों को पकड़ने के अपने प्रयास तेज किए। पढ़नालिखना भी शुरू किया। गद्य मैं ज्यादा पढ़ता था, कविता उतनी नहीं। मगर लिखना कविताओं से ही शुरू हुआ। गीतों से। विभिन्न गीतशैलियों के मिलेजुले प्रभाव में अलगअलग रंगों के बहुत सारे गीत लिखे। मेरी संवेदना को इस अभ्यास में और अधिक लयात्मक तथा मेरी चेतना को पहले से कहीं ज्यादा संवेदनशील बनाया, मगर, जीवन के ज्वलंत प्रतिबिंब अपनी संपूर्ण निष्कलुषता के साथ मैं कविता में अभी भी उभार नहीं पा रहा था। धरातल से ऊपर उठने की कोशिश तो थी, लेकिन उन संकल्पों में मानवीय संवेदना के यथार्थ की चेतना तरंगायित नहीं हो पा रही थी। ऐसा मैं महसूस करता था। अभिव्यक्ति के लिए जद्दोजहद के इसी दौर में मैंने मार्क्सवादी स्वर में छायावादी भाषाशैली के कुछ नए ढंग के गीत लिखना प्रारंभ किए। उनसे भी मन नहीं भरा तो तेज मिजाज के प्रगतिवादी शैली के गीत लिखे। कविताएँ लिखी और फिर खूब नई कविताएँ। लंबी कविताएँ भी। तुकांत और अतुकांत। बीचबीच में कहानियां एवं निबंध भी लिखता रहा। समय बितता रहा और मेरा संघर्ष चलता रहा। कभी धीमा, कभी मद्धिम और कभी तेज। सिर पर पांव रखकर जैसे कोई चोर भागता है, बुजदिल भागता है, ऐसे मैं इस संघर्ष से भागा नहीं। जीतामरता रहा और लिखता रहा। शायद मेरी कोशिश, अभिव्यक्तिगत, मूल्यदृष्टि के उन बारीक सूत्रों को पकड़ने की थी जो मेरे हाथ नहीं लग रहे थे। 

इसी तरह की मनःस्थितियों में शुरू हुआ नई शैली के गीतों का अनवरत सिलसिला। और यह सिलसिला चुपचाप चलता रहा। जिंदगी के अपने तानेबाने के बीच जूझते हुए मैं अपने ढंग से संवेदित होता रहा और अपने ढंग से प्रभाव ग्रहण करता रहा, चाहे वह किन्ही विशिष्ट काव्यप्रवृत्तियों से प्रभाव ग्रहण करना हो या काव्यान्दोलनों से। वैसे भी, आंदोलन के नाम पर नवगीत में सब ढुलमुल ही तो चलता रहा है जिससे मैं संलग्न कभी नहीं रहा। अपनी तरह से अपनी बात कहने की रचनात्मक संकल्प शक्ति मुझ में कहां छिपी है, यह खोजता रहा।  लोग अपने अपने ढंग से तफरीह लेते रहे, मेरी रागात्मक हलचलों से बेखबर। और मैं, एकाग्र होकर, कविता के भीतर से फूटने के लिए भावभूमि बनाता रहा। हाँ, मुझे याद नहीं कि पहला नवगीत मैंने कब लिखा। शायद 1965 से 1970 के बीच कभी।

सवाल  ‘राम सेंगरहिंदी नवगीत के लिए सुपरिचित एवं महत्वपूर्ण नाम है। नवगीत के लिए आपका समर्पण देखते बनता है। यह सब कब और कैसे हुआ? प्रक्रियागत दबावों से गुजरते हुए आपने लिखने की भावभूमियाँ कैसे बनायीं?

राम सेंगर शुरुआती दौर की तुकबंदियों में, कभीकभी कुछ ऐसी बात निकल कर जाती थी जो मुझे लगा करती थी कि वह सामान्य से कुछ अलग है। इस सामान्य से अलग पर जब मैं अपना ध्यान केंद्रित करता तो कथ्य, भाषा और स्वर के स्तर पर मुझे अपनी कहन कुछ बदलीबदलीसी और दूसरे कवियों से भिन्न लगा करती थी। कुछ ठीकठाक लिखने लगा तब तो और। अपने समकालीनों और पूर्ववर्तियों से मेरी कहन मेल ही नहीं खाती थी, खासतौर पर भिन्नभिन्न, पिन्नपिन्न करने वालों से या साँचों में ढालकर लिखने वालों से। सोचा करता था, ऐसा क्यों है। मेरे और उनके हालातों में, सामाजिकआर्थिक परिवेशों में, जीवनानुभव की असंगतियों में, अनुभूतिजन्य भवाकुलताओं में, आखिर ऐसा क्या है जो कहन पर पड़ने वाले प्रभावों या दबावों से गुजरता हुआ मेरी अभिव्यक्ति को दूसरों से अलग करता है। इस जिज्ञासा ने मुझे और और बेहतरी के साथ बात कहने का अपने ढंग का शऊर दिया, जिसे मैं, आत्मालोचन की पार्श्वभूमि में रखकर निरंतर माँजता रहा। शायद, मेरे इन्हीं प्रयासों को आप समर्पण कह रहे हैं। सृजनकर्म में अनायास कुछ नहीं होता, मिलता है। लगे रहना होता है। इन्हीं प्रयासों से जीवन और कविता की समझ दुरुस्त और विकसित होती है। 

सवाल  (स्व.) डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी ने आपके पांचवें नवगीत संग्रह– ‘रेत की व्यथाकथाकी भूमिका मेंराम सेंगर होने का अर्थस्पष्ट करते हुए स्वीकार किया है कि आप हिंदी नवगीत में अपनी धज के अकेले कवि हैं। आपको क्या लगता है? कहीं यह आपकी किसी विशिष्ट शैली की ओर संकेत तो नहीं? 

