डॉ. रमेश यादव

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ रमेश यादव से बाल-साहित्य के  संदर्भ में युवा लेखक-संपादक डॉ. उमेश सिरसावरी की बातचीत 

सवाल :- आप जाने-माने साहित्यकार हैं, आपने बच्चों के लिए भी लिखते रहना क्यों चुना ?
जवाब – बाल साहित्य लिखने में एक अलग आनंद आता है। हां ये जरूर है कि इस सृजन में जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। बाल साहित्य लिखना मतलब बच्चों की काया में प्रवेश करना होता है। अत: कुछ समय के लिए मैं अपने बचपन के दिनों और आज की पीढ़ी के बचपन में झांकने का सुख प्राप्त करता हूँ। कुछ देर के लिए ही सही, बच्चों की दुनिया में प्रवेश करके उससे ऊर्जा और ताजगी प्राप्त करने की कोशिश करता हूँ। तनाव मुक्ति के एहसास के साथ उनकी दृष्टि से देश-दुनिया का अवलोकन करने का एक अनोखा अनुभव मिलता है। वैसे भी इस विधा में मुझे विशेष रुचि है इसलिए अन्य विधाओं के साथ-साथ बाल साहित्य सृजन में रमना मुझे अच्छा लगता है। मैं ‘विद्यार्थी उत्कर्ष मंडल’ नामक संस्था से 40 वर्षों से जुड़ा हूँ, जो विद्यार्थियों के उत्कर्ष के लिए पिछले 68 वर्षों से मुंबई के कामगार विभाग में कला, साहित्य, शिक्षा, सामाजिक, सांस्कृतिक, पुस्तकालय आदि उपक्रमों के माध्यम से अविरत कार्यरत है। हमारा प्रयास रहता है कि बच्चों की फुलवारी सदा खिलखिलाती रहे और मासूमियत की लय चारो ओर गुंजायमान होती रहे। 
सवाल :- साहित्य की किन-किन विधाओं में आपकी सक्रियता है, बाल साहित्य की ओर आपका रुझान कैसे हुआ?
जवाब – कविता, कहानी, आलेख, रिपोर्ताज, समीक्षा, साक्षात्कार, अनुवाद एवं लोक साहित्य आदि विधाओं में मैंने काम करने का भरसक प्रयास किया है। अधिकांशत: विधा का चुनाव मैं नहीं करता, यह सामने से आए काम पर निर्भर करता है। कुछ नया सीखने की मुझमें ललक है इसलिए जो काम मिलता है उसे स्वीकार कर लेता हूँ और उसे गहराई से समझने की कोशिश करते हुए उस विधा के पठन-पाठन से अपनी तृप्ति कर लेता हूँ। अधिकांश काम मैंने किसी ना किसी प्रोजेक्ट के तहत किया है। बाल साहित्य की ओर रुझान मेरी बेटी के कारण हुआ। जब वो छोटी थी तो रात में सोने से पहले एक कविता या कहानी पढ़ने या सुनाने का फरमान छोड़ती थी। उसकी मांग को पूरी करते हुए मैं भी बहुत कुछ पढ़ने और सीखने का प्रयास करता। उसके चेहरे पर बिखरी मुस्कान से अपनी थकान मिटा लेता था। इस प्रक्रिया से बाल साहित्य की ओर मेरा रुझान बढ़ता चला गया।  
सवाल :- बालसाहित्य को आप किन शब्दों में परिभाषित करेंगे ?
जवाब – मराठी के वरिष्ठ चिंतक एवं बाल साहित्यकार साने गुरुजी कहा करते थे कि – ‘मुले ही देवा घरची फुले’। अर्थात बच्चे ईश्वर की फुलवारी में खिले फ़ूलों के समान होते हैं। इस छोटे से वाक्य में बहुत बड़ा आशय छिपा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि -‘करील मनोरंजन जो मुलांचे, जडेल नाते प्रभूशी तयाचे’- अर्थात बच्चों के मनोरंजन के लिए जो काम करता है, उसका नाता सीधे प्रभु से जुड़ जाता है। तो बच्चों के लिए सृजन, मनोरंजन, शिविर आदि का काम करते हुए मैं इस स्थिति का अनुभव करता हूँ, अन्य कई लोग भी करते होंगे। खेल-खेल में बहुत कुछ रोचक और शिक्षाप्रद साहित्य दिया जा सकता है। बाल साहित्य के माध्यम से कुछ ऐसा साहित्य दिया जाना चाहिए जो उनमें नया जोश भर सके और उनमें राष्ट्रीयता तथा सामाजिकता का भाव पैदा कर सके। हल्के-फुल्के शब्दों का प्रयोग करते हुए रोचक ढंग से सार्थक विचारों को परोसना ही समझदारी हो सकती है। क्योंकि फलदार वृक्ष पाने के लिए बीजांकुरण की अवस्था में ही समुचित मात्रा में खाद-पानी देने की आवश्यकता होती है।     
सवाल :- आज बालसाहित्य के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, सबसे महत्वपूर्ण है विचार, मनोविज्ञान और प्रस्तुतीकरण को लेकर, इसका सामना कैसे किया जाय ?
