अमरीका के लिये एक तरफ़ कुआं तो दूसरी तरफ़ खाई है। यदि अमरीका अपने कर्ज़ की समय-सीमा नहीं बढ़ाता है तो दीवालिया हो जाएगा और अगर वो सीमा बढ़ा देता है तो ब्याज दर बढ़ जाएगी। डॉलर कमज़ोर हो जाएगा। मंहगाई और बेरोज़गारी बढ़ जाएगी।
जब कभी हम सुनते हैं कि कोई भी देश डिफ़ॉल्ट करने वाला है तो हमारे सामने श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कुछ अफ़्रीकी देशों के नाम ही सामने आते हैं। हम यह सोच भी नहीं पाते कि कभी यूरोप के संपन्न देश या अमरीका व कनाडा कभी डिफ़ॉल्ट कर सकते हैं यानी कि आम भाषा में दीवालिया घोषित हो जाते हैं।
ऐसा तब होता है जब किसी देश की सरकार लेनदारों के पैसे चुकाने में असमर्थ या अनिच्छुक होती है। अर्जेंटीना, लेबनान और यूक्रेन उन देशों में शामिल हैं, जिन्होंने हाल के वर्षों में अपने ऋण पर चूक की है। पाकिस्तान पर भी आई.एम.एफ़. से कर्ज़ न मिलने की तलवार लटकी हुई है। देश पर बाहरी कर्ज़ा करीब 27 अरब डॉलर का है। और सरकार के पास कर्ज़ उतारने का कोई ज़रिया नहीं है। ऊपर से इमरान ख़ान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इन्साफ़ ने देश के हालात कुछ ऐसे कर दिये हैं कि देश अब दीवालिया हुआ कि तब दीवालिया हुआ।
बुनियादी परिभाषा ये है कि ऋण डिफ़ॉल्ट तब होता है जब कोई व्यक्ति या संस्था समय पर कर्ज नहीं चुका पाती है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति द्वारा अपने घर या कार पर लिये गये ऋण का भुगतान नहीं कर पाना। जब कोई देश ऐसा करता है, तो इसे ‘सॉवरेन डिफॉल्ट’ के रूप में जाना जाता है। यह तब होता है जब देश अपना कर्ज नहीं चुका सकता।
भारत और अमरीका सहित दुनिया के अनेक देशों का बजट घाटे में चलता है, यानी सरकार को टैक्स से जितनी आमदनी होती है उससे कहीं अधिक उसके खर्चे होते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को अपने खर्च के लिए कर्ज़ लेना पड़ता है। दुनिया के लगभग सभी देश बांड जारी करके अपने पैसा जुटाते हैं। ऐसा तब होता है जब सरकार की आमदनी कम और खर्च ज्यादा हो जाता है। सरकारें जो बांड जारी करती हैं, उनपर उसे ब्याज देना होता है और बांड की अवधि पूरी होने पर बांड की रकम वापस करनी होती है। दोनों चीजें करने में अगर चूक हो गई तो वह डिफ़ॉल्ट कहा जाता है और किसी देश के लिए तो ये सीधे सीधे दिवालिया होने की निशानी है।
जहां पाकिस्तान के लिये अभी तक कोई समय सीमा तय नहीं हुई है कि उसे कब दीवालिया देशों की सूची में डाला जा सकता है, अमरीका के बारे में कहा जा रहा है कि यदि एक जून तक अमरीका अपनी आर्थिक हालत को ठीक न कर पाए और निपटान के लिये संसाधन नहीं जुटा पाता है और डिफ़ॉल्ट हो जाता है तो न सिर्फ़ उसकी साख़ ख़त्म हो जाएगी, बल्कि विश्व के वित्तीय बाज़ार में भी भूचाल आ जाएगा। वैसे अभी-अभी समाचार मिला है कि अमरीका की वित्त मंत्री जेनेट येलेन ने सरकारी दायित्वों पर डिफॉल्ट की शुरुआती तारीख को 1 जून से बढ़ाकर 5 जून कर दिया है।
