फिल्म के एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर मलिक शिबाक ने कहा है कि ब्रिटेन में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी है, इसी लिए फिल्म को रोकना सही नहीं है… मुझे काफ़िर कहा जा रहा है, जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं। मैंने उसी जानकारी पर फिल्म बनाई है जो किताबों में लिखी गई है। मैं इन धमकियों से डरने वाला नहीं हूं। किसी भी दबाव में स्क्रीनिंग रोकना ब्रिटेन की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जैसे मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। यह एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करता है। भीड़ को यह अधिकार दिया गया है कि स्क्रीन पर क्या दर्शाया जा सकता है और क्या नहीं।
भारत इस मामले में एक विचित्र देश है कि यहां सत्ता पक्ष और विपक्ष में हमेशा तलवारें खिंची रहती हैं… रस्साकशी चलती रहती है। न तो विपक्ष को इस बात की जानकारी है कि देश का कार्यकाज चलाने में उसकी क्या भूमिका है और न ही सत्ता पक्ष अपने और विपक्ष के किरदार के बारे में स्पष्ट है।
टीवी चैनल पर होने वाली बहसों का स्तर इतना नीचा गिर चुका है कि कई बार तो ऐसा लगता है जैसे इन चैनल एंकरों का मुख्य उद्देश्य देश में शांति स्थापित करने के स्थान पर दंगा करवाना है। नूपुर शर्मा की टिप्पणी को लेकर तमाम शहरों में जुम्मे की नमाज़ के बाद ऐसे शांतिपूर्ण जुलूस निकाले जा रहे हैं जिनकी तासीर से ख़ुद ही आग लग जाती है… हवा में पत्थर तैरने लगते हैं… लोग चोटिल भी होते हैं और जान से हाथ भी खो देते हैं।
वहीं सरकार भी अब परवाह नहीं करती और अपने ख़ास हथियार बुलडोज़र का इस्तेमाल करने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं करती। कहने को दंगाई और उनके नेता भी कहते हैं कि वे बाबा साहब अंबेडकर के संविधान में आस्था रखते हैं और सरकार तो उस संविधान से बंधी ही हुई है। मगर हिंसा का सहारा प्रदर्शनकारी भी ले रहे हैं और सरकार भी।
मगर पुरवाई के संपादकीय का इस सप्ताह का विषय भारत में नूपुर शर्मा या राहुल गांधी की ईडी द्वारा पूछताछ के बाद की हिंसा नहीं है। न ही हम आज बात करेंगे कि रेणुका चौधरी ने पुलिस वाले का कॉलर क्यों पकड़ा। हम इस सप्ताह बात करेंगे ब्रिटेन की जहां एक फ़िल्म – ‘दि लेडी ऑफ़ हैवन’ – विवाद का केन्द्र बनी हुई है। ब्रिटेन का मुस्लिम समुदाय इस फ़िल्म को लेकर ख़ासा भड़का हुआ है और इसे पर्दे से हटवाने में सफल भी हो गया लगता है।
दरअसल ‘दि लेडी ऑफ़ हैवन’ इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद साहिब की बेटी फ़ातिमा के जीवन को केन्द्र में रख कर बनाई गयी है। फ़िल्म के लेखक हैं इस्लामिक विद्वान और मौलवी शेख अल-हबीब जबकि निर्देशन किया है एली किंग ने। ‘दिलेडीऑफ़हैवन’पहले से ही अमेरिका में बिना किसी विवाद के पांच सप्ताह तक दिखाई जा चुकी है। फ़िल्म मुहम्मद साहब की बेटी फ़ातिमा के जीवन की कहानी बताती है। फ़िल्म समकालीन युद्धग्रस्त ईराक़ से 7वीं शताब्दी के घटनाक्रम से जोड़ती चलती है।
