चर्चित लेखक, संपादक एवं प्रकाशक पंकज सुबीर का नाम हिंदी साहित्य में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। आज पंकज सुबीर से पुरवाई की उपसंपादक नीलिमा शर्मा ने उनके रचनाकर्म, रचना-प्रक्रिया, प्रकाशन अनुभवों आदि पहलुओं पर बातचीत की है। प्रस्तुत है।

प्रश्न- आप गज़लगो हैं, कथाकार हैं, उपन्यास भी लिखते हैं। साथ ही व्यंग्य पर भी आपकी गहरी पकड़ है। पर कौन सी विधा आपके सबसे क़रीब है।
उत्तर- निश्चित रूप से कहानी मुझे अपने सबसे क़रीब लगती है। मगर एक बार और भी है, मैंने सबसे पहले व्यंग्य लिखना ही प्रारंभ किया था। मेरे उस समय के लिखे हुए सारे व्यंग्य एक व्यंग्य संग्रह ‘बुद्धीजीवी सम्मेलन’ नाम से प्रकाशित होकर आ चुके हैं। चूँकि पहले-पहले व्यंग्य ही लिखे इसलिए व्यंग्य विधा भी मेरे दिल के क़रीब है। इसलिए मेरी कहानियों में व्यंग्य की उपस्थिति बहुधा देखने को मिलती रहती है। वे सारी कहानियाँ, जिनमें व्यंग्य का पुट है, वे कहानियाँ लिखने में भी मुझे आनंद आता है और मैंने देखा है कि उन कहानियों को पाठक भी पसंद करते हैं। हिन्दी में व्यंग्य कहानियों का स्थान धीरे-धीरे छीजता गया है, ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय ज़रूर इस विधा को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने बाक़ायदा अपनी पत्रिका के कुछ अंक निकाले हैं, जिनमें इसी प्रकार की व्यंग्य कहानियों को स्थान दिया है। मेरी वो कहानियाँ जिनमें व्यंग्य का पुट है- ‘चौथमल मास्साब और पूस की रात’, ‘चौथी, पाँचवी और छठवीं क़सम’, ‘चिरई चुनमुन और चीनू दीदी’, ‘जनाब सलीम लँगड़े और शीला देवी की जवानी’, ‘आषाढ़ का फिर वही एक दिन’, ‘जूली और कालू की प्रेम कथा में गोबर’, इन कहानियों को पाठकों ने बहुत पसंद किया। इनमें से ‘चौथमल मास्साब और पूस की रात’ कहानी तो जैसे मेरी पहचान बन गयी है। कई पाठक मुझे चौथमल मास्साब कह कर पुकारते हैं।
ग़ज़लें मैं स्वांत:-सुखाय ही लिखता हूँ। मुझे बस अपने लिए ही ग़ज़लें लिखना पसंद है। उसी प्रकार जिस प्रकार मेरी कविताएँ भी बस मेरे लिए ही होती हैं। कहानी और कविता में मुझे यही अंतर लगता है, कहानी जग के लिए होती है और कविता बस अपने लिए होती है।
प्रश्न- आजकल बहुतायत से किताबें प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन फिर भी लेखक कहते हैं कि पाठक नहीं मिलते। आप लेखक, पाठक, प्रकाशक के नज़रिये से अपने अनुभव बताइए।
उत्तर- इस बारे में मेरा हमेशा से मानना रहा है अच्छी रचना के लिए गुण-ग्राहकों की कभी कमी नहीं होती। जिस दौर में लोग इस बात की भविष्यवाणी कर रहे थे कि अब फ़िल्में समाप्त हो जायेंगी, अब टीवी आ गया है। उस दौर में भी फ़िल्में सफल हो रही थीं। और हम देखते हैं कि आज भी वे फ़िल्में जो दर्शकों को पसंद आती हैं, सुपर-डुपर हिट हो जाती हैं। फ़िल्म का उदाहरण मैं इसलिए दे रहा हूँ कि जिस प्रकार आज किताबों की समाप्त होने की भविष्यवाणी की जा रही है, उसी प्रकार फ़िल्मों की क़रीब तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व की गयी थी। आज तीस-पैंतीस साल बाद भी फ़िल्में बन रही हैं और सुपरहिट भी हो रही हैं। असल में बात सीधी सी यह है कि श्रोता, दर्शक, पाठक, ये सब गुण-ग्राहक होते हैं। गुणों के ग्राहक, इनको प्रभावित करने के लिए सबसे आवश्यक होता है ‘गुण’। आप कैसे सोच सकते हैं कि बिना गुण के ग्राहक मिलेगा ? मैं हमेशा कहता हूँ कि हिन्दी की एक