अमरीका की आर्थिक प्रभुसत्ता की प्रतीक ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में इस समय अफ़रा-तफ़री का माहौल है। माना जा रहा है कि अमरीका के पास अपने कर्ज़, ब्याज और बॉण्ड की मैच्योरिटी का भुगतान करने के लिये पर्याप्त धनराशि उपलब्ध नहीं है। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो विश्व का सबसे अमीर देश अचानक एक ‘असफल देश’ यानी कि एक ‘फ़ेल्ड स्टेट’ की सूची में शामिल हो जाएगा।
अन्य देशों की तरह अमरीका ने विदेशों से कर्ज़े नहीं ले रखे। मगर उसकी आंतरिक अर्थव्यवस्था ख़ासी जटिल है। ऋण की सीमा बढ़ाने के लिये सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी एवं रिपब्लिकन पार्टी में समझौता होना आवश्यक है। माना जा रहा है कि अमरीकी राष्ट्रपति और रिपब्लिकन नेताओं के बीच अमरीकी ऋण बढ़ाने के मामले में बातचीत सकारात्मक रही है, मगर हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स के अध्यक्ष केविन मैकार्थी का कहना है कि इस मामले में अभी किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं।
याद रहे कि 1789 के बाद आज तक कभी भी अमरीका डिफ़ॉल्ट की स्थिति में नहीं पहुंचा। यदि इस बार ऐसा होता है तो वैश्विक स्तर पर अमरीका की स्थिति चीन के सामने कमज़ोर पड़ जाएगी। अमरीका के नीति-निर्माता इसी बात को लेकर चिन्ताग्रस्त है।
डैमोक्रेट्स कर्ज़ की सीमा बढ़ाने के लिये एक बिल पर साधारण वोट की बात कर रहे हैं जबकि रिपब्लिकन पार्टी संघीय बजट में ख़र्च में कटौती की शर्त रख रहे हैं।
ज़ाहिर है कि अमरीकी राष्ट्रपति जो बाईडन इस स्थिति को लेकर ख़ासे परेशान हैं और संभवतः इसी कारण उन्होंने क्वाड की बैठक के तमाम कार्यक्रम रद्द कर दिये। अमरीका की स्थिति पर चीन ने गिद्ध दृष्टि लगा रखी है। चीन वाशिंगटन को नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं खोना चाहेगा।
अमरीका के राष्ट्रपति द्वारा विदेशी दौरे रद्द किये जाने पर भी चीन चुटकी लेने से बाज़ नहीं आ रहा। चीन के सरकारी मीडिया ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अपने संपादकीय में लिखा है कि “वाशिंगटन का व्यवहार दर्शाता है कि किस तरह अमरीका अपने सहयोगियों और भागीदारों को शतरंज के मोहरे के रूप में इस्तेमाल करता है। जब अमरीका के घरेलू मुद्दे इसके राजनीतिक एजेंडे पर हावी हो जाते हैं, तो यह आसानी से अपने वादों से पीछे हट जाता है।
‘ग्लोबल टाइम्स’ आगे लिखता है कि “अपने कर्ज़ के मुद्दे पर फंसकर अमरीका लगातार अपनी प्रतिष्ठा खो रहा है। इस कारण उसके नेतृत्व और प्रतिष्ठा को लेकर उसके सहयोगी देशों के मन में संदेह पैदा होना शुरू हो गया है।”
अमरीका के लिये एक तरफ़ कुआं तो दूसरी तरफ़ खाई है। यदि अमरीका अपने कर्ज़ की समय-सीमा नहीं बढ़ाता है तो दीवालिया हो जाएगा और अगर वो सीमा बढ़ा देता है तो ब्याज दर बढ़ जाएगी। डॉलर कमज़ोर हो जाएगा। मंहगाई और बेरोज़गारी बढ़ जाएगी।
रिपब्लिकन स्पीकर केविन मैककार्थी ने शुक्रवार 26 मई को स्वीकार किया कि यह संकट का समय है। हमें समय की कमी का सामना करना पड़ रहा है। मैं जो बाइडेन के साथ मिलकर लोन-टाइम को बढ़ाने के लिए बातचीत कर रहा हूं। देश के राष्ट्रपति की आक्रामक खर्च योजनाओं में कटौती की उम्मीद कर रहा हूं।