ब्रिटेन के मुस्लिम समुदाय के लोगों का कहना है कि इस फिल्म में प्रारंभिक इस्लामी इतिहास को ग़लत ढंग से दर्शाया गया है। इस फिल्म से हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। यह फ़िल्म सभी मुस्लिमों के लिए दिल दुखाने वाली है। यह फ़िल्म विशेष तौर से इस्लाम के खिलाफ झूठ फैलाने के लिए के लिए बनाई गई है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस फ़िल्म की वजह से पैगंबर मुहम्मद का अपमान हुआ है। एक मज़ेदार बात यह है कि ऐसा कहने वालों में से अधिकांश ने फ़िल्म देखी नहीं है।
फिल्म पर बैन लगवाने के लिए एक ऑनलाइन याचिका भी दायर की गई है। इस याचिका पर अब तक सवा लाख से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर कर दिये है। ब्रिटेन के मुस्लिम समूहों ने सिनेमाघरों के बाहर नारेबाज़ी की और फ़िल्म को वापस लेने के लिए प्रदर्शन भी किये।
कुवैत में जन्मे यासर अल-हबीब की लिखी हुई और 3 जून को यूके में रिलीज हुई। पूरे ब्रिटेन भर में, बर्मिंघम, बोल्टन, ब्रैडफोर्ड और शेफील्ड में सिनेमाघरों में प्रदर्शन हुए हैं। बैरोनेस क्लेयर फॉक्स ने ‘कैंसिल कल्चर’ के खिलाफ चेतावनी देने के लिए स्क्रीनिंग रद्द करने की आलोचना की और ट्वीट किया। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है, ‘कला के लिए विनाशकारी, फ्री स्पीच के लिए खतरनाक, पहचान की राजनीति करने वालों के लिए एक सबक… लोकतंत्र के लिए कोई खतरा नहीं है।’
पाकिस्तान, मिस्र और मोरोक्को ने पहले ही फ़िल्म पर बैन लगा दिया है। वहीं ईरान ने भी इस मामले में फ़तवा जारी कर दिया है। पूरे ब्रिटेन में फ़िल्म की तमाम स्क्रीनिंग रद्द करने की घोषणा कर दी गई है। ‘सिनेवर्ल्ड समूह’ ने मंगलवार को एक बयान में कहा कि उन्होंने अपने कर्मचारियों और ग्राहकों की सुरक्षा को देखते हुए ‘द लेडी ऑफ़ हेवेन’ के सभी शोज़ को रद्द करने का फैसला किया है। ध्यान रहे किदुनिया के कई देशों में बैन हो चुकी द लेडी ऑफ हेवन फिल्म को अब ब्रिटेन में भी बैन कर दिया गया है।
इस फिल्म के निर्माता मौलवी यासर अल-हबीब हैं, जो शिया मुस्लिम हैं। आरोप है कि यासर अल-हबीब ने सुन्नियों के कुछ शुरुआती प्रमुख श्रद्धेय शख्सियतों को गलत तरीके से चित्रित किया है। माना जा रहा है कि उनके कार्यों की तुलना इराक में इस्लामिक स्टेट समूह से की गई है। मोरक्को की सुप्रीम उलेमा काउंसिल ने कहा है कि यह फिल्म इस्लाम के स्थापित तथ्यों का घोर मिथ्याकरण है। काउंसिल ने फिल्म पर घृणित पक्षपात का आरोप लगाते हुए कहा कि फिल्म निर्माताओं ने प्रसिद्धि पाने और सनसनीखेज बनाने के लिए मुसलमानों की भावनाओं को आहत किया है तथा धार्मिक संवेदनाओं को भड़काने की कोशिश की है
ब्रिटेन की सरकार ने पैगंबर मोहम्मद की बेटी लेडी फातिमा की कहानी पर बनी इस फिल्म को बैन करने के लिए चलाए जा रहे अभियान का समर्थन करने के लिए लीड्स की मक्का मस्जिद के प्रमुख इमाम कारी आसिम को सलाहकार के पद से हटा दिया है। इमाम कारी आसिम सरकार के ‘इस्लामोफोबिया सलाहकार’ थे और मुस्लिमों के प्रति घृणा रोकने के लिए बनी वर्कफोर्स के उपाध्यक्ष भी। उन्हें शनिवार शाम को एक सरकारी नोटिस के माध्यम से सूचित किया गया कि फिल्म ‘द लेडी ऑफ हेवन’ के विरोध के लिए उनका समर्थन कलात्मक अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करता है तथा सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाला है, इसलिए उनकी नियुक्ति वापस ली जाती है।