जवाब – इस तरह की तमाम चुनौतियों का सामना बाल मनोविज्ञान को समझते हुए उत्कृष्ट एवं बोधप्रद बाल साहित्य रचकर किया जा सकता है। सरल और सहज शब्दों में भी बहुत कुछ कहा और लिखा जा सकता है। स्कूली शिक्षा के बाद बच्चों को जो समय मिलता है उसका सदुपयोग दृष्य एवं श्राव्य माध्यमों से किया जाए तो वह अधिक प्रभावी सिद्ध हो सकता है। सूचना क्रांति और तकनीकी के इस दौर में प्रिंट के साथ-साथ अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में भी बाल साहित्य का प्रयोग किया जाना, समय की जरूरत है। नए सन्दर्भों एवं विषयों का समावेश करते हुए बच्चों की रुचि का ध्यान रखते हुए नव बाल साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए। वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया तथा एनीमेशन, किंडल एवं नाट्य मंचन जैसे माध्यमों का प्रयोग बाल साहित्य के लिए भी किया जा सकता है, इसे हमें इस दौर में सिद्ध करके दिखाना होगा। कई साहित्यकार एवं संस्थाएं इस दिशा में काम भी कर रहे हैं। सरकार द्वारा टीवी जैसे प्रभावी माध्यमों को निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे नफा-नुकसान का हिसाब किए बिना बाल साहित्य के लिए विशेष रूप से समय स्लॉट प्रदान करें। क्योंकि ये देश के भविष्य को गढ़ने का बहुत ही नेक काम है। इस दिशा में सरकार को समय के रहते ठोस कदम उठाना होगा।                  
सवाल :- प्राय: बालसाहित्य की अवधारणा में कुत्ते, बिल्ली, चूहे, तोता, मैना या परियों से संबंधित विषय वस्तु होती हैं, क्या आज भी यह विषय सार्थक कहे जाएंगे ?
जवाब – जी, क्योंकि ये प्रकृति के अविभाज्य घटक हैं। इस परिवेश से बच्चों का परिचय कराना भी आवश्यक है। बशर्ते इसे नए सांचे में ढालकर नए रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। एनीमेशन और कार्टून के माध्यम से इन विषय वस्तुओं का प्रयोग चैनेलों में हो रहा है। अत: कल्पकता से प्रिंट माध्यम में भी इन विषयों का समावेश किया जा सकता है ताकि वे नए चोले में नजर आएं। इनमें स्तरीय साहित्य का प्रयोग किया जाना चाहिए। 
बच्चों में धैर्य का अभाव देखने में आ रहा है। वे जल्द ही अवसाद में डूब जाते हैं। इसका क्या कारण हो सकता है ?  
जवाब – बच्चों को सीधे-सीधे उपदेश देने की बजाय उनसे मित्रवत स्वरूप में पेश आना समय की जरूरत बन गई है। आज कई ऐसे माध्यम उपलब्ध हैं जहां से बच्चे गलत जानकारियां या शिक्षा हासिल कर रहे हैं, जिसका परिणाम अवसाद और क्रोध के रूप में बच्चों में देखने को मिल रहा है। उनकी मनचाही बात यदि साकार नहीं होती है तो वे जल्द ही अवसाद के शिकार हो जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण आधुनिक परिवेश है। नौकरीपेशा माता-पिता हालात के आगे मजबूर हैं, चाहकर भी वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं। एकल परिवारों में इस तरह की घटनाएं अधिक होती हैं। ऐसे घरों में बड़े बुजुर्गों का सानिध्य बच्चों के लिए आवश्यक हो जाता है। बच्चों के जीवन में अनिवार्य रूप से खेल-कूद, योग, ध्यान-धारणा और हॉबी क्लासेस का समावेश होना चाहिए। इस दिशा में बाल आयोग या शिक्षा मंत्रालय को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 
 
सवाल :- कैसा साहित्य रचा जाए जो बच्चों को ऊर्जा प्रदान कर सके?