आइएमएफ के संचार निदेशक जूली कोजैक ने सभी को मामले को तत्काल हल करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा, “हमारा आकलन यह है कि यदि अमेरिकी कर्ज डिफ़ॉल्ट हो जाता है तो इससे न केवल अमरीका, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी बहुत गंभीर प्रभाव पड़ेगा।”
अमरीका अगर एक हफ्ते के लिए भी डिफॉल्ट कर जाता है तो इसका बेहद बुरा असर पड़ सकता है। मूडीज एनालिटिक्स के सहायक निदेशक बर्नार्ड यारोस का कहना है कि अगर ऐसा हुआ तो 2008 के वित्तीय संकट जैसी मंदी आ सकती है। जिसके बाद सरकार को अपने खर्च में कटौती करनी पड़ सकती है। यारोस और मूडीज के कई सहयोगियों का मानना कि कटौती करने से अर्थव्यवस्था और विकास पर असर पड़ेगा।
इस स्थिति में वित्तीय बाजारों में उथल-पुथल मच जएगी, ब्याज दरें ऊपर जाएंगी और डॉलर कमजोर हो जाएगा। ब्याज दरें बढ़ने पर लोग निवेश से दूरी बना सकते हैं। यारोस का कहना है कि ऐसे में सिर्फ अमरीका की अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर इसका असर पड़ेगा। साथ ही, कई देशों का अमरीकी ट्रेजरी पर उतना भरोसा भी नहीं रहेगा जितना अब है। अमरीकी मुद्रा डॉलर लंबे समय से मजबूत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनी हुई है जिसको चुनौती मिलेगी। दूसरे देशों की मुद्रा डॉलर की कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर बाज़ार में उसका प्रभुत्व कम कर सकती हैं।
पहले कोरोना और फिर यूक्रेन-रूस संघर्ष – दोनों ने अमरीकी अर्थव्यवस्था पर गहरा असर छोड़ा है। ब्रिटेन और यूरोप भी इससे अछूते नहीं बचे हैं। पूरी विश्व की निगाह इस समय अमरीका पर लगी है। पांच जून भी कोई बहुत दूर नहीं है। अमरीका अपनी समस्या कैसे हल करता है, इस पर विश्व की अर्थव्यवस्था का ख़ासा दारोमदार होगा।
अर्थ व्यवस्था की मजबूती किसी भी देश के समृद्धि की रीढ होती है,जिस पसर उस देश की पूरी राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक साख का ढांचा खड़ा होता
है।अमरीका को विश्व की अर्थ व्यवस्था और समृद्धि का पर्याय माना जाता रहा है,यह कल्पना करना कठिन है कि
अमेरिका में भी कभी इतना बड़ा संकट खडे होने की स्थिति हो जाएगी की उसे कर्ज के गर्त में डूब कर
दिवालिया होने की नौबत आ जायेगी। इसका परिणाम तो
भयावह होने का संकेत दे रहा है ,जिसका सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था पर गम्भीर असर पड़ने की संभावना है।
आपका विश्लेशण परक समृद्ध आलेख एक गम्भीर चेतावनी है कि समय रहते अन्य देश भी सावधान रहें
क्योंकि कहावत है कि हाथी के गिरने पर उसके नीचे बहुत से छोटे मोटे जीव दब जाते हैं।
सभिवादन साधुवाद,आपको।
इन्द्र्कुमार दीक्षित नागरी प्रचारिणी सभा देवरिया।
Your Editorial of the day summarizes so well all that is worrying Biden n gives us a detailed view of the grave economic crisis that USA faces today. Also how it can make China gloat over the loss of face n power for the Americans if they default further.
All eyes on 5th June,yes.
