प्रो. आनंद वर्धन शर्मा

पुरवाई की ‘शिक्षक से संवाद’ साक्षात्कार शृंखला को आगे बढ़ाते हुए इसकी चौथी कड़ी में आज प्रख्यात शिक्षाविद् प्रो. आनंद वर्धन शर्मा से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की है। प्रो. आनंद वर्धन  महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रति-कुलपति रह चुके हैं। इसके अलावा आपने सोफिया विश्वविद्यालय, बल्गेरिया में भारत-विद्या विभाग में भी अतिथि प्राध्यापक के रूप में दो चरणों में छः वर्षों तक अध्यापन किया है। वर्तमान में आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ‘मानव संसाधन विकास केंद्र’ के निदेशक के रूप में कार्यरत हैं। इस साक्षात्कार में प्रो. आनंद से उनके निजी जीवन सहित शैक्षणिक अनुभवों तथा देश के शिक्षा तंत्र की स्थितियों को लेकर एक सारगर्भित बातचीत हुई है, जो निश्चित रूप से हमारे पाठकों को बौद्धिक रूप से समृद्ध करेगी। प्रस्तुत है।

प्रश्न – नमस्कार सर, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। पहले प्रश्न के रूप में मैं जानना चाहूँगा कि अपनी अबतक की जीवन यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं ?
प्रो. आनंद वर्धन – सबसे पहले तो इस बातचीत के लिए पुरवाई के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। देखिए पीयूष जी, मैं  अपनी अब तक की जीवन यात्रा को एक सामान्य मध्यम वर्ग के व्यक्ति की जीवन यात्रा ही मानता हूँ जिसके लिए बहुत छोटी-छोटी  खुशियां मायने रखती हैं। मेरा  जन्म और शिक्षा-दीक्षा बनारस में हुई और रोज़गार के सिलसिले में अन्य प्रदेशों में जाने और काम  करने का अवसर मिला। शिक्षण कार्य से आरंभ कर शैक्षिक प्रशासन तक की यात्रा ने मेरे अनुभव संसार को विस्तार दिया और देश के साथ साथ विदेश में कई वर्ष तक अध्यापन करने का अवसर भी मिला। शिक्षण के अलग-अलग आयामों से जुड़ा रहा और हर जगह काम करने के विभिन्न अवसर रहे। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रति-कुलपति रहा। योरोप में अध्यापन किया। फिर 2011 से काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मानव संसाधन विकास केंद्र का निदेशक हूँ। साहित्य से सीधे-सीधे जुड़ाव इसलिए हुआ कि मेरे पिता डॉ. श्रीप्रसाद जी भारत के सर्वोत्कृष्ट बाल-साहित्यकारों में से एक थे। बचपन से ही मुझे ऐसे पारिवारिक संस्कार मिले जिससे कि साहित्य के प्रति रुझान होना स्वाभाविक था। वहीं से लिखने-पढ़ने की एक आदत बनी। मेरा मानना है कि मैं हमेशा से एक विद्यार्थी था, विद्यार्थी हूँ और विद्यार्थी ही रहूँगा। लगातार नई चीजें आ रही हैं। ऐसे में जरूरी है कि आप विद्यार्थी बने रहें और मैं आज भी स्वयं को विद्यार्थी मानता हूँ।
प्रश्न – अपने अबतक के अकादमिक जीवन से संतुष्ट हैं या कुछ ऐसा है जिसे न कर पाने का मलाल होता है ?