फिल्म की कहानी पैगम्बर मुहम्मद की बेटी फातिमा की कहानी है, जो पूरी फिल्म में बुर्के में रहती है। उसका चेहरा तक नहीं दिखाई देता। फिल्म की कहानी में ईराक में हुए युद्ध के बारे में बताया जाता है। यहां इस बात का पूरा ख़्याल रखा गया है कि पैग़ंबर मुहम्मद या उनकी पुत्री फ़ातिमा का चेहरा न दिखाया जाए। यह भी कहा जा रहा है कि फिल्म के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर को जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं।
फिल्म के एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर मलिक शिबाक ने कहा है कि ब्रिटेन में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी है, इसी लिए फिल्म को रोकना सही नहीं है… मुझे काफ़िर कहा जा रहा है, जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं। मैंने उसी जानकारी पर फिल्म बनाई है जो किताबों में लिखी गई है। मैं इन धमकियों से डरने वाला नहीं हूं। किसी भी दबाव में स्क्रीनिंग रोकना ब्रिटेन की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जैसे मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। यह एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करता है। भीड़ को यह अधिकार दिया गया है कि स्क्रीन पर क्या दर्शाया जा सकता है और क्या नहीं।
भारत में भी और ब्रिटेन में भी सरकारें दबाव के सामने झुक गई हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नंबरदार इस विषय में चुप्पी साधे हैं। बुकर पुरस्कार विजेता भारतीय मूल के अंग्रेज़ी लेखक सलमान रश्दी भी इन स्थितियों से गुज़र चुके हैं। सभी देशों के सभी राजनीतिक दलों को इस नियम का पालन करना चाहिये कि भीड़तंत्र को सरकार चलाने की अनुमति न दी जाए।
बेहतर होता कि इस फ़िल्म के विषय के बारे में और जो नूपुर शर्मा ने टिप्पणी की उन दोनों पर विश्व के जाने माने इस्लामिक विद्वानों की (मौलवियों से नहीं) राय ली जाती। मुद्दे उनके सामने रख दिये जाते और उनसे पूछा जाता कि इस फ़िल्म में या जो नूपुर शर्मा ने कहा है उसमें कितना कुछ ग़लत है। संविधान सबको इजाज़त देता है कि अपनी बात कह सकें। मगर संविधान बलवा करने, आगज़नी करने, पत्थरबाज़ी करने या किसी भी प्रकार की हिंसा आदि की अनुमति नहीं देता।
अभिव्यक्ति की आजादी लगभग सभी प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं की आत्मा में अंतर्निहित है. ब्रिटेन और उससे भी पहले अमेरिका तो प्रजातंत्र के गढ़ हैं. सच, जो किताबों में लिखा है, जो धर्मग्रंथों का प्राण तत्व है, उसके कथन पर रोक क्यों? सच कोई नाजायज अवधारणा नहीं. यदि दुर्दैव से हो भी तो, क्या उसे दुनिया के सामने नहीं आना चाहिए. किंतु हर सच सुपाच्य नहीं होता. पर वह है तो है. आप उसका सामना करें, इसी में आपका गौरव है. सच बोलने वाले की जान के पीछे पड़ जाना तो एक प्रकार से सच का गला घोंटना है.
हम भारतीय तो सत्यं, शिवं, सुंदरम् के उपासक रहे हैं. हम सत्य का समर्थन ही नहीं करते, बल्कि उसे सर्व भावेन कल्याणकारी और सुंदर भी आने हैं. हमने सत्य को छिपाया नहीं, चाहे वह कितना भी अप्रिय हो.
सत्य की अभ्यर्थना करने वाले इस देश ने एक सीख जरूर ली है. जो आपको देखना ही नहीं चाहते, उनके बारे में कुछ न सोचो, कुछ न कहो, कुछ न करो. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो. अलबत्ता यदि वे तुम्हारे रास्ते में आएं तो उनसे बचो और आत्मरक्षा का पूरा उपाय करो. इति.
