‘शिक्षक से संवाद’ साक्षात्कार शृंखला की नौवीं कड़ी में प्रो. विनोद कुमार मिश्र से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की है। विनोद जी, त्रिपुरा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं। इसके अतिरिक्त आप विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरिशस के महासचिव के रूप में भी पाँच वर्ष तक अपनी सेवा दे चुके हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार में विनोद जी ने अपने अकादमिक जीवन से लेकर शिक्षा, साहित्य, विचारधारा आदि विभिन्न विषयों पर खुलकर बातचीत की है।

प्रश्ननमस्कार विनोद जी, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। बातचीत आगे बढ़ाने से पूर्व मैं चाहूँगा कि आप हमारे पाठकों को अपनी अब तक की जीवन-यात्रा का एक संक्षिप्त परिचय दे दीजिये।
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – आपको और पूरे पुरवाई समूह को हृदय से धन्यवाद। मेरा जन्म वाराणसी के एक सुदूर छोटे से गाँव हरिहरपुर में 22 जून, 1965 को हुआ था। मेरे पिता का नाम पारसनाथ मिश्र और माता का नाम अमरावती देवी है। वे दोनों अब स्वर्गीय हो चुके हैं। प्राथमिक से लेकर बारहवीं तक की शिक्षा गाँव में और उसके आस-पास स्थित विद्यालय में हुई। बारहवीं के बाद स्नातक करने के लिए मैं वाराणसी आ गया और काशी विद्यापीठ में  प्रवेश लिया। वहाँ से मैंने स्नातक, परास्नातक और एम. फिल. की उपाधि प्राप्त की। एम. फिल. करने के दौरान ही  मैंने दिसंबर 1987 से तदर्थ प्रवक्ता के रूप में राममनोहर लोहिया महाविद्यालय, भैरव तलाब, वाराणसी में अध्यापन आरंभ किया। महाविद्यालय की स्थिति मेरे लिए अनुकूल नहीं थी लेकिन उन दिनों की खट्टी–मीठी  यादें  आज भी मेरे जेहन में यथावत बनी हुई हैं –
मैं खंडहर हो गया पर न तुम मेरी याद से निकले।
मगर तुम्हारे नाम का पत्थर मेरी बुनियाद से निकले।
उन्हीं  दिनों मैंने पी-एच. डी. के लिए ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ में प्रवेश लिया। पी-एच. डी. करने के दौरान ही मेरा चयन अरुणाचल प्रदेश में लेक्चरर के रूप में हो गया। बेरोजगारी की पीड़ा से निजात मिली और चल पड़ा उस निर्जन वीरान पहाड़ों की ओर, अन्यथा-
मुझे क्या काम था उस महफिले वीरां में जाने का
छुड़ाया आबदाने ने कदीने आशियाँ अपना ||
आरंभ में मुझे जवाहर लाल नेहरू शासकीय महाविद्यालय, पासीघाट पदस्थ किया गया|  वहाँ मैंने लगभग एक वर्ष तक कार्य किया। तत्पश्चात मुझे शासकीय महाविद्यालय, ईटानगर में स्थानांतरित किया गया। इस महाविद्यालय में मेरे जीवनगीता के अट्ठारह अध्याय लिखे गए अर्थात वहाँ 18 वर्ष तक  सेवाएँ दीं। इस दौरान तमाम तरह के साहित्य और प्रशासनिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहा। वहाँ रहते हुए मैंने विश्व बैंक द्वारा अनुदानित प्रोजेक्ट में अकादमिक सलाहकार के रूप में कार्य किया। आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए अनेक कहानियों का नाट्य-रूपान्तरण किया, एकांकी लिखी, नाट्य-मंचन का निर्देशन किया, साक्षात्कार लिया और अनेक महत्वपूर्ण विचारकों तथा राजनीतिज्ञों से संवाद किया।
वर्ष 2009 में त्रिपुरा विश्वविद्यालय में मुझे सह-आचार्य के पद पर नियुक्त किया गया। मैं अरुणाचल में तो रम गया था लेकिन इस स्थानांतरण ने मुझमें नई ऊर्जा भरने का कार्य किया। अरुणाचल से निकलते हुए मुझे एक शेर हमेशा याद आता रहा –
जानेवाला तो जाता है तस्वीर मगर रह जाती है
हर प्रीत नगर के कैदी की जंजीर मगर रह जाती है॥
