प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी

पुरवाई की ‘शिक्षक से संवाद साक्षात्कार शृंखला की छठवीं कड़ी में आज प्रख्यात शिक्षक प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की है। नवीन जी चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में कला संकाय और हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं। साथ ही, आप स्विट्ज़रलैंड के लौजान विश्वविद्यालय और चीन के शंघाई अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन विश्वविद्यालय में भी अतिथि अध्यापक के रूप में अध्यापन कर चुके हैं। प्रवासी साहित्य को हिंदी के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने में आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इस साक्षात्कार में नवीन जी ने नई शिक्षा नीति, हिंदी में शोध की स्थिति, प्रवासी साहित्य, भारतीय व विदेशी शिक्षा प्रणाली की तुलना आदि अनेक विषयों पर खुलकर बात की है। प्रस्तुत है।

प्रश्न – नमस्कार नवीन जी, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। मेरा पहला प्रश्न है कि यदि आपसे अपने अब तक के सम्पूर्ण जीवन को सफलता और विफलता दोनों के धरातल पर परिभाषित करने को कहा जाए तो क्या कहेंगे?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – मैंने जीवन में बहुत बड़े लक्ष्य नहीं बनाए और जो बनाए उनके निकट पहुँच गया बल्कि कई बार तो जो चाहा उससे भी अधिक मिला। इसलिए विफलता जैसा कुछ खास नहीं है। लेकिन जीवन में सौ प्रतिशत सफलता या विफलता नहीं होती। विफलता के लिए यही कह सकता हूँ कि कई बार अपनी तरफ से हर तरह से बेहतर प्रयास के बाद भी चीजें सामने वाले तक ठीक से नहीं पहुँचती तब लगता है कि हमारे प्रयास में कुछ कमी रह गई। इसके अलावा मुझे अपने जीवन में विफलता जैसा कुछ नहीं दिखता।
प्रश्न – देश में लगभग साढ़े तीन दशक बाद नई शिक्षा नीति आई है। आपके विचार में यह शिक्षा नीति देश के शिक्षातंत्र को किस तरह से प्रभावित कर सकती है?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुत जरूरी थी, क्योंकि (पिछली शिक्षा नीति के) साढ़े तीन दशक बाद आज हम देखते हैं कि विश्व की आकांक्षाएं और आवश्यकताएं बदल गई हैं। ऐसे में शिक्षा नीति में बदलाव की जरूरत थी। अब इस नई शिक्षा नीति के बारे में मैं दो बाते कहता रहा हूँ कि एक, इससे हमारी अपेक्षाएं क्या हैं और दूसरा, हमारी तैयारी क्या है। अपेक्षाएं हमारी बहुत ज्यादा हैं। अपेक्षा हमारी ये है कि बहुत-से संदर्भों में हम अमेरिका, यूके आदि विश्व के सफल शैक्षणिक तंत्रों के करीब पहुँचना चाहते हैं, लेकिन कमजोरी हमारी ये है कि हमारे पास उसके लिए समुचित योजना और बजट की व्यवस्था नहीं है। एक ओर  शिक्षा नीति को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच बजट का निर्धारण नहीं है दूसरी ओर  जिन्हें इसके कार्यान्वयन के लिए उत्तरदायी बनाया गया है, उनके पास या तो शक्तियां नहीं हैं या सीमित शक्तियां हैं अथवा शिक्षा नीति लागू करने को लेकर समय और क्षमता कम है जिससे समस्याएँ पैदा होती हैं।
सौभाग्य से मुझे भारत से बाहर स्विट्ज़रलैंड और चीन में पढ़ाने का मौका मिला है, तो इन दो अलग-अलग शिक्षा प्रणालियों को देखने के बाद मैं कह सकता हूँ कि देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिवर्तन के जो प्रावधान हुए हैं, वे बहुत अच्छे हैं। लेकिन इसे लागू करने के मामले में काफी चुनौतियाँ हैं। मैं भी एक विश्वविद्यालय में पढ़ाता हूँ और कई जगह नीति-निर्धारण में शामिल हूँ, लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए जो ढांचागत व्यवस्थाएं और प्रशासनिक तंत्र चाहिए वो अभी हमारे पास बहुत बेहतर नहीं है। अतः यही कहूंगा कि नई शिक्षा नीति यदि हम लागू कर पाएं तो निश्चित रूप से देश के शिक्षा तंत्र को प्रभावित करेगी, लेकिन अभी इस दिशा में काफी चुनौतियाँ भी हैं।

