नयन पब्लिकेशन, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
मूल्य : 125 रुपये
समीक्षक – तरुण कुमार
मोहन राणा एक संवेदनशील रचनाकार हैं। वे ब्रिटेन के प्रवासी हिंदी रचनाकारों में एक अलग अंदाज और अलग मिजाज के कवि हैं। वे जो कुछ भी लिखते हैं बेपरवाह लिखते हैं बिना किसी ईप्सा या कामना के। सच कहें तो वे कविता लिखते नहीं, कविता जीते हैं। जो महसूस करते हैं, उसे शब्द चित्र बनाकर सामने रख देते हैं। यों भी कह सकते हैं कि कविता उनके माध्यम से कागज पर उतर आती है बेलौस, बेपरवाह।
‘मुखौटे में दो चेहरे’ उनका नया काव्य संग्रह है जो नयन पब्लिकेशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसे पढ़ते हुए जार्ज रसेल की लिखी बात ध्यान में आती है जिसमें उन्होंने कहा है कि जब मैं यह जानना चाहता हूं कि कोई कविता अच्छी है या नहीं तब मैं अपने-आप से यह प्रश्न करता हूं कि कविता पारदर्शी है या अंधी अर्थात् जो कुछ है वह कविता के ऊपर ही है अथवा उसके भीतर भी कुछ दिखलाई पड़ता है और जब मुझे यह मालूम होता है कि कविता पारदर्शी है तब मैं अपने आप से यह प्रश्न करता हूं कि कविता के भीतर मुझे कितनी दूर तक की चीज दिखाई देती है।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि कविता अंधी होने पर भी खूबसूरत हो सकती है, जैसे शीशे पर अगर रंगों से सघन चित्रकारी कर दें तो शीशे के भीतर कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन चित्रकारी खूबसूरत जरूर होगी। परंतु यह कारीगरी उस कारीगरी की बराबरी नहीं कर सकती जिसके द्वारा शीशे पर रंगीन चित्र भी बनाए जाते हैं और उसकी पारदर्शिता भी मारी नहीं जाती है।
मोहन राणा उन्हीं कारीगरों में से हैं जो कविता रूपी शीशे पर शब्दों से रंगीन चित्रकारी भी करते हैं और उसके भीतर की पारदर्शिता भी काफी हद तक बनी रहती है। उनके नवप्रकाशित संग्रह की कविताएं ऐसी चित्रकारी का आभास कराती हैं जो ऊपर से खूबसूरत तो हैं ही, अंदर की पारदर्शिता भी बनी हुई है। वह चाहते हैं कि पाठक केवल उनकी चित्रकारी न देखे, बल्कि उन चित्रों के बनाने के पीछे के अनुभवों को भी महसूस करे, उस बोध को महसूस करे जो चित्र बनाते समय चित्रकार को हुआ।
मोहन राणा ने इस संग्रह की कविताओं का चयन काफी सूझबूझ से किया है और उन्होंने अपनी कविताओं का एक कोलाज बनाने की कोशिश की है। इसमें 1994 से लेकर अब तक प्रकाशित उनके काव्य संग्रहों और एक प्रकाशनाधीन काव्य संग्रह ‘एकांत में रोशनदान’ से कुछ-कुछ कविताएं लेकर शामिल की गई हैं। 1994 में प्रकाशित संग्रह ‘जगह’ से छह कविताएं ‘जैसे जनम कोई दरवाजा’ (1997) से चार, ‘सुबह की डाक’ (2002)’ से नौ, ‘इस छोर पर’ (2003)’ से चार, ‘पत्थर हो जाएगी नदी’ (2007) से तीन, ‘धूप के अंधेरे में’ (2008)’ से छह, ‘रेत का पुल’ (2012) से अठारह, शेष अनेक (2016) से तेरह और ‘एकांत में रोशनदान’ से दो कविताएं ली गई हैं। इस संग्रह में मोहन राणा के संपूर्ण काव्य रचना काल को पढ़ा जा सकता है और आरंभ से लेकर अब तक की कविताओं के माध्यम से उनकी रचना प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जा सकता है। उन्होंने हर कविता के अंत में इसके लिखने की तारीख और स्थान का भी उल्लेख किया है।
