गत डेढ़ दशक से लेखन में सक्रिय चर्चित लेखिका अंजू शर्मा की अबतक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपको इला त्रिवेणी सम्मान, राजीव गांधी एक्सलेंसी अवार्ड, राजेंद्र बोहरा सम्मान, स्त्री शक्ति सम्मान आदि कई सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है। अंजू जी से पुरवाई की उपसंपादक नीलिमा शर्मा ने बातचीत की है जो कि हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत है:
प्रश्न – आपअपनेबारेमेंबताएं? कॉरपोरेटजगतमेंकार्यकरतेहुएआपकोसाहित्यमेंरुचिकबकैसेउत्पन्नहुई? किनलेखकोंसेप्रेरणामिली?
उत्तर – मेरा जन्म निम्न मध्यम वर्ग में हुआ। संघर्षों से भरा जीवन था। सरकारी स्कूल में पढ़ाई हुई जहाँ तीसरी कक्षा से ही मुझे वजीफ़े यानी स्कोलरशिप की पढ़ाई के लिये खूब पढ़ना पड़ता था। मेरी क्लास टीचर न केवल पढ़ने के लिये लाइब्रेरी से किताबें देतीं बल्कि जनरल नॉलेज दुरुस्त करने के लिये अख़बार आदि पढ़ने पर भी खूब जोर देती थीं। मोहल्ला संस्कृति थी तो आसपास के घरों में मुझे कई अख़बार, पत्रिकाएँ सहज सुलभ थीं। पड़ोस के एक सम्पन्न घर में एक शिक्षित और अभिरूचि-सम्पन्न स्त्री के आने से ये हुआ कि उस कमसिनी के दिनों से ही धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सोवियत भूमि, सोवियत नारी जैसी पत्रिकाएँ पढ़ने को मिलती रहीं तो मेरा रुझान साहित्य की ओर होना स्वाभाविक था। पढ़ने की लत लग चुकी थी तो छठी कक्षा से लाइब्रेरी जाना शुरू हो गया।लेकिन दसवीं क्लास के बाद एक वक़्त ऐसा आया कि मैंने कॉमर्स विषय चुना और मुझे मुझे हिंदी के स्थान पर अंग्रेज़ी को चुनना पड़ा तो एक गिल्ट मन में घर कर गया। अगले कुछ साल मैंने दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से खूब हिंदी साहित्य पढ़ा और लगातार कविताएँ भी लिखती रही। डायरी में हिंदी लिखकर मैं खुद को अहसास कराती थी मैंने हिंदी को छोड़ा नहीं। बाद में वर्षों तक कॉरपोरेट की दुनिया में मेरे कामकाज की भाषा भले ही अंग्रेज़ी रही पर हिंदी साहित्य मेरे लिए वह शरणस्थल बना रहा जो मुझे ग्लानि से मुक्त रखे हुए था। हालाँकि उस दौर में मैंने विदेशी साहित्य भी खूब पढ़ा जिसका माध्यम अंग्रेज़ी थी। 18 की उम्र तक मैं ढेर सारे भारतीय और विश्व के क्लासिक साहित्य को लगभग चाट चुकी थी। पढ़ा तो खूब पर प्रेमचंद, शरतचन्द्र, निर्मल वर्मा, आचार्य चतुरसेन, रेणु, प्रसाद, बच्चन, निराला, मैक्सिम गोर्की, लियो तोलस्तोय, ओ हेनरी, कुप्रिन, अंतोन चेखव, जेन ऑस्टिन, शेक्सपियर इन सबको अधिक पढ़ा। यही सब प्रेरणास्रोत भी रहे।
प्रश्न – आपपहलेकविरूपमेंसाहित्यिकजगतमेंआईथीआपकागद्यलेखनकीतरफरुझानकैसेकबहुआ?