जवाब – आधुनिक दौर में ऐसा साहित्य रचा जाना चाहिए जो स्कूली पाठ्यक्रमों के पूरक हो, ताकि अवांतर साहित्य भी बच्चों को स्कूली शिक्षा का एक घटक लगे। घर-परिवार, समाज, राष्ट्र, बड़े–बुजूर्गों का सम्मान, संवेदना, शिष्टाचार, खिलाड़ीवृत्ति जैसे विषयों का समावेश बाल साहित्य में रोचक ढंग से किया जाना चाहिए जो उन्हें ऊर्जा प्रदान कर सके। इलेक्ट्रॉनिक्स माध्यमों से जो मनोरंजन परोसा जा रहा है उनमें भी अनिवार्य रूप से इन तत्वों का समावेश होना चाहिए। इनमें आधुनिक तंत्रज्ञान, सामान्य ज्ञान–विज्ञान, ध्यान-साधना, योगा, गीत-संगीत, खेल जैसे विषयों का परिचयात्मक स्वरूप में विशेष रूप से समावेश किया जाना चाहिए। इस ओर बाल आयोग और शिक्षा मंत्रालय को विशेष रूप से निर्देश देने की आवश्यकता है। 
सवाल :- बालसाहित्य में आज जो भी लिखा जा रहा है, उसका समीक्षात्मक पक्ष कमजोर है इसकी क्या वजह हैं ? इसके सुधार हेतु कोई सुझाव आपसे चाहेंगे ?
जवाब – नियम और कानून नागरिकों की सहायता के लिए बनाए जाते हैं ना कि उन्हें परेशान और छल-कपट करने के लिए। यह एक सामान्य-सी बात है मगर वास्तविक स्थिति अकसर कुछ अलग होती है। इसी तरह समीक्षा भी निष्पक्ष और सकारात्मक होनी चाहिए, न कि रचनाकार के हौसले पस्त करने के लिए। इससे क्षोभ पैदा होती है। यदि कोई नकारात्मक समीक्षा लिख भी रहा है तो उसे चाहिए कि वह आवश्यक सुझाव और उदाहरण भी दे। समीक्षा प्रेरणात्मक होनी चाहिए। मुझे तो समीक्षा की बजाय ‘पुस्तक परिचय’ शब्द ज्यादा उचित लगता है।    
सवाल :- आज बालसाहित्य में भाषायी परिवेश, विशेषकर हिंदी की बात करें तो इसमें अन्य भाषाओं का तड़का कुछ ज्यादा लग रहा है, क्या आप इसे हिंदी भाषा पर संकट के रूप में देखते हैं ?
जवाब – अन्य भाषाओं का तड़का को मैं सीधे-सीधे अंग्रेजी भाषा से जोड़ना चाहूंगा। अंग्रेजी आज भारतीय भाषाओं के अस्तित्व पर संकट के रूप में उभरकर सामने आई है। भारतीय भाषाओं का विस्थापन करते हुए अंग्रेजी यदि रोजी-रोटी की भाषा बन रही तो हमें इस बात पर गौर करना होगा कि विश्व के अधिकांश विकसित राष्ट्रों में शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है। आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम अंग्रेजी की गुलामी किए जा रहे हैं तो यह व्यवस्था का दोष है। अंग्रेजी ही क्यों अन्य विदेशी भाषाओं का भी ज्ञान एक निश्चित सीमा तक होना चाहिए मगर हमारी भाषाओं के विस्थापन के कीमत पर नहीं। यह तो लोगों की भाषिक अस्मिता के साथ बड़ा खिलवाड़ है। मगर आज लोग व्यवस्था के आगे मजबूर हैं और अब समय आ गया है कि समय के रहते इस सोच पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं में अपना पैर जमा रही है, जिसका परिणाम आगामी कुछ वर्षों में दिखाई देने लगेगा।    
सवाल :- काल्पनिक साहित्य बच्चों को कल्पना लोक का यात्री बना देता है, जबकि आज उन्हें अंतरिक्ष पर ले जाने की आवश्यकता है। इस संबंध में आपकी क्या राय है ?
