पुस्तक समीक्षा: “कौन देस को वासी:वेणु की डायरी”;
लेखिका: सूर्यबाला; प्रकाशक: राजकमल; मूल्य: ₹ 399/-
समीक्षक : भावना गौड़ “समीक्षा”
कुछ दशकों पहले तक विदेशों में रहना सिर्फ अमीरों का शौक समझा जाता था, मध्यमवर्गीय भारतीय अपनी ही दुनिया में मस्त रहते थे, लेकिन संचार क्रांति ने आम युवाओं को भी दुनिया मुठ्ठी में कर लेने का सपना दिखाया है। अब वे न सिर्फ विदेशों में रहने का सपना सँजोते हैं, बल्कि उन सपनों को पूरा करने में जी-जान भी लगा देते हैं। हर वर्ष हमारे देश से लाखों युवा बेहतर जीवनस्तर की तलाश में विदेशों में रहने जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण डॉलरों की मोटी कमाई और उनसे पूरे होने वाले समूचे परिवार के अवचेतन में पलते अनगिनत सपने भी होते हैं, लेकिन कहते हैं ना कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं, जब एक मध्यम परिवार का युवक वहाँ रहने जाता है तो वहाँ के सर्वथा भिन्न वातावरण में खुद को ढालने के लिए उसे किस जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है, कैसी-कैसी परिस्थितियों और विवशताओं से गुजरते हुए वह धीरे-धीरे वहाँ पर सामंजस्य बिठा पाता है और कैसे वहाँ की आबोहवा में रहते हुए वहीं का होकर रह जाना चाहता है, वहाँ कई बरस गुजारने के बाद अपनी संस्कृति और वहाँ की संस्कृति में उसे क्या बेहतर नज़र आता है, इन सभी स्थितियों का पूर्णतः निष्पक्ष विश्लेषण 2019 में उत्तर प्रदेश, हिंदी संस्थान के सबसे बड़े सम्मान “भारत भारती पुरस्कार” से सम्मानित डॉ. सूर्यबाला जी ने अपने उपन्यास “कौन देस को वासी- वेणु की डायरी” में किया है।
      जीवन से जुड़े विषयों के अलग-अलग संदर्भों को सम्मोहक रूप से खुद में सहेजे हुए यह उपन्यास जीवन के विविध स्वरूपों की उदात्त व्याख्या करता है। इस उपन्यास के द्वारा लेखिका की जीवन संबंधों के प्रति विस्तृत सोच दृष्टिगोचर होती है। लेखिका की सोच का दायरा न तो पुरातनपंथी है और न ही अत्याधुनिकता के नाम पर उच्छ्रंखलता की पैरवी करने वाला। यह उपन्यास परंपरा और आधुनिकता का ऐसा मणि-कांचन समावेश है कि हर पीढ़ी के पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
नौ खंडों में विभक्त इस वृहद उपन्यास में सूर्यबाला जी ने दोनों देशों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति, जो “वसुधैव कुटुम्बकम” के सिद्धांत पर आधारित थी और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” में विश्वास रखती थी, आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर प्रदूषित होने लगी है। “जो सारी दुनिया जानती है उसे हम-तुम पूरी तरह गँवा चुके हैं अब, समझे? अब तो बस बात-बात में मुट्ठियाँ तान कर अपनी पावन परंपराओं की हेकड़ी जताना आता है हमें।” (उपन्यास का एक अंश)
“कौन देस को वासी…. वेणु की डायरी”,  उपन्यास के शीर्षक में “वेणु की डायरी” पढ़कर लगता है कि यह किसी व्यक्तिविशेष के विदेश प्रवास के दौरान अनुभूत घटनाओं और प्राप्त जानकारियों का कथारूप होगा, किंतु इसमें वेणु के साथ-साथ उसकी माँ के विचारों का सिलसिला भी समकक्ष चलता रहता है, अतः इसे “वेणु और उसकी मां की डायरी” समझकर पढ़ा जाए, तो उपन्यास और भी रोचक हो जाता है। सूर्यबाला जी ने दो पीढ़ियों के अंतराल को अलग-अलग द्रष्टिकोणों से लिखते हुए अपनी कलम में भी उसी काल और परिवेश के रंग भरकर दोनों पक्षों के पूर्णतः भिन्न पहलुओं को   निष्पक्ष रूप से व्यक्त करते हुए पाठकों को चमत्कृत कर दिया है। वेणु की पत्नी और उसकी माँ के वार्तालाप भी पूर्वाग्रह से मुक्त और पूरी तरह तर्कसंगत तथ्यों से भरपूर हैं।