राम सेंगर डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी मेरे नवगीतों के प्रशंसक तो आरम्भ से ही रहे, लेकिन, वे मेरे बारे में किस ढंग से सोचते हैं इसकी जानकारी मुझेरेत की व्यथाकथाकी उनकी लिखी भूमिका से ही मिली। मुझे लगता है मेरे नवगीतों की जीवंत नैसर्गिक भाषा, नए प्रयोगधर्मी कथ्यपूर्ण शिल्प, सूक्ष्मगहरी मानवीय संवेदना तथा जिजीविशामूलक आस्था और विश्वास से भरे प्रतिरोधी स्वर ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। इस प्रतिरोधी स्वर की प्रशंसा– ‘ऊँट चल रहा हैकी भूमिका में शिवकुमार मिश्र ने भी बड़े सुंदर और तार्किक ढंग से की थी। मेरी संपूर्ण रचनाशीलता परराम सेंगर होने का अर्थडॉ. भदौरिया की टिप्पणी, कई मायनों में गीत के अध्ययनकर्ताओं के लिए मुझे समझने की दिशा में नए रास्ते खोलती है।अपनी धज का अकेला कविकहना कोई सामान्य टिप्पणी नहीं है। 

सवाल  अभी तक आपके पाँच नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – ‘शेष रहने के लिए‘ (1986), ‘जिरह फिर कभी होगी‘ (2001), ‘ऊँट चल रहा है‘ (2007), ‘एक गैल अपनी भी‘ (2009) एवंरेत की व्यथाकथा‘ (2013) साथ ही अगला नवगीत संग्रहबची एक लोहार कीभी जल्दी ही आने की उम्मीद है। नवगीत का उद्भव, विकास एवं वर्तमान स्थिति को सांकेतिक रूप में रेखांकित करते ये शीर्षकसीक्वलबनातेसे प्रतीत होते हैं, यह कहना कितना उचित है

राम सेंगर— मैं इस बारे में भला क्या कह सकता हूँ। आपके विचार मेंसीक्वलकी जो तकनीक है, उसके बारे में आप मुझे या औरों को अच्छी तरह से समझा सकते हैं। हाँ, ऐसा मुझे लगता जरूर है कि मेरे नवगीतों का यदि विकासात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए, तो जिस क्रम में मेरी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, उसी क्रम से यदि अध्ययनकर्ता पढ़े, तो उसे अधिक सुविधाजनक लगेगा। इस तरह से इस प्रश्न का समाधान भी मिल जाएगा औरसीक्वलकी संभावना और सत्य पर विश्लेषणपरक ढंग से रोशनी भी पड़ जाएगी। 

सवाल  आप डॉ. शम्भुनाथ सिंह से जुड़े रहे। क्या डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत का आंदोलन चलाया था? यदि हाँ, तो  इस आंदोलन की पृष्ठभूमि क्या रही और इसके क्रमिक विकास की परिणति आप किस रूप में देखते हैं? यदि नहीं, तो सच क्या है?

राम सेंगर डॉ. शम्भुनाथ सिंह के नेतृत्व में नवगीत का कभी कोई आंदोलन नहीं चला। कोई भी आंदोलन विचारधारा से चलता है। हम नहीं जानते कि डॉ. शम्भुनाथ सिंह की अपनी विचारधारा के लोग उनके समकालीनों में, या बाद के लोगों में, कितने थे। पूरे नवगीत समाज को साथ लेकर चलने का, हमें नहीं लगता कि उन्होंने कभी मन बनाया भी था। वीरेंद्र मिश्र की धारा उन्हें पसंद नहीं थी। राजेंद्र प्रसाद सिंह को वे नवगीतकार के रूप में सम्मान्य नजर से देखते नहीं थे। मुकुट बिहारी सरोज, रमेश रंजक और शलभ श्रीराम सिंह से उनकी कभी पटरी नहीं बैठी। उनके वामपंथी या जनवादी रुझानों से उन्हें उतनी तकलीफ नहीं थी, जितनी कि इन कवियों के सार्वजनिक रूप से पीनेपाने पर ऐतराज था। आदर सब एकदूसरे का करते थे, लेकिन, डॉ. शम्भुनाथ सिंह का नेतृत्व इनमें से किसी को स्वीकार्य नहीं था। बिहार के कवियों में वे सिर्फ रामचंद्र चंद्रभूषण को नवगीतकार मानते थे। स्वीकार कुछकुछ सत्यनारायण को भी करते थे, लेकिन, अधूरे मन से। नचिकेता और शांति सुमन को, नवगीत को जनगीत के साथ मिलाकर एक अलग तरह की खिचड़ी पकाने और कभीकभी नवगीत के पक्ष की अनदेखी करके गीत की वकालत करने के कारण उन्होंने अच्छे समर्पित नवगीतकार के रूप में उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया। दिल्ली, हरियाणा अथवा लखनऊ, भोपाल पर बात करना ही पसंद नहीं करते थे। ठाकुर प्रसाद सिंह, श्रीपाल सिंह क्षेम, रवींद्र भ्रमर और महेंद्र शंकर थे तो उनके साथ ही और इनमें से कोई भी नेतृत्व का सेहरा अपने सिर बांधे जाने के फेर में भी नहीं था, तो भी इन सब में परस्पर गीतनवगीत की परख और पहचान को लेकर मतैक्य नहीं था। 

अब, जब, आंदोलन जैसा कुछ था ही नहीं, तो उसके क्रमिक विकास और उसकी परिणति के स्वरुप की बात भी क्या की जाय। हाँ, मैं डॉ. शम्भुनाथ सिंह की नवगीत दशक योजना से जरूर जुड़ा रहा हूँ। यह योजना कैसे बनी, कैसे इसे कार्यरूप दिया गया, किस तरह से नवगीत दशक के तीनों खंड छपे, दिल्ली, भोपाल और लखनऊ में कैसे इन तीन खंडों के विमोचन समारोह आयोजित किए गएयह सारा वृत्तांत मैंने अपने एक निबंध– ‘नवगीत दशक प्रसंगमें लिखा है, जो मेरी एक शीघ्र प्रकाश्य निबंधों की किताब में शामिल है। 

सवाल  क्या आप गीत और नवगीत में कोई अंतर मानते हैं? यदि ऐसा है, तो आप किनकिन बिंदुओं पर गीत और नवगीत को परस्पर अलग करना चाहेंगे?