फ़ॉक्स की ट्वीट बहुत कुछ कह जाती है।
हम पता नहीं कौन सी दुनिया बनाने में लगे हैं?कला को कला के
नज़रिये से भी नहीं देख पाते।ख़ुद से बेगाने होते जा रहे हम।
दो देशों की कहानी एक संपादकीय की ज़ुबांनी… वाह!!!
समय आ गया है जो उपाय आपने सुझाया है कि इस्लामिक विद्वान अपने धर्म और मुहम्मद साहब के बारे में लिखे गए सत्य और तथ्य बतायें। लेकिन शायद उससे भी समस्या हल नहीं होगी क्योंकि नूपुर शर्मा ने तो क़ुरान की आयत ही उद्धृत की थी, शायद यही ‘द लेडी ऑफ हेवन’ में भी होगा (फ़िल्म देखी नहीं)। यह क़ौम सम्भवतः अपने ही सत्य के उजागर होने से डरती है। हिंसा, फतवे देना, आतंक फैलाना इनका जीवन और कर्तव्य है… दुर्भाग्य है विश्व की शान्तिप्रिय जनसंख्या का जो बहुत वर्षों से यह आतंकवाद झेल रही है। वैसे जो बोया जाता है, काटना भी वही पड़ता है। भारत जब बहुत पहले से इस आतंकवाद के खिलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में बोलता था तो यही विकसित देश उसे नकराते रहे थे। जब ट्विन टावर गिरे तो अमेरिका सहित सारे विकसित देशों की खुमारी टूटी थी। अब सभी के घर में आग लगी है… बुझेगी कैसे यह तो भविष्य ही बतायेगा
You have brought forth a very sensitive subject in your Editorial of today.
Salman Rushdie also had to face difficulties when he wrote The Satanic Verses
Regards
Deepak Sharma
सत्य को प्रकट करता बेहतरीन लेख। सर, आज तथ्य तक पहुंचने अथवा चिंतन करने का किसी के पास समय नहीं है। समय है तो सिर्फ और सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर बवाल मचाना। कबीर कि वह पंक्ति यहां कितनी सटीक बैठती है, “संतो देखत जग बौराना, सांच कहे तो मारन धावे, झूठे लोग पतिआना।”
सत्य को प्रकट करता बेहतरीन लेख। सर, आज तथ्य तक पहुंचने अथवा चिंतन करने का किसी के पास समय नहीं है। समय है तो सिर्फ और सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर बवाल मचाना। कबीर कि वह पंक्ति यहां कितनी सटीक बैठती है, “संतो देखत जग बौराना, सांची कहे तो मारन धावे, झूठे लोग पतिआना।”
तात्कालिक मुद्दे पर एक खरा और विस्तृत संपादकीय। सच तो यह है कि किसी भी विवादस्पद विषय पर राजनीति करने वाले लोग अधिक सक्रिय हैं और इन्हें सुलझाने की इच्छा रखने वाले सुस्त और हताश हैं। और इनमें सबसे अधिक ग़लत रवैया मीडिया का होता का रहा है, जिसे सकारत्मक भूमिका निभानी चाहिए वह नकारात्मक होता जा रहा है।
बहरहाल वर्तमान के इस विषय पर आपकी खरी खरी बातों के लिए हार्दिक बधाई। सादर।
ज्वलन्त सम्पादकीय , सत्ता विपक्ष की जद्दोजहद और धर्म की राजनीति फिल्मों की सवारी करती हुई विशव भ्रमण पर। फिल्मों को इतिहास बताने वाले स्वयं ही भ्रमित हैं। क्या आजकल सेंसर बोर्ड नाम की कोई संस्था नहीं, या उसे भी गोदी अथवा पालतू बना दिया ! इस प्रकार के वादविवाद से निपटने के लिए संवैधानिक नियमो की आवश्यकता महसूस हुई लेकिन सत्ता के रसूखदार उस पर हावी होकर उसे ताक में रख कर अपना वर्चस्व बनाने की होड़ मैं हैं, कोई भी देश इससे अछूता नहीं। सराहनीय व विचारणीय सम्पादकीय
