विश्व पुस्तक मेले में “सोनाली एक कमजोर पटकथा” पुस्तक पर नजर पड़ी, काफी आकर्षक कवर था। कुछेक पृष्ठ पलटे, बंध सा गया, सो जिज्ञासा वश पुस्तक पढ़ने का मोह संवरण न कर सका और मैंने पुस्तक ले ली । पुस्तक को पढ़ कर ढेर सारी बातें जेहन में उभरी । काफी कुछ बहुत करीब से गुजरता हुआ महसूस हुआ और मेरे भीतर एक सामान्य पाठक की तरह धारणा पैदा होनी शुरू हुईं । पुस्तक पढ़ते हुये जब मैं सौ से अधिक पेज पढ़ गया तो रुक गया । इतना मैंने एक साथ पढ़ा था । मुझे काफी कुछ सोच से हट कर मिल रहा था भाषा प्रवाह ने दिल दिमाग बाँध दिया था. लेकिन, मैं जिस विस्फोट की खोज में था वह मुझे 130 नंबर पेज पर जा कर मिला।
सवाल यह था कि पुस्तक एक ऐसी महिला लेखिका द्वारा लिखी गई है जिसने वक़्त और उम्र से कहीं ज़्यादा लेखनी चलाई हुई है. लेकिन यह अपने लेखन और भाषा की समझ से मुझे चौंका रही थी। मैं अधिक सस्पेंस न पैदा करते हुये बात को महिला लेखिका से शुरू करूंगा। न जाने हिन्दी साहित्य में महिला लेखिका का कांसेप्ट कब और कैसे पैदा हो गया , इसके बाद ढेर सारे पुरुष लेखकों के वर्चस्व की दुनियाँ में लेखन को ले कर मिथक गढ़े जाने लगे।
शिवानी , अमृता प्रीतम, मन्नू भण्डारी, कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग तक महिला लेखन के साथ ही साहित्य को महिला के नजरिए से उन्हें एक खांचे में रख कर देखने की एक लंबी परंपरा है । सौभाग्य से शिवानी जी के साहित्य सृजन विषय में बहुत सी चर्चा सुनी है। सब से बड़ी बात यह कि शिवानी के लेखन को कभी महिला लेखिका के खांचे में रख कर नहीं देखा गया, जो मुझे बेहद सुखद लगा। कारण यह कि साहित्य या कोई भी रचना एक सृजनात्मक कार्य है और किसी भी कार्य का मूल्यांकन पूर्वाग्रह ग्रस्त हुये बिना करना उचित है । जब हम रचना के साथ लेखक के जेंडर को रख कर साहित्य को उस नजरिए से देखने की कोशिश करें और इसके बाद उस सृजन में किसी महिला के व्यक्तिगत जीवन के अक्स तलाशते हुये उसके कैरेक्टर को कथा के बीच ढूढ़ने की कोशिश करे , तो यह हमरी सोच का सीमित हो जाना है । साथ ही यह सोच किसी भी साहित्यकार को जेंडर के खांचे में बाँट कर उस साहित्यिक कृति के साथ अन्याय करने के समान है । दुर्भाग्य यह है कि हिन्दी साहित्य के पाठक और समीक्षक इस धारणा से बाहर नहीं निकल पाये जिसका परिणाम यह रहा कि अमृता प्रीतम की रचनाओं तले उनके व्यक्तिगत जीवन के आयाम तलाशे गए और मृदुला गर्ग समीक्षकों के कोप भाजन का शिकार बनीं।
खैर लेखिका के उपन्यास सोनाली एक कमजोर पटकथा को पढ़ते हुये थोड़ी देर मैं इसी दृष्टिकोण में खोया रहा लेकिन, जैसे ही मैंने पृष्ठ संख्या 130 पर यह लाईने पढ़ी मेरे सोच में बदलाव आने लगा.
