हिंदी की चर्चित लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ से मधु अरोड़ा की बातचीत
सवाल – साहित्य लेखन में महिलाओं की क्या स्थिति है?
मनीषा – साहित्य में महिलाओं के लिए, लिखने के लिए तो कभी स्थितियां खराब नहीं थीं। अच्छी रचनाओं को सदा प्रोत्साहन मिला, अन्यथा क्या हम अपने महिलाओं के लेखन की इस समृद्ध परंपरा पर गर्व कर रहे होते? देखिए, लेखन तो आपका अपना है, जितनी प्रतिभा होगी उतनी स्वीकार्यता मिलेगी, बाकि दांए – बांए की चीज़ें, तो यहां भी लेखिका एक स्त्री है, और स्त्री देह के जितने विडंबननात्मक पहलू हैं, वे यहां भी मौजूद हैं।
सवाल – आपको लगता है कि स्त्रियों के लेखन को गंभीरता से लिया जा रहा है?
मनीषा – हाँ, अगर लेखन में दम हो तो, जेंडर कहीं आड़े नहीं आता। कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मृणाल पांडे ऐसे ही रचनाकार हैं। जो अपने समय के लेखकों में बिना किसी लिंगवादी धारणा के अग्रणी रहे। जेंडर कहीं आड़े नहीं आता अगर, हम नारीवादी पारंपरिक और ओढ़े हुए लेखन से उपर उठ कर लिखें और पूरी विश्लेषणात्मक गहराई से लिख सकें तो। बस मेरी आपत्ति एक ही जगह ज़रूर होती है कि मुझे हिन्दी के संस्थानों में मुख्य भूमिकाओं में कभी वरिष्ठ लेखिकाएं नहीं दिखीं, न संपादन में। अपवाद हों तो हों।
सवाल – आप स्त्री विमर्श को किस रूप में लेती हैं और क्या आप इसकी पक्षधर हैं?
मनीषा – स्त्री विमर्श बहुत ओवर यूज्ड शब्द है, घिस गया है। स्त्री स्वातंत्र्य जीने का अंदाज़ है, न कि घिसने का मुद्दा। मैं यथासंभव अपनी आज़ादी जीती हूं। मैं इसके स्थूल स्वरूप से लगभग उदासीन रहती हूं, मुझे नारे टाईप का स्त्री विमर्श आकर्षित नहीं करता। वह रचनात्मकता नहीं फार्मूला है, एक कुचली स्त्री लें, एक पति या विलेन लें लें, विषम परिस्थितियां लें ले और परखनली में डाल लें और पेश कर दें एक कहानी!
एक स्त्री होने के नाते मैं उन मूल समस्याओं को बारीकी से समझती हूं, सो अव्यक्त रुझान रहेगा, मगर मैं झंडा लेकर बस विमर्श के लिए कहानी लिखूं, वह मेरे रचनाकार की मौत होगी, सिमोन द बुआ तक के भीतर का फेमिनिस्ट और रचनाकार एक अलग धरातल पर रहे, मैं समानता की पक्षधर, समान स्तर पर अवसर मिले पढ़ने का, अपने आप को सिद्ध करने का, उसके लेखन को इसलिए खारिज न किया जाए कि वह एक स्त्री का लेखन है। या इस ढर्रे पर पुरुस्कार मिलें कि भई 4 साल से पुरुषों को मिल रहा था इस बार महिला को देंगे।
सवाल – स्त्री विमर्श ओवर यूज्ड होने के बावजू़द महत्वपूर्ण तो है, इस पर थोड़े विस्तार से बताईये।
मनीषा – ओवर यूज्ड शब्द सही नहीं है। यह विमर्श अपने आप में एक सही अवधारणा लेकर चला था, स्त्री की आज़ादी, उसके श्रम का सही मूल्य, सामंती जकड़न से मुक्ति। साहित्य में, साहित्य से इतर यह आज भी महत्वपूर्ण है, इस पर बहस, चर्चाएं, वैचारिक पुस्तकें अनवरत तौर पर होनी ज़रूरी हैं कि हमारा समाज आज भी अपनी पितृसत्तात्मक सोच के दायरे में है, कि आज भी आधी आबादी होने के बावजूद संसद में हमारी उपस्थिति के 33% को मंजूरी नहीं मिली।
मैं फिर भी यह कहूंगी कि अपने लाऊड और थोपे हुए, चालू मुहावरे में कोई भी विमर्श किसी कला में आयेगा तो वह अटपटा लगेगा, सिमोन द बोऊवार की वैचारिक पुस्तकें ‘ द सेकेंड सेक्स ‘ समेत उनकी चर्चित कहानियां, उपन्यास ( शी केम टू स्टे, द वुमन डेस्ट्रायड, ऑल सेड एंड डन, वगैरह) मैंने पढ़े हैं, वहां नारेबाज़ी नहीं है, जीवन है, घटते हुए जीवन में अंडरटोन होती एक आज़ादी की कोशिश है, सफलता है, चीख है, विद्रोह है। मेरा ख्याल है मैं स्पष्ट कर सकी अपना आशय।
सवाल – आज जो कहानी का स्वरूप सामने आ रहा है, उस पर आप क्या कहना चाहेंगी?
