राहुल देव

वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक एवं भाषाविद् राहुल देव से पत्रकारिता, हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य से जुड़े प्रश्नों पर युवा लेखक पीयूष द्विवेदी की बातचीत

सवाल – अपनी अबतक की जीवन-यात्रा को कैसे देखते हैं?
राहुल जी – अगर एक वाक्य में कहना हो तो कहूँगा कि मैं अपने जीवन को अनार्जित धन्यता और गंवाए हुए अवसरों की श्रृंखला के रूप में देखता हूँ। जीवन सौभाग्यों से भरपूर रहा है, क्योंकि जैसे माता-पिता मिले, जैसा परिवार, जैसा घर मिला, जैसे शिक्षक मिले, मित्र मिले और अनुभव मिले, उन्हें देखने पर पाता हूँ कि बहुत-से लोगों को ये चीजें नहीं मिलती हैं। हम नहीं जानते कि हम किसी ख़ास घर में किसी ख़ास माता-पिता के बच्चे के रूप में क्यों जन्म लेते हैं। इसमें हमारा कोई हाथ नहीं होता, ये सिर्फ एक संयोग है या किसी बड़ी शक्ति की योजना का हिस्सा है जिसको हम नहीं जान सकते हैं। जिस परिवार में जन्म लिया उससे लेकर पत्नी और बच्चों के रूप में जो परिवार बनाने का अवसर मिला उस तक ये सौभाग्य बना रहा है। अतः उस सौभाग्य के प्रति केवल कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ, इस बहुत स्पष्ट बोध के साथ कि ये मेरा अर्जित किया हुआ नहीं है, प्रदत्त है।
अब जो दूसरा हिस्सा है मेरी बात का कि गंवाए हुए अवसरों की श्रृंखला के रूप में अपने जीवन को देखता हूँ, तो उसका मतलब ये है कि इतने अच्छे अवसर मुझे मिले, लेकिन अपनी कसौटी के हिसाब से मैं उनका लाभ उठाने में सफल नहीं रहा। मुझे उन अवसरों के साथ जो करना चाहिए था, वो नहीं कर पाया हूँ। इसलिए वहाँ किसी प्रकार के संतोष की गुंजाइश नहीं बनती, असंतोष ज्यादा रहता है।
सवाल – मेरी जानकारी में आप का एक कथन है कि ‘हम अपने हीरो नहीं गढ़ते हैं’ इस कथन के पीछे आपकी क्या सोच रही है?
राहुल जी – अपनी पत्रकारिता के आरंभिक समय में ही मुझे समझ आ गया था कि हमारी पत्रकारिता का जो ढांचा है, उसमें हम अपने देशज नायक ढूँढने, गढ़ने और समाज के समक्ष प्रस्तुत करने का काम कम करते हैं। चूंकि ये करने की शक्ति और साधन पत्रकारिता के ही पास है, लेकिन कई बार हम पर जो निराशा, हताशा और नकारात्मकता फैलाने का आरोप लगता है, उसके पीछे मुझे जो कारण दिखता है कि हमने कोशिश करके और सोच-समझकर अपने तमाम गली-मोहल्लों गांवों-शहरों में फैले हुए देशज धरती के नायकों को ढूँढा नहीं है, चिन्हित नहीं किया है और उन्हें अपने-अपने पत्रकारीय मंचों के माध्यम से आगे नहीं बढ़ाया है। समाज के सामने उन्हें उस रूप में नहीं रखा है कि समाज को ये दिखे कि अच्छा काम करने वाले लोग भी हमारे समाज में हैं, और बड़ी संख्या में हैं। तो इसमें भी सकारात्मक प्रतीकों और व्यक्तियों के निरूपण के अभाव ने ही नकारात्मकता को बढ़ाया है। हालांकि पत्रकारिता का जो कर्म है, वो अपनी प्रकृति से नकारात्मक ज्यादा होने के लिए बाध्य है। हम दैनिक कल्याण नहीं हो सकते, लेकिन उसके बावजूद बहुत कुछ करने की गुंजाइश हमेशा रहती है। मुझे भारतीय पत्रकारिता और भाषाई पत्रकारिता, खासकर हिंदी पत्रकारिता जिसे मैं एक अरसे से जानता हूँ, से इस विषय में ज्यादा शिकायत रहती है। लेकिन अब मैं पा रहा हूँ कि कई जगह ये काम सायास किया जाने लगा है। हमारे बड़े अखबारों और चैनलों में अब ऐसे गुमनाम व्यक्तियों और कार्यों को प्रमुखता से जगह दी जाने लगी है।
सवाल – आपने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों प्रकार के समाचार माध्यमों में कार्य किया है। इन दोनों माध्यमों में पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों पर किसे अधिक खरा पाते हैं?