चित्र कविता का अत्यंत महत्वपूर्ण गुण है। बल्कि यह कहना चाहिए कि यह कविता का एकमात्र शाश्वत गुण है जो उससे कभी नहीं छूटता। कविता और कुछ चाहे न करे, किंतु चित्रों की रचना अवश्य करती है और जिस कविता के भीतर बनने वाले चित्र जितने ही स्वच्छ होते हैं, वह कविता उतनी ही सफल और सुंदर होती है। मोहन राणा की कविताओं की खासियत भी इसकी चित्रात्मकता है। बिंबों, प्रतीकों, रूपकों आदि के कुशल प्रयोग से वे अपनी कविताओं में संवेदनाओं को इतने खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि पूरी संरचना एक पेंटिंग की तरह दिखने लगती है।
उनकी कविता ‘स्कूल’ में प्रयुक्त बिंब देखने लायक है :
“धरती ने सांस ली, हँसा समंदर आकाश खोज में है अनंतता की
कोई दोपहर उड़ा लाती हवा के साथ किसी बात की जड़ मैं वह दीवार हूं जिसकी दरार में उगा है वह पीपल।”
उनकी कविताओं की प्रवृत्तियां बदलती रहती हैं किंतु चित्र प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ रहते हैं। वे मुक्त छंद में लिखते हैं और कभी-कभी छंद टूट भी जाते हैं। परंतु चित्र कभी नहीं टूटते। वे टूटे छंदों के भीतर भी वाक्यों में मोती के समान जड़े रहते हैं।
मोहन राणा के काव्यात्मक चित्र का कैनवास काफी बड़ा है। उनकी कविताएं हमें शहरों, ग्रह-नक्षत्रों, वनांचलों, पर्वतों, पौधों, समुद्र, स्कूल और अनगिनत स्थलों पर ले जाती हैं जहां सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल चीजें भी हम देख पाते हैं। “दुनिया को सीने से लगाए उनकी कविता रुक जाती है दुनिया से भागते शब्दों में अपने को पहचान कर।” उनकी कविताएं पूरे विश्व की परिक्रमा कराती हैं। ‘ईश्वर की अपनी धरती’ अलेप्पी से ‘जेब्रा क्रॉसिंग’ होते हुए ‘सोफिया में पतझर’ देखकर ‘स्टेपलटन रोड स्टेशन’ से ‘दूर खिड़की पास दिल्ली तक’ की। वह कहते हैं “भाग रहा हूं पर दूरियां बढ़ती चली जाती हैं।” ये दूरियां अपने अतीत की हैं, उनकी स्मृतियों में बसे शहर की हैं जो आज वह नहीं है जो कल हुआ करता था। उन्हीं स्मृतियों में लौटते हुए वह कहते हैं, “अपना ही होता है भूगोल दूरियों और निकटता का, तय करता जीवन के नियम, दुख-सुख, संकट का अंतराल और थोड़ा समय प्रेम के लिए, मैं सीखता करना गलतियां मात्राओं की, छोटी बातों में पूरा होता दिन मेरा।
रहस्यात्मकता और दार्शनिकता का भाव भी उनकी कविताओं में हमेशा रहता है। वे कहते हैं –
“मैं पेड़ों की दुनिया में था, हवा और आकाश की दुनिया में, दिन और रात की दुनिया में, पानी की आवाज की दुनिया में।”
एक अन्य कविता में वह कहते हैं
“ बुरे दिनों को जीते हुए मैं बुरा होता रहा मैं समय की तरह अगोचर हो गया।”
प्रकृति प्रेम और प्रकृति चित्रण उनकी कविताओं का एक अन्य पहलू है। वसंत का चित्रण उन्होंने अनोखे अंदाज में किया है :
“हवा और बारिश तल्लीन हैं एक दूसरे का हाथ थामे और धूप सुस्ती में कहीं दीवार से पीठ टिकाए बैठी है पर वसंत प्रकट हो रहा है, जाग रही हैं कोंपलें शीतनिद्रा से।”