मनीषा – कहानी वो विधा है जो लगातार प्रवाहमान है, अपने ही तट तोड़ती हुई। इसलिए कहानी अपनी विकास यात्रा में जहां जहां से गुजरेगी समृद्ध ही होगी, फिर किस स्वरूप की बात कर रही हैं आप? समकालीन कहानी में भी कई धाराएं हैं कहानी के स्वरूप की, कुछ हैं जो आज भी प्रेमचंद परंपरा को आगे ले आए हैं, कुछ अमूर्तन और समय, देश, काल से उठ कर कहानी लिख रहे हैं, कुछ अपना अति यथार्थ रच रहे हैं, जादुई यथार्थवाद के नाम पर भी कुछ कीमियागिरी होती रही है। कुछ इकहरा, सपाट सत्य लिख रहे हैं। इसी सब के बीच से समकालीन कहानी की प्रवृत्ति को अभी सामने आना है। और निस्संदेह इसी गुलगपाड़े के बीच से हर वर्ष दस – बारह उम्दा कहानियां आती हैं जो हिन्दी कहानी का अगला तट निश्चित करती हैं।
सवाल – आप हिंदी साहित्य में सामाजिक सरोकारों को ज़रूरी किन मायनों में मानती हैं
मनीषा – इतिहास गवाह है कि समाज है तो साहित्य है, सदियों से संसार के हर छोटे बड़े समाजों, समूहों का साहित्य रहा है, चाहे वह चित्रलिपियों में रहा हो कि श्रुतियों में ! इसलिए साहित्य एकाकी मानव का तो हो नहीं सकता। यही संदर्भ हिन्दी भाषी समाज का भी है। कैसे भी लिखी जाए कविता या कहानी – विरोध और विद्रोह को विषय बना कर, या स्त्री मन को, निर्वासन को, प्रेम को या फिर मन के अमूर्त भावों को विषय बना लें तब भी समाज वहां होगा ही।
बात पाठक के मन और बुद्धिमत्ता की है कि वह उसे कैसे खोजे। मोटे – भौंडे स्वरूप में सामाजिक सरोकार साहित्य में चाहने वाले कौन से पाठक हैं , वह मैं नहीं जानती। हमारी परंपरा तो देखिए पंचतंत्र की कहानियों, लोक नाट्यों और लोक गीतों की रही जहां सामाजिक सरोकार महीन कलात्मक ढंग ही से आया है, न कि ऊपर रुके पानी पर तैरती हरी काई जैसा। सामाजिक सरोकारों के लिए हर लेखक वैचारिक लेखन करे इसे मैं अपने तौर पर कहीं आवश्यक मानती हूँ, बाकी यह थोपने की चीज़ नहीं।
सवाल – आप गत 10 वर्षों से लग़ातार लिख रही हैं, आपको एक सशक्त रचनाकार के रूप में जाना जाता है। यहां तक पहुंचने के संघर्ष के किन रास्तों से गुजरना पड़ा
मनीषा – संघर्ष कैसा? हाँ मेरा आरंभिक संघर्ष सुदूरतम इलाकों में रहने का और हिन्दी पत्रिकाएं चाह कर भी न प्राप्त कर पाने का था। सिलचर के निकट कुंभीग्राम पूर्ववर्ती आसाम, कछार वैली का इलाका! जहां हिन्दी किताबें मिलना लगभग असंभव होता था। फिर राजस्थान की पश्चिमी सीमा नाल, (बीकानेर से आगे), कुछ समय अवंतिपुर, कश्मीर, कुछ समय हरियाणा का कस्बा सिरसा! जहां पत्रिकाएं नहीं मिलती थीं। पर मैं लिखती रही डायरियां, कविताएं अनवरत तौर पर, जिनका इस्तेमाल मैंने अपने लिखे की स्वीकृति के दौर में किया, शिगाफ़ में किया।
१९९६ में जब हम नाल में थे तब नंद भारद्वाज बीकानेर आए और आगे कहीं जाते समय हमारे घर आए तब उन्होने मुझे हंस, पहल, साक्षात्कार, ज्ञानोदय के पते दिए, मैंने सदस्यता भी ली और रचनाएं भेजीं। शुरू में रचनाएं, सखेद वापस हुईं, राजेन्द्र यादव जी, ज्ञानरंजन जी ने रचनाएं वापस कीं मय लिखित सलाह के कि समकालीन लेखन पढ़ूं, मेरे पास भाषा का संस्कार है, अभिव्यक्ति है। फिर एक बार जब लेखन स्वीकृत हुआ तो मुड़कर नहीं देखा। एक अलग ही स्तर पर नंद जी की भूमिका मुझे इस संघर्ष से निकलने में अहम रही।
सवाल – आप अपनी किसी भी विधा- वह चाहे उपन्यास हो या कहानी को लिखने से पहले किस मानसिकता से रू-ब-रू होती हैं और कैसे स्वयं को उबारती हैं?
