वरिष्ठ कवि एवं समीक्षक नीलोत्पल रमेश जी के हाल में ही प्रकाशित प्रथम काव्य-संग्रह “मेरे गांव का पोखरा” ने हिन्दी साहित्याकाश में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की है। एक ही महीने में प्रथम संस्करण का हाथों-हाथ बिक जाना संग्रह की उपादेयता और कवि की महत्ता को स्वयं सिद्ध करता है। क्रांतिकारी विचारक चेखब ने कहा था-“मैं केवल दर्शक मात्र नहीं हूं । यदि मैं लेखक हूं तो मेरा यह दायित्व है कि मैं उन लोगों के दुख-दर्द के बारे में लिखूं,उन लोगों की भावनाओं और परिवेश का अंकन करूं जिनके बीच मैं रहता और जीता हूं”।
नीलोत्पल रमेश जी की कविताओं में यह बात अक्षरश: प्रकट होती हुई, दिखाई देती है।उनकी कविताओं में साम्प्रदायिक परिवेश सम्पूर्णता के साथ उद्घाटित होता दिखाई देता है । वास्तव में वही कवि संवेदनशील होता है जो अपने समय की नब्ज को टटोलते हुए प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहे परिवेश एवं परिस्थितियों के स्पंदन को अनुभव करता हुआ चलता है । कवि नीलोत्पल रमेश की कविताओं में यह प्रवृत्तियां प्रतिपल परिलक्षित होती हैं। उनकी कविताएं वर्तमान की तीव्र पीड़ा और व्यापक भविष्य दृष्टि सहेजे क्षत-विक्षत होते आदर्शों और मूल्यों के संरक्षण की पुरजोर वकालत करती हैं।
नीलोत्पल रमेश की कविताएं कल्पना के आकाश में विचरण नहीं करतीं,अपितु गांव-गली, खेत-खलिहान, अहरा-पोखरा और जंगलों के इर्द-गिर्द घूम मानवीय मूल्यों के रक्षार्थ मनुष्यता की मशाल थामे दिग्भ्रमित समाज को उजाले की तरफ़ ले जाने को कटिबद्ध दिखाई देती हैं।उनकी कविताएं हमारी अनुभूतियों को संस्पर्शित कर हमें सचेत करने का प्रयास करतीं हैं। उनकी कविताएं सामाजिक परिवर्तन की अदम्य लालसा लिए लोकहितों के विरुद्ध खड़ी व्यवस्था से सीधा मुकाबला करती हुईं पाठकों के भीतर क्या सही तथा क्या गलत,की चेतना का संचरण करती हुई दिखाई देती हैं । उनकी कविताएं सीमा पर तैनात सैनिकों की भांति मर्यादाओं की सीमा लांघ अनैतिक आचरण में संलिप्त अन्यायी और आतताइयों के विरुद्ध सीना ताने खड़ी दिखाई देती हैं –
“कविता वहां भी पहुंचती है
जहां हो रहा हो बलात्कार
हो रहा हो अन्याय
हो रहा हो कोई अनैतिक काम
बेखटके पहुंचकर
संघर्ष के लिए
हो जाती है तैयार
प्रतिबद्ध सैनिक की तरह”।
नीलोत्पल रमेश एक सहज,सरल और संवेदनशील व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी कविताएं मानवीय संवेदनाओं को संस्पर्शित करतीं हुईं संवेदनसिक्त हृदय की एक साकार तस्वीर प्रस्तुत करती हैं ।काव्य संग्रह ‘मेरे गांव का पोखरा’ में कई कविताओं में देश के भविष्य कहे जाने वाले बच्चों की दुर्दशा और खस्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था से असमय अस्पताल के विस्तर पर दम तोड़ती उनकी सांसों की करुण कथा का वर्णन दिखाई पड़ता है। उनकी कविता “बच्चे मर रहे हैं” भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों के उन क्रूर चेहरों को बेनकाब करती है जो अपने चिकित्सीय धर्म से विरत पार्टियों में मशगूल रहते हैं, उन नेताओं के चरित्र को उजागर करती है जो अय्याशी के सागर में डुबकी लगाते रहते हैं तथा प्रशासन की उस संवेदनहीनता का पर्दाफाश करती है जो आंखें बन्द कर उस भयावह मंजर को देखते रहते हैं और जिनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती –
“बच्चे मर रहे हैं
डॉक्टर पार्टी मना रहे हैं
प्रशासन मौन है
नेता ऐश कर रहे हैं
और बच्चों के माता-पिता
बदहवास दौड़ रहे हैं
पागलों की तरह
ताकि किसी तरह
बचा सकें अपने लाल को”।
आए दिन बच्चों के अपहरण और हत्याओं ने आम आदमी के मन में एक खौफ भर दिया है जिसके कारण बच्चों को स्कूल भेजते समय माता-पिता और परिजनों की क्या मनोस्थिति रहती है इसका वर्णन उनकी कविता ‘बच्चे स्कूल जा रहें हैं’ में साफ दिखाई देता है –