यह उपन्यास आपको अमेरिकी चकाचौंध की सपनीली दुनिया अपनी आंखों में बसाए हर “वेणु” और उसके परिवार से मिलवाएगा। यह आम कहानियों जैसा पढ़ कर भूल जाने वाला उपन्यास नहीं है, बल्कि भारतीयों को अपनी संस्कृति पर गर्व करने का आह्वान करते हुए एक ग्रंथ के समान है। उपन्यास के कुछ अंश इतनी गहराई लिए हुए हैं कि पढ़ने के बाद काफी देर तक मन-मस्तिष्क में गूंजते रहते हैं। वाक्यों के साथ साथ कोष्ठकों में प्रयुक्त वाक्यांश, अर्थ को विस्तार देते हैं। ऐसी अनूठी लेखन-शैली पाठकों को अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर वाक्यों में निहित गूढ़ अर्थ समझने के विस्तृत आयाम देती है। इस उपन्यास में भारतीय विचारधारा और संस्कृति से प्रेरित एक  पारिवारिक कथा को प्रवासी भारतीय की जीवन शैली के साथ-साथ गूँथा गया है। पूरे उपन्यास में लेखिका ने उसी भाषा का प्रयोग किया है, जो आज की पीढ़ी की भाषा बन चुकी है, अर्थात हिंदी के वाक्यों में अंग्रेजी का यथोचित समावेश। यह उपन्यास इसलिए भी विशिष्ट है, क्योंकि हिंदी व्यंग्य लेखन की सशक्त हस्ताक्षर सूर्यबाला जी ने इस उपन्यास में तीखे कटाक्षों से खूब प्रहार किए हैं, जिसका पिछले उपन्यासों में प्रायः अभाव नज़र आता था।
“ठाठ हैं विदेश में रहते भगवानों के भी। यहां रहते तो इन्हीं लो-मिडिल क्लास स्थितियों में हमेशा घाटे में ही रहने वाले बजट के साथ भगवानों को भी एडजस्ट करना पड़ता। सिर्फ अर्थ की तंगी नहीं, साफ-सफाई को लेकर भी तमाम सारी गलत आदतों के शिकार–भक्त से लेकर भगवान तक…!”( उपन्यास का एक अंश)
विदेश में स्वदेशी वस्तुओं के मोह और संग्रह पर कटाक्ष करता हुआ एक वाक्य–
” यह मात्र अपनी संस्कृति पर गौरव का भाव है या अपनी धरती छोड़कर यहां बस जाने के अवचेतन पछतावे? भारत में रहते हुए हम क्यों नहीं करते भारत को इतना महिमामंडित?”
              सभ्यताओं का आविर्भाव मानवता के उत्थान के लिए हुआ था, लेकिन आज सभ्यताओं के विकास का न जाने कैसा चरमोत्कर्ष आया है कि आज का मानव अवसादग्रस्त जीवन जीने को अभिशप्त होता जा रहा है। हमारा समाज जिस तेजी से धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक को छोड़कर मात्र आर्थिक होता जा रहा है, वह चिंता का विषय है। लेखिका का मानना है कि हमारी मान्यताओं, संस्कृति और परंपराओं में अभी बहुत मूल्यवान बचा हुआ है, जिसे सहेजना आवश्यक है। अपनी संस्कृति पर बढ़ते प्रहारों से चिंतित होकर लेखिका ने इस उपन्यास के द्वारा भारतीयता की जड़ें मजबूत करने का पुरजोर प्रयास किया है। साथ ही विश्वव्यापी भ्रष्टाचार और राजनीति को लेकर भी अनेक कटाक्ष किए हैं।
 “हरगोविंद खुराना से लेकर अमर्त्य सेन, नायपॉल और सुनीता विलियम्स तक अगर इंडिया में रहे होते ना, तो इंडिया की गंदी राजनीति, भ्रष्टाचार और नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाती शासन व्यवस्था में कभी अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते।” ( उपन्यास का एक अंश)
भ्रष्टाचार अमेरिका में भी कम नहीं, लेकिन सरकारी व्यवस्था भारत की तुलना में काफी मुस्तैद है।”जो व्यवस्था अपने कॉमन मैन को भरपेट खाना मुहैया कर देती है, वह भूख और कंगाली पोसने वाली सरकार की तुलना में मसीहा है।”( उपन्यास का एक अंश)
युद्ध को एक व्यवसाय की तरह बताते हुए लेखिका के ये कटाक्ष मस्तिष्क पर हथौड़े सी चोट करते हैं–