मनीषा – कहानी बीज पड़ते ही पेड़ बन जाए ऐसा होता नहीं है, मेरी सबसे बड़ी लड़ाई पहले अपनी अकर्मण्यता से होती है, क्योंकि अब प्लॉट मेरे लिए ताल की मछली नहीं कि बैठे हैं बंसी डाले, अब तो घटनाविहीन कहानियों का ज़माना है या कौतुक रचने का! इसलिए जब खुद को साध लेती हूं तो फिर, सोना सबसे पहले छिनता है, मैं निशाचर हूं, दिन के हंगामों में लिख नहीं सकती, बॉडी क्लॉक उलट जाती है। पात्र बहुत तंग करते हैं, मनमानी भी। मैं चिड़चिड़ी हो जाती हूं। कहानी से बाहर निकलना बिलकुल भारी मानसिक कसरत के बाद ‘कूलिंग डाउन‘ फेज़ जैसा है, मैं हल्की रीडिंग करती हूं,’फेमिना‘ या कोई कुकरी बुक या ऐसा कुछ घरेलू ……! उपन्यास लिखना बहुत सारी नियमितता मांगता है, अनुशासन। उपन्यास के समय लंबी सैर मुझे एकाग्र रखती हैं।
सवाल – आपको अपनी रचनाओं में काट-छांट के लिये किसी गॉड फादर की ज़रूरत पड़ी?
मनीषा – सवाल ही नहीं उठता, ऐसा करना पड़ता तो मैं हिन्दी लेखन में क्यों आती? मेरे लिए क्षेत्रों की कमी न थी, जहां गॉडफादर काम आएं। हिन्दी मेरी भाषा है, मुझे अपनी भाषा क्षमता को लेकर इतनी आत्मविश्वासहीनता नहीं। जो कोई खुद को मेरा गॉडफादर क्लेम करे उसका लिखा मैं ही सुधार दूँ। न मैं इतनी उथली नहीं। मेरी स्क्रिप्ट पढ़ कर मौखिक सुझाव दिए हों तो दिए हों वो भी बस एकाध बार। बाकी मेरा लिखा छूने की इजाज़त किसी को नहीं। मैं शीर्षक रखने में एकदम जल्दबाज़ हूं, बस चले तो पहले शब्द को शीर्षक बना दूं, या बिना शीर्षक रहने दूं, या नायिका या नायक के नाम कर दूं, सो दो बार मेरी कहानियों के शीर्षक ज़रूर बदले, ‘भगोड़ा‘ राजेन्द्र यादव जी ने, ‘कुछ भी तो रूमानी नहीं‘ कहानी का शीर्षक अंतिम पंक्ति से उठाकर अरुण प्रकाश जी ने रखा था। इस से ज़्यादा नहीं, एडिटिंग में मैं खुद बहुत क्रूर हूं खुद के प्रति। भाषा के मामले में मैं ब्लैस्ड हूं, उर्दू का संस्कार अपनी ‘कायस्थाना‘ विरासत में मिला, हिन्दी तो वो ताल जहां, अंडे से निकल कर आंख खोली, पर तौले।
सवाल – आपको लगता है कि कहानी पाठकों से कट गई है, यदि ऐसा है तो इसके क्या कारण हो सकते हैं?