उनकी संवेदनाएं केवल मनुष्य तक सीमित नहीं हैं। उनकी पैनी नजर पनकौआ, गिरगिट और खरगोश जैसे जीव जंतुओं के जीवन तक भी जाती है और अपनी कविताओं में वे उन्हें भी स्थान देते हैं। परंतु सोद्देश्यपूर्ण ढंग से। इनके माध्यम से वे कहना कुछ और चाहते हैं।
‘एक पैबंद कहीं जोड़ना’ शीर्षक कविता में वे वर्तमान समय की अनिश्चितताओं, बिखरते रिश्तों सूखती मानवीय संवेदनाओं और क्षरण होते मूल्यों की ओर इशारा करते हैं:
“टूटी हुई कुदालों के साथ बैठी हैं आशाएं दिन के अधूरे छोरों पर एक पैबंद कहीं जोड़ना कि बन जाए कोई दरवाजा इस सदी को रास्ता नहीं मिल रहा समय की अंधी गली में।”
उनकी कविताओं की कई पंक्तियां कबीर की उलटबांसियों की तरह लगती है जैसे ‘मैं बारिश में शब्दों को सुखाता हूं और एक दिन उनकी सफेदी ही बचती है‘ ; ‘दूरबीन में नजरबंद हैं दूरियां’; ‘याद करने के लिए भूलना पड़ता है’; यह गलत पतों की यात्रा है दोस्त, चलना है तो साथ हो चलो।‘ संग्रह का शीर्षक ‘मुखौटे में दो चेहरे” भी ऐसा ही आभास देता है। आमतौर पर कोई भी मुखौटा एक चेहरे के लिए होता है परंतु मोहन राणा के यहां मुखौटे में दो चेहरे हैं।
वह कहते हैं:
“मैं मदारी हूं बंदर भी एक साथ सच एक ही मुखौटे में दो चेहरे हैं।”
मोहन राणा की कविताओं में जीवन के प्रति ललक, चाह, जिजीविषा का अनोखा रूप है। उनकी कविता को किसी वाद के खांचे में नहीं डाला जा सकता – न रोमांटिसिज्म, न प्रगतिवाद, न प्रयोगवाद, न अस्तित्ववाद और न ही रूपवाद।
इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए कई बार ऐसा लग सकता है कि शब्दों के अर्थ का कोई सिरा हाथ से छूट गया हो और हम पूरी बात समझ नहीं पाए। कवि अपने अनूभूति के संसार में हमें जहां ले जाना चाहता है वहां पहुंच नहीं पाए। ये कविताएं कई बार दुरूह या दुर्बोध, प्रतीत हो सकती हैं। लेकिन देखा जाए तो अर्थापन की समस्या कला के क्षेत्र में हरदम रहती है, इसीलिए कला, कला होती है। इंटरप्रिटेशन करने में अपनी बुद्धि, भावना, अनुभव, अनुभूतियों को दांव पर लगाना पड़ता है और दांव पर लगाने के लिए जिसके पास जितनी अधिक सामग्री होती है वह उतना ही अधिक आभासों से अधिकाधिक स्तरों पर कला को समझ पाता है।
कविता समय का आईना होती है। आज के जीवन की कांप्लेक्सिटी को कविता में ढालने के लिए मोहन राणा ने ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल किया है। उनकी काव्य भाषा यथार्थ की भाषा है न की शब्दकोश की। तभी तो कई बार वे अपने “मुहावरों को नया हेयर कट” देते हैं।
इस संग्रह की कविताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी कविताओं में दर्शन, सौंदर्यशास्त्र, कलात्मकता, बिम्ब, प्रतीक, सोच जीवन से सीधा रॉ मैटेरियल के रूप में आया है और इनकी तीव्रता, गति, क्षण को बांधने की ऊर्जा इन्हें अपना मकाम दे रही है।
तरुण कुमार
सहायक निदेशक,
ग्रामीण विकास मंत्रालय, नई दिल्ली
ईमेल – tarun2067@gmail.com
बेहद खूबसूरत विवेचन।
जितनी सुंदर मोहन राणा जी की रचनाएं हैं उतना ही सुंदर, सटीक, सघन विश्लेषण आपने किया है। निसंदेह आप बधाई के पात्र हैं।