उत्तर – मैंने पहली कविता तेरह साल की उम्र में लिखी थी लेकिन उसी साल मुझे बेस्ट कहानी का पुरस्कार भी मिला था स्कूल की एक प्रतियोगिता में। जितना भी साहित्य मैंने स्कूली दौर से पढ़ा उसमें नब्बे प्रतिशत से भी अधिक गद्य ही था। यूँ भी किसी भी कवि की कसौटी होता है उसका गद्य तो मेरा रुझानपाठक के तौर पर तो गद्य लेखन की ओरतो अधिक था ही, साथ ही मैं कविताओं के साथ लेख, डायरी, संस्मरण, समीक्षा आदि शुरू से लिखती ही रही हूँ। हाँ, मूलतः कवि हूँ और कवि के रूप में पुख़्ता पहचान मिल चुकी थी, पहली दो किताबें भी कविता की रहीं तो लोगों को लगा मैं देर से गद्य की ओर आई।
प्रश्न – आपनेकहींकहाथाकिआपकेपरिवारमेंकहींकोईलेखननहींजुड़ाहैतोआपकारुझानलेखनकीतरफकैसेहुआ?कविताओंसेशुरूसफरकहानीउपन्याससेलेकरअबसमीक्षाओंतकआनपहुँचाहै।आपअपनीइसयात्राकोकैसेदेखतीहै?
उत्तर – जैसा कि मैंने ऊपर बताया कि कैसे मैं बतौर पाठक साहित्य की दुनिया से जुड़ी और स्कूल में ही लेखन शुरू हुआ लेकिन लेखन को गम्भीरता से लेने का समय कोई 15 साल पहले शुरू हुआ। ब्लॉगिंग का दौर था तो मैं लगातार सभी प्रमुख ब्लॉग्स और बाद में पत्रिकाओं में छपती रही। क्लासिक तो खूब पढ़ा ही पर इस दूसरे दौर में मैंने अपने वरिष्ठों और समकालीनों को पढ़कर समकालीन लेखन की प्रवृत्तियों को देखा समझा। मेरा कोई साहित्यिक गुरू नहीं, अध्ययन ही मेरा गुरु है लेकिन इतना जरूर है कि मेरे साहित्यिक मित्र जरूर मुझे घोर आलस्य की दुनिया से बाहर खींच लाने के लिये लगभग उद्दीपक का काम करते हैं, लगातार प्रेरित करते हैं और प्रासंगिक भी बनाए रखते हैं। ये मेरी खुशकिस्मती कही जा सकती है कि लेखन की दुनिया में बाहरी होने के बाद भी मेरे पाठकों, संपादकों और प्रकाशकों से मुझे भरपूर स्नेह मिला है। मैं किसी रेस का हिस्सा नहीं रही लेकिन मनभर अच्छा पढ़ना और कुछ अच्छा लिख पाने की कामना रखना बस यही मेरी इस यात्रा के पाथेय हैं और यही उद्देश्य भी।
प्रश्न – आपकीकविताचालीससालाऔरतेंबहुतवायरलहुईथीउसीतरहकीकविताओंकीबाढ़आगईथी।आपइसपरक्याकहनाचाहतीहै।
उत्तर – जी हाँ, दस साल पहले इस कविता ने मुझे बहुत ख़्याति दी। साथ ही ये सवाल भी उठे कि चालीस की उम्र ही क्यों… तीस, पचास या साठ क्यों नहीं। दरअसल मैंने जब ये कविता लिखी तो न केवल मैं बल्कि मैंने गौर किया कि मेरे आसपास की ज्यादातर महिलाएँ इसी ‘चालीस’ के जादुई आंकड़े के इस पार या उस पार खड़ी वे महिलाएँ हैं जिनकी प्रायोरिटी अभी हाल तक घर, नौकरी, परिवार, पति, बच्चे थे। चालीस की उम्र वह पड़ाव भावनात्मक और शारीरिक दोनों तौर पर ठहराव से भरा वयः पड़ाव होता है जब हर महिला रुककर सोचती है कि वह स्वयं कहाँ है? मेरे इर्द गिर्द भी ऐसी ही महिलाएँ थीं जो ठीक इसी वय में फेसबुक पर सक्रिय हुईं और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए इस प्लेटफॉर्म का भरपूर उपयोग करने लगीं। उनके लिए ये फेज़ एक रीइनकारनेशन का फेज़ था। एक ऐसा पड़ाव जहाँ वेअपनी पहचान खुद अपने रूप में करना सीख रही थीं।
मैं आपको बताना चाहूँगी कि इस कविता का मूल शीर्षक है, फेसबुक पर चालीस साला औरतें। और इस कविता का वायरल होना भी दरअसल इसकी विषयवस्तु से जुड़ा हुआ था क्योंकि स्त्रियों को लगा कि अरे! ये तो मेरी कविता है और पुरुषों को लगा कि हाँ! यही तो नए दौर की नई स्त्री है। जहाँ तक ऐसी कविताओं की बाढ़ आने की बात है तो मैं कहूँगी ये भी अच्छा ही हुआ क्योंकि जिस उम्र पर स्त्री को चुका हुआ मानकर अध्यात्म की ओर बढ़ जाने की अपेक्षा की जाती थी, वही उपेक्षित तथाकथित रूप से अधेड़ घोषित वय, आज की स्त्री के जीवन का प्रस्थान बिंदु तय हुई, जहाँ हर जिम्मेदारी को पूरी प्रतिबद्धता से निभाने के बाद वह आटे में नमक जितनी खुदगर्ज़ी को चुन रही थी। अपने ‘मी टाइम’ की जरूरत को महसूस कर रही थी, बिना किसी ग्लानि या अपराधबोध के।
प्रश्न – आपअपनेपात्रोंकोकैसेचुनतीहैं?