बहरहाल, त्रिपुरा विश्वविद्यालय में आने के बाद जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उसकी कल्पना मैंने कभी नहीं की थी – अपने देश में रहकर भी बहिरागत (बाहर से आया हुआ)। मार्क्सवाद का चोला ओढ़े गुंडों के बीच इकलौता देशभक्त होने का दंड यह मिला कि मुझे अभिमन्यु की भांति कदम-कदम पर अकेले ही लड़ना पड़ा। सुखद बात यह रही कि इस लड़ाई में मैंने कभी हार नहीं मानी। स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की बातें हमेशा पथ-प्रदर्शित करती रहीं – हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा। इसका प्रतिफल यह हुआ कि वैचारिक दुश्मनों के द्वारा तमाम तरह के अंकुश और अत्याचार के बावजूद मैं सदैव आगे बढ़ता रहा। विश्वविद्यालय में अपने जीवन के सात वर्ष व्यतीत करने के बाद 2016 में विदेश मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा मुझे विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस का महासचिव नियुक्त किया गया। मॉरीशस में मैं 5 वर्ष 2 महीने तक महासचिव के पद पर कार्य करते हुए अकादमिक और प्रशासनिक गतिविधियों में मैं वैसे ही डूब गया था जैसे अज्ञेय का ‘प्रियंवद’! खैर वहाँ से मैं जुलाई 2021 में कर्तव्यमुक्त हो गया। एक सार्थक और सफल कार्यकाल  पूरा कर अब मैं लौटकर पुनः उसी भूमिपर वापस आ गया हूँ जहां से लड़ते-झगड़ते हुए गया था। क्योंकि  – मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै/ जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥ त्रिपुरा से मॉरिशस जाते समय अपने विदाई के समय  एक शेर कहा था –
हालात तब से अब के अक्सर बदल गए होंगे |
जिन्हें मासूम छोड़ आया था वे कातिल बन गए होंगे ||
यहाँ आकर बिलकुल मासूमों को कातिल बना पाया |  विश्वविद्यालय का रंग-ढंग  देखकर मैं चकित रह गया। फिजा में केसर की नई खुश्बू समा गई थी। ‘लाल’ रंग ‘भगवा’ में बदल चुका था, कॉमरेड के सम्बोधन पर फूले न सामने वाले लोग अब ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष कर रहे थे।

प्रश्नभारत के शिक्षण जगत में काशी हिंदू विश्वविद्यालय का एक विशिष्ट स्थान रहा है। चूंकि, आपने भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ही पीएच.डी. किया है। अतः हम काशी हिंदू विश्वविद्यालय को लेकर आपके अनुभवों को तो जानना ही चाहेंगे साथ ही यह भी समझना चाहेंगे कि उस दौर और आज के दौर के बीच शोध की संस्कृति में आप क्या किसी तरह का बदलाव देखते हैं?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – भारत ने जिन शिक्षण संस्थानों की वजह से दुनिया में अपना नाम कमाया है उसमें ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ का नाम अग्रगण्य है। यहाँ न केवल तकनीकी और चिकित्सा में नामचीन आचार्य हुए बल्कि कला, मानविकी और समाजविज्ञान में भी उसी दर्जे के आचार्य हुए जिन्होंने अपनी प्रज्ञा का लोहा मनवाया और विश्वभर में अपने ज्ञान का परचम लहराया है। महामना के सपनों के विश्वविद्यालय में शोधार्थी के रूप में जाना मेरे लिए गर्व और गौरव की अनुभूति देने वाला रहा है। महामना की उस तपोभूमि में  छात्र के रूप में जब मैं पहली बार पहुँचा तो वहाँ के परिवेश ने मुझे बहुत आकर्षित किया। वह विश्वविद्यालय मनुष्य, प्रकृति और सभ्यता की त्रिवेणी है जहां पहुँचने पर यह विश्वास होता है कि इसी परिवेश में मनसा-वाचा-कर्मणा का सम्यक विकास संभव है। यहीं ऋत, सत्य और अमृत की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। मैं जिस समय काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शोधार्थी के रूप में गया था वह दौर ‘श्रेष्ठ आचार्यों’ की अंतिम पीढ़ी का था। वहाँ के आचार्यों का व्यवहार छात्रों के प्रति ममत्वपूर्ण था। उन दिनों विश्वविद्यालय का केन्द्रीय ग्रंथालय रात 12 बजे तक गुलजार रहा करता था। पढ़ने-पढ़ाने की एक विलक्षण संस्कृति