“इस देश का सबसे प्रॉफिटेबल उद्योग तो युद्ध है। इतने बड़े पैमाने पर लड़े जाते युद्ध के लिए दुनिया भर को हथियारों की सप्लाई ऐसे ही तो नहीं हो जाती और युद्ध लड़े जरूर जाएंगे क्योंकि युद्ध होना या ना होना अमेरिकी शासन नहीं, हथियार बनाने वाली कंपनियों की लॉबी तय करती है।” ( उपन्यास का एक अंश)
“कहर तो इन युद्धों ने ढाया हुआ है– बाहर के शहर… उजड़ जाने वाले देशों की तबाही… बेकसूरों के जान-माल का नुकसान… जितने जान माल का नुकसान… जितनी ईंधन, ऑयल की खपत, उतने ज्यादा मुनाफे का व्यापार– तभी तो चीजों की ज्यादा जरूरत भी होगी। तो ज्यादा प्रोडक्शन, ज्यादा मुनाफा… सोच कर दिमाग चकरा जाता है न! युद्ध की जो विभीषिका एक सामान्य व्यक्ति को आतंक में दहला देने वाली होती है, वही उनके लिए प्रकारांतर में लाभकारी भी होती है, वरना कौन कहता है, युद्ध नहीं रोके जा सकते?” (उपन्यास का एक अंश)
हमारे देश में आम नागरिकों के लिए अमेरिका जाने का वीसा मिलना कितनी टेढी खीर है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में वीसा मिलने की गारंटी देते हुए अनेक मंदिर भी हैं, जिनमें श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है। वीसा मिलने के दौरान आत्मसम्मान को चोट पहुंचाता वीसा कर्मचारियों का रवैया उपन्यास के एक पात्र को यह कहने पर मजबूर कर देता है कि “अमेरिका जाना इस हद तक जरूरी क्यों है कि जमीन जायदाद तो फिर भी ठीक है, पर अपना आत्मसम्मान तक बेचकर जाया जाए?”( उपन्यास का एक अंश)
               इस उपन्यास में आँख मूँदकर पाश्चात्य संस्कृति की आलोचना नहीं की गई है, बल्कि अनेक प्रसंग ऐसे भी हैं, जो वहाँ के अनुकरणीय गुणों की मुक्तकंठ प्रशंसा करते है। व्यक्ति को कार्य के आधार पर कमतर न आँकने की मानसिकता, विवाह में दोनों पक्षों का सम्मिलित रूप से सहयोग, साफसफाई को अपना दायित्व समझना, वृद्धों की अच्छी पेंशन और मेडिकल सुविधाएं, समानता का भाव जैसे सद्गुणों की तुलना भारत में फैले नकारात्मक पहलुओं से करते हुए लेखिका ने अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों के द्वारा सामाजिक चेतना जगाने का भी काम किया है।
एक तरफ हमारे ग्रंथों और उपनिषदों में वर्णित भारतीय विचारधारा, संस्कृति, अनुशासन को अमेरिका जैसे देश में भी सराहा और आचरण में लाया जा रहा है और दूसरी तरफ हम भारतीय, अपनी संस्कृति को कमतर मानकर उन्हें सहेजने के बदले कौड़ी के मोल लुटा रहे हैं। हमें स्वयं को तुच्छ समझने की मानसिकता से उबरना होगा।
“मेरा कहना है कि सुपीरियारिटी इनके अंदर इतनी नहीं जितनी हमारे अंदर इंफीरियारिटी है और इस कुंठा को हम अपने गुस्से और आक्रोश में छुपाते फिरते हैं।”( उपन्यास का एक अंश)
 ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में हमारी भारतीय मान्यताओं में कुछ संशोधन अवश्य किए जाने चाहिए, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करके नहीं, क्योंकि रूढियां, परंपराएं समय के साथ बदलती हैं, आधारभूत मानवीय मूल्य नहीं।हमारे देश में शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु के दौरान जो कर्मकांड समाज को जोड़ने के लिए बनाए गए थे, आज स्वार्थपरता के कारण मात्र दिखावा बनकर अपने मूल प्रयोजन से भटकने लगे हैं। विवाह समारोहों में वधू-पक्ष से समय-असमय दहेज की मांग करके उन्हें वरपक्ष द्वारा नीचा दिखाया जाना, परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु पर कई दिनों तक होते रहने वाले आडंबर, ईश्वर की आराधना का भी औपचारिक रूप, ऐसी न जाने कितनी बातें हैं, जिनमें संशोधन अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं है कि हम अपनी सभ्यता को ही छिन्न-भिन्न कर डालें!