मनीषा – नहीं, मुझे नहीं लगता। हर कहानी के अपने टाइप के अपने पाठक होते हैं। नए खांचे तोड़ती कहानियों का सदा स्वागत होता है। और व्यापक तौर पर तो पाठकों से तो समूचा साहित्य कट गया है, न केवल हिन्दी के स्तर पर विश्व स्तर पर भी। कारण सब पर जाहिर हैं उन्हें क्या दोहराना? पर एक मुट्ठी तबक़ा किताब प्रेमियों का सदा रहेगा।
सवाल – आज लेखक/लेखिकाएं सेक्स और प्रेम पर तो धड़ल्ले से लिख रही हैं, पर बाल सहित्य लिखने से क्यों कतराते हैं?
मनीषा – वह लेखक की अपनी प्राथमिकता है, वैसे विनोद कुमार शुक्ल ने एक किशोर उपन्यास लिखा है।
सवाल – मेरा सवाल अपनी जगह है कि एकाध लेख़क को छोड़कर अधिकतर लेख़क बचते क्यों हैं?
मनीषा – मेरे ख्याल में, यह लेखकों की अपनी रुचि का सवाल है। वैसे शायद आपके संज्ञान में नहीं है कि एक बहुत रोचक पत्रिका ‘चकमक‘ भोपाल से निकलती है, उसमें गुलज़ार, विनोद कुमार शुक्ल, प्रियंवद नियमित तौर पर लिखते हैं। हर वर्ष बाल साहित्य पर पुरस्कार घोषित होते हैं। वैसे मुझे इंतज़ार है कि मैं नानी बनूं और उन बच्चों के परिवेश, रुचि जानकर, उनकी भाषा को विकसित करूं और बहुत सा बाल साहित्य लिखूं जो कि रोचक हो, क्लिष्ट न हो। क्योंकि मेरे बच्चों ने तो मुझे समय नहीं दिया कि उन्हें पालते, उनके बालमन को समझते हुए मैं कुछ लिखती मगर मैंने उन्हें पुस्तकें ज़रूर लाकर दीं, हिन्दी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं की, रूसी बाल – किताबों के हिन्दी अनुवाद।
सवाल – कहा तो यह भी जाता है कि लेखक एक दूसरे को खुश करने के लिये लिख रहे हैं, आप इस पर क्या सोचती हैं?
मनीषा – मैं इस से असहमत हूं। क्यों लेखक आपस में खुश करने को लिखेंगे! बल्कि दुखी ही होते होंगे आपस में, फलां लिखे जा रहा है, मैं नहीं लिख पा रहा हूँ।
सवाल – अभी हाल में हिंदी साहित्य समाज में साहित्यिक चोरी पर बवाल मचा, इस पर आपका क्या कहना है?
मनीषा – यह भी बात नई तो नहीं, एक वरिष्ठ कथाकार – कवि को हिन्दी कथाजगत का आर डी बर्मन कहा जाता है, लोग सबूत के तौर पर पैराग्राफ के पैराग्राफ प्रस्तुत कर देते हैं। आज के ज़माने में चोरी पकड़ा जाना आसान है, इसलिए जो सोचते हैं कि चोरी आसान काम है उनसे मैं कहूंगी लिखना ज्यादा आसान है। सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं। फिर भी आर डी बर्मन तो ठीक हैं, समकालीनों में तो कथा – कविता में अनु मलिक भी हैं, डायरेक्ट चोरी!
सवाल – विवाहेतर संबंधों को आप किस रूप में लेती हैं, इस तरह के संबंधों के लिये कौन से कारण कारक के रूप में कार्य करते हैं?
मनीषा – ये समाजशास्त्रीय प्रश्न है तो, इसका उत्तर देने के लिए मैं असमर्थ हूं। कारण – कारक हर इनडिविजुअल के अलग ही होते होंगे, कोई महामारी तो नहीं कि एक ही बैक्टीरिया या वायरस जिम्मेदार हो।
आम प्रश्न है तो, मैं सबसे पहले विवाह को ही जानना चाहूंगी , ये संस्था आखिर क्या है? ये अपने आप में पूर्ण होते हुए इतनी अपूर्ण क्यों है? फिर संबंध तो संबंध है विवाह पूर्व हो कि विवाह हो कि विवाहेतर हो। ये सदा से रहे हैं, क्योंकि ये जो जीव हैं Homo sapiens नाम के वो अपनी मूल प्रवृत्तियों में पॉलीगेमस हैं और सभ्यताओं, समाजों तक की इस लम्बी यात्रा में ये मूल प्रवृत्तियां पूरी तरह साधी न जा सकी हैं।
सवाल – आजकल हिंदी सहित्य जगत में एक दूसरे को प्रमोट करने का फैशन सा चल पड़ा है, इसे आप साहित्य के परिप्रेक्ष्य में किस रूप में देखती हैं?