विद्यमान थी। अनेक साहित्यिक गोष्ठियाँ विभागीय सभागार में सम्पन्न हुआ करती थीं। हिंदी में लिखने वाला शायद ही कोई ऐसा होगा जो विश्वविद्यालय में न आया हो। हिंदी विभाग की एक विशेषता यह भी रही है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद उस विभाग के जितने भी विभागाध्यक्ष हुए सभी ने उस कुर्सी का सम्मान किया, जिस पर आचार्य विराजमान हुए थे। आज भी उस कुर्सी पर उनकी तस्वीर की  उपस्थिति विद्यमान है। विश्वविद्यालय में अनेक छात्रावास हैं लेकिन बिड़ला छात्रावास कुछ और ही है। यह छात्रावास अपने अनेक तरह के कारनामों के कारण समाचार पत्रों में स्थान पाता रहा है। मानविकी के विद्यार्थी बिड़ला में शरण पाते थे। उस छात्रावास के अन्तःवासी ‘बिरले’ हुआ करते थे।कुछ दिन वहां रहने का सुख भी मिला है, फिर परिसर के बाहर शहर के एनी वेसेंट छात्रावास में रहा। वह सचमुच अभयारण्य रहा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिस दौर में मैंने पी-एच. डी.  शोधार्थी के रूप में दाखिला  लिया था वह आज की तुलना में कठिन दौर था। तकनीकी का इतना विकास नहीं हुआ था। एक पुस्तक अथवा शोध-आलेख खोजने में कई दिन बीत जाते थे। जबकि आज एक क्लिक पर कोई भी पुस्तक अथवा शोध-आलेख मिल जाता है। लेकिन एक पुस्तक अथवा शोध-आलेख के लिए भटकने में भी कुछ सार्थकता थी। एक पुस्तक खोजते-खोजते बीस और पुस्तकों का पता चल जाता था। उनमें मौजूद ज्ञान से रूबरू होने का समय मिल जाता था जबकि आज वह नदारद है। शोध को आज नवाचारी बनाने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन वह कितना फलीभूत हो पा रहा है, यह सर्वविदित है। उस दौर में जब इस तरह की तकनीकी और सिलिकॉन वैली की गिरफ्त से हम सभी मुक्त थे, तब पढ़ने की संस्कृति आज से कुछ बेहतर थी। यह कटु यथार्थ है कि तकनीकी ने हमारी पठनीयता को बहुत कम कर दिया है। इसका प्रभाव शोध पर भी पड़ा है। आज के शोधार्थी प्रामाणिकता की तलाश नहीं कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद तकनीकी विकास ने अनेक तरह के अंकुश लगाए हैं। नकल की संस्कृति को खत्म करने की दिशा में यह ‘प्लेगरिज़्म’ जाँच की पद्धति ने महत्वपूर्ण काम किया है।
प्रश्नलगभग साढ़े तीन दशक बाद देश को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मिली है। आपके विचार से यह नीति क्या देश के शिक्षा तंत्र की आवश्यकताओं और नए भारत की आकांक्षाओं पर खरी उतरती है ?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – निश्चित रूप से राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षा की आवश्यकताओं और नए भारत की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने वाली है। किंतु संदेह इस बात का है कि यह नीति भी कहीं लाल-फ़ीताशाही और कुत्सित राजनीति के पाँवों तले रौंद न दी जाए। भारतीय भाषाओं के संवर्धन और संरक्षण के लिए जिस तरह की नीति की जरूरत थी वह इस शिक्षा नीति में है। इससे भारतीय भाषाओं की एकात्मता को समझने की दृष्टि विकसित होगी और भाषाई सम्प्रीति का मार्ग प्रशस्त होगा। विदेशी किन्तु उपनिवेश की भाषा पर निर्भरता कम होगी। धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं के भी  अच्छे दिनों की आहट सुनाई देगी। बस क्रियान्वयन सही ढंग से हो जाए।