पूरी पीढ़ी के लेखकों ने कठिन कहानियाँ लिख-लिख कर पाठक को साहित्य से दूर भगाने का कार्य किया है। कहानियाँ, जो पाठक को समझ ही नहीं आती थीं। इतने बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग किया जाता था कि पाठक पढ़ने के बाद अपना सिर धुनता रहता था। असल में इन लेखकों ने पाठक के लिए नहीं लिखा, इन्होंने आलोचकों के लिए लिखा, पुरस्कारों के लिए लिखा। इनको आलोचकों की प्रशंसा भी मिली और पुरस्कार भी मिले, किन्तु पाठक नहीं मिले। पाठक धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य से दूर होता चला गया। ख़ैर अब कुछ राहत की बात है कि नये लेखकों ने पाठक को फिर साहित्य की तरफ़ खींचा भी है और नये पाठक भी बनाये हैं। महशर बदायुनी का एक प्रसिद्ध शे’र है- ‘अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला, जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जायेगा’, यही कला की सारी विधाओं के लिए सच है, जिस रचना में जान होगी, वो रचना रह जायेगी।
प्रश्न- अपने पाठकों के बीच आप किस रूप में जाने जाना सबसे अधिक पसंद करते हैं। यानी लेखक पंकज सुबीर की पहचान आप कैसे सुनिश्चित करेंगे।
उत्तर- मैं चाहता हूँ कि मेरी कोई पहचान पाठक के मन में हो चाहे न हो, लेकिन मेरे पात्र उसे याद रहें। जैसे ‘अकाल में उत्सव’ का रामप्रसाद, जैसे ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ का रामेश्वर, जैसे ‘रूदादे-सफ़र’ की डॉ. अर्चना। लेखक भले ही पाठक को याद रहे या न रहे, लेकिन उसके पात्र पाठक को याद रहते हैं तो उन पात्रों के सहारे ही लेखक अमर हो जाता है। अक्सर कोई संस्था जब मुझे कोई सम्मान या पुरस्कार देना चाहती है, तो मैं हमेशा कहता हूँ कि मुझे नहीं, मेरी किसी किताब को दीजिए, पंकज सुबीर का अपना कोई अस्तित्व नहीं है, जो कुछ हैं मेरी किताबें हैं। पंकज सुबीर को सम्मान मिलने से मुझे उतनी प्रसन्नता नहीं होगी, जितनी ‘अकाल में उत्सव’ को या किसी भी किताब को मिलने पर होगी। लेखक का क़द कभी भी इतना बड़ा नहीं होना चाहिए कि, अपनी ही किताबों से ऊँचा हो जाये। मेरी, पंकज सुबीर की कोई पहचान नहीं है, और न होना चाहिए, मेरी किताबों की पहचान होना चाहिए, मेरी कहानियों की पहचान होनी चाहिए। मेरा अपना ऐसा मानना है कि लेखक जैसे-जैसे पुराना होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी किताबों पर उसका परिचय छोटा होता जाना चाहिए। क्योंकि एक समय के बाद उसकी पहचान उसकी किताबों से ही हो जाती है। जैसे मुझे कोई ‘पंकज सुबीर’ के स्थान पर ‘अकाल में उत्सव का लेखक’ कहेगा, तो मुझे अधिक सुख मिलेगा। एक समय हर लेखक के जीवन में ऐसा भी आना चाहिए कि उसकी किताबों पर बस उसका नाम लिख देने से काम हो जाये, कहीं कोई परिचय नहीं देना पड़े। कुछ ऐसा ही विचार मेरा किताबों की भूमिका लिखवाने को लेकर भी है, यदि आपकी किताब में ताक़त है तो आपको कोई ज़रूरत नहीं है आलोचकों से, समीक्षकों से पुस्तक की भूमिका लिखवाने की। पाठक भूमिका नहीं पढ़ता, पाठक किताब पढ़ता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे पाठक के मन में मेरी पहचान ‘अकाल में उत्सव का लेखक’, ‘रूदादे-सफ़र का लेखक’ या ‘चौथमल मास्साब और पूस की रात का लेखक’, के रूप में ही बनी रहे।
प्रश्न- अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताइये। कौन सा मौसम या दिन का कौन सा समय आपकी रचनात्मकता के लिये सबसे अधिक उर्वर साबित हुआ है?