राहुल जी – इसमें अधिक और कम की कोई गुंजाइश नहीं बनती है। ये दोनों बहुत ही सशक्त माध्यम हैं, अपने-अपने स्तर पर स्वायत्त माध्यम हैं और दोनों में मूल्याधारित पत्रकारिता की बराबर की जगह है। अतः मैं इन दोनों में तुलनात्मक रूप से कोई अंतर नहीं करता। लेकिन यदि आपका सवाल आधुनिक संदर्भों में है, तो कहना चाहूँगा कि जहां कहीं भी मैं जाता हूँ, मीडिया पर बात करता हूँ, तो हमेशा एक पत्रकार के रूप में अपने को कटघरे में पाता हूँ। दरअसल हम सब पत्रकार समाज के सामने हर समय कटघरे में ही रहते हैं, क्योंकि हमारा काम ही ऐसा है।
आप देखिये कि एक डॉक्टर का काम ऐसा है कि जिस मरीज का जीवन उसके हाथ में होता है, उस मरीज को भी अक्सर ठीक से पता नहीं चलता कि डॉक्टर का काम सही है या नहीं। दवा इत्यादि सही है या नहीं। यही बात वकीलों से लेकर अन्य किसी भी व्यवसाय के विषय में कही जा सकती है। इनमें पारदर्शिता नहीं है, लेकिन पत्रकारिता का जो काम है, वो हर समय लोगों के सामने आता रहता है। अतः हमारे पास कोई आड़ नहीं है, जिसके पीछे हम छिप सकें, इसलिए हम हर समय कटघरे में रहते हैं और मैं समझता हूँ कि रहना भी चाहिए।
समस्या ये है कि दो-तीन चैनलों और अखबारों को कुछ हिस्सों में देखकर समूचे मीडिया के विषय में लोग राय बना लेते हैं। ये मनुष्य का मनोविज्ञान है कि उसे सकारात्मक से अधिक नकारात्मक याद रहता है। जो सकारात्मक और सामान्य है, वो उसमें अधिक गहरे में नहीं जाता, लेकिन जो असामान्य और नकारात्मक है, वो हमारी स्मृति और चेतना में कुछ अधिक गहराई तक जगह बनाता है। इसलिए जो मीडिया का नकारात्मक पक्ष है, जो कि निश्चय ही है, वो लोगों को तुरंत दिखता है और याद भी अधिक रहता है, लेकिन दिक्कत ये है कि वो मीडिया का सम्पूर्ण सत्य नहीं होता।
आजकल जब लोग मीडिया कहते हैं, तो उसमें सारे माध्यम आ जाते हैं। हालांकि आजकल एक धारणात्मक भ्रम के कारण मीडिया का मतलब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज्यादा हो गया है। लेकिन यदि हम सभी माध्यमों की बात करें तो उनमें जो टीवी का माध्यम है, वो चूंकि दृश्य-श्रव्य माध्यम है, इसलिए वो तत्काल और ज्यादा असर करता है और बिना किसी श्रम के असर करता है, क्योंकि अखबार पढ़ने में तो आपको फिर भी पढ़ने-समझने का श्रम करना पड़ता है, परन्तु इसमें आपको केवल देखना और सुनना है। अखबार की तुलना में टीवी के साथ एक प्रकृतिगत समस्या है, वो ये कि वो दृश्य का माध्यम है। अंग्रेजी में मैं कहता हूँ कि वो ‘स्पेक्टिकल’ का माध्यम है, लेकिन विचार का माध्यम नहीं है। अतः वो अखबार की तुलना में कहीं ज्यादा अपने दर्शकों की पसंद-नापसंद और उनके मनोविज्ञान को प्रतिबिंबित करने के लिए अभिशप्त है। वैसे तो ये बात समूची ‘मास मीडिया’ यानी कि अखबार, पत्रिका, टीवी सहित ऑनलाइन मीडिया के लिए भी सत्य है कि उनका जो एक प्रमुख पाठक या दर्शक वर्ग है, वे उसके मनोविज्ञान से बहुत आगे नहीं जा सकते। जब जाते हैं, तो उनका दर्शक और पाठक ही उनसे अलग चला जाता है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि अखबार और पाठक, टीवी और दर्शक का जो रिश्ता है, वो एकतरफा रिश्ता नहीं है। आप लोग जब हमें कटघरे में खड़ा करते हैं, तो उसके साथ ही आप भी कटघरे में खड़े होते हैं, लेकिन वो आपको दिखता नहीं है।