प्रश्न – 1990 में आपने पढ़ाना शुरू किया और आपकी अध्यापन यात्रा का संभवतः पूरा हिस्सा पूर्वोत्तर में ही बीता है आज आप त्रिपुरा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं अतः मैं जानना चाहूँगा कि 1990 के समय तथा वर्तमान समय के बीच पूर्वोत्तर में किस तरह के बदलाव आपने महसूस किए हैं तथा पूर्वोत्तर में हिंदी की स्थिति कैसी है ?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – ‘परिवर्तन’ किसी भी समाज के गतिशील होने का संकेत है। मानव सभ्यता के वर्तमान स्वरूप को प्राप्त करने के लिए भी अनेक तरह के परिवर्तन हुए हैं। पूर्वोत्तर इसका अपवाद नहीं है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक के आरंभ से मैंने पूर्वोत्तर में अध्यापन शुरू किया। धर्म और संस्कृति की नगरी, आधुनिकता और परंपरा के अद्भुत संयोग वाले शहर ‘काशी’ से निकलकर ‘पासीघाट’ में आ जाना स्वयं को साधना में लीन करने जैसा था। यातायात की समुचित व्यवस्था नहीं थी। सरकारी उपेक्षा के कारण यहाँ के लोगों को केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ भी बहुत कम मिल पाता था। सुविधाओं से विपन्न शहर में आत्मीयता अपार थी। भाषा और संस्कृति से भिन्न होने के बावजूद यहाँ के लोगों में समावेशी भाव मौजूद है, शर्त यह है कि आप भी उनके साथ उसी मुक्त भाव से मिलें जिस भाव से वे आपके साथ मिलना अथवा जुड़ना चाहते हैं। अरुणाचल के लोगों का जीवन अत्यंत सरल और सहज है लेकिन सुविधाविहीन होने के कारण वहाँ के लोगों को रोजगार के अवसर कम प्राप्त होते थे। आज तकनीकी विकास ने समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है। इस परिवर्तन की हवा से अरुणाचल मुक्त नहीं है। वहाँ के लोगों में भी अब शिक्षा और रोजगार के लिए जागरूकता आई है। यही कारण है कि वहाँ की नई पीढ़ी अब शिक्षा और रोजगार के लिए पलायन कर रही है। वे अपने बंधन से मुक्त होकर सम्पूर्ण भारत में अपनी शिक्षा और रोजगार के लिए विचरण कर रहे हैं।
पूर्वोत्तर के आठों राज्यों में से हिंदी की सबसे अच्छी स्थिति अरुणाचल पदेश में है। अरुणाचल की यह स्थिति किसी तात्कालिक प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप नहीं है। यह सामूहिक त्याग और प्रयास  का परिणाम है। अरुणाचल के अलावा पूर्वोत्तर के अन्य सभी राज्यों में हिंदी की स्थिति 2014 के पहले ठीक नहीं थी। कई राज्यों में उसका खुलेआम विरोध होता था। हिंदी की स्थिति अच्छी न होने कारण हिंदी भाषा-भाषी के साथ दुर्व्यवहार भी किया जाता था। 2014 के बाद पूर्वोत्तर में हिंदी भाषा की स्थिति में अप्रत्याशित बदलाव हुआ है। राजनेताओं और जनता दोनों में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी है। यहाँ के आठों राज्यों में हिंदी भाषा में अध्ययन-अध्यापन को बढ़ावा दिया जा रहा है। आज पूर्वोत्तर में हिंदी की स्थिति को देखकर एक शेर की पंक्ति याद आती है कि, ‘बदलता है रंग आसमाँ कैसे कैसे।’
प्रश्नहिंदी भाषा को लेकर देश में हर समय एक विमर्श चलता रहता है। कुछ लोग मानते हैं कि दिन प्रतिदिन हिंदी की स्थिति कमजोर हो रही है, वहीं दूसरे कुछ लोगों के मत में हिंदी का विकास और विस्तार हो रहा है। आप विश्व हिंदी सचिवालय के महासचिव रहे हैं, सो भारत सहित वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आप इस विषय को कैसे देखते हैं ?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – हिंदी की स्थिति पर विचार-विमर्श करने वालों का भी एक अपना निजी विचार है। हिंदी की स्थिति को कमजोर मानने वाले लोग उसके व्याकरणिक पक्ष पर अधिक बल देते हैं। भाषा की शुद्धता पर उनका ध्यान केंद्रित रहता है जबकि हिंदी के विकास और विस्तार को स्वीकार करने वाले चिंतक भाषा की स्वीकार्यता, उस भाषा का व्यवहार करने वाले लोगों की संख्या में होने वाली बढ़ोत्तरी पर ध्यान देते हैं। ये दोनों स्थितियाँ हिंदी भाषा के सामने मौजूद हैं। एक तरफ उसके भाषा-भाषियों की संख्या में वृद्धि हुई है तो दूसरी तरफ उसकी व्याकरणिक त्रुटियों/शुचिता और शुद्धता को नजरंदाज करने का चलन-सा आ गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी भाषा का विकास हुआ है। हिंदी की प्रवृत्ति ही आत्मसातीकरण की रही है। प्रवृत्ति के अनुरूप ही हिंदी भाषा ने अन्य भाषाओं के शब्द को आत्मसात किया है।