उत्तर- मौसम या दिन का कोई समय तो मेरे लिए विशेष नहीं होता है। मैं जिस जगह बैठ कर काम करता हूँ, मेरा ऑफ़िस, वह एक अँधेरी, बंद गुफ़ा है, जिसके अंदर बैठ कर न तो मौसमों को पता चलता है, न दिन-रात का। हाँ जिन दिनों लिखना शुरू किया था, उन दिनों में मार्च से जुलाई तक का समय मुझे बहुत पसंद था लिखने के लिए। मेरे चारों उपन्यास अलग-अलग मौसमों में लिखे गये हैं। ‘ये वो सहर तो नहीं’ बरसात में लिखा था, ‘अकाल में उत्सव’ बसंत के मौसम में लिखा था, ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ गर्मियों में लिखा, तो ‘रूदादे-सफ़र’ कड़कड़ाती ठंड में लिखा गया था। बात वही है कि मैं जहाँ बैठ कर काम करता हूँ, वहाँ अंदर मौसम आते ही नहीं हैं। मैं होता हूँ और मेरा कम्प्यूटर होता है। हाँ यह ज़रूर है कि कोई कहानी जब तक मुझे अंदर तक बेचैन नहीं कर देती है, तब तक मैं उसे लिखना प्रारंभ नहीं करता हूँ। मेरे लिए मौसम या समय ज़रूरी नहीं होता, ज़रूरी होता है, उस विषय का मेरे अंदर एक छटपटाहट पैदा कर देना। मैं तभी लिखना प्रारंभ करता हूँ। इसीलिए आप देखेंगी कि मेरे उपन्यासों के बीच तीन-चार साल का अंतर होता है। पहले शोध करना, फिर उस शोध को अपने अंदर कहानी के रूप में तैयार करना, फिर उसे अपने ही अंदर बीज देना कि वह अंकुरित हो, जब कहानी मेरे अंदर अँखुआ कर आँखें खोलती है, तभी मैं उसे लिखना शुरू करता हूँ। मैं ऑर्डर पर नहीं लिख सकता, कि एक कहानी किसी संपादक ने माँगी और मैंने ऑर्डर पर लिख कर दे दी। साल में दो या अधिक से अधिक तीन कहानियाँ लिखता हूँ। हाँ इस वर्ष ज़रूर पाँच-छह कहानियाँ लिख दी हैं।
प्रश्न- आप प्रकाशक हैं और खुद लेखक भी। इन दोनों के मध्य कैसा संबंध होना चाहिये। इस पर आपके क्या विचार हैं?
उत्तर- दोनों को इस रिश्ते का ध्यान रखना चाहिए। असल में एक बात प्रकाशकों के बारे में बहुत ग़लत प्रचारित हो चुकी है, कि प्रकाशक बेईमानी करते हैं, झूठ बोलते हैं। इसका कारण यह है कि हर लेखक यह सोच कर चलता है कि उसकी किताब तो ख़ूब बिकी है, लेकिन प्रकाशक ने उसे सही आँकड़े नहीं बताये हैं, सही से प्रमोशन ही नहीं किया। प्रकाशक का कार्य है बेचना, यदि कोई किताब ख़ूब बिक रही होगी तो क्यों वह उस किताब का प्रमोशन नहीं करेगा। शिवना प्रकाशन के प्रकाशक तो हालाँकि शहरयार हैं पर शिवना के साथ काम करते हुए मैंने देखा कि कई स्थापित लेखकों की किताब बिक ही नहीं पाती है, जबकि किसी एकदम नये लेखक की किताब ख़ूब बिक जाती है। एक अत्यंत वरिष्ठ लेखक द्वारा बार-बार माँगे जाने पर मैंने उनकी किताब के ऑन-लाइन सेल्स के आँकड़े सीधे उन वेबसाईट्स से ही लेकर भेजे, उसके बाद उनका कोई कॉल नहीं आया।
आप विश्वास नहीं करेंगी कि मैंने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अपनी दोनों किताबों, सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह तथा राजपाल एंड संस से प्रकाशित कहानी संग्रह को एक बार प्रकाशक को देने के बाद फिर कॉल तक नहीं किया था कि किताब कब आ रही है, कवर कैसा बन रहा है। इनमें से पहली तीन किताबें तो जब हाथ में आ गयीं तब मुझे पता चला कि कवर क्या बना है। मुझे लगता है कि प्रकाशक को किताब बेचनी है, इसलिए वह ज़्यादा अच्छे से सोचेगा किताब के बारे में। मेरे दादाजी कहते थे कि बाल कटवाते समय नाई को, कपड़े सिलवाते समय दर्ज़ी को बस यह बताओ कि आपको क्या चाहिए, उसको सलाह मत दो, उसके काम में हस्तक्षेप मत करो, नहीं तो आपका ही नुक़्सान होगा।