“देखना, आठ-दस सालों के भीतर पूरा अमेरिका, गंद के टोकरे की तरह, औंधा देंगे अपने देश, अपनी जमीन पर। पूछो इन उल्लू के पट्ठों से, अपने देश को सुधारो, संवारो… उसे नेस्तनाबूद कर उस पर अमेरिका क्यों बसाने पर तुले हो?” ( उपन्यास का एक अंश )
उपन्यास में अमेरिका में डिप्रेशन की दवाइयों की बढ़ती खपत और बढ़ते मानसिक आघात को लेकर अनेक कटाक्ष किए गए हैं।
“जितनी बीमारियां, अकाल, भूकंप, एपिडेमिक्स, टेंशन, डिप्रेशन, उतनी ज्यादा दवाओं की मांग। बस मौका देखकर डाइव मारना आना चाहिए।:” ( उपन्यास का एक अंश )
           विदेश में रहते हुए समझ आता है कि अचानक नौकरी चले जाने जैसी मुसीबत वहाँ भी सिर पर पड़ सकती है, लेकिन वहाँ छंटनी का लिफाफा (पिंक स्लिप) मिलने पर भी मुस्कुराना लाज़िमी होता है क्योंकि वहाँ खुलेआम अपने दर्द का प्रदर्शन अशिष्टता यानी बैड एटिकेट्स के दायरे में आता है। एटिकेट्स के नाम पर स्वार्थपरता से क्षुब्ध होकर लेखिका ने यह प्रश्न उठाया है कि अमेरिका की यह सामान्य सी बात कहीं हमें मशीनी तो नहीं बनाती जा रही?
 “जैसे हम मनुष्य नहीं, मशीन हों, या रोबोट हों, और बेहद खुदगर्जी से बंधे बंधाए स्टीरियोटाइप निर्देशों पर चले जा रहे हों! ” ( उपन्यास का एक अंश )
अजूबे रिश्तों के इस देश में खुद को दफनाए जाने की जगह खुद ही ढूंढकर खुश होने का अभिनय करते हुए एक पात्र का प्रसंग सिहरन पैदा कर देता है। इस विषय में प्रसिद्ध हास्य व्यंगकार “अर्ट बुख्वार्ड” की पुस्तक “टू सून टू से गुडबाय” का भी उल्लेख किया गया है।
 देशव्यापी समस्याओं के साथ-साथ लेखिका ने ग्लोबल समस्याओं को लेकर भी समाज को सचेत किया है। कबाड़ की समस्या अर्थात ट्रैश मैनजेमेंट को लेकर अमेरिका को भी कटघरे में खड़ा किया  है–
“यहां तो वेस्टेज की हद है। अभी कल ही वर्ड टाइम्स में न्यूज़ थी कि दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले अमेरिका ट्रेश जनरेट करने में सबसे आगे है। नेचुरल रिसोर्सेस को संभालने की बड़ी-बड़ी नसीहत देने वाला यह देश अपने देश से लेकर अन्य देशों तक से लकड़ियां इंपोर्ट करता है। खुद साउथ अमेरिका की अमेज़न की घाटी के पेड़ों की सबसे ज्यादा बलि ली जाती है–नक्शेबाज अमेरिकन सिटीजंस के लिए बेहतरीन टॉयलेट-पेपर बनाने के लिए…”
अमेरिका के डेट्रायट, फिलाडेल्फिया की बदहाली की भी चर्चा करते हुए भावी पीढ़ी को सचेत किया गया है।
“रही अपने लिए जीने की बात तो यदि सब अपनी अपनी मनमर्जी पर उतर आएं, अपनी सुविधाओं को ही प्राथमिकता देने लगें, तो आज से कहीं ज्यादा बदतर हालात का सामना करने के लिए दुनिया को तैयार रहना पड़ेगा। ( उपन्यास का एक अंश )
कार्यों के आधार पर दूसरों के व्यक्तित्व का आंकलन करने वाली मानसिकता पर कुठाराघात करते हुए उपन्यास का एक अंश–