प्रो. आनंद वर्धन  – जहां तक अकादमिक जीवन से संतुष्ट होने की बात है, तो यह जीवन तो मेरे द्वारा स्वयं चुना गया है और यदि व्यक्ति स्वयं कुछ चुनता है, तो यह उसके ऊपर थोपा तो नहीं गया। एक बात अवश्य है कि इस अकादमिक जीवन में करने को बहुत कुछ होता है जिसे कोई भी व्यक्ति पूर्णतः न तो कर पाया है न ही कर सकता है। इस दृष्टि से आप कह सकते हैं कि मैं अब तक अपनी इस यात्रा से संतुष्ट हूँ और मानता हूँ कि यही मेरा  प्रारब्ध है। हाँ हमेशा नया करने की इच्छा भी होनी चाहिए और प्रयास भी। मलाल जैसी कोई बात तो नहीं है पर मैंने जो कुछ किया है वह बहुत ही अल्प है। हाँ यह प्रयास ज़रूर करूँगा कि कुछ और भी कर सकूँ।

प्रश्न – आपने बल्गारिया में भी अध्यापन किया है। भारत की तुलना में वहां का शैक्षणिक माहौल कैसा लगा ? वहां से संबंधित कोई खास अनुभव या घटना हमसे साझा करना चाहेंगे ?
प्रो. आनंद वर्धन  – मैंने दो चरणों में लगभग छह वर्ष तक बल्गारिया में अध्यापन कार्य किया। वहाँ का शैक्षणिक माहौल अच्छा है। विद्यार्थी जिज्ञासु हैं और मेहनती भी। मैं वहाँ भारत विद्या विभाग में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की हिंदी पीठ पर कार्यरत रहा और मेरा अनुभव यह है कि भारत के विभिन्न पक्षों को वे विद्यार्थी जानना चाहते हैं। उसमें साहित्य, समाज, संस्कृति और परंपराएँ सब कुछ शामिल है। वे भारत आते हैं और उनमें से कई एक ने विशेष रूप से किसी परियोजना पर काम किया है और कर भी रहे हैं।

विगत वर्ष जब मैं वहाँ कार्यरत था तो मैंने प्रस्ताव दिया कि यहाँ पर भारतीय शास्त्रीय नृत्य की कार्यशाला और संस्कृत नाटक की कार्यशाला आयोजित हो जिसमें भारत से आए नृत्य एवं नाट्यगुरु प्रशिक्षण दें। मेरे प्रस्ताव का समर्थन भारतीय दूतावास ने भी किया और वहाँ की संस्था पूर्व पश्चिम भारत विद्या प्रतिष्ठान ने भी और इनके सहयोग से १ महीने की कार्यशाला आयोजित हुई जिसमें भारत विद्या विभाग, सोफिया विश्वविद्यालय , नेशनल एकेडमी ऑफ़ थिएटर एंड फ़िल्म आर्ट, न्यू बल्गेरियन यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने और अन्य भारत प्रेमियों ने भाग लिया। इस कार्यशाला के दौरान कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुन्तलम् , जयदेव कृत गीत गोविंद और बुद्ध के जीवन पर आधारित नृत्य नाटिका का प्रशिक्षण दिया गया और सोफिया सहित कई शहरों में इसका प्रदर्शन भी हुआ जिसे बहुत अधिक सराहा गया। इस पूरे आयोजन के लिए भारतीय राजदूत श्री संजय राणा और पूर्व पश्चिम भारत विद्या प्रतिष्ठान की अध्यक्ष श्रीमती योरदांका बोयानोवा धन्यवाद के पात्र हैं। मेरे लिये यह महत्वपूर्ण अनुभव था।
एक और महत्वपूर्ण अनुभव रहा हिंदी भाषा की पत्रिका मैत्री के प्रकाशन का जिसमें भारतीय लेखकों की रचनाओं का प्रकाशन हुआ। इसके साथ ही विदेशी अध्यापकों और छात्रों द्वारा हिंदी में रचनाएँ लिखीं गईं और कुछ अनुवाद भी किए गए। सन् 2006 में इसके ६ अंक निकले जो ई पत्रिका के रूप में थे और सन् 2022 में पुनः इसे विधिवत प्रकाशित किया गया। इसका अगला अंक भी जल्दी ही आने वाला है।
प्रश्न – देश में अक्सर एक वर्ग द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग उठती रहती है, तो वहीं दक्षिण से इसके विरोध में स्वर सुनाई देते हैं। आपके विचार से क्या भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए राष्ट्रभाषा का विचार व्यावहारिक है ?