वहीं प्रकाशक को भी यह सोचना चाहिए कि जब कोई लेखक किसी प्रकाशक को कोई किताब देता है, तो वह अपने बच्चे को सौंप रहा होता है। यह देवकी और यशोदा वाला ही मामला है कि जन्म कोई और दे रहा है तथा लालन-पालन कोई दूसरा कर रहा है। मगर लालन-पालन करने से यह नहीं हो जाता कि जन्म देने वाले का कोई अधिकार ही नहीं बचा है। अधिकार तो सबसे ज़्यादा उसी का है। जन्म देने वाले को जो लगाव होता है, वह किसी और को नहीं हो सकता। प्रकाशक को यह बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। अक्सर यह होता है कि प्रकाशक भूल जाता है कि लेखक ने सृजन किया है, उसने प्रसव-पीड़ा को भोगा है। प्रकाशक को थोड़ा संवेदनशील होकर कार्य करना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि वह साबुन-तेल नहीं बेच रहा है, किसी का सृजन बेच रहा है।
हाँ एक बात ज़रूर हिन्दी के लेखकों से कहना चाहता हूँ कि यदि आप हिन्दी के लेखक हैं तो कम से कम भाषा सीख लीजिए। वर्तनी के बारे में आपको जानकारी होनी चाहिए। दो पत्रिकाओं के संपादक के रूप में भी और प्रकाशन से जुड़े होने के रूप में भी, मुझे बहुत दु:ख होता है, जब हिन्दी के लेखकों की रचनाओं में वर्तनी की गंभीर ग़लतियाँ मिलती हैं। उनको ‘में’ तथा ‘मैं’, ‘ओर’ तथा ‘और’ में फ़र्क़ समझ नहीं आता। अर्धविराम, अल्प विराम, तथा पूर्ण विराम कहाँ लगने हैं नहीं पता। अल्प विराम तो कई लेखक लगाते ही नहीं हैं। विस्मयादिबोधक चिह्न, प्रश्न वाचक चिह्न के बारे में कोई जानकारी नहीं हैं। मुझे लगता है कि हिन्दी के लेखक को सबसे पहले हिन्दी भाषा सीखनी चाहिए, इससे पहले की वह लेखन प्रारंभ करे।
प्रश्न- महुआ घटवारिन पर आपको यू.के. कथा सम्मान मिला था और चोपड़े की चुड़ैलें पर हंस कथा सम्मान। एक प्रेम कथा है तो दूसरी आज के दौर का बहुत सार्थक चित्रण है। इन दोनों ही रचनाओं के बारे में कुछ बताइये।
उत्तर- ‘महुआ घटवारिन’ नाम का यह पात्र मेरे दिमाग़ में बहुत बरसों से था। जब से मैंने ‘तीसरी क़सम’ कहानी पढ़ी थी। मुझे लगता था कि उस पात्र के साथ उस कहानी में न्याय नहीं हुआ है। इसके साथ ही एक बात और मेरे दिमाग़ में हमेशा रहती थी कि हम हमेशा प्रेम का अंत विवाह के रूप में चाहते हैं। दो लोग यदि प्रेम में हों तो उनका विवाह हो जाये और फिर वे दोनों जीवन भर साथ रहें। मुझे लगता था कि यह ठीक नहीं है, क्या ज़रूरी है कि हर प्रेम की परिणति विवाह में ही हो। क्या अलग-अलग रह कर उस प्रेम की स्मृतियों को ज़िंदा रखते हुए आगे का जीवन नहीं जिया जा सकता। तो बस महुआ घटवारिन और इस प्रेम की कथा को लिख दिया। उस समय मैं समाचार पत्रों के लिए कहानियाँ लिखता था। इस कहानी को हमारे मध्य प्रदेश के एक बड़े समाचार पत्र में भेजा, जहाँ साहित्य प्रमुखता से प्रकाशित होता था। संपादक का कॉल आया कि कहानी अच्छी है पर थोड़ी छोटी कर दो। मुझे कोई गुंजाइश नहीं दिखाई दी छोटा करने की, तो मैं ने उनको मना कर दिया और कहानी को पत्रिका ‘आधारशिला’ में भेज दिया। कहानी वहाँ छपी और उसे पढ़ कर वरिष्ठ आलोचक श्री भारत भारद्वाज