उत्तर – अपने ही जीवनानुभवों से। जैसे गली नम्बर दो का भूपी, भरोसा अभी कायम है के महेश भाई, आउटडेटिड के दादाजी, मतलब काफी किरदार हैं जिन्हें बहुत करीब से देखा जाना है। कुछेक किरदार किसी घटना से भी अस्तित्व में आये जैसे मारबो से सुगवा का रमुआ। मेरे सामने घटी महज कुछ सेकेंड्स की एक हृदय विदारक घटना की परिणति इस कहानी के रूप में हुई। हाँ कुछ किरदार एकदम काल्पनिक हैं जैसे नेमप्लेट की स्वरा और रेवा, हिवड़ो अगन संजोय की गुलाबो, समयरेखा की अवनी, बन्द खिड़की खुल गई की लड़की, राधिका रानी का राधे, प्रीत करे दुःख होय के महेसा और कुसुमा और रात भी नींद भी कहानी के दोनों पात्र। लेकिन मैं आपको बताना चाहूँगी कि अमूमन कल्पना भी जीवन से ही उपजती है। कहीं न कहीं अवचेतन में बसी कहीं कोई एक छवि या कई छवियों से मिलकर ही कल्पना साकार रूप लेती है और पात्र जन्म लेते हैं। कम से कम मुझे यही लगता है। बाकी मेरे पात्र कैसा व्यवहार करेंगे इसके लिये मैं उन्हें खुली छूट देना पसंद करती हूँ।
प्रश्न – स्त्रीलेखन, दलितलेखन, प्रवासीलेखनक्यालेखनकोखांचोंमेंबांटनासहीहै?
उत्तर – नहीं! एकदम सही नहीं है लेखन को किसी भी तरह के खाँचे में बाँटना लेकिन किसी खाँचे की या आरक्षणकी जरूरत आखिर किसे पड़ती है, उसी को न जो अपने हक़ की लड़ाई में कहीं पीछे छूट गया है? शायद इसीलिए ये श्रेणियाँ अस्तित्व में आयीं कि वे भी अपना वांछित हिस्सा पा सकें। तो भी मैं कहना चाहूँगी कि लेखन के मूल्यांकन का मुख्य आधार केवल लेखन ही होना चाहिए।
प्रश्न – अंजूशर्माकीइमेजकुछलोगोंकेलिएमददगारमित्रतोकुछलोगोंकेलिएतीखीमहिलावालीहै।सोशलमीडियापरइमेजकाबननाबिगड़नाकैसेहोताहै
उत्तर – सोशल मिडिया पर इमेज कौन तय करता है, नीलिमा जी? वही न जिन्हें आप खुश नहीं कर पाए। मेरे पाठक या फॉलोवर बड़ी संख्या में जरूर हैं लेकिन जहाँ तक दोस्तों का सवाल है, आप जानती हैं मेरा दायरा बहुत छोटा है। व्यक्तित्व का आधार किसी भी व्यक्ति का अपना जीवन होता है। सोशल मीडिया पर भी जहाँ अनजान व्यक्तियों की पहचान को लेकर सदा प्रश्नचिन्ह बना रहता है, पूर्व में हुए कुछ अप्रिय अनुभवों के कारण मैं अपने दायरे को थोड़ा संकुचित रखती हूँ। हाँ! अपने दोस्तों के साथ मैं एक खुली किताब के तौर पर रहना पसंद करती हूँ लेकिन सब आपके दोस्त नहीं हो सकते। मदद करना मेरा स्वभाव है लेकिन मैं इसे मदद नहीं आपसी व्यवहार कहना पसंद करूँगी। जो दोतरफ़ा होता है। सोशल मिडिया ने मुझे आप लोगों जैसे कई प्यारे दोस्त दिए हैं जो मेरे लिए भी हमेशा उसी तरह तैयार रहते हैं जैसे मैं उनके लिए लेकिन