Warm regards
Deepak Sharma
बहुत दिन रहा अमेरिका और यूरोप का प्रभुत्व। अब एशिया शक्तिसंपन्न हो रहा है। ये रुझान कुछ समय से दिख रहे थे, अब स्पष्टता से दिखने लगे हैं।
अमेरिका की इस स्थिति के लिये जो बाईडन की नीतियाँ जिम्मेदार हैं या यूक्रेन युद्घ, जो भी है, ठीक है। लंबे समय अमेरिका की दादागीरी चल रही थी।
दुःख ये है कि चीन शक्तिशाली हो गया है। वही अमेरिका को टक्कर दे सकता है। रूस युद्घ करके खोखला हो रहा है। भारत की अर्थ व्यवस्था अभी वहाँ नहीं पहुँची है, जहाँ चीन की पहुँची है।
ऐसे में वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य कैसा होगा अनिश्चित है। अर्थिक संकट तो आयेगा, दुःखद भी होगा लेकिन अमेरिका का कद घटना वैश्विक परिदृश्य के लिए अच्छा होगा, ये मेरा विचार है।
जानकारियों से भरपूर संपादकीय के लिए हार्दिक धन्यावाद शर्मा जी।
सर्वप्रथम आपको ढेर सारी जानकारी देने के लिए साधुवाद मैं राजनीति के विषय में तो इतना नहीं जानती पर मुझे ऐसा लग रहा है कि यदि अमेरिका का प्रभाव वैश्विक स्तर पर कम होगा तो चीन का प्रभाव बढ़ जाएगा, जो हमारे लिए सही नहीं होगा।
चीन की तानाशाही भारत ही नहीं ताइवान भी झेलेगा। विश्व के आर्थिक समीकरणों के साथ-साथ राजनीतिक समीकरण भी बदलेंगे।
वैश्विक आर्थिक परिवर्तन तेजी से हो रहा है।पहली दुनिया कहेजाने वाले राष्ट्र में ऐसे हालात चिंता का विषय हैं।
IMF और IBRD मिलकर हो सकता है बचा ले जाए ,सम्पादकीय पढ़कर दिमाग में हलचल तो हुई है ।
Prabha mishra
आदरणीय संपादक महोदय, आपके संपादकीय इतने रोचक ,सरल और ग्राह्य होते हैं कि मेरे जैसे आर्थिक विषयों में मूढ़ता रखने वाले के संज्ञान में भी आर्थिक जटिलताओं की कुछ बातें आ गयी हैं। धन्यवाद। विकसित देशों की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था का सीधा प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ना स्वाभाविक है। अब देखना यह है कि ऊंट किस करवट बैठता है। यदि चीन का वर्चस्व विश्व की आर्थिक स्थिति में दृढ़ होता है तो यह भारत के लिए बहुत सुखद नहीं होगा। देखना है कि आगे स्थितियां क्या मोड़ लेती है!!! विचारोत्तेजक संपादकीय के लिए धन्यवाद!
प्रिय भाई तेजेंद्र जी, आपका संपादकीय बुरी तरह झकझोरने और आंखें खोल देने वाला है। अमेरिका की स्थितियां अच्छी नहीं हैं, यह तो समझ में आ रहा था, पर वे इस कदर खराब हैं, और यहां तक आ पहुंची हैं, इसका सच ही मुझे पता नहीं था।
पहली बार आपके संपादकीय से ही पूरी तस्वीर सामने आई है, और इस कदर मर्मांतक कि क्या कहा जाए! उफ़, दुनिया के महादादा की यह कारुणिक पतन गाथा!
मुझे ‘वक्त’ फिल्म की याद आ रही है, ‘वक्त के दिन और रात…!’ सच, वक्त से बड़ा बादशाह कोई और नहीं। और दुनिया के सारे राजे, महाराजा और महादादे भी उसके गुलाम है…!!
अलबत्ता, इससे वैश्विक स्थितियां चिंताजनक तो बेशक हुई हैं, आगे और होंगी। रास्ता भी शायद कहीं से निकलेगा। मगर कहां से, अभी कुछ भी कह पाना शायद जल्दबाजी होगी।
अलबत्ता, भाई तेजेंद्र जी, इस तलस्पर्शी संपादकीय के लिए मेरा साधुवाद!