प्रो. आनंद वर्धन  – देखिए हर देश की एक राष्ट्रभाषा तो होनी ही चाहिए। भारत की आधी से अधिक आबादी की मातृभाषा हिंदी या उसकी उपबोलियाँ हैं। शेष हिंदी समझते हैं। हिंदी की पक्षधरता का विचार स्वतंत्रता के पूर्व से ही अधिकतर राष्ट्रप्रेमियों और नायकों ने अभिव्यक्त किया था। आज भी देश को एकता के सूत्र में बांधने का काम हिंदी कर रही है। यह ज़रूर है कि हमें अन्य भाषाओं का सम्मान भी करना चाहिए।

प्रश्न – नई शिक्षा नीति से आप भारतीय शिक्षा में किस तरह के बदलाव की संभावना देखते हैं ?
प्रो. आनंद वर्धन  – नई शिक्षा नीति 2020 भारत के प्रमुख और सुविख्यात शिक्षाविदों द्वारा निर्मित की गई है और एक महत्वपूर्ण नीति है। इसमें शिक्षा से जुड़े हर पहलू पर विचार किया गया है और नवाचार के लिये अध्यापकों को विशेष रूप से प्रेरित किया गया है। विद्यार्थियों के लिए भी अनेक नए आयामों की चर्चा है। इसमें स्कूल ‘ड्रॉप आउट’ की समस्या को दूर करने की बात की गई है। बच्चों की शिक्षा को रुचिकर बनाने पर बल दिया गया है। इसके लिए पाठ्यक्रम को रोचक बनाने पर लगातार काम चल रहा है। इस शिक्षा नीति के परिच्छेद 4.2 में कहा गया है कि शिक्षा का जो बुनियादी चरण है, जहां से बच्चे को शैक्षिक आधार मिलता है, वहाँ खेल आदि से युक्त गतिविधि आधारित तथा रोचक शिक्षण शास्त्र को तैयार किया जाए। पुस्तक हल्की-फुल्की हो लेकिन उसकी भाषा-शैली ऐसी हो कि पढ़ते हुए आनंद आए। प्राथमिक शिक्षा के अलावा माध्यमिक, उत्तर माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा को लेकर भी विस्तार से इस नीति में बात की गई है। पाठ्यक्रम के चुनाव में इस नीति के जरिये लचीलापन लाया गया है। अभी विज्ञान का विद्यार्थी मानविकी, कला, कॉमर्स जैसे विषय लेकर पढ़ सकता है; वैसे ही कला का विद्यार्थी भी अन्य विषयों को लेकर पढ़ सकता है। पहले ऐसा नहीं था। कुल मिलाकर बात यह है कि यदि यह नीति पूरी तरह क्रियान्वित हो जाए तो इससे अत्यधिक लाभ होगा। आवश्यकता इसके पूर्ण क्रियान्वयन की है।
प्रश्न – नई शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान भी रखा गया है, इस पर आपकी क्या राय है ?
