1 – मोक्ष के दाने
शादी में आएँ बाराती बड़े प्रेम भाव से टेबल पर सजाएँ अलग-अलग व्यंजनों का आस्वाद लेकर तृप्त हो रहे हैं I प्लेट में भर-भरकर ऐसे ले रहे हैं जैसे कि अभी नहीं लिया तो फिर मिलेगा नहीं I ‘इतनी भीड़ में दूबारा नंबर लगना कितना मुश्कील कार्य है’ ऐसे विचारों के लोग भी एक साथ ही प्लेटों में सब भर-भरकर, सर्कस करते हुए उस कतार से बाहर निकलकर बैठने की जगह खोज रहे हैं I प्लेट में भी भीड़ का हिस्सा बने हुए व्यंजन भी लुढ़क-लुढ़ककर एक दूजे को गले लगा रहें हैं I ये दृश्य लालची लोगों की नियत साफ़ बता रहा है I अब इतना खाना एकसाथ लेकर तो बैठ गए लेकिन अन्न का अपमान करते हुए आधे से ज्यादा खाने की झूठन प्लेट में छोडकर उठना जैसे इनके लिए शान है I
मंडप से थोड़ी दूरी पर मंदीर में प्रवचन चल रहा है I भक्तजन बहुत ध्यान से मोक्ष प्राप्ति के उपाय सुन रहे हैं I
“एक चित्त ध्यान लगाना, पूजा अर्चना करना, भूखे को खिलाना, माँ-पिता की सेवा करने से मोक्ष प्राप्ति होगी I”
किसी बच्चे की रोने की आवाज आयी I प्रवचन जारी रहा …..
“बच्चे तो भगवान का ही बाल रूप हैं I”
शादी के मंडप के बाहर भगवान का बाल रूप…
झूठे, बचे अन्न में खुद के लिए मोक्ष के दाने तलाश रहा हैI
2 – पहचान
चमचों से घिरे नेताजी प्लास्टर लगे फ्रैक्चर पाँव को सहलाते काक दृष्टी से सब के चेहरों को टटोल कर बीच-बीच में अं…, आँ… के स्वर से उन्हें अपने दर्द से आकर्षित कर मुस्कुरा रहे है I नेताजी से मिलने वह भी हॉस्पिटल आया I फूलों का गुलदस्ता और कुछ फल रखकर उसने नेताजी को हाथ जोड़ नमस्ते कहा I
एक तीव्र नजर उस पर डाल प्रश्नवाचक मुद्रा में अपनी भृकुटियों को ऊपर चढ़ा उसे देखने लगे I उसने नेताजी के चरणस्पर्श कर उनके जल्दी स्वस्थ होने की कामना की I अब नेताजी सकपका गए और इधर- उधर दृष्टी डाल उससे आँख चुराने लगे I
अन्य लोगों को बाहर जाने का इशारा कर इसे इशारे से पास बुलाया और फिर वहीं प्रश्नवाचक नजर मानो पूछ रही ….
“कौन हो तुम…?”.
“मैं वही हूँ, जिसने आपके लिए जैसलमेर के गर्मी में बिसलेरी का इंतजाम किया और खुद सादा पानी पीया I”
फिर भी नेताजी के मुँह पर प्रश्नवाचक चिन्ह देखकर आगे बताया कि नेताजी के सभा एवं रैलियों के लिए भी इसने भीड़ इकठ्ठा की , कुर्सियों का इंतज़ाम किया I
नेता के दिमाग की बत्ती फिर भी नहीं जली I कान में फुसफुसाकर बोला आपके सौ काम करने के बाद आश्वासन मिला था I मगर टिकट दलबदलू को ही दिया I
“मैं, वही सामान्य कार्यकर्ता हूँ I”.
3 – आशीर्वाद
लड़का और लड़की की जाति, बिरादरी अलग होने से दोनों ही परिवारों में लडके की माँ को छोड़ कोई भी इस शादी के लिए राजी नहीं था I बच्चों की ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी है ये लडके की माँ समझ रही थी और दोनों के ख़ुशी के लिए उसने सहमती दी I
सिविल मैरिज कर दोनों घर आएँ I अब घर का वातावरण कुछ शांत हुआ था I दोनों को गले लगाते माँ ने बलैया ली और कहा ……
“सबसे पहले भगवान का आशीर्वाद लोI”
दोनों ही झट से माँ के चरणों में झुक गएँI
डॉ. नीलिमा तिग्गा
अजमेर, राजस्थान
संपर्क – [email protected]
नीलिमा जी आपकी तीनों ही लघुकथाएं प्रभाव छोड़ती हैं । हार्दिक बधाई।
वाह वाह वाह! अंतिम लघुकथा की सकारात्मकता, पहली लघुकथा की भावात्मक चुभन और दूसरी लघुकथा का सटीक व्यंग्य मन छू गया।