अगर हम ये देखें कि एक पाठक के रूप में हमारा व्यवहार कैसा है यानी कि किस खबर को हम पहले पढ़ते हैं और किसको बाद में पढ़ते हैं, किसको पूरा पढ़ते हैं तो किसको सुर्खी देखकर छोड़ देते हैं, कौन से पन्ने पढ़ते ही नहीं और कौन-सी चीजें पूरी पढ़ जाते हैं – इन बातों को देखने के बाद हमारी खुद ही अपने बारे में एक समझ बन जाएगी। इन सभी अनुभवों को इकठ्ठा करने पर हम पाते हैं कि लोगों को जो चटपटा है, चुटीला है, रंगीन है, रहस्य-रोमांच लिए हुए है, वो ज्यादा पसंद आता है। बहुत से लोग सबसे पहले मनरंजन परिशिष्ट देखते हैं, कुछ लोग खेल का पन्ना तो व्यापारी लोग कारोबार का पन्ना देखते हैं, कुछ लोग हैं जो बाकी खबरें भी थोड़ा-बहुत पढ़ लेते हैं, लेकिन सबसे कम संख्या, लगभग पांच प्रतिशत, ऐसे लोगों की होती है जो हर अखबार का जो सबसे कीमती हिस्सा होता है उसका सम्पादकीय पन्ना, उसको पढ़ते हैं। यानी जिसमें एक अखबार के सभी पत्रकार अपना श्रेष्ठतम देते हैं, उसको पढ़ने वाले सबसे कम होते हैं और जो जितनी हल्की सामग्री है, वो उतनी ज्यादा पढ़ी जाती है। क्या ये पत्रकारों का दोष है? इसी बात को टीवी पर भी लागू कर सकते हैं। भारत में कुल टीवी देखने वालों में आठ प्रतिशत लोग सिर्फ समाचार देखते हैं, बाकी जो बयानवे प्रतिशत लोग हैं वो कहीं बाहर के तो नहीं हैं? सिनेमा आदि क्षेत्रों में जो नकारात्मकता आप लोगों को दिखती है, उसे सामने कौन लाता है; आन्दोलनों को आगे कौन बढ़ाता है, ये सब कार्य भी यही मीडिया ही करता है। सो कुल मिलाकर मैं कहता हूँ कि किसी भी देश और समाज का जो ‘मास मीडिया’ है, वो काफी बड़ी सीमा तक अपने मुख्य पाठक और दर्शक वर्ग के मनोविज्ञान, उसकी रुचियों और उसकी पसंद से निर्धारित होता है और इससे बाहर जाने की गुंजाइश उसके पास कम होती है। धीरे-धीरे वो रुचियों का विस्तार और परिष्कार कर सकता है और ये हमारा धर्म है, लेकिन इसकी एक सीमा है। हम नैतिकता झंडा लेकर हर समय घूमने लगे तो फिर पत्रकारिता नहीं कर पाएंगे, दैनिक कल्याण हो जाएंगे।
सवाल – आज मीडिया की निष्पक्षता को लेकर बहस होती रहती है। ऐसा कहा जाने लगा है कि अमुक अखबार और चैनल, अमुक दल या विचारधारा के पक्ष में और अमुक दल के विपक्ष में है। इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
राहुल जी – एक सीमा तक तो ये बात सही है। पिछले दिनों की तुलना में निष्पक्षता घटी है, ये मैं स्वयं महसूस करता हूँ। हालांकि चालीस साल पहले जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी, जब टीवी नहीं, केवल अखबार होते थे और गिनी-चुनी पत्रिकाएँ होती थीं, तब भी विचारधारा और राजनीतिक जुड़ाव के स्तर पर अखबार बंटे हुए थे। पत्रकार भी विचारधाराओं में बंटे हुए थे। लेकिन इतना तीखा और इतना स्पष्ट विभाजन नहीं था, अब वो बहुत ज्यादा हो गया है। इससे नुकसान हमारा यानी पत्रकारिता का ही हुआ है। लेकिन मैं ये भी याद दिलाना चाहूँगा कि ये केवल यहीं नहीं है, दुनिया का एक भी स्वतंत्र लोकतान्त्रिक देश ऐसा नहीं है, जिसकी समूची मीडिया को संपूर्णतः तटस्थ और निष्पक्ष माना जाता हो। न यूएस, न यूके, न योरोप कहीं नहीं है, क्योंकि वहां भी यही बात लागू होती है कि प्रकाशक हों, मालिक हों, संपादक और पत्रकार हों, वे सब विचारवान लोग होते हैं और जो भी विचार करता है, उसकी एक दृष्टि बनती है। जिस विचारधारा या दल को, पक्ष को वो अपने निजी पक्ष में पाता है, उससे उसका एक जुड़ाव बनता है, क्योंकि पत्रकारिता भी एक व्यापकतर राजनीति का हिस्सा है, अतः मीडिया का किसीके पक्ष या विरोध में होना अपने आप में न तो आश्चर्यजनक बात है और न ही आपत्तिजनक बात है। लेकिन ये तब आपत्तिजनक नहीं होगी जब हम अपनी पसंद-नापसंद और अपने वैचारिक आग्रहों के प्रति ईमानदार हों और उनको छुपाने की कोशिश न करें। जो हम हैं, वही दिखें-बोलें और लिखें, उसके अलावा कुछ और दिखने की कोशिश न करें यानी तटस्थता या निष्पक्षता की आड़ में पक्षपात न करें तो मेरे हिसाब से ये ठीक है। इसके बाद पाठक या दर्शक का निर्णय है जो जानता है कि हमारी पसंद-नापसंद क्या है, उस हिसाब से वो अपने विवेक से स्वतंत्र निर्णय लेने में समर्थ है।
सवाल – आज समाचार चैनलों में बहस का जो स्तर हो गया है, उसमें विचार कम शोर अधिक होता है। आपकी दृष्टि में टीवी बहस के इस गिरते स्तर का क्या कारण है?
