पानी-पानी पर डॉ. प्रभा मिश्रा जी का पहला गीत-ग़ज़ल और मुक्तक संग्रह है। प्रभाजी बहुत शांत स्वभाव की और कोमल हृदय की लेखिका हैं। आपकी पुस्तक का नाम सुनकर भी यह एहसास हो जाता है। आप अपने कॉलेज के जमाने में लिखती रहीं और पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रहीं लेकिन उसके बाद आपका कवि हृदय सांसारिक जिम्मेदारियों में खो गया यूं कहूँ कि एक बीज की भांति दब गया ¦ यह नवांकुर अब पुनः नवजीवन पा गया है।
लगभग 32 गीत-ग़ज़ल और 37 मुक्तक- शेर को समेटे यह पुस्तक बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है।। सबसे पहले तो पुस्तक का शीर्षक मैं बहुत देर तक सोचती रही इसका अर्थ क्या होगा? पानी-पानी होना, पानी पिला देना पानी उतर जाना, आदि कई मुहावरे मुझे याद आये लकिन यह याद नहीं कि मैने कहीं पानी-पानी पर पढ़ा है। एकाएक मुझे याद आयीं वो पंक्तियाँ जिनको मैं हमेंशा याद रखती हूँ कि ‘‘कर्म करो फल मिलता है आज नही तो कल मिलता है, जितना गहरा अधिक कुंआ हो उतना मीठा जल मिलता है और जीवन के हर कठिन प्रश्न का जीवन में ही हल मिलता है’’। तो मैने सोचा कि पहले पुस्तक पढ़ी जाये। पुस्तक पढ़ना शुरू की, पहली ही रचना सामने आयी ‘‘झीलों के मंजर में रहकर तिश्नगी जीते रहे’’। और यहीं मुझे शीर्षक भी मिल गया लेकिन मुझे समझ में भी आ गया कि पानी-पानी समझना उतना सरल नहीं है जितना मैं सोच रही थी। किसी भी साहित्यकार को लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? किसी न किसी से प्रभावित होकर या प्रेरित होकर वह लिखता है? अपने किसी प्रिय से परिवार से समाज से या कुछ घटनाओं से और जब प्रभावित होता है तो भावों में बहता है ।
जब भावों में बहता है तो लिखता है लेकिन लेखन आसान नही है, एक विस्तृत संसार सबके सामने खुला पड़ा है सब उसे देख रहे हैं उसे, लेकिन उसपर लिख तो नहीं रहे ? चित्र भी नहीं खींच रहे ?
लिखने के लिये एक अलग दृष्टि चाहिए। एक कलाकार जब अपनी पारखी नज़रों से किसी को देखता है तो लेख या कहानी बन जाती है। और वहीं एक कवि हृदय उसी दृश्य को देखकर कविता रच डालता है।
इन तीनों में सबसे कठिन है कविता लिखना। चित्र में विस्तार होता है। विशाल कैनवास होता है। गद्य लेखन में आपके पास शब्द होते हैं आप घुमा फिराकर अपनी बात कह सकते हैं अनुच्छेद रच सकते हैं लेकिन कविता में बहुत कम शब्दों में अपनी बात कहनी होती है। उसे आप फैला नहीं सकते, विस्तार नहीं दे सकते, और फिर कोई भी रचना एक दिन में नहीं लिखी जाती बहुत मंथन करना पड़ता है उसके लिये तब जाकर एक अच्छी सारगर्भित रचना तैयार होती है और यही मंथन करना पड़ता है उस कविता को पढ़ने वाले पाठक को भी उसे समझने के लिये उसमें डूब कर ही वह उस कविता को समझता है और यही एक अच्छी रचना की एक अच्छी ग़ज़ल की या गीत की पहचान होती है। मैं बहुत खुशी से कहना चाहती हूँ कि प्रभाजी की कविताओं को समझने के लिये भी यही मंथन मुझे करना पड़ा।
जैसा मैने कहा कि कोई भी सृजन एक दिन में नहीं होता। सृजन समय मांगत हैं एक रचना एक कलाकृति पूरी करने की छठपटाहट चाहे मूर्तिकार की हो, या कलाकार की हो या लेखक की हो उपन्यास की हो या कवि की हो सबमें होती है। वह कितना लिखता है, कितना मिटाता है उसे कितना काटता है कभी छांटता है कभी कुछ जोड़ता है कभी घटाता है लेकिन इन सबके बाद भी उसका मूलभाव कहीं नहीं जाने देता और यही उसकी सफलता है। प्रभा जी ने यही किया है और इन सबको शब्दों में बड़ी खूबसूरती से बांध भी दिया है-
