गत कुछ दशकों में अनूदित साहित्य ने हिंदी साहित्य के फलक को विस्तृत एवं कलेवर को समृद्धतर किया है। विभिन्न भाषाओं से हिंदी में अनूदित की जा रही पुस्तकोँ का आज एक बड़ा पाठक- वर्ग है । हिंदी प्रकाशक भी पाठकों की इस अभिरुचि को देखते हुए विभिन्न विधाओं में  निरंतर अनूदित साहित्य प्रकाशित कर रहे हैं।  वरिष्ठ द्विभाषी(तमिल, अंग्रेज़ी) साहित्यकार लक्ष्मी कण्णन(‘कावेरी’) द्वारा रचित एवं अन्य स्तरीय साहित्यकारों द्वारा हिंदी में अनूदित कथा-संग्रह “आकाश ही आकाश”अपने अलग कथ्य एवं तेवर के चलते ध्यान आकर्षित करता है।
“आप की पकड़ से शायद कई रंग छूट गए हों किंतु कहानी में वे पूर्ण रूप से उजागर हो उठते हैं”- विचाराधीन संकलन की कहानी “लयबद्ध” से  समुद्धृत यह पंक्ति  “आकाश ही आकाश”संकलन के कथ्य एवं शैली का मानो एक अभिज्ञान- पत्र है ।इन 18 कहानियों के अनुवादकों में राजी सेठ, शुभंकर मिश्र, डॉ एस बालासुब्रमण्यम, विष्णुप्रिया, सुमति अय्यर, राजी रमण सम्मिलित हैं । कहानियों के पात्र निजी ,पारिवारिक, सामाजिक तथा अस्तित्वगत व्यथा अथवा त्रासदी में डूबकर भी मात्र ‘तत्काल’ व ‘फिलहाल’ से ऊपर उठ स्वयं को चेतना के वृहत् एवं उच्चस्तरीय पक्षों से जोड़कर एक संवेदनापूर्ण तथा गरिमा पूर्णजीवन जी पाने में समर्थ हैं अपनी पूरी ‘ग्रेस’ और ‘डिग्निटी’ के साथ ।
आज जब समसामयिक स्त्री-रचनाकारों के यहां स्त्री- विमर्श कमोबेश ‘देह-विमर्श’ तथा स्त्री -मुक्ति प्रायः ‘यौन- मुक्ति’ तक ही सिमट गए कहे जाते हैं, तो ऐसे समय में लक्ष्मी कण्णन जैसी लीक से हट कर लिखने वाली एवं वरिष्ठ समकालीन कथाकार को पढ़ना निःसन्देह एक अलग अनुभव तथा अनुभूति से गुजरना है।
कहानियों का मुख्य कथ्य -विषय स्त्री- पुरुष संबंध नहीं है लेकिन स्त्री -पुरुष संबंध का चित्रण अनेक कहानियों में मिलता है ।एकाध अपवाद को छोड़कर उनकी कहानियों में दांपत्य -जीवन का सुमधुर संबंध ही दृष्टिगोचर होता है ।‘आकाश ही आकाश’ के वरदराज -कनका , ‘परतें’ के चंद्रा -रामचंद्रन ,’भूलभुलैया’ के राधा- राजमन, ‘पीड़ा’ के पद्मा- शेषाद्री दैनंदिन जीवन को एक साथ साझा कर जीते हुए पति_ पत्नी हैं।
पति की भूमिका में लक्ष्मी कण्णन के पुरुष- पात्र महिला कथा- लेखन में एक अनूठा स्थान रखते हैं जहां कोई क्रूर खलनायक अथवा शोषणकर्ता दैत्य नहीं अपितु सहृदय ,संवेदनशील पुरुष हैं- रुग्ण पत्नी के स्वास्थ्य के लिए तड़पता रामचंद्रन, अपराध -बोध से पीड़ित हो पत्नी के साथ हाथ बटाने की पेशकश करता गणेशन तथा प्रेम -निवेदन अस्वीकार कर दिए जाने पर भी प्रेमिका के प्रति अत्यंत शालीनता और संयम से पेश आता बिल। 
“मर्द -औरत! तेज रफ्तार से भागते हुए इस वैज्ञानिक युग में चर्चा के लिए क्या कोई और विषय नहीं रह गया ?कब मनुष्य का मन सबको बिना किसी अंतर के देख पाएगा?” (‘मरिया’) -यह यक्षिणी-प्रश्न पूछती इस लेखिका का स्त्रीवाद एवं उसके स्त्री -पात्र भी आम स्त्री- लेखन से हटकर हैं।