तेजेन्द्र जी: आपका संपादकीय बहुत रोचक और सही है। चीन को इतना शक्तिशाली बनाने में सब से अधिक हाथ अमरीका का है। उत्पादन के लिये सस्ती लेबर के चक्कर में अपना manufacturing base ख़त्म करके अमरीका की बहुत सी बड़ी बड़ी कम्पनीयों ने अपना सामान चीन में असैम्बल करना शुरु कर दिया। आज यह आलम है कि डिपार्टमैञ्ट स्टोरों में अमरीका का बना हुआ सामान चीन के आगे काफ़ी महँगा है। अब लोगों ने तो वहीं शॉपिंग करनी है जहाँ उन्हें सस्ता माल मिलेगा। इसका सीधा असर दोनों देशों की balance of payment पर पड़ेगा और इस में अमरीका ही घाटे में रहेगा और इसका जो असर आने वाली पीढ़ी पर होगा वो तो समय ही बतायेगा।
विजय विक्रान्त – कैनेडा
तेजेन्द्र जी: आपको संपादकीय बहुत रोचक और सही है। चीन को इतना शक्तिशाली बमनाने में सब से अधिक हाथ अमरीका का है।उत्पादन के लिये सस्ती लेबर के चक्कर में अमरीका की बड़ी बड़ी कंपनियाँ अपना manufacturing base ख़त्म करके अपना सामान चइन में असैम्बल करना शुरु कर दिया। आज यह आलम है कि डिपार्टमैण्ट स्टोरों में अमरीका का बना हुआ सामान चइन के बने हुये माल के आगे काफ़ी महंगा है। अब लोगों ने तो वही माल ख़रीदना है जो सस्ता है। इसका सीधा असर दोनों देशों की balance of payment पर पड़ेगा ओर इस सॉदे में अमरीका ही घाटे में रहेगा और इसका जो असर आने वाली पीढ़ी पर होगा वो तो समय ही बतायेगा।
विजय विक्रान्त
कैनेडा
अमेरिका की आर्थिक बदहाली पर विस्तृत दस्तावेज है आपका संपादकीय। अमेरिका अपनी नीतियों, रीतियों के कारण ही इस संकट में फंसा है। पहले वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान और चीन को खड़ा करने की कोशिश करता रहा। पाकिस्तान तो बदहाल हो गया है पर चीन अब अमेरिका को टक्कर देने की स्थिति में आ चुका है। भारत के साथ चीन के सम्बन्ध न कभी सामान्य थे, न अब भी हैं। अगर अमेरिका की स्थिति डांवाडोल होती है तो उसका असर एशिया पर भी होना सुनिश्चित है। भारत विश्वपटल पर अपनी पहचान बना रहा है, पर उसे अभी और समय चाहिए। अमेरिका की रूस के खिलाफ साजिशों का ही परिणाम है रूस उक्रेन युद्ध। पाकिस्तान हो या यूक्रेन, इराक हो या अफगानिस्तान सबकी बदहाली का जिम्मेदार अमेरिका ही है। साजिशों का कभी तो अंत होना ही है।
ऋण सीमा बढ़ाने के कारण फिलहाल अमेरिका को कर्ज संकट से राहत मिल गईं है किन्तु अगर उसने अपनी रीतियाँ, नीतियाँ न बदली तो फिर इस संकट से पार पाना कठिन होगा।
अर्थ व्यवस्था की मजबूती किसी भी देश के समृद्धि की रीढ होती है,जिस पसर उस देश की पूरी राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक साख का ढांचा खड़ा होता
है।अमरीका को विश्व की अर्थ व्यवस्था और समृद्धि का पर्याय माना जाता रहा है,यह कल्पना करना कठिन है कि
अमेरिका में भी कभी इतना बड़ा संकट खडे होने की स्थिति हो जाएगी की उसे कर्ज के गर्त में डूब कर
दिवालिया होने की नौबत आ जायेगी। इसका परिणाम तो
भयावह होने का संकेत दे रहा है ,जिसका सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था पर गम्भीर असर पड़ने की संभावना है।
आपका विश्लेशण परक समृद्ध आलेख एक गम्भीर चेतावनी है कि समय रहते अन्य देश भी सावधान रहें
क्योंकि कहावत है कि हाथी के गिरने पर उसके नीचे बहुत से छोटे मोटे जीव दब जाते हैं।
सभिवादन साधुवाद,आपको।
इन्द्र्कुमार दीक्षित नागरी प्रचारिणी सभा देवरिया।
भाई दीक्षित जी इस ख़ूबसूरत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
Your Editorial of the day summarizes so well all that is worrying Biden n gives us a detailed view of the grave economic crisis that USA faces today. Also how it can make China gloat over the loss of face n power for the Americans if they default further.
All eyes on 5th June,yes.
Warm regards
Deepak Sharma
Thanks so much for your continued support Deepak ji.