राम सेंगर भाषा, शिल्प और संवेदना की रूढ़ियों से पुराना गीत मुक्त नहीं था और नवता और आधुनिक भावबोध को पकड़ने के उसके पास उपादान ही थे। इन्हीं सब कारणों से पुराने गीत से नवगीत अलग हुआ। अन्य काव्यविधाओं से नवगीत हर अर्थ में बेहतर है। वाह्य जीवनयथार्थ, व्यक्तिगत यथार्थ और नई से नई आंतरिक अनुभूति को नवगीत में पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। गीत में नहीं। गीत के पास उस तरह की सोच है, नई भाषाशिल्प और संवेदना। ढर्रे से वह मुक्त ही नहीं हो पाया। वही आदिम राग, नए परिवेश और जीवन यथार्थ से विछिन्न। जिंदगी के वास्तविक संवेदनात्मक प्रश्नों के उत्तर देने में पुराना गीत नितांत अक्षम है। बौद्धिक विश्लेषण द्वारा जीवन स्थितियों के आरपार देखने की जो सर्जनात्मक आत्मदृष्टि नवगीत के पास है तथा ताजातरीन संवेदनाओं की जो पारदर्शी वैज्ञानिक पकड़ नवगीत के पास है, वह पुराने गीत अथवा कविता की किसी अन्य विधा के पास नहीं। कथ्य, लयात्मकता और शब्द विन्यास का रागसंवेदनात्मक संतुलन नवगीत में ज्यादा बेहतरी के साथ साधा जा सकता है। पुराना गीत इस चुनौती से भागता है और भागतेभागते पसीनापसीना हो जाता है। इन्हीं सब कारणों से पुराने गीत को गीत के रूप में अपना फॉर्म बदलने की आवश्यकता पड़ी। नवगीत कोई शौकिया नाम नहीं है। यह कथ्य के बदलते स्वरूप और बिल्कुल नई योजनाओं के आग्रह पर रखा हुआ नाम है। पुराने निकम्मे गीतकवि चाहते हैं कि गीत को गीत ही रहने दिया जाए ताकि वह नवगीत के साथ रिश्तेदारी करके उस पाँत में बैठकर इतरा सकें, जिसमें बैठने का उनके पास कोई नैतिक आधार है, शऊर, शालीनता। 

सवाल  नवगीत में विचारधारा का होना कितना जरूरी है? विचारधारा से हटकर शिल्प का कितना महत्व है और शिल्प को हटाकर विचारधारा का कितना महत्व है?

राम सेंगर— कविता या साहित्य की किसी भी विधा के रचनाकार की निर्णायक कसौटी विचारधारा ही है। संवेदना और विचार दोनों के समाजसापेक्ष संतुलन से ही काव्यसृजन की दिशाएं खुलती हैं। संवेदना से शून्य काव्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती, इसी तरह, विचार के बिना अपने काव्यहेतुक लक्ष्यों के प्रति हार्दिक स्नेह कविमानस में नहीं पनप सकता। विचार ही बात है। कविता में यह बात ही खुलतीबोलती है या यूँ कहें कि यह बात ही कविता को अभीष्ट स्वर भी देती है। इसलिए, बिना विचारधारा के गीत या नवगीत (काव्य) कोरा भावविलास बनकर रह जाएगा। नई कविता के आलोचक और कवि नवगीत के इसी विचारधाराविहीन निरे भावविलास की खिल्ली उड़ाते रहते हैं। नवगीत में विचारधारा का होना, हर हाल में जरूरी है। 

शिल्प का विचारधारा से सीधे तौर पर कोई लेनादेना नहीं है। शिल्प, विचारधारा से संचालित नहीं होता। शिल्प के तार कथ्य से जुड़े हुए होते हैं। कथ्य के दवाब और आग्रहों पर ही शिल्प अपना रूपाकार ग्रहण करता है। शिल्प का यह रूपाकार, कथ्य की सरलतासपाटता अथवा उसकी सघनता पर निर्भर करता है। कथ्य जितना सघन और जटिल होगा, उसीकी तदनुसारी भावाकुलता या कहें अभिव्यक्ति की छटपटाहट कवि मानस में मची रहती है। चेतना, अनुभूति पर पड़ने वाले इन दवाबों को संभालती और संतुलित करती हुई, उस कथ्य के लिए, शिल्प का विधान करती है। यह शिल्प नार्मलफॉर्मल भी हो सकता है और अपनी सहज लयात्मक तारतम्यता के साथ फैलाबिखरा भी। कोई भी शिल्पविधि, शब्दविन्यास के रागसंवेदनात्मक संतुलन और चेतना के निर्देशन के बिना नहीं साधी जा सकती। इस संयोग से सधे हुए शिल्प में ही नवगीत (कविता) का सारा सौंदर्य निहित है, अर्थात, शब्दविन्यास के सहारे कथ्य को सुंदर और लयात्मक बनाता है। भले ही विचारधारा का इस शिल्पविकास में कोई सीधा योगदान नहीं रहता, लेकिन, कथ्य के साथ अपने प्रारंभिक ट्रीटमेंट के आधारसूत्रों को प्रत्यक्ष करने और स्वरूप ग्रहण करनेकराने में विचारधारा का अंकुश, शिल्पविकास के दौरान परोक्ष रूप में तना ही रहता है। 

यह जो प्रश्न आप कर रहे हैं कि शिल्प को हटाकर विचारधारा का कितना महत्व है, इसके पीछे, मुझे लगता है आपकी यह मंशा छिपी हुई है नवगीत में जो कुछ है वह शिल्प ही है, विचारधारा का कोई महत्व नहीं। ऐसा नहीं है। विचारधारा, दरअसल, कोई हलकीफुलकी चुहल नहीं होती। वही तो मूल्यदृष्टि है। वही तो लोगों, चीजों और परिस्थितियों के वैयक्तिक और सामाजिक पहलुओं को जाननेसमझने की तमीज है, वही तो नजरिया है, जो हमारे सारे सृजनकर्म को नियंत्रित करता है। जीवनव्यवहार को साधता है। दूसरी तरफ, शिल्प नवगीत (कविता) की बुनावट है। वही तानाबाना है। उसी से तो ध्वनियाँ निकलती हैं विन्यास की। लय बनती है शब्दों की। तरन्नुम फूटता है लयात्मकता का। शिल्प है तो गीत है, नहीं तो काहे का गीत। रचना से शिल्प को हटाकर बचेगा ही क्या। विचारधारा अकेली, सिर्फ विचारधारा है, कविता या गीतनवगीत नहीं। कथ्य, शिल्प, संवेदना और विचारधारा के सहकार के बिना कविता संभव नहीं। 

सवाल  शोषणउत्पीड़न के विरुद्ध संघर्षचेतना जागृत करने के लिए आप पाठकों से किस तरह का संवाद स्थापित करना चाहते हैं, साथ ही, संवाद की निरंतरता बनाए रखने के लिए कवियों/नवगीतकारों को क्या कुछ और करना होगा?

