समीक्षक : स्वीटी तालवाड़
मेरे सम्मुख है मुंबई के गज़लकार और कवि प्रदीप गुप्ता का नवीनतम रचना-संग्रह “बहुत कुछ अनकहा-सा रह गया है” जो हाल ही में अमेजान पर प्रकाशित हुआ है .
    संग्रह का शीर्षक नितान्त सार्थक है, साधारण मनुष्य भी जब अपने मन की बात किसी के समक्ष रखता है, तो उसके पास भी बहुत कुछ अनकहा-सा रह जाता है, फिर रचनाकार तो चाहे जितनी भी भावाभिव्यक्ति कर ले, कुछ-न-कुछ तो अनकहा रह ही जाता है, उसके मनोमस्तिष्क में, इस संग्रह के नौंवे नम्बर पर संकलित गज़ल है बहुत कुछ अनकहा सा गया है ।
बहुत कुछ अनकहा सा रह गया है बीच में अपने
जिसे मैं चाह कर भी कह न पाया, ना कहा तुमने
    इस संग्रह में उनकी चुनी हुई 27 गज़लें, 11 कविताएं और अन्त में 7 अन्तर्राष्ट्रीय नामचीन कवियों की रचनाओं का भावानुवाद संकलित है । संग्रह गज़ल प्रधान है । गज़ल प्रमुखतः उर्दू भाषा की विधा है, विशुद्ध अटूट प्रेम, अक्षुण्ण प्रेम की पराकाष्ठा, प्रिय का सौंदर्य-चित्रण, प्रिय से दूर या अलगाव के कारण जन्म लेने वाली वेदना गज़लों के प्रमुख वर्ण्य-विषय रहे हैं । गज़लकार प्रदीप जी ने भी अपनी गज़लों में इन विषयों को प्रधानता दी है, लेकिन साथ ही प्रकृति चित्रण, सामाजिक संवेदना, सामाजिक व्यंग्य, जाति-पाति, सामाजिक यथार्थ, मानवतावाद और समकालीन राजनीति को भी विषय बनाया है ।
“संवरती है वो” में वर्णित गज़लकार की प्रेयसी में शबाव भी है, नज़ाकत भी है और एक अनोखी चमक भी है –
वो जब भी इधर से गुज़र के जाती है
फिज़ा उसके एहसास से महक जाती है
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जब भी ज़िन्दगी में अंधेरा सा नजर आता है
वह कहीं दिये की लौ सी चमक जाती है
ये हसीना जब सामने होती है तो –
मैं ख्वाबों में किया करता था बातें जिस परीनश से
वो जब है सामने, मेरे लब खुल नहीं पाते आसानी से ।
कहकर, प्रेम का बहुत ही सटीक व स्वाभाविक चित्र किया है ।
लेकिन जब यही प्रेयसी कहीं पर चली जाती है तो-
तेरे चले जाने से दिल का कोई हिस्सा दरक गया
और मेरी आँखों में छुपा हुआ आंसू ढलक गया
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अगर मिलती नहीं मुझसे कोई शिकवा नहीं तुमसे
मगर चुपचाप रहती क्यों, जब रोशन करती हो मेरे सपने
जिसका एक स्पर्श-
जब पहली दफा छू गया था ये हाथ तेरे हाथों से
अजीब सिहरन लगे है, वरना हाथों में और क्या है ।
साथ, वही जब साथ नहीं तो कैसा अहसास होता है-
शुक्रिया दिल तोड़ के शहर छोड़ के जाने वाले
सामना सच का करना सिखा दिया है मुझे
और शायर कह उठता है-
मुहब्बत में हासिल हुआ क्या मुझे
सब कुछ लुटा के मैं ये सोचता हूँ
और यह दर्द का अहसास कभी-कभी उसे अपनी सीमाएं तोड़ने के लिए मजबूर कर देता है-
मैं अपना आईना तोड़ के आज़ाद हो गया हूँ
पूरी खला में जैसे फिर से आबाद हो गया हूँ ।
प्रदीप जी की गज़लों में प्रकृति के अनेकों सुकोमल रूपों, उपादानों का भी सुन्दर चित्रण हुआ है, नायिका की नज़ाकत का संकेत पंखुरी के माध्यम से कितना सुन्दर बन पड़ा है-
जब भी उससे निगाह मिल जाती है
पंखुरी की तरह व खुद में सिमट जाती है ।
हर रात का एक सवेरा होता है यह एक शाश्वत सत्य है, रात्रि का रानी के रूप में चित्रण मोहक है-
एक सिर्फ अंधेरा ही नहीं है, रात-रानी भी है
ये भोर होने तक की छोटी सी कहानी भी है ।
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सूरज धरा के गाल पर सुबह सवेरे गुलाल मल गया
मिटाने निकला था अंधेरा प्यार का जादू चल गया ।
सूर्योदय का यह रोमांटिक चित्रण होली के चित्र को भी साकार करने में पूर्णतया सक्षम है ।