प्रश्न – आपने बताया कि आप स्विट्ज़रलैंड और चीन में पढ़ा चुके हैं, तो मेरा सवाल है कि इन देशों में पढ़ाते हुए भारत की तुलना में कैसा अनुभव रहा ?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – वहाँ शिक्षक के पढ़ाने की जो नियमावली है, उन्हें जैसी छूट है, उस तरह की नीति हमारे यहाँ नहीं बन पाई है। मुझे लगता है कि एक अध्यापक को शोध अन्वेषी के रूप में देखें तो उसकी जो उपलब्धियां हैं उन्हें सही प्रकार से विद्यार्थी तक पहुँचा पाएंगे। दूसरा, रोजगारोन्मुखी करिकुलम हो। इस विषय पर भी हमारे देश में कम बात होती है कि बहुत बड़ी आबादी एक ही तरह की पढ़ाई कर लेगी तो उसका क्या भविष्य होगा। इन सब संदर्भों में मुझे लगता है कि हमें स्विट्ज़रलैंड जैसे छोटे और चीन जैसे बड़े देश के मॉडल को देखना चाहिए।
प्रश्न – विश्वविद्यालय में से एम.फ़िल. की डिग्री को हटा दिया गया है। आपका इस विषय में क्या मत है? क्या पीएच. डी. करने से पहले एम। फ़िल। करने से विद्यार्थी को शोध की प्रक्रिया की बेहतर समझ नहीं पैदा हो जाती थी?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – मैं मानता हूँ कि शोध की समझ के लिए एम.फिल., पीएच.डी. से पूर्व कारगर रहती थी, अतः इसकी कोई एक वैकल्पिक व्यवस्था होनी चाहिए। इस समय सरकार ने एम.ए. और पीएच.डी. के बीच में शोध संबंधी कोर्स वर्क का एक पाठ्यक्रम जोड़ा है जो लगभग एम.फिल. जैसा ही है। पहले ये छह महीने का था, अब उसे साल भर का करने की बात हो रही है तो मैं समझता हूँ कि वो एम.फिल. का दूसरा नाम हो जाएगा। लेकिन मेरा मानना है कि एम.फिल. वर्षों से चल रही एक ऐसी डिग्री थी, जिसमें आने के बाद विद्यार्थी पीएच.डी. से पहले शोध के स्तर पर बेहतर तैयारी कर पाता था तथा उसकी अवधारणाएं स्पष्ट हो पाती थीं। यूजीसी नेट आदि की परीक्षा देने वालों को थोड़ा अतिरिक्त समय भी मिल जाता था। इस रूप में एम.फिल. की डिग्री की उपादेयता बहुत महत्वपूर्ण और असंदिग्ध है। हालांकि अभी जो कोर्स वर्क है, वो एम.फिल. जैसा है तो मुझे लगता है कि आगे एम.फिल. उपाधि नहीं रहेगी लेकिन कोर्स वर्क के रूप में चलती रहेगी।

प्रश्न – चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय प्रवासी साहित्य को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने में अग्रणी रहा है। भारत से बाहर रचे जाने वाले इस साहित्य में आपको ऐसा क्या दिखा कि इसे पाठ्यक्रम में प्रमुखता से जगह दी गई?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में हमने 2009-10 से प्रवासी हिंदी साहित्य का पाठ्यक्रम प्रारंभ किया। इसका कारण यही था कि एम.ए। स्तर पर हमको लगा कि हमारा विद्यार्थी आठ सौ साल पुराने हिंदी साहित्य को भी पढ़ रहा, अन्य भाषाओं में लिखे भारतीय साहित्य तथा लोक साहित्य को भी पढ़ रहा है, लेकिन भारत से बाहर रचे जा रहे हिंदी साहित्य के रूप में एक बड़ा हिस्सा छूट गया है जिसे अब प्रवासी साहित्य कहा जाता है। उस दौरान मुझे अमेरिका और ब्रिटेन जाने का अवसर मिला तो मेरी कई प्रवासी लेखकों से बात हुई। फिर मुझे लगा कि  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लेखन हो रहा है, उससे अपने विद्यार्थी को परिचित कराएं। इसके दो लाभ थे। एक तो यह कि भारत से बाहर गए लोग विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए जो कुछ कर रहे हैं, उसे हम अपने विद्यार्थी और समाज तक पहुंचा पाएं। दूसरा ये कि प्रवासी साहित्य को पढ़ने से हमारे विद्यार्थी दुनिया भर के जीवन-जगत के जो प्रश्न हैं, उनसे भी परिचित हो सकेंगे। इस विचार से मैंने प्रवासी हिंदी साहित्य को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने के लिए हमारी पाठ्यक्रम समिति के सामने रखा और हमारे विश्वविद्यालय में यह पाठ्यक्रम शुरू हुआ। मैं समझता हूँ कि हम अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, कोरिया, सूरीनाम आदि कहीं के भी प्रवासी साहित्य को पढ़ते-पढ़ाते हुए एक वृहत्तर समाज और वृहत्तर जीवन-जगत से जुड़ते हैं। शुरू में जब हमने प्रवासी साहित्य को शामिल करने की कोशिश की थी, तो कई मित्रों ने कहा था कि अभी कहीं ऐसा करना जल्दबाजी न हो जाए। लेकिन मैंने यह प्रयास किया और आज मैं यह कह सकता हूँ कि पूरे भारत में प्रवासी हिंदी साहित्य का जो एक पाठ्यक्रम चल रहा है, उसका करिकुलम डिजाईन लगभग वैसा ही है जैसा हमने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में शुरू किया था।
प्रश्न – प्रवासी लेखकों और उनकी रचनाओं के प्रति देश की साहित्यिक मुख्यधारा में एक हद तक उपेक्षा का भाव नजर आता है..। इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – मैं इस विषय में दो बातें कहना चाहता हूँ। एक यह है कि देश की जो साहित्यिक मुख्यधारा है, वह लम्बे समय तक प्रवासी लेखकों और उनकी रचनाओं से परिचित थी ही नहीं। अब धीरे-धीरे परिचय हो रहा है, तो कहीं-कहीं उसके प्रति स्वीकार भाव भी है और कहीं-कहीं दूरी भी दिख जाती है। लेकिन उपेक्षा की बात इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि किसी चीज का ज्ञान हो तब उसकी उपेक्षा की जा सकती है। जिस चीज के विषय में पता ही न हो उसकी उपेक्षा कैसे संभव है ? सो मैं समझता हूँ कि प्रवासी साहित्य के प्रति हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में  उपेक्षा के बजाय एक अज्ञानता की स्थिति रही है। अब जैसे-जैसे प्रवासी लेखकों और उनकी रचनाओं की जानकारी मिल रही है, लोग उन्हें काफी महत्त्व दे रहे हैं बल्कि मैं तो यह भी महसूस करता हूँ कि कई बार किसी कमजोर प्रवासी रचना को भी केवल इसलिए अतिरिक्त महत्त्व मिल जाता है कि वो लेखक द्वारा विदेश में रहकर लिखी गई है और इससे हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है। जहां तक साहित्यिक मुख्यधारा में आने की बात है, तो इसके लिए रचना की गुणवत्ता का भी महत्त्व होता है। मैं यह महसूस करता हूँ कि यदि विदेश में हो रहे हिंदी लेखन को प्रवासी साहित्य से नामित नहीं किया गया होता तो बहुत-से प्रवासी लेखक आज भारत में अपरिचित ही होते। सो मुझे लगता है कि प्रवासी साहित्य को यदि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में मिलाकर पढ़ाया जाता तो उसे भरपूर स्थान नहीं मिल पाता। अतः उसे अलग से, प्रवासी साहित्य के रूप में पढ़ाया जाना ही ठीक है और इससे ही मुख्यधारा में भी उसके लिए जगह बनेगी। यह तो हुई पढ़ाने की बात। जहां तक साहित्यिक परिदृश्य की बात है, तो प्रवासी लेखक जब भारत आते हैं, मुझे नहीं लगता कि विदेश में रहकर लिखने के कारण उन्हें और उनकी रचनाओं को कम महत्त्व मिलता है।