राहुल जी – मैं चूंकि स्वयं लम्बे समय तक टीवी एंकर रहा हूँ, इसलिए मैं तो कुछ ज्यादा ही इससे दुखी होता हूँ। आजकल अपवादों को छोड़कर चैनलों पर जो बहस का स्तर हो गया है, वो बहस नहीं होती, विमर्श नहीं होता, वो तमाशा होता है। मुझे कहने में कोई दिक्कत नहीं कि अब जो ‘अर्नब गोस्वामी स्कूल’ चल पड़ा है, उसने टीवी पत्रकारिता और एंकरिंग की गंभीर व महत्वपूर्ण विधा में सदाशयता, सभ्यता, संतुलन, शिष्टता और  शालीनता की हत्या कर दी है। निष्पक्षता की तो खैर वहां कोई कोशिश भी नहीं दिखती, लेकिन वहां निर्लज्जता की हद तक पत्रकारिता दिखती है और वो दुर्भाग्य से बहुत बड़ी संख्या में हमारे युवा एंकरों और चैनलों के लिए आदर्श बन गए हैं। लेकिन इसका भी और एक पक्ष है। ये पक्ष एक प्रश्न है जो मैं दर्शकों के सामने रखता हूँ और आपके माध्यम से भी रखना चाहूँगा कि मुझे आजतक ऐसा कोई नहीं मिला जो कहता हो कि आजकल जिस तरह की बहस होती है, वो हमें पसंद है, सब उसकी आलोचना ही करते हैं, तो प्रश्न है कि जब सबको वह खराब लगती है फिर सबसे ज्यादा दर्शक उसको क्यों मिलते हैं, जो सबसे ज्यादा तीखी और घटिया बहस करता है।
मैं दर्शकों के मनोविज्ञान वाली जो बात पहले कह रहा था, वो यहाँ भी लागू होती है। दर्शकों को भी गंभीर बहस के बजाय शोर-शराबा, गहमा-गहमी, तमाशा ज्यादा पसंद आता है। ऐसे में अगर हमें कोई बहस बुरी लग रही है, तो हम जिन चैनलों पर अच्छी और शालीन बहस होती है, वहां जा सकते हैं, लेकिन लोग नहीं जाते। इसके लिए तो मीडिया या पत्रकार जिम्मेदार नहीं हैं न? तो अगर अच्छी मीडिया चाहिए तो उसको देखिये, सहारा दीजिये।
सवाल – हिंदी भाषा को लेकर आप निरंतर रूप से सक्रिय रहते हैं। इसीसे जुड़ा मेरा ये सवाल है कि हिंदी के कठिन शब्दों को लेकर शिक्षित लोगों में भी एक दूरी का भाव नजर आता है, जबकि अंग्रेजी के कठिन शब्दों को भी वे सहज ही ग्रहण कर लेते हैं।  इस विरोधाभास के मूल में कौन-सी प्रवृत्ति है?
राहुल जी – सबसे पहले स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं हिंदी को लेकर सक्रिय बिलकुल भी नहीं रहता। मैं सारी भारतीय भाषाओं के लिए सक्रिय रहता हूँ। मुझे हिंदी की कोई विशेष चिंता नहीं है। क्योंकि जो संकट मुझे दिखता है, वो अकेले हिंदी का नहीं, सारी भारतीय भाषाओं का संकट है। अकेली हिंदी बच नहीं सकती इसलिए अकेले उसकी बात करने का कोई मतलब नहीं है। हिंदी के क्षेत्र में उसकी आंतरिक चुनौतियाँ है, जैसे हर भाषा की होती हैं उनपर भी चर्चा जरूरी है और उनका भी समाधान निकालना जरूरी है। क्योंकि मेरी जो सक्रियता व चिंता है, वो सारी भारतीय भाषाओं के जिन्दा रहने या न रहने को लेकर है। मुझे दिख रहा है कि वो नहीं बचने वालीं… अधिक से अधिक दो पीढ़ी का समय  हमारे पास है। मैं उस भारत की कल्पना कर पा रहा हूँ जो अगले तीस-चालीस साल में होगा जब ऐसे भारतीय आ जाएंगे जो एक भी भारतीय भाषा ठीक से नहीं जानते होंगे। केवल अंग्रेजी में ही वे जीते होंगे। फिर वो भारत कैसा होगा? वे भारतीय होंगे क्या? इसलिए मेरी जो सक्रियता है, वो मेरी इस चिंता और डर से पैदा होती है।