राम सेंगर—  शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्षचेतना जागृत करने के लिए हम पाठकों से इस तरह का संवाद स्थापित करना चाहेंगे कि पाठक पहले शोषण और उत्पीड़न तथा शोषित और उत्पीड़ित के अर्थ को समझे और अपने संपर्क में आने वालों को भी समझाये। वर्ग भेद के रहस्य को जाने और जानने के बाद वर्गवर्ग की बीच की असमानताओं, असंगतियों अंतर्विरोधों के कारक तत्वों को पहचाने और अपने भीतर प्रतिरोध की आग को जगाए। साथ ही, प्रतिरोध के इस स्वर के साथ इन दमनकारी शक्तियों के विरुद्ध खुलकर खड़ा हो। यह सवाल क्यों पूछा गया है, यह तो मैं नहीं जानता, हाँ, जब प्रसंग उठा ही है तो यहाँ मैं यह कहना चाहूंगा कि यह सवाल सारे नवगीत कवियों से पूछा जाए कि इन मुद्दों पर उनका अपने पाठकवर्ग के साथ किस तरह का रिश्ता है। संघर्षचेतना जागृत करने के लिए पाठकों से संवाद की बात तो तब कोई उठा सकता है जब उसकी खुद की संघर्षचेतना जागृत हो। अस्तित्व और अस्मिता का संकट तो हममें से हर कोई उठा रहा है कहने को, लेकिन, कविता में, नवगीत में, वह दिखलाई क्यों नहीं पड़ता। दिखलाई पड़ भी नहीं सकता क्योंकि हम में से तीनचौथाई तो यह भी नहीं जानते कि अस्मिता या अस्तित्व का संकट होता क्या है। उस संकट से उबरने का कोई संघर्ष करे तो जाने संघर्षचेतना की सुगबुगाहट को, उसकी होंस के जज्बे को। जब हममें ही संघर्षचेतना नहीं, हमारे काव्य में नहीं, तो फिर पाठकों में कैसे उसे प्रक्षेपित करेंगे। अपने काव्य को ले तो हम उल्टी दिशा में जा रहे हैं। नब्बे प्रतिशत नवगीतकार अपनी दिशा से भटके हुए हैं। संघर्ष का रास्ता ही छोड़ दिया सबने। मुझे लगता है, चेतना जब लुल्ल हो जाती है, तब हमारा कवि (भ्रमित और अहंकारी कवि) डींग को ही संघर्षचेतना से झलमलाता काव्य मानकर खुद भी गुमराह होता है और दूसरों को भी करता है। कुछ इसी तरह की दिशाहीनता व्याप्त है हमारे आज के नवगीत लेखन में। नवगीत की मुकुट बिहारी सरोज, रमेश रंजक, शलभ श्रीराम सिंह, कैलाश गौतम, देवेंद्र कुमार, उमाकांत मालवीय, भगवान स्वरुप सरस, नईम, राम सेंगर और दिनेश सिंह द्वारा विकसित धारा को कायदे से आगे बढ़ाना ही चाहिए था और बिडम्बना देखिए, वही पूरी तरह से अवरुद्ध पड़ी है। यह विचारणीय विषय है, लेकिन, फुर्सत किसे है विचार करने की। 

इसी प्रश्न के जिस हिस्से में आपने कवियों और नवगीतकारों के बीच संवाद की निरंतरता के बने रहने की बात उठाई है, उस बाबत अब क्या कहें। परस्परता तभी बनी रह सकती है जब हमारे रिश्ते स्वार्थ पर आधारित हों, जब हम एकदूसरे को समझने में यकीन करते हों और हमारे रुचिबोधों में इतनी संगति तो हो ही कि जिन्हें तर्क के सहारे अनौपचारिक बनाया जा सके। जब यह बात ही नहीं है तो काहे की परस्परता, काहे का संवाद और किस संवाद की निरंतरता। हमारे नवगीतसमाज में इन दिनों अहंकार का डंका बज रहा है और परस्परता भी सिर्फ निजी हितसाधन तक सीमित हो गई है। अमुक यदि आपके किसी काम का नहीं, तो उससे संबंध ही क्यों? याद आते हैं पुराने ज़माने। 

सवाल — बड़ेबड़े नगरोंमहानगरों से दूर आप कटनी जैसी छोटी जगह पर रहते हैं, वह भी निपट अकेले। ऐसे में वर्तमान समाज (ग्राम्य एवं नगरीय), साहित्य एवं कवि और उसके अंतर्भेदी रिश्तों की पड़ताल कैसे करते हैं?