प्रो. आनंद वर्धन  – जहां तक भाषा की बात है, तो अभी विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी हर जगह चल रही है। माध्यमिक स्तर पर फ्रेंच भी मिल जाती है। लेकिन अब जर्मन, जापानी, कोरियन आदि भाषाओं को पढ़ाने और पुस्तकें तैयार करने की भी चर्चा की गई है। इससे दो लाभ होंगे। एक तो यह कि अनुवाद की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा और दूसरा, दुनिया की अन्य संस्कृतियों को जानने-समझने के प्रति भी रुचि जागृत होगी। इस संबंध में मैं अपने स्नातक जीवन का एक अनुभव साझा करना चाहूंगा। जब मैं स्नातक में था, तब मैंने फ्रेंच भाषा के डिप्लोमा में प्रवेश लिया। उस समय मन में यह विचार आया कि क्या यह संभव है कि आगे उच्च अध्ययन भी फ्रेंच में ही करें और फ़्रांस जाएं। लेकिन तब स्थितियां भिन्न थीं, सो यह नहीं हो पाया। फ्रेंच में एम.ए. की जो इच्छा थी, वह तब पूरी नहीं हो पाई। लेकिन बाद में फ़्रांस जाने की इच्छा अवश्य फलीभूत हुई। अंग्रेजी में हम मर्चेंट ऑफ़ वेनिस पढ़ते थे तो सोचते थे कि वेनिस कैसा होगा। उस समय तो इस तरह फ़िल्में और यूट्यूब वगैरह नहीं थे कि वहाँ वेनिस को देखें लेकिन बाद में जब मौक़ा लगा तो मैं वेनिस गया।
कहने का आशय यह है कि विदेशी साहित्य को जब हम पढ़ते हैं, तो वहाँ के बारे में जानने की एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है। यही बात भारत के साथ भी है। जब भारतीय भाषाओं का अध्ययन विदेशी विद्यार्थी करते हैं, तो वे भी जिज्ञासावश यहाँ आते हैं। सबकी रुचियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं।
विदेश में अध्यापन के दौरान भारत विद्या विभाग में प्रवेश लेने वाले बच्चों से जब मैं पूछता कि उन्होंने क्यों इस विभाग में प्रवेश लिया है, तो सबके विचार अलग-अलग होते । योग, आयुर्वेद, भारतीय फिल्मों आदि में रुचि होने जैसे अनेक कारण हैं जो विदेशी विद्यार्थियों को आकर्षित करते हैं। बहुत से ऐसे विद्यार्थी हैं, जिनका भारतीय शास्त्रीय नृत्य के प्रति आकर्षण है। हमारी एक विदेशी विद्यार्थी है। उसने एक बार किसी कार्यक्रम में मेहँदी लगाते हुए किसी को देखा और उसके प्रति उसका रुझान हुआ। वह मूलतः इंजीनियर थी पर उसकी नृत्य में रुचि जागृत हुई और आज वो अपना मूल पेशा छोड़ नृत्य सिखाती है। इससे समझ सकते हैं कि भाषाएँ जानने से कितना अंतर आता है।
भारत में भी हम जब हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं को जानेंगे तो उस संस्कृति के प्रति जिज्ञासा होगी। विश्वविद्यालयों में ऐसे पाठ्यक्रम हैं भी। जरूरी नहीं कि सभी भाषाओं के विभाग हों। यहाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही फ्रेंच, रूसी, जापानी, पर्सियन आदि कई विभाग हैं। भारतीय भाषाओं में तमिल, तेलुगू, मराठी आदि हैं। भाषाओं के इस शिक्षण को नए ढंग से और नवाचार के साथ यदि विद्यार्थियों से जोड़ा जाएगा तो इसका लाभ अवश्य मिलेगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बहुत विस्तार से इसकी बात की गई है। यह एक अच्छा कदम है लेकिन यह बड़ी चुनौती भी है क्योंकि सारी सामग्री मातृभाषा में उपलब्ध नहीं है। उसे तैयार करना बड़ा काम है।
प्रश्न – भारतीय संस्कृति और परंपरा के केंद्र के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की एक समृद्ध विरासत और विशिष्ट पहचान रही है। इस समय वहां भारतीय संस्कृति और परंपरा को लेकर शिक्षण एवं शोध की दिशा में विश्वविद्यालय में क्या कुछ कार्य हो रहे हैं ?