सोशल मिडिया पर चाहे तो भी न तो आप सबको खुश कर सकते हैं और न ही सबसे संवाद कर सकते हैं। फिर मैं बहुत वर्षों तक बहुत ओपीनियनेटिव रही हूँ तो इन तमाम बातों से मेरी क्या इमेज बनती है ये तो लोग तय करते हैं। जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे करीब से जानने वाले सभी लोग जानते हैं कि मैं मूलतः विनम्र और अपने दायरे में मस्त रहने वाली एक खुशबाज़ स्त्री हूँ जो संयोग से लेखिका भी बन गई। जिसकी प्रियॉरिटी आज भी उसका अपना घर-परिवार है जिससे बचे वक़्त का भरपूर सदुपयोग करना मेरी मजबूरी भी है और अब आदत भी।
प्रश्न – वरिष्ठलेखकनवोदितलेखकोंकीपुस्तकनहींपढ़ते।यहएकआमतौरपरआरोपलगायाजाताहै।क्यावरिष्ठताकनिष्ठताकोनकारकरप्राप्तहोतीहै ?
उत्तर – ये बात पूरी गलत भी नहीं तो पूरा सच भी नहीं। इसे अर्द्धसत्य इसलिये कहना चाहूँगी कि मुझे अपने कई साहित्यिक वरिष्ठों से भरपूर सराहना मिली है। मैं नाम लिये बिना कहूँगी कि ऐसा बहुत बार हुआ कि किसी कविता या कहानी को पढ़कर मुझे किसी वरिष्ठ ने फोन कर शाबाशी दी और मैंने भाव विभोर होकर न केवल सुना बल्कि निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा भी संजोयी। बाकी हाँ, नकार का भी अपना रोल है और बड़ा रोल है क्योंकि शाबाशी देने वाले सही जगह पर उल्लेख कम करते हैं। इसके पीछे नेटवर्किंग काम करती है। ये भी सच है कि नेटवर्किंग के मामले में मैं स्वयं बहुत आलसी और संकोची हूँ तो इसका खामियाज़ा भी भुगतती हूँ क्योंकि मैं उस संवाद को आगे नहीं बढ़ा पाती पर इसके लिये कोई ख़ास मलाल नहीं है। मैं जैसा जीवन जीना चाहती हूँ उसमें कोई बदलाव मुझे सहज स्वीकार्य भी नहीं।
प्रश्न – आपकीकहानी ‘मुख़्तसरसीबातहै’ डॉकुसुमटिक्कूविशिष्टकहानीपुरस्कारसेसम्मानितकियागयाथा।आपकीदृष्टिमेंउसकहानीकीक्याविशेषताथी।
उत्तर – जी हाँ! ये कहानी 2020 में पुरस्कृत हुई थी। मेरे दिल के बेहद करीब है यह कहानी। लगभग 5 साल लगे थे इस कहानी को लिखने में। ये एक लंबी कहानी है। 2014 में लिखी एक कविता थी मेरी- असफ़ल प्रेम के बाद। बस उसी कविता को इस कहानी का मूल कह सकते हैं। महानगर में रहने वाले एक पति पत्नी के बीच व्यस्त जीवन से बनी खाई और तलाक़ के कगार पर खड़े अपने टूटते हुए रिश्ते को बचाने की उनकी जद्दोजहद इस कहानी का विषय है। दोनों इस रिश्ते को बचाने के लिये एक यात्रा पर निकलते हैं और यहाँ मैंने शिल्प में एक अलग प्रयोग किया। मतलब एक अंश फ्लैश बैक में चलता है तो अगला एक अंश वर्तमान की यात्रा में। इसी तरह कहानी चलती है। इतना समय इसलिये लगा कि कहानी को मैं जो अंत