मनीषा – ये नया नहीं है। ऐसा पहले भी बहुत हुआ है। कई औसत से लेखक नामी हुए पर मुझे एक पाठक के तौर पर उन्होंने निराश ही किया। नीलेश रघुवंशी का हाल का उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स‘ बिना प्रमोशन लोकप्रिय हुआ। मुंह से मुंह इस उपन्यास की बात चली, दूसरी तरफ ‘मरंग गोड़ा‘ इतने मार्केट मैनेजमेंट के बात पाठकों को अपील न कर सका, यही इस बात की काट है। प्रमोशन का मूल साहित्यिक प्रवृत्तियों का कोई लेना देना नहीं, पाठक वही पढ़ेगा जो वह पढ़ना चाहता है। अब हिन्दी जगत में मुझे भी दस बरस हो गए, प्रमोशन बैसाखी हो सकता है, लंबी रेस के घोड़ो़ं के लिये यह बेकार है।
सवाल – आपको नहीं लगता कि प्रमोट पद्धति से कई नये लेखक गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाते हैं?
मनीषा – मुझे लगता है वे जल्दी हार मान गए होंगे, या उन्हें हिन्दी जगत के नाशुक्रे संसार ने निराश किया हो। हिन्दी में तो आखिरकार लेखन ही केंद्र में रहता है, यहां प्रोफेशनलिज्म तो है नहीं, यहां मिलना कुछ नहीं है, दो सौ – चार सौ लोगों के बीच यश! हमारे यहां नामवर जी, कृष्णा सोबती, उदय प्रकाश नाम कोई नहीं जानता। कौन सी गुमनामी?
सवाल – एक सवाल आपके प्रख्यात उपन्यास ‘शिगाफ के बारे में कि इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
मनीषा – वायुसेना अधिकारी की पत्नी होने के नाते ‘करगिल’ मेरे लिए एक भीषण अनुभव था, करगिल से पहले मैंने कश्मीर को कभी महत्व नहीं दिया मगर उसके बाद वह मेरे ज़हन से कभी नहीं गया. 2005 में मैं साहित्य अकादमी की अनुवाद कार्यशाला के दौरान ‘पहलगाम’ गई थी, रास्ते में अवंतिपुर बसस्टॉप पर मैंने वही पेड़ देखा, गोलियों के वही निशान देखे जहाँ एक व्यक्ति को महज इसलिए मार दिया कि वह बस की प्रतीक्षा में तो था, मगर नीली वर्दी में, वे मेरे पति के वरिष्ठ अधिकारी थे. पहलगाम पहुँचने के अगले दिन मैं कश्मीरी के कनवीनर के कॉटेज में चाय पर निमंत्रित थी, उनकी बेटी आई हुई थी, और विदेश से एक कश्मीरी पण्डित परिवार जो आज़ुर्दा साहब के कलीग के बेटे और बेटी थे, बेटी उनकी बेटी की बचपन की मित्र. शांति की अफवाह हो कि बचपन में गड़ी नाल का मोह वे लोग अपनी सरज़मीं देखने लौटे थे.
मैं चाय प्यालों में डाल रही थी कि कश्मीरी में पूछे गए एक प्रश्न पर चौंक गई, मैं भाषा नहीं जानती थी मगर अर्थ जान गई लहज़े से… एक क्रूर सवाल था, मगर बहुत मासूमियत से पूछा गया था. ““तुम यहाँ से चले क्यों गए?” चाय डालते हुए रुके हुए मेरे हाथ, मेरे कान उत्तर की उत्सुक प्रतीक्षा में थे. मेरी हमउम्र उस युवती ने हिन्दी में जवाब दिया, बहुत ठन्डे सधे लहज़े में, जिस कदर अभिनयपूर्ण मासूमियत से सवाल उछला था, वैसा ही उत्तर “”सब तो जा रहे थे ना, चाचा जी!” “कितना मासूम सवाल, कितना मासूम जवाब……मैं जान गई, हल आसां तो नहीं अब इस मसले का…अब आ चुका है रिश्तों में एक खतरनाक़ शिगाफ! बस यहीं से…..