“बच्चे स्कूल जा रहे हैं
और माएं आशंकित हैं
पिता सहमे हुए हैं
भाई-बहन भी असहज हैं
कि समय पर, सही-सलामत
लौट आएगा न मेरा लाल
कहीं प्रद्युम्न की तरह
कुछ हो तो नहीं जाएगा न!”।
नीलोत्पल रमेश जी की कविताओं में गरीबी की चक्की में पिसते तथा अभाव के दल-दल में फंसे नारकीय जीवन जीने को विवश नौनिहालों की दयनीय दशा का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। अभाव में आंखें खोलते और अभाव के ही दोलने में झूलते सामान्य बच्चों का जीवन वैसा नहीं होता, उन्हें वैसी सुख सुविधाएं नहीं मिल पातीं जैसीं उन बच्चों को मिलती हैं जो चांदी की चम्मच मुंह में रख पैदा होते हैं। धनाभाव के कारण जिस उम्र में उन्हें स्कूल जाना चाहिए वह अपने पिता के साथ सुअर चराने,मूस मारने,और मछली पकड़ने जैसे काम करने निकल पड़ते हैं –
“बच्चे अभी चलना भी
नहीं सीख पाए हैं ठीक से
कि निकल पड़ते हैं
पिता के साथ-
सूअर चराने,मूस मारने, मछली पकड़ने
और-और बहुत सारे काम करने”।
ग़रीबी की आग में जलती खुशियों की बानगी उनकी दूसरी कविता ‘भिखारिन की बच्ची’ में भी दिखाई देती है इस कविता में कवि को भिखारिन की बच्ची बच्ची ही नहीं लगती है क्योंकि उसे कभी बच्चियों की तरह सुन्दर फ्राक-सलवार और समीज कवि ने पहने ही नहीं देखा उसे तो कवि ने हमेशा लड़कों की उतरन ही पहने देखा –
“भिखारिन की बच्ची
लगती नहीं है कि बच्ची है
क्योंकि वह कभी पहनती नहीं
लड़कियों की फ्रॉक-सलवार-समीज
वह अक्सर लड़कों का ही पहनावा
पहना करती है”।
परिवार के गुरुतर उत्तरदायित्व का बोझ अपने कन्धों पर लादे सड़कों,चौराहों, स्टेशनों पर सभ्य कहलाने वाले समाज की हिकारत भरी निगाहों और झिड़कियां झेलते अबोध बचपन का चित्रण उनकी एक अन्य कविता ‘कचरा चुनते हुए बच्चे’ में भी दिखाई देता है जहां उनका खेल,उनका उत्साहऔर उनकी पढ़ाई-लिखाई उनसे जबरन छीन असमय उनकी पीठ पर कचरे का बोझ लाद दिया जाता है जिसके बोझ तले दबकर असमय ही जिनका बचपन प्रौढ़ता और वयस्कता में परिवर्तित हो जाता है –
“ये बच्चे
समय के पहले ही
दुनिया का बोझ उठा
बन जाते हैं प्रौढ़
और उठा लेना चाहते हैं पृथ्वी को
अपने कन्धों पर
जीवन-भर के लिए”।
आज जब संयुक्त परिवार तेजी से विखंडित हो रहे हैं तथा आपसी सौहार्द दिनों-दिन क्षरण होता जा रहा है। माता-पिता को टूटे-फूटे सामान की तरह निकाल कर घर से बाहर फेंका जा रहा है। रिश्तों के दरकते पुल और उत्तरोत्तर ह्रास की ओर अग्रसर मानवीय मूल्यों तथा छीज होतीं मर्यादाओं पर भी कवि दृष्टि पूर्णतः निबद्ध दिखाई देती है। स्वार्थ की नींव पर खड़े रिश्तों की हकीकत उनकी कविता ‘कैसा समय है आज’ में साफ दिखाई देती है –
“समय पड़ने पर
मां को मां
पिता को पिता
और भाई को भाई कहने से
साफ कतरा जाते हैं वे”।
ऐसी परिस्थितियों में माता-पिता के प्रति संतान के उत्तर दायित्व व कर्तव्यबोध का पथभ्रष्ट नव पीढ़ी को भली भांति भान कराते हुए अपनी गौरवशाली परंपराएं,जो हमारी विरासत हैं,जो हमारी पहचान हैं, के संवर्धन और संरक्षण की ओर उन्मुख करने का प्रयास कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से किया है । जिसकी एक बानगी उनकी ‘मेरी मां’ कविता में दृष्टव्य है –
“पत्र में भैया
अक्सर मां की चिंता करते
और बार-बार लिखा करते
तुम अपने पर ध्यान देना
पिताजी पर ध्यान देना
उम्र के साथ
तुम्हारे ऊपर रोगों का
हो गया है आक्रमण
संयम ही तुम्हारी दवा है”।
वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षित होना कितना महत्वपूर्ण है कवि इस बात से भलीभांति परिचित है। उनकी ‘मेरी मां’ कविता की अन्तिम पंक्तियां इस बात को प्रमाणित करतीं हैं –
“बेटा पढ़ लो
हम नहीं पढ़े हैं
तो देख ही रहे हो
हमारी स्थिति”