सामयिक ज्वलंत विषय पर विश्लेषणात्मक आलेख।पर यह सब बातें यदि उन लोगों को भी समझ आजाएं जो विरोध करते और वस्तुस्थिति पर पर्दा डालना चाहते हैं तो उनको समझाना उतना ही मुश्किल ही जितना जागे हुए को जगाना। विस्तृत जानकारी पूर्ण आलेख ।
सम्पादकीय में अच्छा प्रश्न उठाया गया है ,क्याविश्व का कोई देश संविधान के अनुसार चलता है ? संविधान के अनुसार सरकारें नहीं चला करतीं लेकिन, देश और सरकारें संवैधानिक प्रक्रिया के आधार पर बनती अवश्य हैं,अतः संविधान का सम्मान करना उतना ही महत्व पूर्ण हैजितना किसी राष्ट्र के ध्वज का ।
लोकतांत्रिक देशों में नागरिक अपने मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग करने के प्रति तो सजग होते हैं किंतु संविधान में लिखित’नीति निर्देशक तत्वों की अवहेलना करते हुए पाए जाते हैं, यही कारण है कि
अब कार्यपालिका का स्थान न्यायपालिका ले रही है और देशों की हर समस्या का समाधान न्यायालय के हाथों में आता जा रहा है।निजी हित को छोड़ देश हित जब सोचा जाता है तभी संविधान की किताब के पन्ने खुलते हैं वरना तो झंडे के नीचे जिस दिन खड़े होते हैं उसी दिन संविधान याद आता है ,कला और साहित्य में जब भी हक़ीक़त को व्यक्त किया जाता है तब धर्म के नाम पर उत्पात शुरू होजाते हैं, यह समस्या वैश्विक होती जा रही है अतः लोकतंत्र वाली सरकारों को इसका सशक्त हल खोजना होगा तभी विकसित और विकासशील राष्ट्र संविधान और राष्ट्र को बचा सकेंगी ।
सवाल सिर्फ ‘लेडी आफ हेवन ‘को बैन करने का ही नहीं है अपितु कला और साहित्य को भीड़ तंत्र के उन्माद सेबचाकर संविधान की मर्यादा का भी है ।
राष्ट्र धर्म को व्यक्त करने वाली सम्पादकीय हेतु साधुवाद
Dr Prabha mishra
बेहतर होता कि इस फ़िल्म के विषय के बारे में और जो नूपुर शर्मा ने टिप्पणी की उन दोनों पर विश्व के जाने माने इस्लामिक विद्वानों की (मौलवियों से नहीं) राय ली जाती। मुद्दे उनके सामने रख दिये जाते और उनसे पूछा जाता कि इस फ़िल्म में या जो नूपुर शर्मा ने कहा है उसमें कितना कुछ ग़लत है।
आज विश्व में धर्म / पंथ को लेकर संवेदनशीलता इतनी अधिक फैल गई है कि मानवीय पहलुओं का मूल्य ही समाप्त हुआ जा रहा है । मज़हब हर जगह इस कदर काबिज़ हुआ चला जा रहा है कि विवेक और सहिष्णुता की बात करना जैसे कोई मज़ाक हो गया हो । अर्थ खो चुकी “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” भी बस बातों में रह गई है ।
ब्रिटेन की यह घटना भारत में घटित होती तो अब तक एक राजनैतिक दल विशेष पर सभ्यता को जहालत मैं ले जाने का आरोप लग चुका होता । जलती सड़कों पर राजनीति की रोटियां सिंकने लग जातीं । भीड़ निकल पड़ती अपनी ही जड़ें काटने …बरगलाने वाले सक्रिय हो उठते हैं …
चिंता और गुस्सा दोनों ही मस्तिष्क को उद्वेलित करने लगते हैं कि क्यों इंसान इंसानों के जैसा व्यवहार नहीं कर पा रहा है ! ख़ुद की अक़्ल का इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाता ; क्या धार्मिक संकीर्णता ने वैचारिकता की हत्या कर दी है ?????