सामाजिक विसंगतियों पर भी गज़लकार ने पैनी दृष्टि से प्रहार किया है-
अच्छे खासे आदमी थे बन गए कठपुतलियाँ
नाचते हैं जातियों और मज़हबों के नाम पर
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प्रार्थना या अर्चना के लिए में मन्दिर जरूरी है कहाँ
दिल में बस जाएंगे तुम्हारे जो भरोसा राम पे ।
अदालतों में मिलने वाली तारीख पर तारीख और अधिवक्ताओं द्वार वादकारियों के शोषण का चित्र देखिये –
कितनी तारीखें पड़ी हैं याद है हम को नहीं
फ़ीस मोटी ले रहे है लॉयर अब तक केस पर
बढ़ते शहरीकरण ने किसानों की भूमि निगल ली है-
गुम हो चुका है जब से मेरा गांव इस शहर के बीच
खेती नहीं बची है, कहीं अब किसी बशर के पास
आधुनिक आभासी दुनिया, आनलाइन शापिंग का स्थानीय विक्रेताओं पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, देखिये-
सज गई आभासी दुनिया आज कल सामान से
बंद होते जा रहे हैं स्टोर जो थे कभी मेरे घर के पास
भौतिक चकाचौंध वाली इस दुनिया में सच के साथ चलने वाले भी सिमटते जा रहे हैं-
हवा के रुख के साथ चले वो कामयाब लगे है
मगर जो सच के साथ चले वो मुझे नायाब लगे है ।
झूठे बेखौफ है और सच कैद है, यही यथार्थ है आज की इस दुनिया का
ये झूठ घूमता है बेखौफ हर सड़क, हर गली में
कितनी अजीब बात है, सच क़ैद ज़जीरों में है ।
हर किसी को बड़ा होने का गुमान है-
बड़ा होने का गुमान करने से क्या हासिल होगा
सूरज ग्रहण हुआ तो चाँद सूरज को निगल गया
‘चंदन बिखर गया’ गज़ल की ये पंक्तियाँ-
कभी कापी कभी फीस तो कभी किताब नहीं
इस जद्दोजहद में अपना बचपन गुजर गया
मार्मिक सत्य का उदघाटन करती हैं, हम में से हमारे बहुत से साथियों के जीवन का यह कटु सत्य है । सरकारी कर्मचारी पिता का सीमित वेतन, परिवार की जिम्मेदारी, बच्चों की शिक्षा, कितना कठिन होता था वह सब । आज भी न जाने कितने बच्चों का बचपन आर्थिक अभावों के कारण इसी प्रकार बीतता है, यह हमारे समाज का कटु सत्य है ।
‘चुनावी गज़ल’ में गज़लकार ने समसामाजिक राजनीति, नेताओं की दल बदलू मानसिकता व आम जनता की स्थिति का भी हृदय स्पर्शी चित्रण किया है –
जिसको टिकट न मिल सका अपने दल में
वो अलग से अपना दल बना के बैठ गया
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दरी, कनात, तम्बू जो लगा रहा था मीटिंग में
कान में रूई डाली और वो पीछे जाके बैठ गया
इस प्रकार अनेकों सामाजिक विसंगतियों पर चुभते हुए व्यंग्य देखने के लिए मिलते हैं और मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं ।
गज़ल प्रमुखतः उर्दू की विधा है, अतः गज़लकार की हिन्दी के साथ उर्दू पर भी मजबूत पकड़ होना आवश्यक है, जो प्रदीप जी की भाषा में स्पष्ट परिलक्षित होती है । प्रदीप जी ने प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है उर्दू के साथ उनका बचपन का नाता है, साथ ही रचना में प्रयुक्त उर्दू भाषा के जो शब्द ज्यादा आप फ़हम नहीं है, उनका अर्थ रचना के आखिर में दिया गया है, लेकिन फिर भी कुछ शब्दों का अर्थ गज़लकार देने से चूक गये हैं, जैसे – ‘तिशनगी’, ‘मसाइल’, ‘शज़र’ आदि ।
‘सिम्त’ शब्द का प्रयोग गज़लकार ने अपनी गज़लों में तीन बार किया है, परन्तु इसका अर्थ 25वीं गज़ल के अन्त में दिया गया है ।
इसके अलावा गज़लों में अंग्रेजी के शब्दों का भी भरपूर प्रयोग हुआ है, जैसे- लॉयर, केस, बेस, टॉनिक, फेस, थियेटर आदि । तुक-बंदी के लिए भी अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग रोचक है ।
अब बात करते है हैं रचना संग्रह में संकलित उनकी कविताओं की-
