साहित्य को सिनेमा के करीब लाने वाले और आम आदमी के सुख दुख को पर्दे पर चित्रित करने वाले इस महान लेखक और निर्देशक को पद्म पुरस्कार से वंचित रखना और अन्य बड़े अवार्डों से न नवाज़ना अवार्ड कमेटी पर सवालिया निशान खड़ा करता है।
बासु चटर्जी हिंदी फिल्मों के ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने साहित्यिक कहानियों को सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर संवेनशीलता के साथ उतारकर साहित्य को सिनेमा के साथ खूबसूरती से जोड़ने का सफल प्रयास किया। बासु चटर्जी जी से मेरी मुलाकात 2012 में उनके आवास पर हुई थी। मैँ गीतकार शैलेन्द्र जी पर एक किताब प्रकाशित करना चाह रहा था इस सिलसिले में उनसे बातचीत करना चाहता था। शैलेन्द्र के साथ साथ सिनेमा पर उनसे बातचीत हुई।

बासु दा ने बताया कि उनका जन्म तो अजमेर में हुआ लेकिन पिता के ट्रांसफर के कारण हम मथुरा आ गए। कक्षा 12 तक की पढ़ाई मथुरा में पूरी की। फ़िल्म जगत के मशहूर गीतकार शैलेन्द्र विद्यालय में हमारे सीनियर थे। शैलेन्द्र को कविता लिखने और सुनाने का बड़ा शौक था। हम सभी उनकी काव्य प्रतिभा का लोहा मानते थे। अंताक्षरी प्रतियोगिता में उनकी टीम हमेशा बाज़ी मारती।
कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके मैंने भी बम्बई (अब मुम्बई) जाने का निर्णय लिया। यहां आकर दुनिया की अनेक भाषाओं फ्रेंच, रूसी, जर्मन आदि की फिल्मों को देखने सुनने का मौका मिला। साप्ताहिक ब्लिट्ज में पोलिटिकल कार्टून बनाने का अवसर मिला। धीरे धीरे मुझे भी साहित्य,पत्रकारिता और फ़िल्म के लोग जानने पहचानने लगे।
बासु चटर्जी ने “रजनीगंधा” की पटकथा पुस्तक की भूमिका में लिखा है- “मुझे हमेशा ही ऐसी कहानियां पसंद आई हैं जिनमें नायक या नायिका किसी अन्तर्द्वन्द्व के शिकार होते हैं और अंत मे उससे पार पाते हुए किसी नतीजे पर पहुंचते हैं।”
वर्ष1960 के अंत मे शैलेन्द्र जी ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी “मारे गए गुलफ़ाम – उर्फ़ तीसरी कसम” कहानी पर “तीसरी कसम” फ़िल्म बनाने का फैसला किया और उन्होंने “इमेज मेकर्स” नाम से एक कंपनी बनाई । मैंने भी उनसे इस फ़िल्म से जुड़ने की प्रार्थना की क्योंकि शैलेन्द्र मुझे मथुरा से जानते थे इसलिए उन्होंने मेरी प्रार्थना का मान रखा और फ़िल्म के निर्देशक की सहमति से मुझे सहायक निर्देशक के रूप में तीसरी कसम फ़िल्म से जुड़ने का अवसर दिया।
फ़िल्म के पूरा होने में पांच साल से अधिक का समय लग गया । इसके कई कारण थे। फ़िल्म बहुत अच्छी बनी। फिल्म के छायाकार सुब्रत मित्र ने अपनी प्रतिभा और अथक परिश्रम से फ़िल्म में जान डाल दी। शैलेन्द्र गीतों के जादूगर थे तो सुब्रत बाबू कैमरा के जादूगर। 1966 में फ़िल्म रिलीज़ हुई लेकिन फ़िल्म बॉक्स आफिस पर औंधे मुंह गिरी। शैलेन्द्र का सपना टूट गया और वह चल बसे।
अगले वर्ष मुझे एक और साहित्यिक फ़िल्म “सरस्वतीचंद्र” में सहायक निर्देशक का काम मिल गया। 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म के गाने बड़े हिट हुए और फ़िल्म को भी कामयाबी मिली। 1969 के प्रारंभ में मैंने खुद फ़िल्म बनाने का फैसला किया। इसी दौरान सरकार ने फ़िल्म फाइनेंस कॉर्पोरशन की स्थापना की जो कलात्मक फिल्मों के लिए कर्ज़ देती थी।

मैंने भी कथाकार राजेन्द्र यादव के एक उपन्यास “सारा आकाश” पर फ़िल्म बनाने का फैसला किया। सारा आकाश उपन्यास पर फ़िल्म बनाने का सुझाव फिल्मकार अरुण कौल ने दिया। बकौल बासु चटर्जी -“एक शाम मैँ सारा आकाश को एक सांस में पढ़ गया और पढ़कर मैं अभिभूत था।”
इसकी पटकथा को प्रारंभ में कमलेश्वर जी ने लिखा था। लेकिन पटकथा बासु साहब को पसंद नहीं आई। लिहाजा बासु दा ने पटकथा को नए सिरे से लिखा। फ़िल्म में पटकथाकार के रूप में नाम भी बासु चटर्जी का है। यह संयोग ही था कि फ़िल्म को फ़िल्म फेयर द्वारा वर्ष का सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक का अवार्ड भी मिला । फ़िल्म कलात्मक थी इसलिए साहित्य और कला प्रेमियों ने इसे खूब देखा।
फ़िल्म का नून शो कुछ दिनों तक हॉउसफुल चला। कथाकार राजेन्द्र यादव अपनी फिल्म की कामयाबी पर टिप्पणी करते हुए सारा आकाश पटकथा की भूमिका में लिखा है- “बहरहाल, दिल्ली के कुछ मित्रों की इस फब्ती पर मैँ भी काफ़ी सोचता रहा कि “इस फ़िल्म में जरूर कोई गड़बड़ है, वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि तांगेवालों से लेकर निहायत स्नॉब बौद्धिक – सभी को समान रूप से पसंद आये।….सातवें दिन किसी भी शो का कोई टिकट न मिले… ”
बासु दा की ख़ूबी थी कि उन्होंने साधारण चेहरे वाले आम आदमी को स्टार बनाया। अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा, दिनेश ठाकुर आदि इसके उदाहरण हैं।
इस फ़िल्म के कैमरामैन महाजन को बेस्ट कैमरामेन का नेशनल अवार्ड भी मिला। इसके बाद बासु चटर्जी ने “पिया का घर” बनाई फ़िल्म ठीक ठाक चली। लेकिन बासु दा के जीवन मे खूबसूरत मोड़ तब आया जब “रजनीगंधा” फ़िल्म ने सिल्वर जुबली मनाई।
यह फ़िल्म बासु ने राजेन्द्र यादव की पत्नी और कथाकार मन्नू भंडारी की कहानी “यही सच है” को केन्द्र में रख कर बनाया। फ़िल्म की कहानी एक ऐसी पढ़ी लिखी महिला की है जिसकी दो पुरुषों से दोस्ती है। जीवन साथी किसे बनाये इसके बीच उसके मन मे द्वंद्व चल रहा है। दोनों पुरुष मित्रों की अपनी अपनी खूबियां है। खास बात फ़िल्म की यह है कि इसमें खलनायक कोई भी नहीं है।