सभी मुख्य पात्रों ने स्त्री जीवन के दारूण यथार्थ को किसी न किसी रूप में जिया और भोगा है :कन्या शिशु की अवांछनीयता ,लैंगिक भेदभाव,बाधित व्यक्तित्व विकास, बेमेल विवाह,मात्र देह एवं गर्भाशय रूप में ही स्त्री की मान्यता ,घिसी-पिटी  भूमिकाएं ,धर्म -सम्मत अनाचार एवं दुर्व्यवहार,स्त्री-स्त्री सम्बन्धों को कलुषित कर पुरुष द्वारा उसकी प्रताड़ना, स्त्री जाने -अनजाने स्त्री द्वारा ही स्त्री का शोषण- ये सभी पीड़ादायक स्मृतियां  और इनके प्रति आक्रोश लेखिका के स्त्री- पात्रों के मानस का अभिन्न अंग है ।
यत्र -तत्र मार्मिक टिप्पणियां तथा संवाद स्त्रीजीवन की पीड़ा को अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त कर पाठक के मन को आंदोलित कर देते हैं :”उसके गर्भाशय से हम दोनों का निकल कर आना -क्या यही उपयोगिता है उसके शरीर की ?मां मेरे और प्रेमा के लिए एक पूरी मां है”। संकलन की एकमात्र पूर्णतया स्त्रीवादी कहानी ‘इंडिया -गेट’ स्त्री अस्मिता -बोध से ओतप्रोत रचना है जहां नायिका अंततोगत्वा अपने असंवेदनशील पति से अलग हो अपने नाम लिए गए नए घर में एक अकेला जीवन जीने का निर्णय उसे सुना देती है :”मैंने व्यर्थ ही अपने नाम को आपके नाम के साथ जोड़ रखा था ।अब मैं उस खाल को उतार कर फेंक रही हूं चाहे कितना भी दर्द क्यों न झेलना पड़े”.
वस्तुतः लक्ष्मी कण्णन का स्त्रीवाद उग्र आंदोलनात्मक स्त्रीवाद ना होकर एक परिपक्व एवं ठहरा हुआ स्त्रीवाद है जहां आश्वस्त तथा आत्मविश्वस्त स्त्री किसी क्रंदन, रुदन,हिंसा के बिना बड़े सौम्य ढंग से अपने पुरुष को अपने अलग हो जाने एवं जीने के निर्णय की सूचना भर दे देती है।ये नायिकायें ‘अकेलेपन के प्रेत’ से भयग्रस्त स्त्रियां नहीं अपितु अकेलापन उन सबके लिए पुनर्नवा कर देने वाला  जीवन का एक अनुभव है। लक्ष्मी कण्णन की जिजीविषायुक्त उत्तरजीवी स्त्रियां विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन- आनंद पा सकने का हौंसला रखती हैं ।‘स्त्री-घड़ी’  की दादी मां ,’मरिया’ की लक्ष्मी, ‘पीड़ा’ की पदमा व उषा ,मुनियक्का, ‘लयबद्ध’ की पदमा ‘मदिर गन्ध’ की गिरिजा- ये सब स्त्रियां स्त्री- जीवन के कटु अनुभवों को आत्मसात् कर उन से ऊपर उठ जाती हैं किसी कड़वाहट के बिना।
ये स्नेहमयी मां,  स्निग्ध पत्नी, बेटी ,प्रेमिका हैं जो स्त्री -सम्मत घरेलू कार्यकलापों व गतिविधियों को एक सौष्ठव एवं कला की चारुता प्रदान करती हैं।‘माइल्ड’होते हुए भी लक्ष्मी कण्णन की स्त्रियां कोई लुंज -पुंज व्यक्तित्व न होकर अपनी स्त्री- अस्मिता तथा सम्मान के प्रति पूर्णतया जागरूक स्त्रियां हैं।नारी- सुलभ संवेदना (फेमिनिन सेंसिबिलिटी) तथा स्त्रीवादी चेतना (फेमिनिस्ट कॉशसनेस) का यह सुंदर मिश्रण लक्ष्मी कण्णन के स्त्री पात्रों का विलक्षण स्वभाव है। यहां स्त्रीवाद के धधकते ज्वालामुखी नहीं हैं अपितु स्त्री- सरित का स्नेहमयी प्रवाह है। अपारंपरिक उपमा में स्वयं को ‘सरित’ नहीं अपितु ‘सागर’ कहने वाली ये नायिकाएं ‘सरित्’ से सागर हो जाने की यात्रा तय करती साहसी स्त्रियां हैं।