जवाब – आपके इस प्रश्न में ही जवाब है। बच्चों में अवसद विकसित होने का एक कारण काल्पनिक कथा-कहानियों के वे नायक हैं, जिनका समाज में कोई अस्तित्व नहीं है और वे  फॅन्टसी दुनिया की सैर करवा रहे हैं। बच्चे इन्हें अपना हीरो मान बैठते हैं, जबकि बाल साहित्य में जीवन के वास्तविक नायकों को प्रस्तुत किया जाना चाहिए, ताकि वे अपने आदर्श इन नायकों में देख सकें और महसूस कर सकें। अंतरिक्ष के साथ समुद्र विज्ञान, खगोल शास्त्र, बैंकिंग, तकनीकी, साइबर सुरक्षा, कृषि विज्ञान, कॉमर्स आदि से भी बच्चों का प्राथमिक परिचय बाल साहित्य के माध्यम से कराया जाना चाहिए।  
सवाल :- यथार्थ की बात यदि करें तो यथार्थ की जमीं बहुत खुरदुरी है, इससे बच्चों में जीवन के प्रति हताशा भी उपज सकती है, ऐसे में क्या सुझाव देंगे ?
जवाब – यथार्थ से भागना भी तो उचित नहीं है! हो सकता है कि हमारे यथार्थ की ज़मीं खुरदुरी हो मगर यही वास्तविकता है इसे समझाना हमारा कर्म है। अन्यथा बच्चे काल्पनिक दुनिया में विचरण करते हुए वास्तविक ज़मीन से कट जाएंगे। भोजन में जो महत्व नमक का है वही महत्व साहित्य में यथार्थ जीवन का भी है। संतुलित मात्रा में इसे भी पेश किया जाना चाहिए।  
सवाल :- आप बाल नाटकों की बच्चों के विकास में क्या भूमिका देखते हैं ?  
जवाब – बच्चों के मानसिक विकास में बाल नाटक अहम भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि आकलन की दृष्टि से ये बेहद ही प्रभावशाली माध्यम है। मगर इस विधा में आज भी उतना काम नहीं हुआ है जितना होना चाहिए। इसकी प्रतिपूर्ति बच्चे चैनेलों और इंटरनेट के माध्यम से कर रहे हैं। नाटक जैसे दृस्य एवं श्रव्य माध्यमों में साहित्य के गुणवत्ता और सकारात्मक संदेशों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।   
सवाल :- देश के शीर्षस्थ साहित्यकार जिनकी कलम में ताकत है वे बालसाहित्य के प्रति उदासीन हैं, इसके क्या कारण हैं ?
जवाब – यह जरूरी नहीं है कि सभी लोग बाल साहित्य लिखें। आखिर ये उनकी रुचि का प्रश्न है। मगर यह सत्य है कि बाल साहित्य को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितने का वह  हकदार है। किसी भी समाज या राष्ट्र के उत्थान में बाल साहित्य की भूमिका बड़ी अहम हो सकती है, इस बात को समझते हुए भी कई लोग सम्मान एवं पुरस्कारों की श्रेणी से तुलना करते हुए सृजन की अपनी दिशा तय करते हैं। यदि बाल साहित्य का समावेश साहित्य की मुख्य धारा में कर दिया जाए और कुछ बड़े पुरस्कारों की घोषणा कर दी जाए या फिर सरकार की ओर से आर्थिक लाभ की कोई योजना बना दी जाए तो देखो लोग हमें और आपको मिनटों में विस्थापित करते हुए अचानक बाल साहित्य की ओर टूट पड़ेंगे। इस तरह के कई उदाहरण और चेहरे हमारे आस-पास मौजूद हैं। दरअसल दोष हमारी व्यवस्था और सोच का है जो आंखें मूंदकर इस दिशा में काम कर रही है।  
सवाल :- बालसाहित्य में आधुनिकता, संस्कृति और परंपरा का परस्पर कितना समन्वय हो ?
जवाब – समय के साथ चलने में ही समझदारी होती है। अत: साहित्य में आधुनिकता, संस्कृति, और परंपरा के परस्पर समन्वय की मात्रा संतुलित और सकारात्मक होनी चाहिए। इसमें   राष्ट्रीयता, संवेदनशीलता, चरित्र और मानवता जैसे तत्व प्रमुखता से मौजूद होने चाहिए। बाल साहित्य में इसका महत्व अधिक है। ये तत्व सफल जीवन की कुंजी है, ऐसा भाव बच्चों के मन में उत्पन्न हो ऐसा हमारा सृजन होना चाहिए।  
सवाल :- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मस्तिष्क पर हावी है, इंटरनेट, टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल के दौर में बालसाहित्य का क्या भविष्य देखते हैं ? क्या कोई नकारात्मक प्रभाव भी है ? 