जहां तक प्रश्न हिंदी के तथाकथित कठिन शब्दों के प्रति दूरी का है, तो मेरी विनम्र राय में इसका कारण ये है कि हिंदी समाज अन्य दूसरे भाषाई समाजों की तुलना में सबसे ज्यादा आत्मलज्जित समाज है। साहित्यकारों-पत्रकारों आदि अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी वाले लोगों को हिंदी वाला होने पर शर्म आती है। हालांकि इन अपवादों में भी आत्मलज्जा बहुत है, लेकिन मजबूरी में हिंदी का दामन थामे हुए हैं। कई लोग हिंदी में सिर्फ इसलिए लिखते हैं, क्योंकि वे हिंदी ही जानते हैं। उनका बस चलता तो वे अंग्रेजी में ही लिखते। तो अधिकांश हिंदी भाषी लोगों के लिए हिंदी मजबूरी की भाषा है। क्योंकि भाषा के प्रति स्वाभिमानी किसी भी समाज में ये बात नहीं होती कि उसके अपने ही लोगों, और पढ़े-लिखे लोगों, को अपनी ही भाषा कठिन लगे। मैं चूंकि हिंदी के अलावा जो दूसरी  भाषा ठीक से जानने का दावा कर सकता हूँ वो अंग्रेजी है। कह सकते हैं कि मेरी पत्रकारिता, मेरे काम की प्रथम भाषा अंग्रेजी रही। पंजाबी मेरी मातृभाषा अवश्य है, लेकिन मैं उसे न पढ़ पाता हूँ न लिख पाता हूँ। इस तरह मैं दो बौद्धिक संसारों में जीता हूँ – एक हिंदी का संसार है और एक अंग्रेजी का। इसलिए मैं कई बार दोनों की तुलना भी कर पाता हूँ, जो एक ही भाषा संसार में रहने वाले लोग नहीं कर पाते। मैं अंग्रेजी विमर्श में भी रहता हूँ और संभव है कि अंग्रेजी हिंदी से अधिक पढ़ता भी हूँ। अब मुझे तो कहीं अंग्रेजी में ये सवाल उठाया जाता नहीं मिला कि अंग्रेजी कठिन है, उसको सरल किया जाए। अंग्रेजी भाषी देशों में तो दूर, भारत में भी जिन लोगों ने थोड़ी-बहुत अंग्रेजी सीखी है, वे भी यह प्रश्न नहीं उठाते। मराठी, बांग्ला या किसी अन्य दूसरे अपनी भाषा पर गर्व करने वाले समाज में भी ये प्रश्न नहीं है। केवल हिंदी में ही ये प्रश्न उठाया जाता है। हर भाषा का एक सड़क का रूप होता है, एक ज्ञान-विद्या का रूप होता है जिसे हम अंग्रेजी में रजिस्टर कहते हैं। ऐसा दुनिया में कहीं नहीं है कि जो सड़क की, हल्की-फुल्की आपसी बातचीत की भाषा है, उसी भाषा में उसके उच्चतर ज्ञान को भी बरता जाए। क्या विज्ञान की, गणित की, दर्शनशात्र की या क़ानून की अंग्रेजी सामान्य अंग्रेजी है?  क्या इसे एक सामान्य अंग्रेजी जानने वाला समझ सकता है? नहीं न! तो फिर हिंदी से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि वो एकदम सड़क वाले के स्तर पर उतरकर आए। जो ज्ञान-विज्ञान की हिंदी होगी, वो तो अलग ही होगी। उसमें पारिभाषिक शब्द होंगे। मुझे कहने में कोई हिचक नहीं कि हिंदी के बहुत-से विद्वानों को पारिभाषिक शब्दों से बड़ी चिढ़ है। इससे बड़ी मूर्खता कोई हो नहीं सकती। दुनिया की कौन-सी भाषा ऐसी है, जिसमें उच्चतर लेखन व चिंतन पारिभाषिक शब्दों के बिना होता है। क्या विज्ञान में एक कदम भी हम बिना पारिभाषिक शब्दों के चल सकते हैं? साढ़े आठ लाख पारिभाषिक शब्द दुनिया के हर ज्ञान क्षेत्र के हिंदी में उपलब्ध हैं, लेकिन हमारे विद्वानों को उनके अस्तित्व की ही जानकारी नहीं है। वस्तुतः किसी भी भाषा में कोई शब्द न कठिन होता है, न सरल होता है; शब्द या भाषा केवल परिचित या अपरिचित होते हैं।
सवाल – हिंदी की बोलचाल और लेखन में अंग्रेजी शब्दों को घुसाने को लेकर भी आप कठोर रुख रखते हैं, ऐसे में मैं जानना चाहूंगा कि आपके हिसाब से हिंदी भाषा का स्वरूप कैसा होना चाहिए?
