पुरुषोत्तम दुबे वरिष्ठ लघुकथाकार व आलोचक हैं। कुछ माह पूर्व उनका एक लघुकथा संग्रह आया था – ‘छोटे-छोटे सायबान’, जो पिछले माह इंदौर में सम्पन्न हुए क्षितिज संस्था के कार्यक्रम में उन्होंने मुझे दिया था। दुबे जी वरिष्ठ आलोचक भी हैं और इन्दौर के कार्यक्रम में लघुकथा पर पढ़ा गया उनका पर्चा बौद्धिकता से भरपूर था तथा लघुकथा की वर्तमान स्थिति को प्रकट करता था। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मैं उनसे भेंट की और उनके आलेख की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी।
खैर। अब बात उनके लघुकथा संग्रह की।
पुरुषोत्तम दुबे की लघुकथाओं में सबसे महत्वपूर्ण मुझे उनकी लघुकथाओं की भाषा लगी। उन्होंने बहुत खूबसूरती के साथ उर्दू के शब्दों का प्रयोग किया है। मैं चकित हूँ यह देखकर कि इतनी खूबसूरत उर्दू मिश्रित भाषा मैंने उनके अलावा किस लघुकथाकार की पढ़ी है। मैं यहां पर उनकी लघुकथा को उद्धृत करना चाहूंगा-
“स्मार्टफोन के आदी हो चुकने के बावजूद प्रोफ़ेसर विल्फ्रेट ने अपने गुज़श्ता ज़माने के यानी कि विद्यार्थी जीवन के यार – दोस्तों की यादों को बटोरा तथा एक बड़ा इत्तफ़ाक़ उनके साथ यह घटा कि अपनी निजी लाइब्रेरी से उनके हाथ वह डायरी लग गई जिसमें उनके अध्ययन काल के साथी रहे मित्रों के नामज़द पते लिखे हुए थे।”
(प्रोफेसर विल्फ्रेट)
पुरुषोत्तम दुबे ने आत्मकथात्मक और संवाद शैली में काफी लघुकथाएं लिखी हैं। लेकिन मैं उनकी उन लघुकथाओं का प्रशंसक हूँ जिसमें वे ख़ुद मौजूद रहने का संकेत देते हैं, बेशक वह लघुकथा आत्मकथात्मक नहीं होती। दुबे जी स्वयं आलोचक हैं। लघुकथा की सीमा रेखा से वाकिफ़ हैं। इसलिए लघुकथा के लघु को संज्ञान में रखते हुए पाठकों के सामने लघुकथा परोसते हैं। लघुकथा की बाध्यता को इन्होंने स्वयं की बाध्यता स्वीकार किया है।
“तारीख़ नहीं जानती रामदुलारी। उससे पूछो कि वह कब पैदा हुई थी? बताती है – उस साल अकाल पड़ा था, जगह – जगह लूटपाट मची हुई थी, कहीं – कहीं बलवा भी हुआ था। हमारे पड़ोस के रमजानी चाचा मारे गए थे। बापू बताते थे कि तब मैं पैदा हुई थी।”
(अज्ञानता की देवी)
पुरुषोत्तम दुबे अपनी लघुकथाओं को बिंबों, अलंकारों और प्रतीकों के माध्यम से ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। वाक्यों को ये भाषा से तराशते हैं और भाषा में रवानगी के लिए ये बिंबों, प्रतीकों, अलंकारों की शरण में जाते हैं। बल्कि कहना चाहिए कि प्रतीक, अलंकार और बिंब इनकी लघुकथाओं में अनायास ही आते हैं। भाषा ही इनकी लघुकथाओं का सौंदर्य है।
“अचानक सड़क के दोनों ओर की बत्तियां जल उठीं। उसने तत्काल अनुभव किया कि उसके दाएं – बाएं जली बत्तियों ने उसकी परछाई को दो भागों में बांट दिया है। वह चलता चल रहा था, मगर एक से तीन हो चुका था।
वह और उसकी दो विरोधाभासी परछाइयां।”
(उस दिन)
और यह भी देखिए —
“आसमान अपने ऊंचे कद से थोड़ा झुका और अनंत दिशाओं वाले अपने अनगनित हाथों से उसने वक्षस्थल में दमकते चांद को वृक्ष के नीचे प्रतीक्षरत नवयौवना बाला के चेहरे पर श्रृंगार की तरह सजा दिया।”
(सातत्य)
इस कारण कतिपय लघुकथाओं की भाषा क्लिष्ट हो जाती है लेकिन लघुकथा की पठनीयता प्रायः बराबर बनी रहती है। भाषा, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, इनकी लघुकथाओं का वह गुण है जो अक्सर इनकी लघुकथाओं के कथानक के समानांतर चलकर उसे सपोर्ट करता है और कथा को आगे बढ़ाने में सहायक होता है।