आपने ब्रिटेन और भारत की सियासी हलचल का अपने संपादकीय में बेबाकी और निष्पक्षता से अपनी बात कही है. दरअसल ज़ब सियासत और तुष्टिकरण का पलड़ा भारी हो तब संविधान प्रदत्त अधिकारों कि बातें करना बेमानी है. जिसकी लाठी उसकी भैंस को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने वालों के सम्मुख आज सामान्य नागरिकों की आवाज़ कुंद हो गई है. मीडिया भी सही गलत में भेद करने की बजाय अपनी टी. आर. पी. रेटिंग बढ़ाने के चक्कर मैं बार -बार उन्हीं बातों को दिखाकर समाज मैं विद्वेष फैलाने का काम कर रहा है. न जाने यह दौर कब और कहाँ जाकर थमेगा.
अभिव्यक्ति की आजादी लगभग सभी प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं की आत्मा में अंतर्निहित है. ब्रिटेन और उससे भी पहले अमेरिका तो प्रजातंत्र के गढ़ हैं. सच, जो किताबों में लिखा है, जो धर्मग्रंथों का प्राण तत्व है, उसके कथन पर रोक क्यों? सच कोई नाजायज अवधारणा नहीं. यदि दुर्दैव से हो भी तो, क्या उसे दुनिया के सामने नहीं आना चाहिए. किंतु हर सच सुपाच्य नहीं होता. पर वह है तो है. आप उसका सामना करें, इसी में आपका गौरव है. सच बोलने वाले की जान के पीछे पड़ जाना तो एक प्रकार से सच का गला घोंटना है.
हम भारतीय तो सत्यं, शिवं, सुंदरम् के उपासक रहे हैं. हम सत्य का समर्थन ही नहीं करते, बल्कि उसे सर्व भावेन कल्याणकारी और सुंदर भी आने हैं. हमने सत्य को छिपाया नहीं, चाहे वह कितना भी अप्रिय हो.
सत्य की अभ्यर्थना करने वाले इस देश ने एक सीख जरूर ली है. जो आपको देखना ही नहीं चाहते, उनके बारे में कुछ न सोचो, कुछ न कहो, कुछ न करो. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो. अलबत्ता यदि वे तुम्हारे रास्ते में आएं तो उनसे बचो और आत्मरक्षा का पूरा उपाय करो. इति.
सिंह साहब इस विस्तृत टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आपने सही कहा, जहाँ संख्या बल हो वहाँ आत्म रक्षा के अलावा कोई उपाय नहीं है, मुश्किल यह है कि विश्व ने इस ख़तरे को पहले नहीं समझा, अब स्थिति विकराल है
फ़ॉक्स की ट्वीट बहुत कुछ कह जाती है।
हम पता नहीं कौन सी दुनिया बनाने में लगे हैं?कला को कला के
नज़रिये से भी नहीं देख पाते।ख़ुद से बेगाने होते जा रहे हम।
धन्यवाद निहार जी। सच है कि इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा।
दो देशों की कहानी एक संपादकीय की ज़ुबांनी… वाह!!!
समय आ गया है जो उपाय आपने सुझाया है कि इस्लामिक विद्वान अपने धर्म और मुहम्मद साहब के बारे में लिखे गए सत्य और तथ्य बतायें। लेकिन शायद उससे भी समस्या हल नहीं होगी क्योंकि नूपुर शर्मा ने तो क़ुरान की आयत ही उद्धृत की थी, शायद यही ‘द लेडी ऑफ हेवन’ में भी होगा (फ़िल्म देखी नहीं)। यह क़ौम सम्भवतः अपने ही सत्य के उजागर होने से डरती है। हिंसा, फतवे देना, आतंक फैलाना इनका जीवन और कर्तव्य है… दुर्भाग्य है विश्व की शान्तिप्रिय जनसंख्या का जो बहुत वर्षों से यह आतंकवाद झेल रही है। वैसे जो बोया जाता है, काटना भी वही पड़ता है। भारत जब बहुत पहले से इस आतंकवाद के खिलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में बोलता था तो यही विकसित देश उसे नकराते रहे थे। जब ट्विन टावर गिरे तो अमेरिका सहित सारे विकसित देशों की खुमारी टूटी थी। अब सभी के घर में आग लगी है… बुझेगी कैसे यह तो भविष्य ही बतायेगा
शैली जी, इतनी विस्तृत एवं सारगर्भित टिप्पणी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
You have brought forth a very sensitive subject in your Editorial of today.