प्रो. आनंद वर्धन  – आपने ठीक कहा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की अलग पहचान है। अनेक विभाग और केंद्र  इस दिशा में कार्यरत हैं। इनमें भाषा और साहित्य के विभाग तो हैं ही इनके साथ दर्शन विभाग, प्राचीन भारतीय इतिहास, कला व संस्कृति विभाग, मालवीय मूल्य अनुशीलन केंद्र और भारत अध्ययन केंद्र जैसी इकाइयाँ भी हैं जो लगातार शिक्षण और शोध में लगी हैं।
प्रश्न – हाल के वर्षों में वैचारिक टकराहटों के नामपर विश्विविद्यालयों में अनेक विवाद और वितंडे देखने को मिले हैं। दुर्भाग्यवश बीएचयू भी इससे अछूता नहीं है। ऐसी चीजों पर एक राय यह दिखती है कि छात्र राजनीति को प्रतिबंधित कर दिया जाए। आप इस विषय में क्या सोचते हैं ?
प्रो. आनंद वर्धन  – वैचारिक टकराहटें नये विचार और चिंतन को जन्म देती हैं। मतभेद होना अलग बात है, हाँ मनभेद नहीं होना चाहिए। छात्र राजनीति यदि सकारात्मक हो तो बेहतर होगा। यदि यह किसी विघटनकारी प्रवृति को और नकारात्मकता को बढ़ावा देनी वाली है तो यह उचित नहीं है।
प्रश्न – यह अक्सर सुनने में आता है कि हिंदी में रोजगार नहीं है। आपके विचार से इस बात में कितनी सत्यता है ?
प्रो. आनंद वर्धन  – यह भ्रम विशेष वर्ग द्वारा फैलाया जाता है। हिंदी के विद्यार्थियों के लिये रोज़गार के अवसर पर्याप्त हैं। अब इसे यदि केवल सरकारी नौकरियों से जोड़ कर देखेंगे तो बात नहीं बनेगी। हालाँकि वहाँ भी अवसरों की कमी नहीं है। अध्यापन के साथ ही राजभाषा, अनुवाद आदि क्षेत्रों में अवसर हैं। दृश्य श्रव्य मीडिया, स्वतंत्र लेखन, स्क्रिप्ट लेखन और रंगमंच व अभिनय जैसे क्षेत्र हैं जिनका पर्याप्त विस्तार हुआ है। ज़रूरत इन्हें तलाशने की है। हिंदी के विद्यार्थियों को अभी और प्रयास करने की और सजगता से कार्य करने की आवश्यकता है।
प्रश्न – हिंदी में रचनात्मक साहित्य तो खूब लिखा गया है और लिखा जा भी रहा है। लेकिन उसकी तुलना में प्रयोजनमूलक सृजन बहुत कम दिखाई देता है। इसका क्या कारण है ? और क्या इस स्थिति में बदलाव की कोई उम्मीद दिखती है ?
प्रो. आनंद वर्धन  – ये दोनों अलग अलग हैं और इनकी तुलना नहीं की जा सकती। प्रयोजनमूलक हिंदी का पक्ष तो सिद्धांतों पर आधारित है और रचनात्मक लेखन का आकाश अनंत है। प्रयोजनमूलकता की सीमा है इसलिए मेरे विचार से इनकी तुलना मत कीजिए।

प्रश्न -अंत में,हिंदी के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे ?