“अपने घरों में वे भी ये सारे काम करते हैं, और अपने को थर्ड-रेट समझ कर नहीं, अपना काम समझकर। हमने कामों को भी उच्चवर्गीय, निम्नवर्गीय श्रेणियों में बांट रखा है। रेसिस्म यानी पार्थक्य। भेदभाव हम और वे अलग-अलग हैं, इससे नहीं बल्कि हममें और उनमें एक नीचा है, एक ऊंचा है, इससे आता है।”
प्रवासी वेणु का अपने बॉस के बारे में बताते हुए उपन्यास का एक अंश–“
“इंडिया में पापा के सीनियर मिस्टर सहाय वाले मॉडल में दूर-दूर तक कहीं फिट ना बैठता हुआ। काम के दौरान और बीच में भी दोस्ताने ना सही, लेकिन एक बराबरी का सा सहज भाव।…”
उपन्यास के अनेक वाक्य प्रेरणादायक और कोट किए जाने लायक हैं।–
“इस गलत-सही को अलगाना ही बड़ा मुश्किल होता है बेटे, क्योंकि सबके अपने-अपने सही और गलत होते हैं।” ( उपन्यास का एक अंश )
“जब संतोष आता है न, तो सब कुछ प्रभूत हो जाता है वरना तो जीवन भर कंगाली हमारा पीछा नहीं छोड़ती।” ( उपन्यास का एक अंश )
“धुंध के पार नहीं देख पा रहे हम, ना अपने पैरों की जमीन की ओर, अन्यथा देख पाते कि जो कुछ ऊपर एक छोटे सुराख की तरह दिखाई दे रहा है, वह अंदर-अंदर हमारे पैरों तले की जमीन को पूरी तरह भुरभुरा कर रहा है। ” ( उपन्यास का एक अंश )
“हमारा पूरा माइंडसेट ही इस तरह का होता है जैसे हम ब्रेनी लोग हाथ पैर चलाने वाले कामों के लिए बने ही नहीं, तो डाल दिए हाथ पर हाथ” ( उपन्यास का एक अंश )
वहाँ के सौहार्दपूर्ण विवाह की तुलना अपने देश की बेटी के विवाह से करता हुआ प्रसंग अनेक पाठकों को अपने परिवार की बेटियों के विवाह की याद दिला देगा–
” इस सद्भाव सौजन्य के बीच अचानक विशाखा दीदी की शादी याद आ गई। फेरों से पहले कितना बवेला मचाया था वर-पक्ष वालों ने।”
मात्र विवाह ही नहीं, साफसफाई और रखरखाव की बातों को लेकर भी लेखिका ने तीखे कटाक्षों का प्रयोग करने में कोई कोताही नहीं बरती है।
उपन्यास में वेणु की तीन बहनों के माध्यम से रिश्तों की बारीकियों को समझा जा सकता है। विभिन्न परिवेश के परिवारों में बेटियों का विवाह और अपने अपने परिवारों के साथ दो बेटियों के सामंजस्य के बीच तीसरी बेटी वसुधा का अपने जीवनसाथी को स्वयं चुनने का निर्णय पाठकों को हैरान कर देता है। वसुधा जीवन को अपनी शर्तों के साथ एक क्रांतिकारी कोण पर जीती है। स्वेच्छा से एक पुरूष के साथ रहने लगना और साथ ही उसके संयम की परीक्षा, नारी के स्वाभिमान का एक अलग ही स्वरूप प्रतिबिंबित
करता है। वसुधा के चरित्र से विस्मित पाठक के ज़ेहन में यह सवाल ज़रूर उठेगा कि क्या सुहास जैसे पुरुष इसी दुनिया में पाए जाते हैं, जो एक नारी द्वारा ली गई परीक्षा में उत्तीर्ण होने की योग्यता रखते हों?