बहुत दिन रहा अमेरिका और यूरोप का प्रभुत्व। अब एशिया शक्तिसंपन्न हो रहा है। ये रुझान कुछ समय से दिख रहे थे, अब स्पष्टता से दिखने लगे हैं।
अमेरिका की इस स्थिति के लिये जो बाईडन की नीतियाँ जिम्मेदार हैं या यूक्रेन युद्घ, जो भी है, ठीक है। लंबे समय अमेरिका की दादागीरी चल रही थी।
दुःख ये है कि चीन शक्तिशाली हो गया है। वही अमेरिका को टक्कर दे सकता है। रूस युद्घ करके खोखला हो रहा है। भारत की अर्थ व्यवस्था अभी वहाँ नहीं पहुँची है, जहाँ चीन की पहुँची है।
ऐसे में वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य कैसा होगा अनिश्चित है। अर्थिक संकट तो आयेगा, दुःखद भी होगा लेकिन अमेरिका का कद घटना वैश्विक परिदृश्य के लिए अच्छा होगा, ये मेरा विचार है।
जानकारियों से भरपूर संपादकीय के लिए हार्दिक धन्यावाद शर्मा जी।
आपने संपादकीय की जड़ को पकड़ा है शैली जी। पुरवाई का प्रयास रहता है कि अपने पाठकों के सामने भिन्न मुद्दे लाए जाएं और उनके विचार जाने जाएं।
सर्वप्रथम आपको ढेर सारी जानकारी देने के लिए साधुवाद मैं राजनीति के विषय में तो इतना नहीं जानती पर मुझे ऐसा लग रहा है कि यदि अमेरिका का प्रभाव वैश्विक स्तर पर कम होगा तो चीन का प्रभाव बढ़ जाएगा, जो हमारे लिए सही नहीं होगा।
चीन की तानाशाही भारत ही नहीं ताइवान भी झेलेगा। विश्व के आर्थिक समीकरणों के साथ-साथ राजनीतिक समीकरण भी बदलेंगे।
आपने मुद्दे को सही समझा है। साधुवाद।
मजबूती अर्थव्यवस्था में होनी चाहिए ये समृद्धशाली देश के लिए आवश्यक होता है।बेहतरीन और सार्थक अभिव्यक्ति आदरणीय
धन्यवाद भावना जी
वैश्विक आर्थिक परिवर्तन तेजी से हो रहा है।पहली दुनिया कहेजाने वाले राष्ट्र में ऐसे हालात चिंता का विषय हैं।
IMF और IBRD मिलकर हो सकता है बचा ले जाए ,सम्पादकीय पढ़कर दिमाग में हलचल तो हुई है ।
Prabha mishra
प्रभा जी आपकी सारगर्भित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय संपादक महोदय, आपके संपादकीय इतने रोचक ,सरल और ग्राह्य होते हैं कि मेरे जैसे आर्थिक विषयों में मूढ़ता रखने वाले के संज्ञान में भी आर्थिक जटिलताओं की कुछ बातें आ गयी हैं। धन्यवाद। विकसित देशों की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था का सीधा प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ना स्वाभाविक है। अब देखना यह है कि ऊंट किस करवट बैठता है। यदि चीन का वर्चस्व विश्व की आर्थिक स्थिति में दृढ़ होता है तो यह भारत के लिए बहुत सुखद नहीं होगा। देखना है कि आगे स्थितियां क्या मोड़ लेती है!!! विचारोत्तेजक संपादकीय के लिए धन्यवाद!
सरोजिनी जी इस हौसला अफ़ज़ाई करने वाली टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
प्रिय भाई तेजेंद्र जी, आपका संपादकीय बुरी तरह झकझोरने और आंखें खोल देने वाला है। अमेरिका की स्थितियां अच्छी नहीं हैं, यह तो समझ में आ रहा था, पर वे इस कदर खराब हैं, और यहां तक आ पहुंची हैं, इसका सच ही मुझे पता नहीं था।
पहली बार आपके संपादकीय से ही पूरी तस्वीर सामने आई है, और इस कदर मर्मांतक कि क्या कहा जाए! उफ़, दुनिया के महादादा की यह कारुणिक पतन गाथा!
मुझे ‘वक्त’ फिल्म की याद आ रही है, ‘वक्त के दिन और रात…!’ सच, वक्त से बड़ा बादशाह कोई और नहीं। और दुनिया के सारे राजे, महाराजा और महादादे भी उसके गुलाम है…!!