Salman Rushdie also had to face difficulties when he wrote The Satanic Verses
Regards
Deepak Sharma
Thanks so much Deepak jee
सत्य को प्रकट करता बेहतरीन लेख। सर, आज तथ्य तक पहुंचने अथवा चिंतन करने का किसी के पास समय नहीं है। समय है तो सिर्फ और सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर बवाल मचाना। कबीर कि वह पंक्ति यहां कितनी सटीक बैठती है, “संतो देखत जग बौराना, सांच कहे तो मारन धावे, झूठे लोग पतिआना।”
पुष्पा जी हार्दिक धन्यवाद।
सत्य को प्रकट करता बेहतरीन लेख। सर, आज तथ्य तक पहुंचने अथवा चिंतन करने का किसी के पास समय नहीं है। समय है तो सिर्फ और सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर बवाल मचाना। कबीर कि वह पंक्ति यहां कितनी सटीक बैठती है, “संतो देखत जग बौराना, सांची कहे तो मारन धावे, झूठे लोग पतिआना।”
तात्कालिक मुद्दे पर एक खरा और विस्तृत संपादकीय। सच तो यह है कि किसी भी विवादस्पद विषय पर राजनीति करने वाले लोग अधिक सक्रिय हैं और इन्हें सुलझाने की इच्छा रखने वाले सुस्त और हताश हैं। और इनमें सबसे अधिक ग़लत रवैया मीडिया का होता का रहा है, जिसे सकारत्मक भूमिका निभानी चाहिए वह नकारात्मक होता जा रहा है।
बहरहाल वर्तमान के इस विषय पर आपकी खरी खरी बातों के लिए हार्दिक बधाई। सादर।
आपने मुद्दे की नब्ज़ को पकड़ा है विरेन्द्र भाई। धन्यवाद।
ज्वलन्त सम्पादकीय , सत्ता विपक्ष की जद्दोजहद और धर्म की राजनीति फिल्मों की सवारी करती हुई विशव भ्रमण पर। फिल्मों को इतिहास बताने वाले स्वयं ही भ्रमित हैं। क्या आजकल सेंसर बोर्ड नाम की कोई संस्था नहीं, या उसे भी गोदी अथवा पालतू बना दिया ! इस प्रकार के वादविवाद से निपटने के लिए संवैधानिक नियमो की आवश्यकता महसूस हुई लेकिन सत्ता के रसूखदार उस पर हावी होकर उसे ताक में रख कर अपना वर्चस्व बनाने की होड़ मैं हैं, कोई भी देश इससे अछूता नहीं। सराहनीय व विचारणीय सम्पादकीय
धन्यवाद कैलाश भाई।
सामयिक ज्वलंत विषय पर विश्लेषणात्मक आलेख।पर यह सब बातें यदि उन लोगों को भी समझ आजाएं जो विरोध करते और वस्तुस्थिति पर पर्दा डालना चाहते हैं तो उनको समझाना उतना ही मुश्किल ही जितना जागे हुए को जगाना। विस्तृत जानकारी पूर्ण आलेख ।
उषा जी बहुत बहुत धन्यवाद।
Tejendra जी
अति उत्तम सम्पादकीय के लिए हार्दिक शुभकामनें
व
Father’s Day ki mubaarakbaad
देवी जी, बहुत बहुत धन्यवाद
सम्पादकीय में अच्छा प्रश्न उठाया गया है ,क्याविश्व का कोई देश संविधान के अनुसार चलता है ? संविधान के अनुसार सरकारें नहीं चला करतीं लेकिन, देश और सरकारें संवैधानिक प्रक्रिया के आधार पर बनती अवश्य हैं,अतः संविधान का सम्मान करना उतना ही महत्व पूर्ण हैजितना किसी राष्ट्र के ध्वज का ।
लोकतांत्रिक देशों में नागरिक अपने मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग करने के प्रति तो सजग होते हैं किंतु संविधान में लिखित’नीति निर्देशक तत्वों की अवहेलना करते हुए पाए जाते हैं, यही कारण है कि