राम सेंगर कटनी आने और फिर यहीं का होकर रह जाने के पीछे की परिस्थितियाँ थीं। आना, पैर टिकाना, जीवन और कविता के लिए संघर्ष करना और फिर संघर्ष करतेकरते सेवानिवृत्त हो जाना, अर्थात, जिस कटनी में हमने सारा जीवन होम कर दिया, उसे आखिरी वक्त में छोड़ने का सदमा भला हम क्यों उठाते। जब तक का दानापानी है हमारे खाते में, तब तक के लिए यही रह गए। पत्नी को गुजरे 18 साल हो गए। बेटियाँ, अपनेअपने घर चली गयीं। बेटे की शादी कर उसका घर बसाने की कोशिश की। करने के लिए, इतने पर भी बहुत बचा है। उस बचे हुए काम को पूरा करने के संकल्प कमजोर पड़ें, इसलिए, हमने अंततः कटनी में ही स्थाई रूप से रहने का विचार बना लिया। बेटे के साथ, बेटियों के साथ या अन्यत्र कहीं रहने का मन बन भी जाता, तो हमें लगता है, वहाँ हमें सुकून मिलता। यहीं ठीक हैं। अकेले हैं तो क्या, हैं तो पूरी जिंदादिली से भरे हुए। नदी जब उतार पर होती है तो गिरते जल स्तर के बारे में नहीं सोचती। जो स्वाभाविक है उसके बारे में हम भी क्यों सोचें। उम्र का ढलान है, तो रहा आये, जितना दम है, उतना तो कम से कम कर ही सकते हैं। यही सोचकर, कुछ कुछ करते रहते हैं। लोगों से मिलतेजुलते हैं। गपशप भी होती है। दिनचर्या का कोई तनाव नहीं। नहीं बनेगा नाश्ता आठ बजे, तो सही, नौ  बजे बन जाएगा या दस बजे। इससे क्या फर्क पड़ता है। नया वक्त है, नई परिस्थितियां हैं, तो टाइमटेबल तो थोड़ा बदलेगा ही। बदलाव भी जरूरी है, जैसा कि हमारे नेता कहते हैं। लेकिन, हमारे प्रतिरोध का स्वर ठंडा पड़ गया है, हमारे मित्र का यह ऑब्ज़र्वेशन, कम से कम हमारे प्रति तो वाज़िब नहीं लगता। प्रतिरोध का स्वर हमारे नवगीतों से यदि किनारा कर गया होता, तो हम कबके मर गये होते। कोई यदि यह कहे कि हम ज़िंदा ही कब थे, इस बात का जवाब हमारे नवगीत देते आये हैं। 

इस बात से भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम दिल्ली, भोपाल, लखनऊ, इलाहाबाद या वाराणसी में क्यों नहीं हैं। यहाँ क्यों हैं। हमें लगता है हम अपना काम यहाँ रहकर ज्यादा इत्मीनान के साथ कर पाए हैं। कटनी जैसी छोटी जगह पर रहकर हमें समाज और साहित्य के साथ अपने अंतर्भेदी रिश्तों की पड़ताल करने जैसा विचार ही कभी नहीं आया। ऐसी सारी पुरानी पड़तालों की रपटों का सच हम देखजी चुके हैं। नज़रिये का सच अब बदलेगा, भले ही बूढ़े हो जाएँ। 

सवाल  कहा जाता है कि अमुक कवि का जीवन (नव) गीत बन गया है। क्या (नव) गीत जीवन का परफेक्ट साँचा है?

राम सेंगर जीवन, दरअसल गीत ही है, यदि वह सध जाए ठीक तरह से। कथ्य को जैसे तदनुसार विकसित शिल्प और शब्दविन्यास के साथ साधते हुए लयात्मक बनाया जाता है, उसी तरह, जिन उपादानों के सहारे जीवन जिया जाता है, यदि वे एक सुघड़ विन्यास के साथ सध जाएँ, तो जीवन भी लयात्मक हो जाए, लेकिन, जीवन की लयात्मक को साधना और गीत की लयात्मकता को साधना, दोनों ही भिन्न और कठिन हैं, युगीन यथार्थ की संवेदनशील चेतना, जिजीविषा और विश्वास से परिस्थितियों पर विजय पाकर जीवन को स्थिरता और शांति मिलती है। यह कहने में तो बहुत आसान है, लेकिन है बड़ा मुश्किल काम। आज के इस क्रूर अराजक समय में जटिल परिस्थितियों, असंगतियों, अतिरंजनाओं ढ़ोंग और मक्कारी के बीच युद्ध करते हुए सुरक्षित बचे रहना खेल नहीं। आर्थिक और निजी परिस्थितियाँ भी कम नहीं पेरतीं। सारे विन्यास, प्रेम, करुणा और सदाशयता के सारे जीवंत मानवीय पहलू डगमगा जाते हैं, तब कहीं, घोर संघर्ष और अनचाहे समझौतों के सहारे जीने लायक परिस्थितियाँ बन पाती हैं। इसे अब चाहे आप गीतमयता कह लें या कोई और नाम दे दें कि अमुक व्यक्ति का जीवन गीतमय हो गया है। गीतमयता में जो निराहम सहजता है, लय का सौंदर्य है, जो अनघता है, जो निरपेक्ष तदाकारिता है लोक से, वे सब एक मानव व्यक्तित्व में जाएँ तो सचमुच वह गीतमय ही लगे। गीतमयता या नवगीतमयता को हम, लेकिन, जीवन का साँचा नहीं कह सकते। जीवन की जटिलता के दबाव से यह साँचा निरापद नहीं रह सकता। टूट जाएगा। जीवन बहुत विराट और व्यापक है। गीतनवगीत ही क्या, साहित्य की सारी विधाएँ मिलकर भी कोई साँचा तैयार करे, तो भी जीवन को नहीं बाँधा जा सकता। वह समायेगा ही नहीं किसी साँचेढाँचे में। 

सवाल  आजकल तमाम नवगीत, विधा के रूप में कम, सूचनाओं के स्रोत के रूप में अधिक दिखलाई पड़ रहे हैं और उस पर भीकॉमन लयएवंकॉमन कथ्यका फॉर्मूला हावी होता जा रहा है। ऐसा क्यों?