प्रश्न – हाल ही में समाचार सामने आया है कि गुलशन नंदा को कुछ विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में शामिल करने जा रहे हैं। एक लंबे  अरसे तक अकादमिक स्तर पर गुलशन नंदा की अवहेलना होती रही है। इस कदम पर आपकी क्या राय है?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – इसमें दो बातें हैं। नाम गुलशन नंदा का आ जाए या लोकप्रिय धारा के किसी और रचनाकार का आ जाए, बात यही है कि लोकप्रिय रचना कई बार पाठकों-विद्यार्थियों को भाषा से जोड़ने के लिए एक कारगर माध्यम हो सकती है। ये वैसे ही है जैसे हम भारतीय साहित्य, प्रवासी साहित्य, लोक साहित्य आदि कई तरह के साहित्य को अलग-अलग खण्डों में पढ़ा रहे हैं। इस रूप में लोकप्रिय साहित्य को भी पढ़ाने में मुझे कोई गुरेज नहीं लगता। हाँ, इसमें चयन की गंभीरता अवश्य होनी चाहिए। कौन-सी रचना पढ़ाई जाए, इसपर बात होनी चाहिए। यह भी तय करना होगा कि कोई लोकप्रिय रचना हम प्राथमिक, माध्यमिक या उच्च किस स्तर पर जोड़ रहे हैं। यानी कि कौन-सी रचना कहाँ के लिए उपयुक्त है। ऐसा न हो कि हम किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से में कोई ऐसी रचना जोड़ दें जो कल को उस स्थान के स्तर को कम करने वाली हो जाए। बाकी, यदि कोई लोकप्रिय रचना किसी संवेदना के स्तर पर पाठक को परिष्कृत करती है या पाठकीय संवेदना को विस्तृत करती है, तो ऐसी रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने में कोई समस्या नहीं है। हाँ, दिक्कत तब है जब रचना गुणवत्ता पूर्ण न हो लेकिन उसे किसी ख़ास वजह या दबाव में शामिल किया जाए। ऐसा नहीं होना चाहिए।
प्रश्न – हिंदी में शोध की गुणवत्ता पर अक्सर सवाल खड़े किए जाते हैं। ऐसा क्यों है और क्या आप भी इसे सही मानते हैं?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – मैं विश्वविद्यालय में पढ़ाता हूँ और इस समय अपने विश्वविद्यालय में कला संकाय का अध्यक्ष भी हूँ। इसके अतिरिक्त पूर्व में भी मैंने शोध की स्थिति को निकट से देखा है। हिंदी तथा उसके अलावा समाज विज्ञान आदि विषयों में भी जो शोध हो रहे हैं, उन सबको जब मैं देखता हूँ तो मुझे लगता है कि शोध के नाम पर बहुत कुछ जो प्रस्तुत किया जा रहा है, वो शोध जैसा होता ही नहीं है। वो कई बार सामग्री-संकलन जैसा होता है, तो कई बार प्राथमिक सामग्री-संकलन भी नहीं होता बल्कि अनेक पुस्तकों के उद्धरणों को एक जगह लाने जैसा होता है। इसलिए शोध को लेकर सवाल जो हिंदी की दुनिया से परिचित है, वो हिंदी पर उठाते हैं। लेकिन जब आप विज्ञान के शोध देखेंगे तो उनमें भी कोई अच्छी स्थिति नहीं दिखती। विदेशों की बात करें तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञान के जो शोध प्रस्तुत किए जाते हैं, उनका एक व्यापक फलक होने के बावजूद उन्हें भी बहुत महत्त्व नहीं मिलता है। यानी कि शोध को लेकर विदेशों में भी स्थिति बहुत कुछ यहाँ जैसी ही है। हालांकि इन सब बातों के बावजूद हम हिंदी के शोधों में गुणवत्ता की जो कमी है, उससे माफ़ी नहीं ले सकते। निस्संदेह शोध में गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस विषय में दो तरह की बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह कि यू.जी.सी। शोधार्थियों को एक अच्छी फेलोशिप भी देता है, बावजूद उसके बहुत-से शोधार्थी उस धनराशि को शोध के बजाय अपने अन्य खर्चों में, जीवन चलाने के लिए खर्च करते हैं। इस तरह के शोधार्थी अपने समय, प्राप्त धनराशि और उस पूरी कालावधि का सही उपयोग नहीं कर पाते। ऐसे में, शोधार्थी और शोध-निर्देशक से लेकर शोध-उपाधि देने वाले विश्वविद्यालय तक सभी की भूमिका पर विचार करना होगा तभी शोध की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है।