प्रश्नहिंदी में रोजगार की स्थिति को लेकर आपकी क्या राय है?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – हिंदी को राजनीतिक स्वीकार्यता प्राप्त होने के कारण उसमें रोजगार के अवसर बढ़े हैं। अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ विभिन्न संस्थाओं में अनुवादकों की मांग बढ़ी है। किसी भी सरकारी विभागमें हिंदी अधिकारी, अनुवादक और टंकक  का होना  अनिवार्य किया गया है। अतः उनकी भी मांग बढ़ी है। इसके अलावा पत्रकारिता, फिल्म/धारावाहिक मे  स्क्रिप्ट लेखन, गीत लेखन जैसे क्षेत्रों में भी हिंदी की स्थिति सुदृढ़ हुई है। राजनीतिक गलियारों में भी हिंदी भाषा को बढ़ावा मिला है।  संसद मे जहाँ कभी अंग्रेजी का एकछत्र  साम्राज्य हुआ करता था, आज हिंदी भी अपनी जगह बनाने लगी है।
प्रश्न प्रवासी भारतीय साहित्य से भी आपका जुड़ाव रहा है इस साहित्य के प्रति हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उपेक्षा की बात कही जाती है क्या वास्तव में ऐसा है और यदि हाँ, तो इसका कारण क्या है ?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – प्रवासी साहित्यकार भारत के साहित्यकारों से किसी भी मायने मे कमतर नहीं हैं।  प्रवासी भारतीय साहित्यकारों के हृदय और मन में भारत बसा हुआ है। वे अपनी मातृभूमि से सदैव अपना जुड़ाव महसूस करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचना के केंद्र में भारत है, उसकी संस्कृति है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि श्रेष्ठता बोध के कारण ही  मुख्यधारा के लेखकों  द्वारा  उनकी उपेक्षा हुई है। इस उपेक्षा का कोई वैध  कारण नहीं है। हाँ, उनकी नजर में एक कारण यह हो सकता है कि साहित्यिक विधा के रूप में प्रवासी साहित्य स्वतंत्र रूप से स्थापित नहीं हो पाया। आलोचकीय उपेक्षा का भाव भी एक महत्वपूर्ण कारण है किन्तु  मेरी नजर मे साहित्य साहित्य होता है, इसके अतिरक्त कुछ नहीं। हिंदी की दुनिया मे जो कुछ भी लिखा जा रहा है वह सिर्फ साहित्य है, मुझे कोई विभाजन स्वीकार्य नहीं।
प्रश्नविश्व हिंदी सम्मेलनों पर यह आरोप लगता है कि वे केवल इवेंट भर बनकर रह गए हैं और हिंदी के विकास उनका कोई ठोस योगदान नहीं है आप इस विषय में क्या सोचते हैं ?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – यह आरोप कोई नया नहीं है। 1975 ई. के बाद से लेकर 2023 तक लगातार होने वाले विश्व हिंदी सम्मेलनों  के ऊपर हमेशा इस तरह के आरोप लगे हैं। लेकिन लोग सम्मेलन में केवल पर्यटन के लिए नहीं आते हैं, इससे अलग विश्व हिंदी सम्मेलन की एक छवि है। विश्व हिंदी सम्मेलन में विश्व के कोने-कोने से हिंदी प्रेमी आते हैं। इस सम्मेलन में शामिल होने वाले हिंदीजन अपने क्षेत्र में होने वाले हिंदी संबंधी नवाचार से सबको अवगत कराते हैं। एक नए विश्वास और आशा के साथ यह संकल्प लेते हैं कि अगले सम्मेलन में कुछ नए प्रयोग के साथ यहाँ उपस्थित होंगे। इस तरह के सम्मेलन से हिंदी के पक्ष मे एक सकारात्मक वातावरण अवश्य निर्मित होता है। हाँ, मेरा मत है कि आयोजन के तौर तरीकों मे बदलाव अवश्य होने चाहिए।
प्रश्नहिंदी के क्षेत्र में लेखन से लेकर अध्ययन-अध्यापन तक पर एक समय के बाद से मार्क्सवादी विचारधारा का खासा प्रभाव रहा है। इस स्थिति ने हिंदी भाषा-साहित्य को किस रूप में प्रभावित किया? और क्या अब इसमें कुछ बदलाव आया है