राहुल जी – निश्चित रूप से इस विषय में मेरा रुख कठोर है, क्योंकि मैं अपनी भाषा से प्रेम करता हूँ और उसकी इज्जत करता हूँ तथा उसकी गरिमा, प्रतिष्ठा और शक्ति को लेकर कोई समझौता मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।  मैं अंग्रेजी से ही तुलना करता हूँ और केवल अंग्रेजी से बराबरी मांगता हूँ। अंग्रेजी के लोग जब किसी भी विषय पर बोलते हैं, लिखते हैं, तो उनकी अंग्रेजी देखिये। क्या वे अपनी अंग्रेजी में हिंदी मिलाते हैं? नहीं मिलाते हैं न! क्यों नहीं मिलाते? अगर मिली-जुली भाषा ही सर्वश्रेष्ठ भाषा है, तो वे तो नहीं मिलाते। मिलाएंगे तो उनका मजाक बन जाएगा। फिर हिंदी वाले क्यों मिलाते हैं? क्या हिंदी अंग्रेजी की तुलना में कमजोर है? हीनतर भाषा है? या हमारे विद्वान और पत्रकार ही हीनतर हैं? क्या समस्या है? कार, बस, फोन इस तरह के जो शब्द इन वस्तुओं के साथ चलकर हमारे यहाँ आ गए तो उनको तो हम ज्यों का त्यों स्वीकार करेंगे ही, ऐसा दुनिया की हर भाषा करती है। लेकिन उसके चक्कर में हम माता-पिता को छोड़कर फादर और मदर बोलने लगें, भाई-बहन की जगह ब्रदर और सिस्टर कहने लगें तो ये डूब मरने की बात है। ऐसा कौन करता है? ऐसे शब्द जो हिंदी के पास नहीं हैं, उन्हें हम अंग्रेजी या दूसरी भाषाओँ से लें, तो हिंदी समृद्ध होगी और उसका शब्द-भण्डार बढ़ेगा लेकिन अभी तो ये हो रहा है कि हिंदी के सरल, सुपरिचित, प्रचलित और अन्तरंग कीमती शब्दों को विस्थापित कर हम उनकी जगह अंग्रेजी के शब्द डाल रहे हैं। ये तो हमारे शब्द भण्डार को कम कर रहा है न। अंग्रेजी को मैं हिंदी को विस्थापित करने की इजाजत नहीं दे सकता। मैं अग्रेजी या किसी भी भाषा से हिंदी को समृद्ध ही करना चाहूँगा।
सवाल – इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट से आप दशकों तक जुड़े रहे जिसके माध्यम से अनेक कलमकारों को सम्मानित करने का काम हुआ है। यह अनुभव कैसा रहा?
राहुल जी – चूंकि मेरा संबंध इंदु शर्मा और तेजेंद्र शर्मा से बहुत पुराना है। दोनों का मित्र होने का परिवारसहित सौभाग्य हमको मिला है, अतः मेरे लिए ये ट्रस्ट थोड़ा निजी और अन्तरंग महत्व भी रखता है। ज्यादा तो मैंने कुछ किया नहीं है ट्रस्ट के लिए, लेकिन तेजेंद्र ने जिस तरह से इंदु की स्मृति को, नाम को बनाए रखने का उद्यम किया है, वो असाधारण है। भारत ही नहीं, इंग्लैंड में जाकर भी इस ट्रस्ट के माध्यम से वो जिस तरह के कार्यक्रम करते हैं और ब्रिटिश संसद तक उन्होंने जैसे इसे पहुंचा दिया, ये भी संभवतः पहली बार हुआ है। ये सब अकेले तेजेंद्र ने किया है, उनके पीछे कोई बड़ी ताकत, कोई औद्योगिक घराना जैसा कुछ नहीं है। बिलकुल एक सामान्य नागरिक की तरह अपना जीवन संघर्ष जीते हुए उन्होंने ये किया है और बहुत-से नए लेखक, नयी प्रतिभाएं उन्होंने हिंदी को इसके जरिये दी हैं। ये बहुत बड़ा काम है और इसके लिए मैं तेजेंद्र की बहुत गहराई से इज्जत करता हूँ।
सवाल – भारत से बाहर लेखकों/लेखिकाओं द्वारा जो साहित्य रचा जा रहा है, जिसे प्रवासी साहित्य कहते हैं, को लेकर आपकी क्या राय है?
राहुल जी – प्रवासी साहित्य का मैं बहुत आदर करता हूँ। वो प्रवासी भारतीयों के जीवनानुभवों और उनके संघर्षों का उनकी दृष्टि से एक ऐसा अनुभव संसार भारत के पाठकों के सामने रखता है, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। पश्चिम में रहने का अनुभव, वहां पर रिश्तों का अनुभव, वहां की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक अन्तःक्रियाओं का अनुभव, उनका भारतीय मन पर प्रभाव जैसी तमाम बातों का एक कीमती संसार भारतीय पाठकों के समक्ष प्रवासी साहित्यकारों के द्वारा ही खुलता है। ये समकालीन हिंदी साहित्य का एक प्रमुख भाग है। इन साहित्यकारों ने बड़ा काम किया है और साहित्य जगत में उनको उनके योगदान के अनुरूप ही स्थान मिलना चाहिए।
सवाल – वर्तमान हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर कुछ कहना चाहेंगे?