कथानक की बात आई तो कहना चाहूंगा कि ये लघुकथा लिखने के लिए कथानक के सप्रयास उदय/उत्पत्ति की प्रतीक्षा नहीं करते नहीं दिखते। ये लघुकथा लिखना शुरू कर देते हैं और कथानक क्रिएट हो जाता है। इनके इन्हीं गुणों के कारण इनकी लघुकथाओं में प्रायः परंपरागत कथानक के दर्शन नहीं होते। इनके दो पात्र मिलते हैं और लेखनी की तत्परता कहिए, डेडिकेशन कहिये, इनका आत्मविश्वास कहिये या इनके पात्रों विल पॉवर, कथानक की नाव अनायास चलने लगती है। अप्रयास। इनकी लघुकथा ‘ग्रहासक्त’ को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि यह दो प्रोफेसरों के कथा है जो शब्दों की बनावट को लेकर चर्चा करते हैं। अब इसके बहाने लेखक ने अति अधुनातन, ग्रहासक्त जैसे शब्दों की चर्चा कर डाली।
एक अन्य लघुकथा है ‘एक कोशिश यह भी।’ इसमें पति अपने मित्र को पत्र लिख रहा है और पत्नी उलाहना देती है, स्मार्ट फोन के ज़माने में पत्र! बस कथानक तैयार।
‘प्रार्थना’, ‘मस्तक दान’, ‘राष्ट्रमाता का ख़त’ जैसी लघुकथाएं इनके भीतर का राष्ट्रवाद बाहर लाती हैं।
एक लेखक विभिन्न मूड्स में लिखता है। सॉफ्ट होते हुए भी वह अपने चारों ओर की परिस्थितियों से मुँह मोड़े नहीं रह सकता। इनकी एक लघुकथा है ‘फिर वही।’ सत्ताधारियों के शोषण के समक्ष जनता के दमन, विद्रोह और लालच की कथा इसमें अंकित हुई है-
हवा में सैकड़ों मुट्ठियाँ उछल रही थीं:
“वापस जाओ! वापस जाओ!”
वह खुली जीप में खड़ा – खड़ा अपने दोनों हाथों से भीड़ को शांत करने में लगा था। उसके किये वादों और दिए आश्वासनों का सच जनता जान चुकी थी।
“वापस जाओ! वापस जाओ!” निराश जनता, हताश जनता, आपे से बाहर थी।
तभी एक बात फैली कि पीछे दौऊलशाह मैदान में मुफ़्त कम्बल बंट रहे हैं।
जनता अपनी तनी मुट्ठियों को पसारे हुए हाथ की शक्ल में तब्दील कर दौऊलशाह मैदान की ओर भाग खड़ी हुई। वह फिर विजयी हुआ। कम्बल पाने वाली जनता फिर अगले पांच साल तक उसके शोषण की सान पर पिसती और भोंथरी होती रही। वह सत्ता पर काबिज होकर तेज धार होता रहा।
पुरुषोत्तम दुबे की कोई भी फ़ोटो उठाकर देख लीजिए, मुस्कुराते दिखेंगे। आप उनसे मिलेंगे तो एक मृदुभाषी इंसान के दर्शन होंगे। उनकी लघुकथाएं भी उनके जैसी कोमलता लिए होती हैं। मैंने इनकी आलोचना भी पढ़ी हैं और लघुकथाएं भी। इनकी आलोचना इनकी लघुकथाओं का रास्ता नहीं रोकतीं। इनकी लघुकथाएं भी आलोचना के आड़े नहीं आतीं। दोनों अपना -अपना रास्ता आप बनाते हैं। पाठकों के दिलों में दोनों की जगह है। जहाँ आलोचना में विचार मुख्य भूमिका निभाते हैं वहीं लघुकथाओं में विचारों से कथा में व्यवधान होने का खतरा बराबर मौजूद रहता है। लेकिन इनकी लघुकथाओं का क्या कहिये। वे भी तो बरबस मुस्कुरा देती हैं।
कहते हैं सबसे ज़्यादा सख़्त धूप और आंधियों का सामना सायबान को करना पड़ता है। तो यही कहना होगा कि लघुकथा का यह सायबान सलामत रहे। आमीन।
पुस्तक का नाम : छोटे-छोटे सायबान (लघुकथाएं) लेखक : पुरुषोत्तम दुबे प्रकाशक : जन लघुकथा साहित्य, दिल्ली/करनाल मूल्य : 40/-
बहुत ही शानदार समीक्षा लिखी
धन्यवाद, अंजू जी
बहुत बढ़िया समीक्षा। पुस्तक पढ़ने और गुनने की इच्छा बलवती हो उठी।