प्रश्न – अक्सर कहा जाता है कि हिंदी में रोज़गार नहीं हैं। आप इस बात को कितना सही मानते हैं?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – बिलकुल सही बात है। हिंदी में रोजगार की कमी है। हिंदी में रोजगार के अवसर बढ़ाए जाने चाहिए थे और उसका तरीका भी था। तरीका ये कि हम भारत में हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाते जिससे तमाम विषयों जैसे विधि, प्रबंधन, चिकित्सा, न्याय, विज्ञान के विषयों आदि  का अध्ययन हिंदी में होता। इन क्षेत्रों के कार्य हिंदी में होते। इससे हिंदी माध्यम को प्रश्रय मिलता। अभी हिंदी केवल एक विषय के रूप में पढ़ा रहे हैं, बाकी विषय अंग्रेजी में चल रहे हैं। इस कारण हिंदी माध्यम पिछड़ गया है। फिर रोजगार माध्यम के तौर पर हिंदी के पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि अभी हमारे देश में अलग-अलग राज्यों में अलग भाषाएँ हैं और केंद्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रभुत्व है। अभी हम देख सकते हैं कि देश की प्रशासनिक सेवा में भी हिंदी के लोगों को कम स्थान मिल पा रहा है। इसका सीधा-सा कारण यही है कि हिंदी में रोजगार लाने के लिए (आजादी के बाद से) केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारों की जो भूमिका होनी चाहिए थी, उसका सफलता से निर्वाह नहीं किया गया। अतः यह तो एकदम स्पष्ट बात है कि हिंदी में रोजगार की बहुत कमी है। यह कमी सरकारी ही नहीं, व्यावसायिक तौर पर भी है। आप देख सकते हैं कि निजी कंपनियों में सामान्य बातचीत में भले हिंदी का इस्तेमाल हो लेकिन छोटे से लेकर बड़े तक सभी लेखन, प्रचार साहित्य, कामकाज अंग्रेजी में हो रहे होते हैं। अतः मेरी दृढ़ मान्यता है कि हिंदी को देश में शिक्षण का और रोजगार का माध्यम बनाए बिना उसका कल्याण नहीं हो सकता। हां, हिंदी में मीडिया, अनुवाद आदि में कुछ नए क्षेत्र खुले हैं, परंतु नई शिक्षा नीति में हिंदी को 22 में से एक भाषा की तरह ही स्थान मिला है।
प्रश्न – हिंदी में रचनात्मक साहित्य तो खूब लिखा गया है और लिखा जा भी रहा है। लेकिन उसकी तुलना में प्रयोजनमूलक सृजन बहुत कम दिखाई देता है। आपकी इस विषय में क्या राय है?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – आपकी बात सही है। हिंदी में रचनात्मक साहित्य बहुत ही ज्यादा लिखा जा रहा है। मैं तो कई साहित्यिक कार्यक्रमों में ये कहता भी रहा हूँ कि आपने (लेखकों ने) सबकुछ वेद जैसा महत्त्वपूर्ण नहीं लिख दिया है कि उसे छापेंगे नहीं तो वो व्यर्थ हो जाएगा। जितना लिखते हैं, उसमें से जो बहुत जरूरी लगे वही प्रकाशित करें। वैसे डिजिटल के आगमन के बाद अब यह बदलाव आया है कि अब आप अपने लिखे को डिजिटली प्रकाशित कर सकते है, हर चीज के लिए कागज़ ख़राब करने की जरूरत नहीं रह गई है। खैर रचनात्मक साहित्य से इतर, प्रयोजनमूलक क्षेत्र यथा –  मीडिया, ज्ञान-विज्ञान, सूचना आदि में हिंदी माध्यम में लेखन की बहुत कमी है, जिसे दूर किए जाने की जरूरत है। जो कुछ लिखा भी गया है/जा रहा है, उसमें कई बार भाषा ऐसी भाषा का प्रयोग  होता  है कि वो अंग्रेजी से भी कठिन लगने लगता है। अतः मेरा मानना है कि प्रयोजनमूलक क्षेत्र में जो भी सृजन हो रहा है, उसमें भाषा और सामग्री दोनों ध्यान रखा जाना चाहिए। ये सामग्री ऐसी भाषा में हो जिसे सामान्य लोग भी समझ पाएं क्योंकि इसे लोगों तक पहुँचाने की बहुत आवश्यकता है। ऐसी सामग्री के हिंदी में न होने से हम पिछड़ रहे हैं।
प्रश्न – आपकी दृष्टि में विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन हिंदी के विकास और विस्तार में क्या कोई ठोस योगदान दे पाया है?