राम सेंगर आजकल, नवगीतकारों में प्रायः देखा यह जा रहा है कि वे अपने अन्तर्जगत की ओर खुलने वाली खिड़की को बंद ही रखते हैं। उनका अर्जित या संग्रहीत कथ्य अन्तर्जगत में घूमफिर कर, रमविरम कर निकलना जाने ही नहीं। अपने स्तर के भोगेसहेदेखे की तुकबंदी बनाकर इतराते फिरना और यह सिद्ध करने पर आमादा रहना कि मुझसे बड़ा तो कोई कवि है ही नहीं, यह प्रवृत्ति हमारे आज के संभावनाशील नवगीत कवि को अन्तर्जगत की ओर उन्मुख होने ही नहीं देती। बस, देखा, उसकी एक तस्वीर ली और उस तस्वीर को इनफॉर्मेटिव टच दिया, उसके साथ घटनाओं और हालातों की तात्कालिक सूचनाएँ और टिप्पणियाँ चस्पा की और बना दिया नवगीत। देखादेखी जब नवगीतकार इसीइसी प्रोसेसिंग को अपनाएंगे, तो कथ्य तो कॉमन होगा ही। लय,शिल्प के आधार पर बनती है। विन्यास के आधार पर बनती है। अब देखिए, नवगीत के बहुत सारे ट्रेनिंग स्कूल खुले हैं देशभर में। पाठशालाएँ खुली हैं। कुछ छंदशास्त्री तो कई छंद की पाठशालायें चला रहे हैं। फेसबुक पर और व्हाट्सएप पर भी पता नहीं किसकिस के विमर्श की क्लासेज लग रही हैं। इन पाठशालाओं, ट्रेनिंग स्कूलों और विमर्श केन्द्रों में जो सबक दिये जा रहे हैं, विद्यार्थी (नवगीत के) उन्हें अपनी कॉपी पर उतार लेते हैं और सुलेख लिखते हैं टाटपट्टी पर अगलबगल बैठे हुओं की टीपटाप कर। तूने क्या लिखा, मैंने तो ऐसा लिखा, तू जरा दिखा, हाँ ठीक। तो लीजिए एक सबक पर पूरी क्लास के नवगीत तैयार। कथ्य एक है, शिल्प एक है, अपनीअपनी अक़ल के घोड़े खोलकर हासिल किया हुआ, तो, लय तो एक होगी ही। जो हुनरमंद हैं, वे थोड़ी हेराफेरी करके अपनी अलग लय बना लेते हैं। इस तरह से हमारे वर्तमान भारतीय समाज का बुद्धि, विवेक और संवेदना का बहुत बड़ा हिस्सा इस फॉर्मूले के कारण खर्च होने से बच जाता है। अच्छा तो है। इस बचे हुए हिस्से को सृजनकर्म की एकाग्र दुनिया से काट कर वे सीना खोल कर डींगें हाँकने और अपनेअपने क्षुद्र अहम् को तुष्ट करने में तो लगा ही लेते हैं। 

सवाल  संतोषं परम् सुखम्।कवि को संतोष लिखने से होता है या लिखा हुआ पुरस्कृत होने से होता है; पाठकों की प्रतिक्रियाओं से होता है या रचनाओं के पाठ्यक्रम में शामिल होने से होता है; आलोचना/समालोचना होने से होता है या फॉलोअर्स बनने से होता है? या किसी और प्रकार से होता है?

राम सेंगर बात कहने का संतोष ही कुछ अलग होता है। कवि के मन में रचना से पूर्व इस तरह की कोई मनोभावना या मनोग्रन्थि ही नहीं रहती कि उसकी रचना पढ़ी या सराही जाएगी या कि कौन उसकी रचना पर प्रतिक्रिया करेगा अथवा वह पाठ्यक्रम में शामिल होगी या नहीं। उसे प्रशंसकों का कितना लाड़ मिलेगा या उसकी आलोचनासमालोचना से उसे कितना लाभ मिलेगा, यह भी कभी वह नहीं सोचता। वह सबसे ज्यादा आनंदित तब होता है जब वह महसूस करता है कि जो बात कहना चाहता था उसे पूरी तरह से, पूरी सच्चाई और सुंदरता के साथ आया है। एक सच्चे कवि के लिए काव्यसृजन से मिलने वाला परम संतोष यही है। यह बात अलग है कि कुछ लोग अपनी काव्यरचना के प्रचार के लिए सारे हथकंडे अपनाते हैं जो एक सच्चे कवि को अपनी प्रकृति के अनुकूल नहीं लगते। इसके घाटे भी उसे उठाने पड़ते हैं और वह इस दौड़ में पीछे रह जाता है। चाहता तो वह भी है कि उसकी रचना सही पाठक तक पहुँचे। अपनी तरह के प्रयास भी करता है, लेकिन, अपनी स्वार्थ सिद्धि में चतुर और चौकस होने के कारण सुविधा, श्रेय, सुभीत तो वह गवाँ ही बैठता है, यथेष्ट सम्मान से भी वंचित रह जाता है और पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, पुरस्कारसब हिसाबीकिताबी चतुरचालाक लोगों के हिस्से में चले जाते हैं। साहित्य में हक की लड़ाई प्रतिगामियों के उन्हीं अवैध पैंतरों को अपनाकर जीतना भी कोई जीतना है। हक की लड़ाई जीतने के लिए एक जीवंत रचनाकार को अपने भीतर प्रतिरोध की सोयी आग को जगाना लाज़िमी है। 

सवाल  आजकल नवगीत पर केंद्रित समवेत संकलन प्रकाशित करने की होड़सी लगी है, लेकिन, नवगीत के विकासात्मक अध्ययन के लिहाज से इनमें से कई संकलन अपर्याप्त और अविश्वसनीयसे प्रतीत होते हैं। साथ ही, संपादकगण नवगीत के इतिहास को बिना जानेसमझे नवगीतों का मनमाने ढंग से चयन और इस बेढंगे चयन पर वैचारिकी प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कहाँ तक ठीक है

राम सेंगर सुविधायें जुटाकर जब कोई संपादक इस तरह के समवेत संकलन निकालने का काम हाथ में लेता है तो कोई सर्वथा अलग या अनूठा काम कर दिखाने की उसकी मंशा नहीं रहती, ही नवगीत के महत्व को निरूपित करने के लिए किसी नए मूल्य की स्थापना का विचार उसके मन में रहता है। निरुद्देश्य निकाले जा रहे ऐसे समवेत संकलन इसीलिए अपनी प्रामाणिकता खो देते हैं। यह सिलसिला बुरा नहीं है, लेकिन, संकलनकर्ता की नीयत साफ़ हो, यह जरूरी है। 