सवाल – साहित्य और राजनीति के सम्मिश्रण को आप किस रूप में देखती हैं?
मनीषा – हर साहित्यकार का एक राजनैतिक रुझान होता है, बुद्ध्िाजीवी उसे लाजिमी भी मानते हैं, मगर जब यह रुझान साहित्यिक संस्थानों के फैसलों को संक्रमित न करे तो तब तक स्वस्थ है। बाकी साहित्य और राजनीति के सम्मिश्रण को मैं एक रचनाकार के रूप में देखूं तो मुझे लगता है कि हिन्दी में देश व्यापी राजनीतिक समझ बहुत बंटी हुई है, और हम एक तटस्थ पॉलिटिकल उपन्यास की प्रतीक्षा में अब तक हैं।
सवाल – कुछ वर्षों से जो प्रवासी साहित्य के नाम पर सेमिनारों का सिलसिला शुरू हुआ है, इसके बारे में आप क्या कहेंगी, इनकी क्या उपादेयता है?
मनीषा – प्रवासी साहित्य को केवल नए परिवेश और भिन्न अनुभव जगत के संदर्भ में लें तो यह हिन्दी को समृद्ध करता है, बाकी यह है हमारा ही अटूट हिस्सा। इस पर हुई सेमिनारों में तो मैं गई नहीं हूं, इसलिए इसकी उपादेयता हमारे प्रवासी लेखक ही बेहतर बता पाएंगे।
सवाल – हाल ही में गैंगरेप वाले मुद्दे पर फेसबुक पर मित्रों के रवैये पर आप कोई टिप्पणी करना चाहेंगी? ये सब कितना दिखावा था और कितना सच्चा ?
मनीषा – दामिनी को लेकर फेसबुक ने बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई, शांतिपूरण प्रोटेस्ट में एकत्र होना, अपना पक्ष रखना, कैंपेन चलाना फेसबुक ने आसान किया। ऐसे में कोई या किसी का सरोकार दिखावा भी है तो किसी मुहिम या आंदोलन के पक्ष में ही रहेगा। वैसे यह सच ही था। देखिए, हर कोई स्तब्ध था, गैंगरेप वाली घटना कोई मुद्दा नहीं थी, मुद्दा कहना असंवेदनशीलता होगी। रही फेसबुक की बात, ज़्यादातर लोग सच में गंभीरता से अपनी पीड़ा , अपने संदेश संचरित कर रहे थे, कुछ लोग इसे वर्ग, स्थान और धर्म के नाम पर खारिज कर रहे थे कि दामिनी, फलां वर्ग की, फलां स्थान की, फलां धर्म की होती तो क्या इतना शोर मचता? सच मानिये सोशल नेटवर्किंग ने माहौल बनाने में, बड़ा काम किया।
सवाल – क्या ज़िम्मेदार अधिकारियों एवं मंत्रियों को ट्विटर एवं फेसबुक का इस्तेमाल करना चाहिए?
मनीषा – हाँ, क्यों नहीं,वे इस देश के नागरिक पहले हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनका अधिकार है, अगर उनका उद्देश्य किसी की भावनाएं आहत करना या भड़काना न हो तो,अपना पक्ष रखा जा सकता है।
सवाल – आपके लेखन में परिवार किस प्रकार से सहयोग करता हैj
मनीषा – परिवार मेरे लिखने में तो कोई सहायता नहीं करता। लेकिन सहयोग रहता है, दूसरी तरह का। मेरे ऊपर नौकरी का दबाव नहीं है,बेटियां बड़ी हो गई हैं। पहले भी जब छोटी थीं तो वे समझती थीं कि मम्मी को एकांत चाहिए। अंशु एक शानदार पिता हैं। और उदारमना पति, मुझे कोई बंदिश नहीं है, हां सलाह देते हैं, पहले पाठक बनते हैं।
सवाल – आप अपनी ओर से नये रचनाकारों से कुछ कहना चाहेंगी?
मनीषा – खूब पढ़ें , इसलिए नहीं कि नकल कर सकें, ताकि पढ़ कर जान सकें कि कैसे मौलिक रहें।
नकली वादों, कृत्रिम विमर्शों से, फैशनेबल लेखन से बचें।