ने ‘हंस’ पत्रिका में आलेख लिखा ‘फिर महुआ घटवारिन’, उसे पढ़ कर स्व. रवीन्द्र कालिया जी ने मुझे कॉल किया, जो ‘नया ज्ञानोदय’ का ‘प्रेम का लोक पक्ष विशेषांक’ निकाल रहे थे। उन्होंने प्रिंट में जाती हुई पत्रिका को रुकवा दिया इस कहानी के लिए। मैंने कहानी भेजी और उन्होंने श्री भारत भारद्वाज की टिप्पणी के साथ उसे प्रकाशित किया। फिर तो इस कहानी को कई पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया। और फिर इस कहानी को श्री तेजेन्द्र शर्मा तथा ज़किया ज़ुबैरी जी ने ‘इंदु शर्मा कथा यू. के. सम्मान’ के लिए चुन कर इसे शिखर पर बैठा दिया। आज जब सोचता हूँ कि तो बहुत रोमांच होता है कि मैं मध्य प्रदेश के एक छोटे से क़स्बे का लेखक, महुआ घटवारिन बिहार के लोक-अंचल में प्रचलित कथा का एक पात्र, और हम दोनों मिल कर पहुँच गये ब्रिटिश संसद में सम्मानित होने। कला की यही तो ताक़त होती है कि वह सीमाओं के पार पहुँच जाती है। एक बात और यहाँ बताना चाहता हूँ कि ‘महुआ घटवारिन’ मेरे लिए इसलिए भी ख़ास है कि इसने मुझे अपने जीवन की पहली विदेश यात्रा का सुख प्रदान किया। जब मैं सम्मान लेने के लिए लंदन गया था, तो वह मेरे जीवन की पहली विदेश यात्रा थी। ‘कथा यू.के.’ की पूरी टीम तेजेन्द्र शर्मा जी, ज़किया ज़ुबैरी जी ने जो मान दिया, जिस स्नेह और अपनेपन से मेरा ध्यान रखा, वह भी मेरे लिए अविस्मरणीय है।
‘चौपड़े की चुड़ैलें’ कहानी का विषय बहुत दिनों से मेरे दिमाग़ में था। मगर कैसे लिखा जाये यह तय नहीं कर पा रहा था। उन दिनों मेरी कहानी ‘दो एकांत’ पर फ़िल्म ‘बियाबान’ बन रही थी। मैं उसकी शूटिंग में था। अपने निर्देशक को मैंने बताया कि मैं एक इस प्रकार की कहानी लिखना चाह रहा हूँ। उन्होंने कहानी सुन कर तुरंत कहा- ‘लिख डालिए, इसके बाद तुरंत उसकी शूटिंग करेंगे।’ वह शूटिंग राजस्थान के ‘मंडावा’ क़स्बे में चल रही थी, जो हवेलियों के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ अक्सर ही शूटिंग चलती रहती हैं। रात को शूटिंग समाप्त होने के बाद मैं कहानी पर काम करता था। वहाँ चारों तरफ़ हवेलियाँ थीं, तो बस वह पूरा वातावरण मेरी कहानी में आता चला गया। कहानी लिखने के बाद ‘हंस’ में भेज दी। संजय सहाय जी का कॉल आया और उन्होंने कुछ सुधार चाहा कहानी में। एक बार, दो बार, तीन बार सुधार के बाद कहानी अंतत: हंस में प्रकाशित हुई। और फिर एक दिन गीताश्री जी का कॉल आया ‘राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान’ की सूचना प्रदान करने के लिए। उस कहानी के बाद यह हो गया कि संजय सहाय जी मेरी हर कहानी पर कम से कम तीन बार तो काम करवाते ही हैं, और परिणाम भी बहुत अच्छा मिलता है। हालाँकि इस कहानी पर फ़िल्म तो नहीं बन पायी, मगर इस कहानी का स्क्रीन-प्ले मैंने लिख दिया था। बाद में फिर एक निर्माता ने वेब-सीरीज़ के लिए मुझसे संपर्क किया, बात आगे भी बढ़ी, लेकिन फिर कोई ठोस परिणाम तक नहीं पहुँची। लेकिन मैं संतुष्ट हूँ कि इस बहाने मेरे पास एक अच्छी कहानी आ गयी।
प्रश्न- क्या सहित्य सिर्फ बड़े शहरों में ही विद्यमान है क्योंकि यह फेस्टिवल, कहानी पाठ, कार्यशालाएँ, सब में बड़े शहरों के कुछ ही चेहरे हर जगह नज़र आते हैं। आप बताएँ कि साहित्य को कैसे समाज से जोड़ा जाए?