नवगीत परपाँच जोड़ बाँसुरी‘, ‘कविता 64′ औरनवगीत दशकके माध्यम से जो काम हुआ, उसकी एक ऐतिहासिकता है और इसी ऐतिहासिकता के चलते आज भी ये संदर्भ ग्रंथों के रूप में जाने जाते हैं। अध्ययनकर्ता या शोधार्थी बिना इनके उल्लेख के आगे बढ़ ही नहीं पाता।नवगीत दशकके प्रकाशन के बाद नवगीत के महत्व को रेखांकित करने की दिशा में जो भी काम हुआ, उसमें उल्लेखनीय या विशिष्ट कहे जाने लायक कुछ खास नहीं। परंपरा के साथ चले रे पुरानी शैली के गीत और नया आधुनिक भावबोध को समोये हुए नए जीवंत कथ्य से संपन्न गीत के अंतर को पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित इन समवेत संकलनों में गडमडसा कर दिया गया है और इस गडमड से नवगीत के स्थानापन्न रूप का जो सिद्ध रसायन निकाल कर लाया गया है उसे देखकर तो यही लगता है कि नवगीत की अब तक की विकासयात्रा का एक तरह से मज़ाक ही ज्यादा बनाया गया है। हास्यास्पद तामझाम और लम्बीलम्बी अनर्गल भूमिकाओं  प्रायोजित ढंग से अपने किए पर लेख और जीवन परिचय के साथ ग्रंथों में संपादक क्या सिद्ध करना चाहते हैं, कोई इन्हीं से पूछे। हमें तो लगता है कि नवगीत की ताकत से अनजान इन संपादकों ने खुद को ही ज्यादा महिमामंडित कियाकराया है। नवगीत के महत्वनिरूपण की गंभीरता से ध्यान हटाकर उसका विकासात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने की जगह इन सम्पादकों ने अपनी सारी ऊर्जा यह सिद्ध करने में ही ज्यादा गँवायी है कि वेपाँच जोड़ बाँसुरी‘, ‘कविता 64′ औरनवगीत दशकके सम्पादकों से ज्यादा बड़े और महत्वपूर्ण हैं। होना यह चाहिए था कि वे नवगीत की विकासयात्रा के क्रम में, पूर्ववर्ती सम्पादकों के काम और उनकी कार्यशैलियों का सर्वेक्षणविश्लेषण करते हुए उनके किए हुए या छोड़े हुए काम को, बिना किसी गर्वांध टिप्पणी के, सहज विवेकपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाते, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। विषय की गंभीरता को, लगता है, ठीक से तरजीह दी नहीं गयी, नहीं तो इस तरह की गड़बड़ियों से बचा जा सकता था। रचना चयन, इस तरह के समवेत संकलनों में निष्पक्षता के साथ होना होता है, जिससे सारे संकलन की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है।धार पर हमएक और दोके साथ चयन की प्रक्रिया का कोई विवाद इसलिए नहीं है क्योंकि वे सीमित कवियों के संकलन हैं। संपादक ने पूरी तरह जागरूक रहकर रचनाओं का चयन किया है। चयन प्रक्रिया में अनियमितताएँ निर्मल शुक्ल, राधेश्याम बंधु और नचिकेता के संकलनों में कुछ अधिक हैं। राधेश्याम बंधु ने कवियों के दो वर्ग बनाकर (सशक्त कवि और अशक्त कवि) जो मक्कारी की है, वह घोर मूर्खतापूर्ण है। उसे यह समझ ही नहीं कि वह ऐसा खेल आखिर क्यों खेल रहा है। इतिहास उसे कभी माफ नहीं करेगा। अपनी अपरिपक्व समझ के कारण कुछ भूलें ओमप्रकाश सिंह ने भी की हैं। नचिकेता का गीतवसुधा, नवगीतजनगीत के विवाद से मुक्त होकर संपादित किया गया होता, तो, और बेहतर होता। 

सवाल — कहा जाता है कि आप प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए हैं। यह कितना सच है और नवगीत के लेखन में यह किस प्रकार से सहायक है?

राम सेंगर कटनी छोटी जगह है। साहित्य लेखन में विचारधारा से जुड़े लोग यहाँ सीमित हैं। मैं प्रलेस से जुड़ा अवश्य हूँ, लेकिन, संरक्षक मंडल में अक्सर जो लोग होते हैं, उनकी हैसियतडमीसदस्य की होती है। वैसे भी प्रगतिशील लेखक संघ, क्योंकि, धुर नवगीत विरोधी संगठन है, इसलिए भी, दिलीतौर पर मेरी सक्रियता या संलग्नता इस संगठन के प्रति कभी नहीं रही। यों, अपनी विचारधारा, प्रतिबद्धताओं और प्राथमिकताओं को मैं समझता हूँ। 

सवाल  नवगीत कवियों के ऊपर अक्सर इस तरह के आरोप लगाए जाते हैं कि उन्हें अपनी निजता बहुत प्यारी लगती है। निजी तौर पर एवं व्यापक काव्यसंदर्भ में आप निजता को किस तरह देखते हैं?

राम सेंगर ‘नवगीत दशक– 2′ के अपने दृष्टिबोध में मैंने स्वीकार किया था कि एक रचनाकार के रूप में अपनेमैंकोहमका प्रतिनिधि मानकर ही मैंने अपनी कविता में सामाजिक समस्याओं के प्रभाव को तथा मानवीय दुखसुख को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है या यूँ कहें कि अपनी वैयक्तिक समस्याओं को, सामाजिक समस्याओं के साथ एकाकार करके एक तरह से मैंने सामाजिक चेतना के साथ अपनेमैंके अंतर्विरोध को समाप्त करके उसका सामाजीकरण किया है, इसलिए, अपने ऊपर अक्सर लगाए जाते रहे इस आरोप को निराधार माना है कि मुझे अपनी निजता बहुत प्यारी है। निजता किसे प्यारी नहीं होती। निजता, दरअसल, अपने होने की प्रतीति है। इस प्रतीति की ध्वन्यार्थ व्यंजना के सत्य का यदि परीक्षण किया जाये, तो नतीज़ा यही सामने आएगा कि वह वस्तुतः एक तत्व है, ग्रन्थि नहीं। निजता ही जैविक शक्तिसम्पन्न आधारपीठिका है काव्यकर्म की। मैंने निजता को व्यामोह कभी नहीं माना। निजबद्ध या आत्मबद्ध होना अलग बात है। मैं तो इसी निजता को अपनी अस्मिता मानता हूँ। मैंने तो इसी निजता के चलते अपने भीतर लक्ष्यों के प्रति हार्दिक स्नेह पनपते देखा है तथा इसी दिशारेखा पर चलकर मैंने जीवनयथार्थ की संवेदनशील चेतना के सूत्र पकड़े हैं और अपनी जिजीविशामूलक आस्था और विश्वास के साथ जागरूक भी बना रहा हूँ। 

सवाल  आजकल आलोचकों में एक विचित्र सोच जन्म ले रही है जिसमें वे अपने प्रिय और परिचित रचनाकारों का उल्लेख तो करते हैं, किंतु, कई जैनुइन रचनाकारों की उपेक्षा भी करते दिखाई देते हैं। आप क्या कहना चाहेंगे?