जवाब – आधुनिक दौर के ये सबसे अधिक प्रभावी माध्यम हैं, जिनका अवलोकन एवं अनुकरण बच्चे और हम बड़े भी तेजी से कर रहे हैं। इसमें सोशल मीडिय़ा का भी समावेश किया जाना चाहिए। मगर दुर्भाग्य से इसमें बाल साहित्य कितना है? साहित्य कितना सकारात्मक और संदेशप्रद है? इस पर चिंतन करने की बजाय टीआरपी और लाभ के चक्कर में आदर्श समाज निर्माण की सोच को सीधे-सीधे तिलांजलि दी जा रही है। यह हमारे वश के बाहर अर्थात राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंतन का विषय है। यदि सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो संभव है कि भविष्य में और अधिक नकारात्मक और अवसाद भरी दुनिया का हमें सामना करना पड़ सकता है।  
सवाल :- आज बालसाहित्य की पत्र-पत्रिकाएं तो बड़ी मात्रा में निकल रही हैं,  क्या आप समझते हैं कि वे बालसाहित्य को सही दिशा प्रदान कर रही हैं ? 
जवाब – बाल साहित्य की पत्रिकाएं बड़ी मात्रा में निकल रही हैं तो इसे मैं अच्छा संकेत मानता हूँ। इसमें हर स्तर के कलमकारों का समावेश हो रहा है यह बड़ी बात है। पठन–पाठन से कमजोर लेखनी में भी समय के साथ निखार आ जाता है, इसके हम साक्षी हैं। मेरी दृष्टि से साहित्य सेवा का यह पुनीत कार्य है, जिसे कई लोग अपनी जेब से पैसे खर्च करके पत्रिकाएं निकाल रहे हैं। यदि लेखकों और संपादकों को उचित मार्गदर्शन मिले तो निश्चित रूप से बाल साहित्य को सही दिशा मिलेगी। ऐसी पत्रिकाओं को सरकारी व्यवस्था से आर्थिक एवं अन्य तरह की मदद दी जानी चाहिए, ऐसा हमारा आग्रह होना चाहिए। जो स्तरीय काम करेंगे वही बाजार में टिकेंगे।       
सवाल :- बड़े उद्योग घरानों की हिंदी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो गईं या बंद हो रही हैं उनमें बाल पत्रिकाएं भी हैं। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?     
जवाब – बड़े उद्योग घरानों की हिंदी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं बंद हो गईं या बंद हो रही हैं, यह समाज के लिए चिंता का विषय है। हिंदी संघ की राजभाषा है और देश की प्रमुख संपर्क भाषा है। इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा और यूएनओ में स्थापित करने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा है और उसी भाषा की जड़ें देश में नष्ट की जा रही हैं, क्या ये गंभीर मुद्दा नहीं है? ऐसे उद्योग घराने जो पत्र-पत्रिकाओं का व्यवसाय सरकारी लाभ से कर रहे हैं, क्या वे देश हित में थोड़ा-सा साहित्य सेवा नहीं कर सकते ? छोटी–छोटी लोकल पत्र-पत्रिकाएं निकालने वाले लोग घाटा सह सकते हैं मगर बड़े लोग सिर्फ मुनाफे का सौदा करेंगे और सरकारी लाभ भी लेंगे, ये कहां का न्याय है? इन्हें मिलने वाले सरकारी लाभ छोटी पत्र-पत्रिकाओं को क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? इन मुद्दों पर वरिष्ठ एवं अन्य साहित्यकारों को संघटित होकर सरकार को साहित्यिक बीजांकुरण तथा उसे ज़मीनी स्तर विस्तारित करने के लिए ठोस प्रयास एवं सुझाव देने की जरूरत है, ऐसा मेरा अपना मानना है। ऐसा करने से समाज के हर बच्चे एवं साहित्य प्रेमियों तक हिंदी साहित्य पहुंचेगा।   
सवाल :- अपने साहित्यिक रचना कर्म के बारे में बताइए ?
जवाब – मेरे परिचय पत्र में इसका समावेश किया गया है।   
 डॉ. उमेश :- हमसे बातचीत करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार
 डॉ. रमेश यादव – धन्यवाद
डॉ. रमेश यादव
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2 टिप्पणी

  1. विस्तृत चर्चा। बाल साहित्य बच्चों को अच्छा व्यक्ति बनाने की कोशिश करता है। साने गुरुजी का उदाहरण प्रासंगिकता प्रदान करता है।
    हार्दिक बधाई!

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