प्रो. आनंद वर्धन  – हिंदी के विद्यार्थियों के लिए कहना चाहूँगा कि वे भाषा , साहित्य और उसकी सैद्धांतिकी के अध्ययन के साथ संरचना और उच्चारण पर भी ध्यान दें तो अच्छा होगा। यदि आप अच्छी हिंदी का व्यवहार करते हैं तो अलग प्रभाव छोड़ते हैं। हिंदी का विस्तार अनंत है बस आवश्यकता उसमें गोते लगाने की है। जहां तक बात शोधार्थियों की है, तो यही कहूँगा कि शोध के लिए नए विषय तलाशने होंगे। शोधार्थी खुद भी नए विषय लें और अध्यापक भी उन्हें नए विषय सुझाएँ। जिस विषय पर वे शोध कर रहे हों, उसकी गहराई में जाने का प्रयास करें। यदि आप किसी रचनाकार पर शोध कर रहे हैं और वह रचनाकार जीवित है, तो उसका साक्षात्कार आपके शोध में अवश्य होना चाहिए। साथ ही उससे सम्बंधित जो स्थान हैं, वहाँ जाकर भी जानकारी जुटाई जानी चाहिए। मेरे एक विद्यार्थी ने नथाराम शर्मा की ‘नौटंकी’ पर काम करना शुरू किया तो मैंने उससे कहा कि तुम उनके जन्मस्थान जाओ और उनके परिवार के लोगों से बातचीत करो। उसने वहाँ जाकर कई दिन तक प्रवास किया और उसे काफी कुछ सामग्री प्राप्त हुई। यदि इस तरह से काम होगा तो बेहतर काम हो पाएगा। आप पुराने शोधों को देख लीजिये जो आज भी मानक के रूप में व्यवहार में लाए जाते हैं। अब तो शोध के साथ अर्थ भी जुड़ गया है। शोध करने वालों को विश्वविद्यालय से लेकर नेट-जेआरएफ तक के जरिये अच्छी धनराशि मिलती है। शोध के लिए धनराशि को देने का उद्देश्य यही होता है कि शोधार्थी को आर्थिक संबल मिले तथा मनोयोग से काम करें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक विषय चुन लिया गया और जब चौथा वर्ष आएगा तो शोधार्थी जल्दी-जल्दी कुछ लिखकर जमा कर देंगे।
हो सकता है मेरा अनुमान गलत हो लेकिन मुझे लगता है कि पूरे भारत में आज हिंदी में सर्वाधिक शोध हो रहे हैं। अकेले काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शोधार्थियों की संख्या तीन सौ से अधिक होगी। लेकिन दुःख की बात ये है कि शोध अब शोध की तरह नहीं होता। छात्र चाहते हैं कि ऐसा सरल विषय मिले जिसमें काम ज्यादा न करना पड़े। बस कुछ पुराने शोध और कुछ किताबें देखकर ही काम हो जाए। ऐसा होना नहीं चाहिए। शोधार्थी के साथ-साथ यह शोध-निर्देशक को भी देखना चाहिए कि उसे विषय का कितना ज्ञान है और कितनी रुचि है। यदि वह निर्देशन कर रहा है, तो उसे भी पढ़ना पढ़ेगा।
अंत में यही कहूंगा कि शोधार्थियों और शोध-निर्देशकों को नए विषय तलाशकर, उन्हें भारतीय परंपरा की कसौटियों पर कसते हुए, इस तरह से काम करने की जरूरत है कि उनके शोध आने वाली पीढ़ी के लिए भी लाभप्रद और उपयोगी हों।
पीयूष – हमसे बातचीत के लिए समय देने हेतु आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सर।
प्रो. आनंद वर्धन  – धन्यवाद।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

3 टिप्पणी

  1. सहृदयश्लाघ्य सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. आनंदवर्धन शर्मा जी अत्यंत संवेदनशील कवि एवं कहानीकार हैं । ‘ललमुनिया घोसला कहां बनाएगी’ जैसी कृति के माध्यम से उन्होंने अपने द्रवीभूत चित्त का विस्तार किया है । इसी प्रकार ‘सेवइयां’ सदृश रचना के माध्यम से काव्यकला की परिपक्वता का परिचय प्रदान किया है। साथ ही विदेशों में हिन्दी भाषा का संवर्धन करनेवाले आनंदवर्धन जी ने भारतीय संस्कृति का भी प्रचार-प्रसार किया है।

  2. बहुत सुंदर संवाद है। सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों का संदर्भ आ गया है।

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