राम सेंगर यह तो हमेशा से होता आया है। पहले कम था, अब कुछ ज्यादा है। जैनुइन रचनाकार अपनी व्यावहारिक जिंदगी के संघर्ष से गुजरता हुआ हर हाल में अपने रचनाकर्म के प्रति प्रतिबद्ध होता है। इस प्रतिबद्धता में उसकी प्राथमिकताएँ, सरोकार और विचारधारात्मक संलग्नता शामिल है। अपने लक्ष्यों के प्रति हार्दिकता के साथ वह अपने काम में इतना उलझा रहता है कि उसे होश ही नहीं रहता कि कोई उसके बारे में क्या टिप्पणी कर रहा है या किसकिस तरह से उसकी अनदेखी की जा रही है। वह ऐसे आलोचकों के चरित्र से वाक़िफ़ रहता है और जनता है कि वे क्यों अपने प्रिय या मुँहलगे सेवक रचनाकार का पक्ष दिलखोल कर उभारते हैं। जैनुइन रचनाकार आलोचना से कभी उम्मीद नहीं करता कि वह उसके पक्ष को समझेगी या उभारेगी। यह उसके सोचने का विषय है भी नहीं। नवगीत में इन दिनों जो नयेनये अल्पज्ञानी बड़बोले आलोचकों का दस्ता उभर रहा है, जैनुइन रचनाकार उनकी औकात जानता है।

सवाल  आजकल समकालीन कवि, नवगीतों का लेखन करने के लिए अपने वरिष्ठों या हमउम्र कवियों की रचनाएँ पढ़कर उसी भाषाशैली का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। कई बार कथ्य भी उसी प्रकार का दिखाई देता है। ऐसा क्यों है? क्या यह प्रतिभाहीनता का लक्षण है या कुछ और?

राम सेंगर यह प्रवृत्ति निहायत बेहूदी और शर्मनाक है। अध्ययन एवं अध्यवसाय से शून्य, शौक़िया देखादेखी लिखने वाले संवेदनहीन मनचले, कवि कहलाने की पिनक में ऐसा करते हैं। इनके पास अपने अर्जित संस्कारों की पूंजी रहती है, अपने अनुभवों की चिंतनपरक आधारपीठिका और जीवन और कविता की कोई बुनियादी समझ, लेकिन, वे अपनी चंटचालाक फितरत को ही हुनर मानते हुए यह समझते हैं कि वे ही परम ज्ञानी और कविता के, नवगीत के, पोटेंशियल फिगर हैं। वे अपनी इनफीरियॉरिटी को ही सुपीरियॉरिटी मानने लगते हैं और सोचते हैं कि उनके इस छद्म को, मक्कारी को कोई नहीं पकड़ सकता। ऐसे लोग अपनी हीन भावनाओं पर बड़ी चतुराई के साथ पर्दा डाले रहते हैं और अक्षम रचनाकर्म के अभावों को पूरा करने के लिए बहुत नीचे स्तर पर उतरकर भाषा, भाव, विचार और कथ्यशिल्प की नकलचोरी भी करने लगते हैं ताकि वे जैनुइन रचनाकारों की तुलना में बौने लगें। नवगीत समाज में अपनी अंधी महत्वाकांक्षा के चलते, घृणित शॉर्टकट अपनाकर बड़ा बनने की इन दिनों होड़सी लगी है। मौलिकता के नाम पर चोरी और दिखावा कुछ ज्यादा ही पनप रहा है। प्रतिभाहीनता के यही लक्षण हैं, जिनका समय रहते जागरूक रचनाकारों ने यदि उपचार नहीं सोचा, तो यह विषबेल फैलतीपनपती रहेगी इसीतरह।

परिचय: अवनीश सिंह चौहान 
बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में आचार्य और प्राचार्य के पद पर कार्यरत कवि, आलोचक, अनुवादक डॉ अवनीश सिंह चौहान हिंदी भाषा एवं साहित्य की वेब पत्रिका— ‘पूर्वाभासऔर अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका— ‘क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्मके संपादक हैं।शब्दायन‘, ‘गीत वसुधा‘, ‘सहयात्री समय के‘, ‘समकालीन गीत कोश‘, ‘नयी सदी के गीत‘, ‘गीत प्रसंग‘ ‘नयी सदी के नये गीतआदि समवेत संकलनों में आपके नवगीत और मेरी शाइन द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह स्ट्रिंग ऑफ़ वर्ड्सएवं डॉ चारुशील एवं डॉ बिनोद मिश्रा द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविताओं का संकलनएक्जाइल्ड अमंग नेटिव्समें आपकी रचनाएं संकलित की जा चुकी हैं। पिछले पंद्रह वर्ष से आपकी आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों में पढ़ीपढाई जा रही हैं। आपका नवगीत संग्रहटुकड़ा कागज़ कासाहित्य समाज में बहुत चर्चित रहा है। आपनेबुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मितापुस्तक का बेहतरीन संपादन किया है।वंदे ब्रज वसुंधरासूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले ऐसे विलक्षण युवा रचनाकार कोअंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान‘, मिशीगनअमेरिका सेबुक ऑफ़ ईयर अवार्ड‘, राष्ट्रीय समाचार पत्रराजस्थान पत्रिकाकासृजनात्मक साहित्य पुरस्कार‘, अभिव्यक्ति विश्वम् (अभिव्यक्ति एवं अनुभूति वेब पत्रिकाएं) कानवांकुर पुरस्कार‘, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थानलखनऊ काहरिवंशराय बच्चन युवा गीतकार सम्मानआदि से अलंकृत किया जा चुका है।

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