Friday, October 4, 2024
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डॉ. रश्मि कुलश्रेष्ठ के दो गीत

1- गीत
आज मुझे फिर हिचकी आई,
शायद तुमने याद किया है।
तन्हाई में मेरी अल्बम
तुमने आज निकाली होगी।
तस्वीरों में कोई खुशियों
तो कोई ग़म वाली होगी।
मेरी भी पलकें भीगी पर
मुस्कानों से साध लिया है।
आज…….।
मन में हूक उठी जब होगी
त्यौहारों के शुभ अवसर पर
अलमारी में मेरी साड़ी
देखी होगी तुमने छूकर।
साड़ी के पल्लू ने शायद,
फिर से तुम को बाँध लिया है।
आज ………..।
दो पंछी जब एक डाल पर
बैठ संग में चहके होंगे।
उन्हें देख अंतस बगिया में
भाव तुम्हारे बहके होंगे।
खोल पुराने खत को मैंने
तुमको फिर निर्बाध जिया है।
आज मुझे…..
दर्पण में चेहरा तुमने जब
अपना आज निहारा होगा।
दर्पण पर चिपकी बिंदिया,
नैनों में सागर खारा होगा
मैंने भी बहते अश्कों की
पीड़ा का अनुवाद किया है।
सुबह सुबह आफिस जाने को
तुमने शर्ट निकाली होगी।
टूटा देख बटन खुद पर ही
तुमने खीज निकाली होगी।
अंतस सागर की लहरों ने
आवर्ती अनुनाद किया है।
आज मुझे फिर…..।
2-गीत
कभी सरस रस पूरित बहती
बीती एक सदी।
सालिगराम समेटे अंतस
सूखी हुई नदी।
शुष्क पत्थरों को सीने पर
ढोती रही सदा।
शापित जन के पाप शाप को
धोती रही सदा।
फटी पुरानी एक सभ्यता
सीती रही नदी।
सालिगराम…..।
माता कहकर पहले उसको
इतना मान दिया
प्रतिमायें ,निर्माल्य बहा कर
दूषित उसे किया।
मरकर भी अपने आँसू को
पीती रही नदी।
सालिगराम……।
चौपाये,मानव में अंतर
उसका ध्येय नहीं।
जल राशि कितनी खर्ची
कोई स्तेय नहीं।
दोधारी करवाल धार पर
सोती रही नदी।
सालिगराम…..।
सदा सुहागन वर की लम्बी
आयु को माँगे।
आये जो इसके तट ,मन में
भक्ति भाव जागे
बीज आस के सदा उदर में
बोती रही नदी।
सालिगराम…..।
करें आचमन जल से इसके
साधु ऋषि मुनि।
किंतु किसी ने उसके मन की
क्यों कर नहीं सुनी।
मलबा इतना ,आब पुरानी
खोती रही नदी।
सालिगराम……।
अंत समय भव से तरने शव
नदिया में लाते।
तारनहारी महतारी को
कोई नहीं ध्याते।
मोक्षदायिनी मोक्ष हेतु, पथ
जोहती रही नदी।
सालिगराम……।
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