मैं पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद अब यह कह सकता हूँ कि , भूमिका जी एक ऐसी लेखक / लेखिका हैं जो अपने लेखन में जेंडर से बंधी हुई नहीं हैं , कारण यह कि पुस्तक की भाषा अनेक स्थान पर वर्जना के संस्कार तोड़ती है लेकिन यह लेखन और संस्कार का टूट जाना उपन्यास में एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन कर उभरता है और पाठक ध्यान न दे तो पढ़ते समय उसका ध्यान इस बात पर नहीं जाएगा कि लिखने वाले का जेंडर क्या है, यही इस पुस्तक का कमजोर पटकथा के नाम के बावज़ूद मजबूत पक्ष है । अब कुछ बातें पुस्तक की करूंगा , पुस्तक अपने कथानक को कहने के लिए शेरो शायरी के साथ ही मौलिक कविताओं का सहारा भी लेती है सो मैं एक शेर से ही इस पुस्तक के मर्म को लिखना चाहूँगा –
“इश्क की दास्तान है प्यारे , अपनी अपनी जुबान है प्यारे ।“
कहने का अर्थ यह कि इश्क को बयां करने के सबके अपने अपने अंदाज और शब्द हैं , आपको कौन सा हिस्सा या कौन से शब्द अच्छे लगेंगे यह आप पढ़ कर तलाशिये क्योंकि यह पुस्तक बहुत से स्तर पर इश्क को कहती है । इसे आप मानसिक स्तर पर पढ़ना चाहते हैं या फिजिकल लेवेल पर यह फैसला आपको करना है , महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि “ जिन ढूंढा तिन पाईयां , गहरे पानी पैठ” पुस्तक के प्रारंभ में मैं भाषाई स्तर पर विस्फोट की प्रतीक्षा कर रहा था लेकिन शुरू में यह मुझे अपने वैचारिक बिन्दु तक ले जा कर उद्वेलित नहीं कर रही थी , लेकिन जब मैं आगे बढ़ा तो पुस्तक ने दो बिन्दु के बाद जबर्दस्त रफ्तार पकड़ ली ।
पहला मोड तब जब नायिका दिल्ली लौटती है और उसे अपने भीतर शरीर में परिवर्तन का पता चलता है और दूसरा बिन्दु वह जहां एक सामाजिक कार्यकर्ता के माध्यम से समाज की सच्चाई पर से पर्दा हटाया गया है ।
अमूमन हमने इस पर्दे को जाना है लेकिन उसे इस तरह टूटते कम ही देखा है । मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं पुस्तक के विषय में जेंडर बायसिंग छोड़ कर लिख रहा हूँ , अर्थात मैं भूमिका जी को एक साहित्यकार के नजरिए से देख रहा हूँ महिला लेखिका के रूप में नहीं।
सहज गति से आगे बढ़ते पूरे उपन्यास में अनेक मोड पर पूर्वोत्तर प्रदेशों समेत देश भर की राजनीति , अभद्रो की लंपटई और समाज के दोगले चरित्र से पर्दा हटाती चलती है लेकिन इसके साथ ही इश्क की मिठास कहीं कम नहीं होती, बस उस तक पहुँचने के लिए पाठक को प्रेम और थोड़ा सब्र भी रखना पड़ता है ।
जब पुस्तक के अंतिम चालीस पृष्ठ सामने आते हैं तब इश्क के अहसास का मंजर विस्फोट करता मिलता है जिसे समझने के लिए लाक्षणिक भाषा से हो कर गुजरना पड़ता है क्योंकि वह गालियों की बौछार के बीच से नायिका के भीतर से छन छन कर बाहर निकलता है । सम्प्रेषण के आधुनिक माध्यम का बखूबी प्रयोग बताता है कि उपन्यास समय के साथ चलते हुये लिखा गया है। एक इतनी अल्प वयस्क लेखिका की इतनी सशक्त भाषा, शब्द चुनाव, तिलस्मी रूप से कहानी को एक छोर से दूसरे छोर तक निर्बाध गति से पनहुंचा देता है जैसे हवाई जहाज की सुखद उड़ान और सफल यात्रा के बाद एक शानदार लैंडिंग हो. अद्भुत अविरल अहसास से गुजरना है इस उपन्यास का सफर.
निश्चय ही पुस्तक हर पीढ़ी और टेस्ट के पाठकों के लिए अपने भीतर बहुत कुछ समेंटे हुए है। समीक्षा की दृष्टि से बस इतना ही अन्यथा पुस्तक के रहस्य खुलने शुरू हो जायेंगे ।
समीक्षक परिचय
नाम : मुरली मनोहर श्रीवास्तव
पिता का नाम : श्री विजय कुमार श्रीवास्तव
जन्म तिथि : 18 मई 1964
जन्म एवं निवास स्थान : प्रयागराज , उत्तर प्रदेश
प्रकाशन : पुस्तक-समीक्षा का लम्बा इतिहास. अमर उजाला, नवभारत टाईम्स, हिंदुस्तान दैनिक, राष्ट्रीय सहारा सहित देश के सभी प्रमुख पत्रों में एक हजार से अधिक रचनाएँ प्रकाशित.
लेखक परिचय
भूमिका द्विवेदी अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत साहित्य की गहन अध्येता, हिन्दी साहित्य रचना-जगत में एक बहुचर्चित, प्रशंसनीय और प्रतिष्ठित नाम है.

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