‘‘एक पल संधी, विभक्ति दूसरे पल, पर अखंडित है सृजन की प्रेरणा/ सांथ में जितनी चलीं संकीर्णता/ गीत का उतना हुआ विस्तार है।
लेखिका का भावुकमन कवितायें रचता है, वह किसी का बुरा नहीं चाहता, न कटुवचन कहता स्वयं भले ही टूटे पर औरों को जोड़ने की कोशिश करता है। जो स्वस्थ है जग उसका है लेकिन जो जर्जर है जरूरत तो उसको है जग की । उसके दर्द को जो समझे वही सच्चा साहित्यकार है।
‘जो मिला प्रेरणा बन गया है वहीं, 
किन्तु, मैने सृजन टूटते का किया’…. 
कहने वाली प्रभाजी वेदना को अपनाती हुई बड़ी खूबसूरती से कहतीं हैं ‘‘स्वप्न में मिल जाये या सच्चाई में, जो मिला वह गीत का आधार है,/ सुख मिला तो पंक्तियां सुखपूर्ण थीं,/ दुःख मिला तो वेदनामय छंद हैं। जिस तरह के मिल गये गहने मुझे/ गीत का वैसा किया श्रृँगार है’’।
आपके मुक्तक भी उतने ही खूबसूरत हैं इनमें मुझे एक खूबी और नज़र आयी प्रभाजी कईं ज़गह कुछ कहते-कहते एकाएक रुक जाती हैं और पाठक की तरफ देखती हैं, अब वह सोचे, अब वह बोले अपनी प्रतिक्रिया दे और पाठक सोच में डूब जाता है, अल्फ़ाज़ों को खोजने लगता है, उन शब्दों को जो उसके आस-पास हवा में ही कहीं तैर रहे होते हैं।
‘‘रेत के ढेर पर मोहब्बत की किताब रख देने वाली प्रभाजी के लिये मैं दुआ करती हूँ भले ही झरनों के बहने से उन पत्थरों से इश्क की इबारत मिट गई हो, लेकिन जब हवाओं नें जिंदगी की किताब के वरक़ खोल ही दिये हैं तो इनके शब्दों के रंग भरते रहियेगा’’।
आपकी रचनाओं का वजन और बढ़ जाता है जब आप उनमें उर्दू के शब्दों का बड़ी खूबसूरती से प्रयोग करती हैं। आपके गीत ग़ज़लों में यह प्रयोग बहुत है, जो एक सुकून देता है मन को। 
आपका सृजन प्रकृति से प्रेरित है इसलिये उतना ही गंभीर भी है, प्रकृति बहुत कष्ट सहती है, तब नव जीवन देती है जैसे बीज के पौधा बनने का संघर्ष,  नदी का तटों को तोड़कर बहने का संघर्ष या फिर हवा, पानी, बादलों का संघर्ष हर संघर्ष के लिये हिम्मत चाहिए और एक कलाकार या रचनाकार जो भी प्रकृति से प्रेरणा लेता है, वह भी संघर्ष करता है।
‘‘किसी दास्ताँ का वजूद हूँ, मुझे हाशिये पे रखो न तुम / मैं जो शायरी का ख्याल हूँ मुझे काफ़िये सा लिखो न तुम’’ कहने वाली प्रभा जी की पुस्तक में एक बार हवा के साथ तैर कर देखिये, लहरों में सफर करके देखिये, बहुत आनंद है।
वह कहती हैं ‘‘मैं लहर हूँ और बहना है मुझे’’ वह रुकना नहीं चाहतीं ‘‘ग्रीष्म ने मुझको किया संकीर्ण है और सीमा तोड़ता सावन रहा, और भी ऋतु घात सहना है मुझे, मैं लहर हूँ और बहना है मुझे’’। मुझे विश्वास है अब यह लहर नहीं  रुकेगी। बरसों बाद इसने वेग का दामन थामा है, बहती जायेगी तब तक जब तक कि गंगा सागर से न जा मिले, मेरी शुभेच्छाएँ हैं प्रभाजी के लिये उनके उज्जवल भविष्य के लिए, मौसम की कोई मार उनको न रोके, कंटको से भरी कोई राह उनको न रोके वह पानी पर चलीं हैं, पानी पर लिखीं हैं पानी जैसी ही पवित्र बन चलती रहें।
पुस्तक का नामः पानी-पानी पर;
लेखिका: डॉ. प्रभा मिश्रा;
प्रकाशकः ‘पहले पहल प्रकाशन’ भोपाल, म.प्र. ‘भारत’;
मूल्यः तीन सौ रू मात्र…

2 टिप्पणी

  1. आदरणीय संपादक जी, आपने मेरे द्वारा लिखित समीक्षा को अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया ,आपका हार्दिक आभार |

  2. आदरणीय सम्पादक जी नमस्कार ,
    आपकी पत्रिका पुरवई में अपनी किताब’पानी पानी पर’की
    समीक्षा देख अत्यंत ख़ुशी हुई।
    सधन्यवाद
    डॉ प्रभा मिश्रा

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