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – साहित्य पर किसी भी विचारधारा का प्रभाव एक समय विशेष तक ही रह पाता है, लेकिन साथ ही एक    बात यह भी कि उसी समय में दूसरी  विचारधारा  वाले लोग भी सृजन में रत रहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की एक बात हमेशा याद रहती है कि,‘यह न समझना चाहिए कि किसी विशेष काल में और प्रकार की रचनाएँ होती ही नहीं थीं।जिस समय में मार्क्सवादी विचार का आक्रांत था उसी समय में अन्य विचार से प्रभावित रचनाकार भी सृजनरत थे। दूसरी बात यह है कि किसी भी विचारधारा का प्रभाव साहित्य पर दो तरह से पड़ता है। पहला प्रभाव सृजनशीलता को द्विगुणित करता है और दूसरा प्रभाव सृजनशीलता के उत्स को सुखा देता है। मार्क्सवादी विचारधारा के साथ भी ऐसा ही हुआ है। उस विचार से प्रभावित चिंतकों ने साहित्य को नई वैचारिकी प्रदान की। इस विचारधारा के चिंतकों ने साहित्य का मूल्यांकन सामाजिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता के सापेक्ष में किया। लेकिन इसी विचारधारा के आग्रही लोगों ने साहित्य को समझने और उसका मूल्यांकन करने में अनेक तरह की गलतियाँ  भी कीं  जिसका जीवंत उदाहरण ‘मैला आँचल’ सरीखी कई बेहतरीन कृतियाँ हैं जिन्हें इसी धारा के आलोचकों ने खारिज कर दिया। समय के साथ उन कृतियों ने अपना लोहा मनवाया। वे कृतियाँ विश्वविख्यात हुईं। जरूरत यह है कि अपने-अपने वैचारिक आग्रह को छोड़कर किसी भी कृति का मूल्यांकन उसकी गुणवत्ता के आधार पर तथा  संपूर्णता में की जाए। समय के हिसाब से आलोचना  के मानदंड बदले हैं और उनके प्रतिमान भी। कोई भी कृति अपनी ताकत पर कालजयी बनती है,  आलोचकों की लेखनी से नहीं।
प्रश्नऐसा कहा जाता है कि पहले के छात्र अपने शिक्षकों का जितना सम्मान करते थे, अब के छात्र नहीं करते. क्या वास्तव में ऐसी स्थिति है ?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – छात्र  और शिक्षक  के बीच एक सहज भाव का होना जरूरी होता है। प्राचीन काल मे गुरु और शिष्य के संबंधों के विषय में संस्कृत के ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा गया। भक्तिकाल का शायद ही ऐसा कोई कवि होगा जिसने गुरु और शिष्य के संबंध के विषय में न लिखा हो। इन सबके बावजूद गुरु के प्रति श्रद्धा और घृणा का भाव हमेशा से रहा है। यह जरूर है कि वर्तमान दौर में संवेदना संकुचित हो गई है। इसका प्रभाव न केवल शिक्षक और छात्र के संबंधों पर पड़ा है बल्कि अन्य संबंधों पर भी पड़ा है।छात्र और शिक्षक दोनों मे लगातार गिरावट देखी जा रही है। तमाम तरह की प्रगति के ऊपर हृदय का संकुचन भारी पड़ रहा है। इस बदलती हुई दुनिया का रंग देखकर किसी शायर ने कहा था कि,
रकबा तुम्हारे गाँव का मीलों हुआ तो क्या,
रकबा तुम्हारे दिल का तो दो इंच भी नहीं।
आज भी कुछ छात्र ऐसे मिलते हैं जो अपने शिक्षकों का सम्मान करते हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।
प्रश्नविद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे?
प्रो. विनोद कुमार मिश्र – आज का युग  स्पर्धा का युग है और सफर आसान भी नहीं, इसलिए छात्रों को  ‘सफर मे धूप तो होगी जो चल सको तो चलो’ के भाव से चलना होगा और खुली आँख से दिन के उजाले मे बड़े सपने  देखने होंगे और वे सपने भी  ऐसे हों जो  बेचैनी पैदा करें।  लक्ष्य की प्राप्ति तक संघर्ष जारी रखने की भी  जरूरत है।  समय की धारा के साथ छात्रों को बहना होगा।  चुनौतियों से भरे इस दौर मे अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी, उसके लिए अध्ययन, चिंतन और मनन  ही एक मात्र साधन है। ‘करो पढ़ाई लड़ने को और लड़ो पढ़ाई करने को’ यह बीज मंत्र हर छात्र के लिए हो।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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