उत्तर – बड़े शहरों में साहित्यकार रहते हैं, छोटे शहरों में साहित्य रहता है। आप जिन साहित्य मेलों की बात कर रही हैं, उनमें साहित्य कहाँ होता है, उनमें तो बस साहित्यकार होते हैं। अभी आपने पिछले किसी प्रश्न में यह बात उठायी थी कि साहित्य को अब पाठक नहीं मिल रहे हैं, उस प्रश्न का उत्तर आपके इस उत्तर में है। साहित्यकार अब ‘लोक’ से, ‘जन’ से, ‘जीवन’ से, ‘जीवन-अनुभव’ से, दूर होता जा रहा है। उसके पास अब ‘लोक’ की ताक़त नहीं है, जबकि साहित्य को ‘लोक’ ही ज़िंदा रखता है। कई सदियों तक साहित्य को इसी लोक ने ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ के सहारे ही ज़िंदा रखा है। साहित्य रचने की पहली शर्त होती है कि आप अपने पात्रों के पास जायें। आपके पात्र ‘लोक’ में ही मिलेंगे आपको, यदि आप वहाँ से पात्र नहीं ले रहे हैं, तो आपके पात्र ‘एलियन’ की तरह लगेंगे, किसी दूसरे ग्रह के वासी। हो क्या गया है कि अब साहित्यकार लेखक न रह कर ‘ब्रह्मा’ या ‘क्रिएटर’ हो गये हैं। वे इस दंभ में हैं कि वे रच रहे हैं, तो पात्र को भी रच देंगे। भूल जाते हैं पात्र रचा नहीं जाता, पात्र तो पहले से होता है, आपको बस उसे प्रस्तुत करना होता है। मैं इन साहित्यिक फेस्ट या मेलों को कभी गंभीरता से नहीं लेता, ये केवल तफ़रीह करने के आयोजन होते हैं। इनसे न तो साहित्य का कुछ भला होता है, न साहित्यकार का। किसी शराब की कंपनी द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम में हवाई जहाज़ से आना, महँगे होटल में ठहरना, यह सब सैर-सपाटे का हिस्सा होता है, साहित्य का इससे कोई लेना-देना नहीं है। साहित्य का समाज से जोड़ने के लिए चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, जो समाज का होगा, जो ‘लोक’ का होगा, समाज या ‘लोक’ ख़ुद ही उसे आँखों पर बिठा लेगा। जिसमें जन-जीवन के, समाज का कोई अंश नहीं होगा, समाज को उससे जोड़ने की कोशिश भी करेंगे तो वह कोशिश असफल सिद्ध होगी। लिट-फेस्ट असल में एक मेला है, जहाँ किसी गंभीर बात के बारे में सोचना भी हमारी भूल है। मेले-ठेले होते हैं और बीत जाते हैं, किताबें ज़िंदा रहती हैं।
कुछ अच्छे तथा अपने प्रिय लेखकों को इन मेलों-ठेलों के चक्कर में लेखन से दूर होते देख कर दु:ख होता है। होता क्या है कि आपके पास उतनी ही ऊर्जा होती है, जिसको चाहें तो आप लेखन में लगा दें, चाहे इन मेलों-ठेलों पर व्यर्थ कर दें। लेखक सब कुछ कर रहा है, लिट-फेस्ट में जा रहा है, कार्यशालाओं में जा रहा है, समारोहों में जा रहा है, बस लेखन नहीं कर रहा है। भूल रहा है कि यहाँ उसे बुलाया ही इसलिए जा रहा है कि वह लेखक है। अपने कई प्रिय लेखकों की कोई नयी कहानी मैंने पिछले तीन-चार साल में नहीं पढ़ी, जबकि उनको इन कार्यक्रमों में बराबर देख रहा हूँ। कला की विधाएँ बैंक नहीं होती हैं, कि जहाँ आपने कमा कर कुछ जमा कर दिया और बाद में बस उसके ब्याज पर बाक़ी का जीवन काट दिया जाये। यहाँ पानी पीने के लिए रोज़ ही कुआँ खोदना पड़ता है।
प्रश्न- आप निजी जीवन में बहुत सक्रिय रहते हैं। न केवल पारिवारिक बल्कि अन्य संबंधों के निर्वहन में लोग आपकी मिसाल देते हैं। लेखक पंकज सुबीर कैसे इस सक्रियता से सामंजस्य बिठाते हैं?