स्त्री-पुरुष शारीरिक संबंधों के चित्रण में ,लेखिका जहां चाहे वहां मात्र कुछ पंक्तियों, संवादों द्वारा ही संवेदना का सघनीकरण कर ऐंद्रियता को सजीव कर पाठक को गहरा झंकृत कर सकती है। उसे  विस्तृत ‘ग्राफिक डिस्क्रिप्शन ‘की आवश्यकता नहीं।‘कांच की परछाइयां’ कहानी में कुछ पंक्तियों द्वारा ही यह प्रभाव उत्पन्न हुआ है :”नमक सागर में घुल गया, मुंदी आंखों में ढेरों लहरें ,बाल खुलकर पानी में बिखर गए ,कपड़े जैसे पानी में उतराने लगे ….गहरा सागर… स्त्रीसागर… गहरा सागर”।
स्त्री -मन की गहन तृषा को कुछ ही शब्दों में मुखरित कर दिया गया है: “इस वक्त यदि मैं सागर हूं और सागर को प्यास लगे तो कहां जाऊंगी मैं”?लेखिका की सशक्त आध्यात्मिक तथा दार्शनिक चेतना के फलस्वरूप प्रेम का शारीरिक रूप अत्यंत त्वरता से ऊर्ध्वगति प्राप्त कर एक गहन परिष्कृत करने वाला भाव बन जाता है ।‘मंदिर गंध’ में गिरिजा के औचक स्पर्श से महोन्मत चंद्रन के लिए यह अनुभव एक अलौकिक अनुभव बन जाता है जहां वह कुंडलिनी- जागरण  एवं अहम् भाव की समाप्ति की अनुभूति करता है, विचार -तंतु को तोड़कर ‘भीतर का स्रोत’ फूट पड़ता है ,गर्दन ‘मंदिर का प्रवेश द्वार’ हो जाती है तथा उसकी चेतना में स्त्री के समस्तरूप एक साथ उभर आते हैं- ‘मां या देवी मां?’
लक्ष्मी कण्णन के रचना -जगत का एक अन्य वैशिष्ट्य है प्रकृति -प्रेम तथा आध्यात्मिक चेतना की सशक्त अभिव्यंजना- ये मात्र परिवेश का हिस्सा न रहकर स्वयं में पूर्ण कथ्य ही बन गए हैं। मानव तथा प्राकृतिक जगत के पारस्परिक तादात्म्य के अनेक सुमधुर चित्र कहानियों में यत्र -तत्र रस व रंग बिखेरते हैं तथा प्रकृति इस लेखन की धड़कती हुई चेतना प्रतीत होती है। प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में प्रकृति तथा संगीत की सुमधुर जुगलबंदी है, लेखिका के जीवंत स्त्री व पुरुष पात्र प्रकृति- पुत्र तथा प्रकृति- पुत्रियां हैं जिनके लिए सागर ‘मां’ है, हवा बूढ़े गालों को सहानुभूतिपूर्वक सहलाती है ,सूरज का सौंदर्य उन्हें लेखक बनाता है तथा सागर -अनुरक्त दक्षिण भारतीय नायिका के अस्तित्व-बोध की यात्रा दिल्ली के ‘आकाश ‘से जुड़कर ही पूरी हो पाती है।
अध्यात्म और दर्शन के प्रति लेखिका की आसक्ति पुनःपुनः समक्ष आती है। विभिन्न देवी-देवताओं,स्तुतियों, संस्कारों, रीति-रिवाजों, उत्सवों प्रार्थनाओं का विस्तृत मृदुल वर्णन यहां उपस्थित है। विदेशों में रहने वाले भारतीय भी अपनी जड़ों को खोज में धर्मस्थलों में धार्मिक क्रियाकलापों से ही जुड़ते हैं ।यह धार्मिक चेतना उदार, व्यापक व सर्वधर्मसद्भावपूर्ण है ।