          उपन्यास में वसुधा और मेधा के बीच ननद भाभी के रिश्तों का कवच उतारकर दो नारियों के अलग अलग दृष्टिकोण से विचारोत्तेजक वार्तालाप पाठकों को प्रश्नों और प्रतिप्रश्नों के ऐसे चक्रव्यूह में
ला खड़ा करता है, जो मस्तिष्क को झकझोर देते हैं।
     भारतीय रिश्तों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि ये समाज की इकाई कहे जाने वाले परिवार को एक सूत्र में पिरोकर रखते हैं। छोटी छोटी बातों पर भी मिलकर खुशी मनाते हैं। जब तक इन्हें आर्थिक पलड़ों पर न तोला जाए, तब तक खानदान के एक व्यक्ति की समस्या भी पूरे परिवार की समस्या बन जाती है, एक की नौकरी जाने पर पूरा परिवार सहयोग करता है, लेकिन जब परिवार के एक व्यक्ति का भी जीवनस्तर ऊँचा उठने लगे, तो शेष लोगों की अपेक्षाएं भी उससे बढ़ने लगती हैं। विदेशी संस्कृति में जहां स्पेस और प्राइवेसी के नाम पर स्वच्छंदता को बढ़ावा मिलता है, वहीं भारतीय संस्कृति में परिवार के व्यक्तियों के काम बंटे होने के साथ-साथ कुछ वर्जनाएँ भी होती हैं, जिनका पालन करने का व्यक्ति पर मानसिक दबाव भी होता है। कभी कभी यह दबाव, यह अनुशासन मार्गदर्शक बनकर गलत रास्तों पर जाने से बचाता है, लेकिन कभी कभी जीवन भर का बोझ भी बन जाता है। अमेरिका जैसे खुली सोच वाले देश सब कुछ पा लेने को ही जीवन की पूर्णता समझते हैं और सब कुछ पा लेने की दौड़ में भागते चले जाते हैं। अंततः अत्यधिक पाकर अघा जाते हैं और एक खालीपन का एहसास लिए अवसाद में डूब जाते हैं। हमारे संत कबीरदास ने सत्य ही कहा है
“अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।”
अतः अति हर चीज की बुरी होती है।
भारतीय पर्वों को अमेरिका में धूमधाम से मनाने के प्रसंगों का विवरण और भारतीय संगीत की मिठास से सजे कार्यक्रमों की विदेशी धरती पर लोकप्रियता विदेश में भारतीय संस्कृति के बढ़ते प्रभाव की दस्तक देती हुई लगती है। नौकरी में आरक्षण,स्कूलों में एडमिशन जैसी अनेक समस्याएँ दोनों ही देशों में समान रूप से विद्यमान हैं। बेटे के अपने देश की धरती छोड़ देने की व्यथा से आरंभ होकर यह उपन्यास अंततः अपने बच्चों के स्वदेश वापस लौटने की संभावनाएं जगाते हुए विराम लेता है। यह उपन्यास पूरा पढ़ने के बाद आप एक आम नागरिक नहीं, बल्कि एक ऐसे ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में स्वयं को पाएंगे, जो अपनी संस्कृति की रक्षा करने को कृतसंकल्प है। उपन्यास में जीवन अर्थवान बनने को लेकर व्यंग्य किया गया है, जहाँ पर अर्थवान का तात्पर्य “उपयोगी” न होकर “धनवान” बताया गया है। जैसा कि मैंने आरंभ में बताया था कि लेखिका पाठकों को अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर वाक्यों में निहित गूढ़ अर्थ समझने के विस्तृत आयाम देती हैं, तो इस उपन्यास को आप “गया के बोधि वृक्ष” की तरह पाएंगे, जो आपके ज्ञान की अनेक शाखाओं का प्रसार करते हुए आपको अपने साथ विश्व कल्याण की ओर ले चलेगा। इतने सार्थक सृजन के लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं।
भावना गौड़
G/193, डीएलएफ,न्यू टाउन हाइट्स,
सेक्टर 91, गुड़गांव, हरियाणा- 122505
+91 83689 23909

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