उत्तर- हम सबको एक प्राथमिकता के हिसाब से काम करना चाहिए। सबसे बड़ी समस्या प्राथमिकता तय करने में ही होती है। यदि आपने प्राथमिकताएँ तय नहीं की हैं, तो आपको हमेशा परेशानी रहेगी। परिवार मेरा दायित्व है, मेरी ताक़त है, मेरे मित्र मेरे शुभचिंतक मेरी शक्ति का एक विस्तारित भाग हैं। इसलिए उन सबका ध्यान रखना मेरा कर्त्तव्य है। कोई भी सफलता अकेले की नहीं होती, उसके पीछे कई लोग होते हैं। क्या लेखक के रूप में मेरी अब तक की जो भी सफलता है, वह बस मेरी ही है ? नहीं उसके पीछे बहुत से लोग हैं, मेरा परिवार, मेरे मित्र, मेरे ऑफिस के बच्चे, आप जैसे साथी लेखक, जो अब साथी लेखक नहीं मेरा परिवार हो चुके हैं। मैं जहाँ भी हूँ उसमें ये सब शामिल हैं। इसलिए मुझे इन सबका ध्यान तो रखना ही होगा। जीवन में हमें दो प्रकार के रिश्ते मिलते हैं, एक ख़ून के रिश्ते और दूसरे प्रेम के रिश्ते। जीवन में इन दोनों का होना बहुत ज़रूरी है। ख़ून के रिश्ते तो आपके जन्म के साथ ही तय हो जाते हैं, लेकिन प्रेम के रिश्ते आपका जीवन भर अपने लिए कमाने पड़ते हैं। बहुत ग़रीब होते हैं वे लोग जिनके जीवन में बस ख़ून के ही रिश्ते होते हैं, प्रेम का कोई रिश्ता नहीं होता है। आप जिस सामंजस्य की बात कर रही हैं, वह सामंजस्य नहीं दायित्व है मेरा। दायित्व के लिए समय निकालना ही पड़ता है। मेरी सक्रियता उन रिश्तों से प्राप्त ताक़त का ही तो परिणाम है। ये रिश्ते मेरी जड़ें हैं। मैं आज ऊपर खिल रहे सफलता के फूलों में खो कर जड़ों को पानी देना बंद कर दूँ, तो ये फूल और कितने दिनों तक खिल सकेंगे? मैं रिश्तों को सींचते रहने में विश्वास रखता हूँ।
प्रश्न- ‘रूदादे-सफ़र’ उपन्यास बहुत चर्चित हो रहा है। आप हर बार अपनी ही लीक तोड़कर कोई रचना अपने पाठकों के लिये लेकर आते हैं। इस बार भविष्य के गर्भ में कौन सा मोती छिपा है? मतलब नया क्या लेकर आ रहे हैं आपके पाठकों के लिये?
उत्तर- इस साल पुस्तक मेले में तो एक कहानी संग्रह आ रहा है। मगर उसके बाद दो-तीन विषय हैं, जिन पर उपन्यास को लेकर काम करना है। लगभग दस साल पहले स्व. सुशील सिद्धार्थ ने मुझसे एक व्यंग्य उपन्यास किसी प्रकाशन के लिए लिख कर देने को कहा था। वह उपन्यास लगभग तीस-चालीस पेजों तक लिखा भी जा चुका था, मगर उसके बाद किसी कारण से रुक गया। अभी भी वही उतना ही लिखा हुआ रखा है मेरे पास। इस साल कोशिश रहेगी कि पहले उस उपन्यास को पूरा किया जाये। उसका पूरा ख़ाका मेरे दिमाग़ में है, बस उसे लिखना ही है। इसके अलावा एक किताब और लाने की इच्छा है, जो संस्मरण की किताब होगी। आत्मकथा तो नहीं लेकिन बस कुछ संस्मरण, जो बचपन के समय से लेकर युवावस्था तक की कहानी कहेंगे। इस साल मैंने सोचा है कि संस्मरण और व्यंग्य उपन्यास पर काम करना है। लेकिन वह कहते हैं न कि अपना सोचा और है, रब का सोचा और। तो मैं हरिवंश राय बच्चन की उस बात पर विश्वास करता हूँ कि अपने मन का हो जाये तो अच्छा और जो नहीं हो तो और अच्छा।
प्रश्न- साल का अंत हो चुका है और लगातार नई सूचियाँ जारी हो रही हैं। दस कविता संग्रह, दस कहानी संग्रह, दस उपन्यास, दस विशेष किताबें, मतलब हर आलोचक अपनी सूची प्रस्तुत कर रहा है। साहित्य की इन तथाकथित बेस्ट सेलर्स सूचियों के बारे में आपकी क्या राय है?