देना चाहती थी वह कुछ तय नहीं हो पा रहा था पर इसी बीच कहानी की भाषा, बिम्ब पर खूब श्रम होता रहा। सैंकड़ों कहानियों में इसका विशिष्ट कहानी के रूप में चुना जाना वर्षों के उस श्रम के प्रतिदान जैसा लगा मुझे जबकि एक बड़ी पत्रिका में भेजी थी तो मुझे काफ़ी समय तक कोई उत्तर नहीं मिला था। पुरस्कार मिला तो मुझे लगा जैसे लिखना सार्थक हो गया। बाद में यह कहानी शैलेन्द्र सागर जी ने कथाक्रम में भी छापी थी। तब भी इसे पाठकों का भरपूर प्यार मिला।
प्रश्न – आपकेप्रथमसेतुपाण्डुलिपिपुरस्कारसेसंस्तुतउपन्यास ‘ओरीकठपुतली’ मेंएकअवैधकॉलोनीमेंआकरबसनेवालेकलाकारोंकीकहानीहै।भारतकलाकारोंकादेशहैयहप्रतिभाएंकिसीफाइवस्टारपॉशएरियासेनहींआतीं।आपकेउपन्यासमेंवहांकेलोगोंकेजीवनकाबेहतरीनवर्णनहै।उपन्यासपरचर्चाभीहोरहीहै।आपकोइसउपन्यासकीप्रेरणाकहाँसेमिली? इसकीप्रमाणिकताकेलियेक्याकोईख़ासरिसर्चवर्ककियाआपने?
उत्तर – शुक्रिया नीलिमा जी। देखा जाए तो ये मेरा पहला उपन्यास है क्योंकि 2017 में इसे शुरू किया था। इस उपन्यास की प्रेरणा बनी वह घटना जो एक समय खबरों के माध्यम से मुझ तक पहुँची यानी इस कॉलोनी का डेमोलिश किया जाना। मैंने इस कॉलोनी के जीवन को बहुत करीब से देखा हुआ था। तरह तरह के कलाकारों से मिलकर बनी इस अनोखी कॉलोनी जिसे कठपुतली कॉलोनी पुकारा जाता था और जिसे वहाँ के लोग एशिया का सबसे बड़ा स्लम कहते थे, डीडीए और भूमाफिया की मिली जुली साज़िश के चलते उसके यूँ धूल में मिला दिए जाने ने मेरे मन पर गहरा असर किया। मैं छटपटाते हुए भी कुछ न कर सकी तो तय किया मैं इसकी कहानी लोगों तक लेकर जाऊँगी और फिर मेरा शोध शुरू हुए। लगभग छह महीने तक मैंने इससे जुड़ी हर छोटी से छोटी बात को जुटाया। मीडिया पर सारी खबरें, फिल्में, डॉक्यूमेंट्रीज, केस हिस्ट्री सब को खंगालकर एक फ़ाइल बनाई। कॉलोनी और उसका जीवन मेरा करीब से देखा भाला था तो उन तमाम विजुअल्स और वहाँ सक्रिय संस्थाओं को ध्यान में रखकर मैंने अपने पात्र रचे। शायद इसलिये लोगों को इसकी कहानी प्रामाणिक लगती है कि मेरे पात्र भले ही काल्पनिक हैं पर सारे आंकड़े और घटनाक्रम वही हैं जो घटित हुआ और इतिहास में दर्ज है। कहानी की सूत्रधार मंदिरा एक पत्रकार है कहीं न कहीं उसकी दृष्टि और परसेप्शन्स पर मेरी अपनी छाप है जिसे कई लोगों ने बाद में जाहिर भी किया और मैंने स्वीकार भी किया।
बहुत बढ़ियां साक्षात्कार। अंजू ने बड़ी ही साफगोई से सभी प्रश्न के उत्तर दिए हैं।
नीलिमा जी के बहुत शानदार प्रश्न और अंजू जी के ईमानदार उत्तर , बधाई आप दोनो को
बहुत बहुत धन्यवाद वन्दना जी