अलबत्ता, इससे वैश्विक स्थितियां चिंताजनक तो बेशक हुई हैं, आगे और होंगी। रास्ता भी शायद कहीं से निकलेगा। मगर कहां से, अभी कुछ भी कह पाना शायद जल्दबाजी होगी।
अलबत्ता, भाई तेजेंद्र जी, इस तलस्पर्शी संपादकीय के लिए मेरा साधुवाद!
स्नेह,
प्रकाश मनु
सर आपकी टिप्पणी हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण है। आपका हार्दिक आभार।
तेजेन्द्र जी: आपका संपादकीय बहुत रोचक और सही है। चीन को इतना शक्तिशाली बनाने में सब से अधिक हाथ अमरीका का है। उत्पादन के लिये सस्ती लेबर के चक्कर में अपना manufacturing base ख़त्म करके अमरीका की बहुत सी बड़ी बड़ी कम्पनीयों ने अपना सामान चीन में असैम्बल करना शुरु कर दिया। आज यह आलम है कि डिपार्टमैञ्ट स्टोरों में अमरीका का बना हुआ सामान चीन के आगे काफ़ी महँगा है। अब लोगों ने तो वहीं शॉपिंग करनी है जहाँ उन्हें सस्ता माल मिलेगा। इसका सीधा असर दोनों देशों की balance of payment पर पड़ेगा और इस में अमरीका ही घाटे में रहेगा और इसका जो असर आने वाली पीढ़ी पर होगा वो तो समय ही बतायेगा।
विजय विक्रान्त – कैनेडा
तेजेन्द्र जी: आपको संपादकीय बहुत रोचक और सही है। चीन को इतना शक्तिशाली बमनाने में सब से अधिक हाथ अमरीका का है।उत्पादन के लिये सस्ती लेबर के चक्कर में अमरीका की बड़ी बड़ी कंपनियाँ अपना manufacturing base ख़त्म करके अपना सामान चइन में असैम्बल करना शुरु कर दिया। आज यह आलम है कि डिपार्टमैण्ट स्टोरों में अमरीका का बना हुआ सामान चइन के बने हुये माल के आगे काफ़ी महंगा है। अब लोगों ने तो वही माल ख़रीदना है जो सस्ता है। इसका सीधा असर दोनों देशों की balance of payment पर पड़ेगा ओर इस सॉदे में अमरीका ही घाटे में रहेगा और इसका जो असर आने वाली पीढ़ी पर होगा वो तो समय ही बतायेगा।
विजय विक्रान्त
कैनेडा
अमेरिका की आर्थिक बदहाली पर विस्तृत दस्तावेज है आपका संपादकीय। अमेरिका अपनी नीतियों, रीतियों के कारण ही इस संकट में फंसा है। पहले वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान और चीन को खड़ा करने की कोशिश करता रहा। पाकिस्तान तो बदहाल हो गया है पर चीन अब अमेरिका को टक्कर देने की स्थिति में आ चुका है। भारत के साथ चीन के सम्बन्ध न कभी सामान्य थे, न अब भी हैं। अगर अमेरिका की स्थिति डांवाडोल होती है तो उसका असर एशिया पर भी होना सुनिश्चित है। भारत विश्वपटल पर अपनी पहचान बना रहा है, पर उसे अभी और समय चाहिए। अमेरिका की रूस के खिलाफ साजिशों का ही परिणाम है रूस उक्रेन युद्ध। पाकिस्तान हो या यूक्रेन, इराक हो या अफगानिस्तान सबकी बदहाली का जिम्मेदार अमेरिका ही है। साजिशों का कभी तो अंत होना ही है।
ऋण सीमा बढ़ाने के कारण फिलहाल अमेरिका को कर्ज संकट से राहत मिल गईं है किन्तु अगर उसने अपनी रीतियाँ, नीतियाँ न बदली तो फिर इस संकट से पार पाना कठिन होगा।
बहुत ही रोचक जानकारी मिली साधुवाद
आपका लेख यथार्थ के धरातल पर होता है बड़े भैया
हर एक नया विषय, नई जानकारी के साथ, अद्भुत