दिव्या विजय हिंदी की चर्चित युवा कहानीकार हैं। हंस, नया ज्ञानोदय, कथादेश आदि हिंदी की सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं। दो कहानी संग्रह ‘अलगोज़े की धुन पर’ और ‘सगबग मन’ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से ‘अलगोज़े की धुन पर’ को हाल ही में स्पंदन सम्मान मिलने की घोषणा हुई है। इस मौके पर पुरवाई के लिए युवा समीक्षक पीयूष द्विवेदी ने दिव्या विजय से उनकी कहानियों के कथ्य, रचना-प्रक्रिया, भाषा सहित उनमें मौजूद स्त्री-विमर्श के विविध पहलुओं पर बातचीत की है।
सवाल – नमस्कार दिव्या, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। आपके कहानी-संग्रह ‘अलगोज़े की धुन पर’ को हाल ही में ‘स्पंदन’ सम्मान मिलने की घोषणा हुई है, उसके लिए बधाई। इस संग्रह में प्रेम कहानियाँ ही अधिक हैं या यूँ कहें कि हर कहानी के केंद्र में प्रेम है। कैसे तैयार हुआ ये संग्रह?
दिव्या – धन्यवाद पीयूष। छपने के पश्चात ‘अलगोज़े की धुन पर’ को पहला सम्मान मिला है।
जब यह कहानियाँ लिखी गयीं तब छपने के उद्देश्य से बिल्कुल नहीं लिखी गयीं थीं। इन्हें लिखना था क्योंकि मुझे मुक्त होना था। कोई गहन संवेदना थी जो हृदय बींधे रहती थी। अलग-अलग समय पर लिखी गयीं ये कहानियाँ जीवन को जिए चले जाने के लिए लिखी गयीं थीं। दरहक़ीक़त कुछ पल इतने चमकीले होते हैं कि बरसों साथ रहने पर भी उनकी चमक फीकी नहीं पड़ती और कुछ क्षणों की निर्जनता जीवन-भर व्याकुल करती है। ऐसे ही क्षणों का लेखा-जोखा हैं ये कहानियाँ। जो बातें यूँ ही आँखों के आगे से गुज़र जातीं वही इन कहानियों को लिखते वक़्त यूँ साकार हो उठतीं ज्यों वे घटी ही मेरी कहानी का हिस्सा होने के लिए थीं। उन्हीं से कल्पना की शाखें निकलकर कहानी का आगा-पीछा बुनतीं। एक शब्द, एक स्पर्श, एक लकीर-भर तो बहुत है कहानी को जन्म देने के लिए।
जंगली फूल की तरह उग आये प्रेम की तरह हैं इस संग्रह की कहानियाँ और इनके पात्र। संग्रह में दस कहानियाँ हैं जिनमें प्रेम केंद्रीय तत्त्व है परंतु तब भी जैसे वृत्त के केंद्र से परिधि तक दस रेखाएँ खींची जायें तो वे केंद्र पर मिलती ज़रूर हैं पर परिधि पर उन रेखाओं के बीच दूरी और अंतर देखा जा सकता है, वैसे ही ये सभी कहानियाँ प्रेम पर आधारित होते हुए भी भिन्न आस्वाद लिए हैं।
सवाल – इसी संग्रह की एक कहानी मुझे याद आती है – प्रेम पथ ऐसो कठिन। इसमें एक स्त्री चार पुरुषों के प्रति आसक्त होती है और प्रेम में इसे ठीक भी मानती है। ऐसी कहानी लिखने का का ख्याल कैसे आया? और क्या आप कहानी की नायिका से सहमत हैं?
दिव्या – प्रेम एक ऐसा विषय है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। मनुष्य के मन की संरचना सीधी-सरल नहीं कि तय परिस्थितियों में वह एक-सा व्यवहार करे। एक से अधिक लोगों से प्रेम होने को आज की पीढ़ी सामान्य मानती है। बहुत से लोगों के एक से अधिक पार्टनर्स हैं भी किंतु क्या सभी से प्रेम है? अथवा प्रेम है भी या नहीं? यह जानना दुष्कर है। सम्बन्धों में होना तथा प्रेम में होना दो अलग बातें हैं। इसको कैसे विभाजित करेंगे, वह कौन सा बिंदु है जहाँ उँगली रख देने पर दोनों का अंतर मालूम होगा यह जानना संभवतः असम्भव है। प्रेम किसी अन्य व्यक्ति से करने पर भी हम स्वयं की खोज में रहते हैं। यह खोज कहाँ तक ले जाए क्या मालूम! विज्ञान की दृष्टि में यह मात्र कुछ केमिकल्ज़ और हॉर्मोन्स का खेल-भर है पर काश प्रेम को परखने का कोई फ़ॉर्मूला भी हमें विज्ञान ने दिया होता।
मेरी एक और कहानी ‘परवर्ट’ में पुरुष कई स्त्रियों से प्रेम करता है हालाँकि कथ्य के तौर परवर्ट से यह कहानी बिल्कुल अलग है। पुरुष बहुप्रेम करे तो चलता है किंतु स्त्री भी करे तो यह प्रश्न क्यों उठता है? यही प्रश्न कहानी का मूल कथ्य है। बुद्धिलब्धि जाँचने का तरीक़ा तो मौजूद है पर प्रेमलब्धि को कैसे मापा जा सकता है, कहानी के अन्त में ऐसी परिस्थिति को ही रचा गया है। लड़की अपने बहुप्रेम के कारण कहीं भी उच्छृंखल नहीं हैं, किसी नैतिकता-अनैतिकता की पसोपेश में नहीं हैं। कहीं भी उसमें अपराध-बोध नहीं पनपता। वह प्रेम में स्वच्छंदता नहीं अपितु स्वतंत्रता की हामी है। वह स्वतंत्रता जो दोनों तरफ़ बरती जाये, प्रेम बन्धन न हो और इस बात में मैं नायिका से सहमत हूँ।

दिव्या विजय का पीयुष द्विवेदी द्वारा लिया गया साक्षात्कार बगुत अच्छा लगा। दिव्या की इस बात से में पूर्णत: सहमत हूँ कि नारी स्वातंत्र्य का अर्थ पुरुष से प्रति द्वंद्विता नहीं है। दिव्याजी ने अपनी लेखन प्रक्रिया के माध्केयाम से पठन, अनुभवों की विविधता पर ज़ोर दिया है। पीयुष जी को इतना अच्छा साक्षात्कार लेने और दिव्या जी को देने और तेजेंद्र जी को छापने के लिये बधाई