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – विश्व हिंदी सम्मेलनों की शुरुआत जिस विचार को लेकर हुई थी, वहाँ तो हम पहुँच ही नहीं पाए। चूंकि, विश्व हिंदी सम्मेलनों में जो प्रस्ताव पारित होते हैं, उनको गंभीरता से लागू करना तो दूर सम्मेलन ख़त्म होते ही उनपर विचार होना भी बंद हो जाता है। वहाँ जाने वाले लोगों में से कई ऐसे भी होते हैं जो केवल यात्रा और पिकनिक के उद्देश्य से जाते हैं। मेरा मानना है कि विश्व हिंदी सम्मेलनों के जो आयोजक हैं, उनके स्तर पर और सरकार के स्तर पर कुछ ऐसे लोग होने चाहिए जो यह देखें कि पहले विश्व हिंदी सम्मेलन से अबतक पारित प्रस्तावों पर हम कितना आगे बढ़ पाए हैं। सौभाग्य से मैं भी 2007 से लेकर अबतक न्यूयॉर्क, जोहानसबर्ग, मॉरिशस, भोपाल और अभी फिजी में हुए विश्व हिंदी सम्मेलनों में शामिल हुआ हूँ। हम सम्मेलन-आयोजन करने के पश्चात् भूल जाते हैं कि अगले सम्मेलन तक हमें क्या काम करने थे। 1975 में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ और तब से अबतक भारत, सूरीनाम, अमेरिका, मॉरिशस आदि तमाम देशों में सम्मेलन का आयोजन हुआ है, लेकिन उनमें जो कुछ भी निष्कर्ष निकाले उनका तो निरंतर मूल्यांकन  होना चाहिए था और जो कमियां थी उनसे पार पाने और आवश्यक बदलावों को लाने की कोशिश करनी थी। परंपरा के तौर पर सम्मेलन आयोजित होता है। फिर भी मैं यह नहीं कहूंगा कि इन कमियों के कारण विश्व हिंदी सम्मेलन बंद कर दिए जाएं क्योंकि इससे और भी नुकसान होगा। नुकसान यह कि अभी इस आयोजन के बहाने ही सरकारी तथा हिंदी विद्वानों के अपने स्तर पर भी जो कुछ तैयारी होती है वो भी रुक जाएगी। अतः मेरा मानना है कि विश्व हिंदी सम्मेलन होने चाहिए लेकिन गंभीरता से इस मंच का हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल किया जाए। विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरिशस को शक्तिसंपन्न बनाते हुए इन सम्मेलनों में हिंदी को लेकर पारित प्रस्तावों को लागू करने की दिशा में काम किया जाए।
पीयूष –  पुरवाई से बातचीत के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, सर।
प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी – धन्यवाद।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

5 टिप्पणी

  1. बहुत सार्थक, संदेशपूर्ण वार्तालाप। चिंतनीय प्रश्न!
    साक्षात्कार लेने के लिए दूबे जी व आ. प्रो. लोहनी को साधुवाद।
    साधुवाद पुरवाई को सुंदर आयोजन के लिए।
    धन्यवाद

  2. बहुत सार्थक वार्त्ता . वास्तव में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित कर शिक्षा का माध्यम बनाना बहुत आवश्यक है और उपयोगी भी . अन्य भाषा भाषी प्रान्तों में प्रथाथमिक व माध्यमिक शिक्षा प्रान्तीय भाषा में हो किन्तु तब भी हिन्दी एक विषय के रूप में रहे . अंग्रेजी भई पढ़ाई जाय पर माध्यम बिल्कुल नहीं होना चाहिये . ‘मातृभाषा ही शिक्षा का सही माध्यम’ एक आलेख में मैंने भी यही कहने की कोशिश की है .

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