राहुल जी – देखिये, मैं साहित्य का व्यक्ति नहीं हूँ। न तो मैं साहित्य की किसी भी विधा में लिखता हूँ और न अच्छा पाठक ही अपने को कह सकता हूँ। कभी-कभी कुछ पढ़ लेता हूँ। मेरी रुचियाँ हैं, लेकिन मैं साहित्य पर बोलने योग्य अपने को अधिकारी व्यक्ति नहीं मानता हूँ। हाँ, बस एक-दो बातें कहूँगा कि मेरी राय में इस वक़्त हिंदी में बहुत अच्छा, उत्कृष्ट लेखन हो रहा है। नए तरह के विषय, नए तरह के अनुभव संसारों का उद्घाटन किया जा रहा है। हमारे युवा लेखक आज की नयी दुनिया, उसकी नयी चुनौतियों, नए संबंधों, उसके विविध जीवन रूपों को सामने ला रहे हैं और समकालीन साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। मैं इस समकालीन युवा लेखन से कतई असंतुष्ट नहीं हूँ। इसके साथ ही हिंदी आलोचना जो है, वो तो मुझे कई बार लगता है कि विश्वस्तरीय है। उच्चस्तरीय साहित्यिक विमर्श का जो स्तर है, वो आपसी दोस्तियों के बावजूद  बहुत उत्कृष्ट है (हँसते हुए)। मेरी बस एक शिकायत हिंदी के साहित्य जगत से ये है कि हिंदी के साथ क्या हो रहा है, हिंदी कैसे कमजोर हो रही है, कैसे दिनों दिन हिंदी की जमीन सरक रही है, इसकी चिंता अपवादों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश लेखकों में दिखती नहीं। ऐसा लगता है कि उनकी आँखे और दिमाग इस दिशा में बंद हैं। इसलिए अंग्रेजी के बरक्स अपनी भाषा को बचाने की जो छटपटाहट हम मराठी या कन्नड़ या दूसरी कई भारतीय भाषाओं व विश्व की अन्य भाषाओं में पाते हैं, वो हमें हिंदी में दिखाई नहीं पड़ती। एक-दो को छोड़कर, हिंदी के तमाम बड़े अखबार हिंदी की दैनिक हत्या कर रहे हैं। लेकिन हमारे इस महान साहित्य जगत के दस लोग भी ऐसे नहीं हैं, जिन्होंने कभी किसी ऐसे बड़े हिंदी अखबार के संपादक को दस लोगों के हस्ताक्षर का कोई सामूहिक पत्र लिखा हो कि हम आपकी भाषा से असहमत हैं, इसको बदलिए। वे कभी हिंदी को लेकर सड़क पर नहीं उतरते। कन्नड़ आदि भाषाओं में ऐसे संघर्ष हुए हैं, लेकिन हिंदी में ये चेतना ही नहीं दिखती। तो हिंदी का साहित्यकार अपनी रचना, अपनी रचना-प्रक्रिया और उसकी समीक्षा में इतना मगन है कि वो जिस भाषा में रच के यश, धन और आजीविका भी पा रहा है तथा संतोष व सुख पा रहा है, उस भाषा के प्रति उसकी कोई गंभीर चिंता न होना एक ऐसा प्रश्न है, जिसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है।
सवाल – देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच इनके समर्थकों-विरोधियों द्वारा अक्सर तुलना की जाती रहती है। क्या आप ऐसी तुलना को ठीक मानते हैं?
राहुल जी – ऐसी तुलना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और मूर्खतापूर्ण है। दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच में इतना बड़ा समय गुजर चुका है और इतना अंतर आ चुका है कि उनकी तुलना करते समय पहले हमें मानक तय करने होंगे कि किन-किन मानकों पर हम तुलना कर रहे हैं, परन्तु ऐसा कोई व्यवस्थित प्रयास हमें दिखता नहीं। ये जो तुलना है, वो आमतौर पर जिन्हें हम मोदी भक्त कहते हैं, वे ज्यादा करते हैं। नेहरू को गरियाना, गलत बताना, छोटा बताना, देशविरोधी तक बता देना – ये अज्ञानी, दुराग्रहग्रस्त, इतिहास की बारीकियों से अपरिचित और इतिहास की बारीकियों में अरुचि रखने वाले लोगों की समस्या है। स्वतंत्र भारत या समकालीन भारत के पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों के इतिहास में रुचि रखने वाला कोई भी व्यक्ति नेहरू के योगदान को कैसे नकार सकता है! नेहरू को नकारना है, तो फिर पटेल को और गांधी को भी नकारना होगा। पूरी कांग्रेस और स्वाधीनता का जो अहिंसक आन्दोलन रहा है, उसको नकारना होगा। इस राष्ट्र के, इसके संविधान के निर्माण में ये सब लोग लगे हैं जिसमें नेहरू जरा आगे रहे हैं, प्रमुख रहे हैं, लेकिन वो अकेले नहीं थे। मैं कहना चाहूँगा कि नेहरू ने जितना