अब कार्यपालिका का स्थान न्यायपालिका ले रही है और देशों की हर समस्या का समाधान न्यायालय के हाथों में आता जा रहा है।निजी हित को छोड़ देश हित जब सोचा जाता है तभी संविधान की किताब के पन्ने खुलते हैं वरना तो झंडे के नीचे जिस दिन खड़े होते हैं उसी दिन संविधान याद आता है ,कला और साहित्य में जब भी हक़ीक़त को व्यक्त किया जाता है तब धर्म के नाम पर उत्पात शुरू होजाते हैं, यह समस्या वैश्विक होती जा रही है अतः लोकतंत्र वाली सरकारों को इसका सशक्त हल खोजना होगा तभी विकसित और विकासशील राष्ट्र संविधान और राष्ट्र को बचा सकेंगी ।
सवाल सिर्फ ‘लेडी आफ हेवन ‘को बैन करने का ही नहीं है अपितु कला और साहित्य को भीड़ तंत्र के उन्माद सेबचाकर संविधान की मर्यादा का भी है ।
राष्ट्र धर्म को व्यक्त करने वाली सम्पादकीय हेतु साधुवाद
Dr Prabha mishra
प्रभा जी, बहुत बहुत धन्यवाद। आपकी काव्यात्मक टिप्पणी बेहतरीन है।
बेहतर होता कि इस फ़िल्म के विषय के बारे में और जो नूपुर शर्मा ने टिप्पणी की उन दोनों पर विश्व के जाने माने इस्लामिक विद्वानों की (मौलवियों से नहीं) राय ली जाती। मुद्दे उनके सामने रख दिये जाते और उनसे पूछा जाता कि इस फ़िल्म में या जो नूपुर शर्मा ने कहा है उसमें कितना कुछ ग़लत है।
धन्यवाद रमेश भाई
आज विश्व में धर्म / पंथ को लेकर संवेदनशीलता इतनी अधिक फैल गई है कि मानवीय पहलुओं का मूल्य ही समाप्त हुआ जा रहा है । मज़हब हर जगह इस कदर काबिज़ हुआ चला जा रहा है कि विवेक और सहिष्णुता की बात करना जैसे कोई मज़ाक हो गया हो । अर्थ खो चुकी “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” भी बस बातों में रह गई है ।
ब्रिटेन की यह घटना भारत में घटित होती तो अब तक एक राजनैतिक दल विशेष पर सभ्यता को जहालत मैं ले जाने का आरोप लग चुका होता । जलती सड़कों पर राजनीति की रोटियां सिंकने लग जातीं । भीड़ निकल पड़ती अपनी ही जड़ें काटने …बरगलाने वाले सक्रिय हो उठते हैं …
चिंता और गुस्सा दोनों ही मस्तिष्क को उद्वेलित करने लगते हैं कि क्यों इंसान इंसानों के जैसा व्यवहार नहीं कर पा रहा है ! ख़ुद की अक़्ल का इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाता ; क्या धार्मिक संकीर्णता ने वैचारिकता की हत्या कर दी है ?????
— रचना सरन
इस सार्थक प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद रचना जी।
आपने ब्रिटेन और भारत की सियासी हलचल का अपने संपादकीय में बेबाकी और निष्पक्षता से अपनी बात कही है. दरअसल ज़ब सियासत और तुष्टिकरण का पलड़ा भारी हो तब संविधान प्रदत्त अधिकारों कि बातें करना बेमानी है. जिसकी लाठी उसकी भैंस को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने वालों के सम्मुख आज सामान्य नागरिकों की आवाज़ कुंद हो गई है. मीडिया भी सही गलत में भेद करने की बजाय अपनी टी. आर. पी. रेटिंग बढ़ाने के चक्कर मैं बार -बार उन्हीं बातों को दिखाकर समाज मैं विद्वेष फैलाने का काम कर रहा है. न जाने यह दौर कब और कहाँ जाकर थमेगा.