उत्तर- मैं इसे बुरा नहीं मानता। ये बेस्ट सेलर सूचियाँ तो नहीं हैं, बस किसी व्यक्ति की अपनी पसंद की सूची है। इस सूची में ज़ाहिर सी बात है कि किताबों के साथ लेखक कौन है यह भी देखा तो जायेगा ही। कोई भी व्यक्ति जब सूची बनायेगा तो उसमें मित्र-लेखकों की किताबें लेगा और इससे किसी को बुरा भी नहीं मानना चाहिए। हिन्दी-आलोचना में तो बरसों-बरस से ‘मुँह देख कर तिलक करने’ की रवायत चल रही है। कोई भी आलोचक किसी भी आलेख में, साक्षात्कार में बहुत सोच-समझ कर ही लेखकों के नाम लेता रहा है। उन लेखकों के जो उसकी ‘गुड-लिस्ट’ में होते हैं। मैंने ऊपर किसी प्रश्न के उत्तर में कहा भी है कि एक पीढ़ी के लेखकों ने केवल आलोचकों को प्रसन्न करने के लिए लिखा। और बदले में आलोचकों ने भी उनके नामों को गाहे-बगाहे, ले-लेकर उनको उपकृत करके रखा। अब फ़र्क़ बस इतना है कि अब लेखक ही इस प्रकार की सूचियाँ बना रहे हैं। जब आलोचक यही काम करते थे, तक किसी ने कुछ नहीं कहा, अब लेखक कर रहे हैं, तो आलोचक को भी बुरा नहीं मानना चाहिए। एक ज़माने में कहा जाता था- ‘हिन्दी लेखकों की दो-तीन पीढ़ियाँ, दो-तीन आलोचकों को प्रसन्न रखने में ही ज़ाया हो गयीं।’ मेरे कुछ मित्र जब साल की अपनी पसंदीदा सूची बनाते हैं, तो मेरी किताबों को भी रखते हैं उसमें, मैं भी जानता हूँ कि इसमें मित्रता का भाव ही अधिक है। किसी आलोचक के तलवे चाट कर उसकी सूची में स्थान पाने से कहीं बेहतर है किसी मित्र की सूची में मित्रता के कारण स्थान पाना। आख़िरकार मित्रता की भी तो हमें आवश्यकता होती ही है।

4 टिप्पणी

  1. पंकज सुबीर पंकज सुबीर क्यों हैं क्यों आज साहित्य जगत में उनके नाम का डंका बज रहा है इसके उत्तर उनके इस साक्षात्कार में खोजें जा सकते हैं। पंकज सच्चे अच्छे और साहसिक लेखक हैं और वहीं लिखते हैं जो उनका मन कहता और मानता है

  2. बहुत ही उपयोगी जानकारी देता साक्षात्कार।सटीक और समीचीन प्रश्नों का समावेश।प्रकाशक और लेखक वाले विचार पुंज में कहीं व्यवहारिकता का पुट कम है बस लेखक का ही चश्मा है। पहले तो प्रकाशक अब केवल अपना लाभ ही लाभ देखता है। दूसरे कृष्ण देवकी यशोदा का समीकरण बेहतर विपणन के हाथ में होता है,मीडिया या समीक्षा और चर्चा! इसके सहोदर हैं।प्रकाशन जगत में आज भी चांदी के पदपात्र से ही गति होती है और इसके लिए प्रकाशक और थोक खरीदार के मानव घटक जिम्मेंदार हैं। बड़ी बड़ी सरकारी खरीद संस्थान और योजनाएं संपर्क चाशनी और नेटवर्क की मोहताज़ हैं।
    मेरा अनुभव निजी और सरकारी प्रकाशन संस्थानों के साथ साथ विदेशी और देशी प्रकाशकों के सानिध्य का रहा है।इसी आधार पर यह टिप्पणी है।
    रही बात लेखक की भाषा जानने की ।तो लेखक की पुस्तक अगर प्रकाशक ने स्वीकार की है तो उसके पास प्रूफ रीडर्स और संपादक तो होते ही हैं।अतः लेखक से प्रूफ रीडर और संपादक की भूमिका की अपेक्षा !?
    तिस पर भी पंकज सुबीर जी और नीलिमा जी को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।

  3. बहुत ही सुन्दर , सुगठित और सहायता से परिपूर्ण साक्षात्कार ,नीलिमा दी और पंकज सुबीर जी आप दोनों को साधुवाद

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