लिख दिया है, प्रधानमंत्री तो छोड़ दीजिये, इस देश की सरकारों के सब मंत्रियों का लिखा मिला देंगे तो भी नेहरू का लिखा शायद उसपर भारी पड़ेगा। उनका अध्ययन, उनकी दृष्टि, उनका लेखन इतना बड़ा है कि उनके बाद आए किसी भी व्यक्ति से उनकी तुलना करना दोनों लोगों के साथ अन्याय होगा। दरअसल इस तरह की तुलना ही अपने आप में अनैतिहासिक है और ये एक ईमानदार तुलना नहीं है, क्योंकि ऐसी तुलना से कुछ नहीं मिलता। सत्तर साल में इतनी परिस्थितियां बदल गयी हैं कि हम आज की स्थितियों की तुलना उस समय से और उस समय की स्थितियों की तुलना आज से कैसे कर सकते हैं? अंत में एक बात जरूर कहूंगा कि नेहरू भी इंसान थे, और अगर दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति हुआ है, जिसने कोई गलती नहीं की हो, जिसमें कमियां न रही हों, जो सम्पूर्ण श्रेष्ठ रहा हो, तो नेहरू को जितनी गालियाँ लोग देना चाहें, दे सकते हैं। यदि हम नेहरू की कमियों की बात करेंगे तो फिर जिससे हम तुलना कर रहे  उसकी कमियों की भी बात करनी पड़ेगी। ऐसा कौन है जिसमें कमियां नहीं हैं और जिससे गलतियाँ नहीं हुईं। मनुष्य होना ही त्रुटिपरायण होना है। इसीलिए मैंने कहा है कि ये तुलना ही मूर्खतापूर्ण है।
सवाल – आखिरी में, आज विश्व कोरोना के संकट से जूझ रहा है। आपके विचार से इस संकट से उबरने में विश्व को कितना समय लगेगा और इसके बाद क्या विश्व में कोई परिवर्तन आएंगे?
राहुल जी – मुझे लगता है कि ये जो संक्रमण का दौर है, वो कम से कम एक साल तो ले लेगा। ज्यादा भी ले सकता है। मैं चूंकि वैज्ञानिक नहीं हूँ, ऐसे में हम जो पढ़ते हैं, उसीके आधार पर राय बनाते हैं। हम जो पढ़ रहे हैं उससे पता चलता है कि अब धीरे-धीरे वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि ये कभी भी पूरी तरह खत्म होने वाला संक्रमण नहीं है। ये ओकेजनल हो जाएगा यानी कि यदा-कदा सिर उठाता रहेगा। इसके तथा और भी नए तरह के संक्रमणों के लिए दुनिया को तैयार रहना चाहिए क्योंकि प्रकृति के संतुलन को मनुष्य ने और इस वैश्वीकरण ने जिस मूर्खता और अंधेपन से बर्बाद किया है, तो अब ये एक तरह से प्रकृति का पलटवार हो रहा है। जिन जीवरूपों को जीने के लिए जंगल, पेड़ आदि प्रकृति के अलग-अलग रूप उपलब्ध थे, उनको हमने नष्ट किया है। हमने जंगल पर जंगल नष्ट किए हैं। हमने समुद्रों को नष्ट किया है। हमने खाद्य-अखाद्य में कोई भेद नहीं रखा और सर्वग्रासी-सर्वहारी जाति बन गए हैं। ऐसे में दूसरी जो जीव-जातियां हैं, वे हम पर यदि हमला कर रही हैं, तो इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है। अतः हमें इससे कहीं ज्यादा गंभीर संक्रमणों व बीमारियों के लिए तैयार रहना होगा और पूरी वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए अब आमूल-चूल परिवर्तन व रूपांतरण का ये समय है। वो अगर नहीं किया तो कोई भी देश बच नहीं सकेगा, क्योंकि हमने देख लिया कि जो सबसे सक्षम, सबसे अमीर देश थे, वो भी लड़खड़ाकर गिरे पड़े हैं। तो अब समृद्धि का स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध रह नहीं गया है। वर्तमान में हम वैश्वीकृत समाज हैं, जिसमें संकट व बीमारियाँ भी साझी होंगीं और समाधान भी साझे होंगे।
पीयूष – हमसे बातचीत करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सर।
राहुल जी – धन्यवाद।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

6 टिप्पणी

  1. मीडिया का किसी के पक्ष या विरोध में होनाआश्चर्यजनक व आपत्तिजनक भले न हो लेकिन उसमे से सत्य छान कर निकालना सामान्य जन के लिए तो आसान नहीं ही है बल्कि एक विवेकशील प्रबुद्ध पाठक के लिए भी अतिरिक्त चुनौती है ।
    संजय अग्निहोत्री
    उपन्यासकार

  2. यदि पत्रकारिता एवं साहित्य को जीवित रखना है तो संपादक का लौटना अत्यंत आवश्यक है!

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