‘परतें’ में नायक की प्रार्थना में संस्कृत श्लोक, न्यू टेस्टामेंट ,मुस्लिमों की नमाज़, बौद्ध भिक्षु का थाली बजाना तथा जैन साधुओं का मौन सब सम्मिलित हैं ।लेखिका की यह चेतना इतनी सशक्त है कि उसका अलंकार- जगत भी इससे स्पंदित हो उठता है।अनेक कहानियों में धार्मिक आस्था व बौद्धिक तर्क का द्वन्द्व है पर लक्ष्मी कण्णन ‘तनावों की कहानीकार’ नहीं तथा विश्वास की संदेह पर विजय ही  “आकाश ही आकाश” का मूल स्वर है :”प्रार्थना में इतनी शक्ति है कि वह धरती की वस्तुओं को आकाश तक उठा दे, पर्वतों को भी हिला कर रख दे”।
लेखिका के कवयित्री होने का प्रभाव शैली एवं शब्दचयन पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। काव्यात्मक गद्य है, सुंदर भाषाई संयोजन है और माला में पिरोए गए इन शब्दमोतियों के साथ अधिक छेड़छाड़ संभव नहीं है। अनुभव और अभिव्यक्ति का सौंदर्यपूर्ण आत्मीय संबंध पाठक को लेखिका के साथ एकभाव कर देता है ।कहीं-कहीं शब्द -चित्र ऐंद्रिय उद्दीप्तता का उत्सव सा रच देते हैं। दक्षिण भारतीय रीति-रिवाजों, नियमों ,आस्थाओं की बहुरंगी छटाऐं बड़े जीवंत रूप में दर्ज की गई हैं।
फैंटेसी -मिश्रण और वायवीय रूपांतरण के साथ प्रस्तुत की गई ये कहानियां अति- यथार्थवाद व जादुई यथार्थवाद की अनुभूति भी देती हैं। कहानियां पूर्वानुमानयीता से मुक्त हैं तथा कहीं-कहीं अप्रत्याशित नाटकीय अंत भी हैं। यह घटनामूलक नहीं अपितु भावमूलक कहानी है जहां भाषा का गजगामिनी- प्रवाह लक्षित होता है। लक्ष्मी कण्णन  के  लेखन की शक्ति है मितभाषिता, मुखर मौन तथा संकेतिक प्रस्तुतीकरण ।बीच-बीच में अचानक ही पिरोई गई महत्वपूर्ण टिप्पणियों ,वाक्यांशों ,शब्दों एवं मुखर मौन को पकड़ने के लिए पाठक की निरंतर रचनात्मक सहभागिता अपेक्षित रहती है।
कुल मिलाकर इस अनूदित कथा- संकलन ने अपने अलग दृष्टिकोण, विविधता व शिल्प -श्रेष्ठता के साथ हिंदी कथा -साहित्य को संपन्न  किया है। दक्षिणी भारत तथा भारतीय परिवेश में भली-भांति रमी हुई होने पर भी यह कहानियां क्षेत्रीय परिसीमन से मुक्त तथा सार्वभौमिकता के गुणों से युक्त हैं।यह स्त्रीसंसार  एक वृहत् सरोकार वाला संसार है जहां एक ओर ये कहानियां सामाजिक समस्याओं का संवेदनशील चित्रण करती हैं तो दूसरी ओर जीवन के शाश्वत सत्य का भी साक्षात्कार कराती हैं।
स्त्री-अस्मिता को स्थापित करता; प्रकृति, धर्म, अध्यात्म ,दर्शन, लेखन- कला,मानवमूल्यों के प्रति अनुराग अभिव्यक्त करता तथा सत्य शिव सुंदर सृष्टि की संभावना की मनोहर झलक प्रस्तुत करता यह कहानी-संकलन रूप -सज्जा तथा प्रस्तुति की दृष्टि से भी पेंगुइन की एक स्तरीय प्रस्तुति है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.