पहली कविता है ‘कवि बड़ा या कविता’
कवि ने कवि और कविता के पारस्परिक संबंध को हिमनद और सरिता के संबंध के साथ तुलनात्मक रूप से व्याख्यायित किया है जैसे हिमनद पिघलने से जलधारा निकल आती है और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए विशाल नदी का रूप धारण कर अपने मार्ग में आने वाले गांव, शहरों को जल रूपी जीवन प्रदान करती है, उसी प्रकार कवि के मानस के द्रवित होने पर कविता जन्म लेती है, जो युग की पीड़ा, संघर्ष को आत्मसात् करते हुए आगे बढ़ते हुए इतिहास बन जाती है ।
गण-गण का चिंतन कविता में कवि ने गण तंत्र का सच्चा अर्थ प्रस्तुत किया है-
हर गण के सर पर छत रहे
फुटपाथ पे कोई सोए नहीं
कड़कड़ातती ठंड में कही
अकाल मृत्यु होए नहीं
जन गण को भाषण नहीं भोजन चाहिए, भयमुक्त वातावरण हो, प्रत्येक व्यक्ति श्रम-रत रहे, खुल के सांस ले सके और अपने विश्वास व अपनी शर्तों पर जी सके, सब मिलकर साथ चलें, यही गणतंत्र का धर्म है ।
दोस्त में पांच दशकों बाद किसी पुराने दोस्त के मिलने पर कैसे अतीत की स्मृतियाँ जागृत हो गयी  हैं, बचपन से जवानी तक जिस दोस्त के साथ न जाने कितने वर्ष बिताये, कितनी जगह घूमे, उस मित्र पर उम्र का प्रभाव साफ दिखता है, पर उस उम्र का भी एक अलग ही नूर होता है, शिक्षा नौकरी, व्यवसाय सभी की आंच में तपा हम उम्र दोस्त पुरानी यादों को ताजा कर देता है
याद आया सामने कालेज था लड़कियों का वहीं आती जाती टीचरों में आज पुरानी कई युवती दिखीं ।
लगता है कवि ने छात्र जीवन में लड़कियों को खूब ताड़ा है, तभी तो वर्षों के बाद मिलने पर भी उनको पहचानना आपको मुश्किल नहीं लगता है .
मदिरा
दो घूंट जो उतरती है गले में जादू सा जगा देती है,
रोम रोम पुलकित हो जाता है, नया जोश ला देती है ।
मदिरा के प्रभाव, मदिरापान के परिणाम दर्शाती इस कविता के अन्त में कवि से मद्यपों को जागृत किया है कि
मदिरा से मैत्री किया जाना एक सीमा तक ही जरूरी है
मदिरा से ज्यादा इश्क करोगे तो बीमारियों से घिर जाओगे ।
सीमा में एन्जाय करो, ज्यादा मे हंसी के पात्र बन जाओगे ।
बासंती रुत कविता ऋतुराज बसन्त के मोहक रूप को प्रस्तुत करती .यह कविता वसन्तागमन के विभिन्न संकेतों से सराबोर है –
हरी भरी सरसों की हथेली पे
जैसे रच दी पीली सजावट है
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ओंस की बूंदों से अंकित
ऋचाओं की लिखावट है
बासंती रुत की आहट है ।
शीतकाल में सारी चर-अचर प्रकृति, जो जम सी गयी थी, निष्क्रिय हो गयी थी, उसमें बसन्त नव जीवन का संचार करता है, गुनगुनाती धूप, लहलहाती प्रकृति चारों ओर खिले फूल, बर्फीले थपेड़ों से मुक्ति, कोहरे से मुक्ति व चारों ओर चहल-पहल सर्दी के जाने और बसन्त के आगमन के सूचना दे रहे है ।
कोरोना महामारी के कारण सम्पूर्ण विश्व व मानव जाति ने विगत दो वर्षों मे क्या-क्या झेला है, उसका बहुत ही साकार प्रस्तुतीकरण अजब सी आफत कविता में हुआ है । इस महामारी के कारण जीवन जैसे थम सा गया है, सभी अपने-अपने घर के अन्दर कैद हो गये हैं, अपनों से मिलने में भी डर लगता है कि कहीं कोरोना वायरस से ग्रस्त न हो जाये, हर समय हाथ धोते हैं, बच्चों का स्कूल, खेल कूद सब छूट गया है । बच्चे भी कापी किताब छोड़कर लैपटाप पर पढ़ते है और दफ्तर जाने वालों की मीटिंग भी वर्चुअल हो गयी है । बहुत ही सजीव व चित्रात्मक वर्णन है और अंत में व्यंग्य भी खूब है कि
बंद सिनेमा, क्लब और जिम
रैली में सब भीड़ जुटाए
रास्ता गर मंजिल बन जाए कविता भी प्रभावित करती है .इस भौतिकता वादी युग में आज का मानव आगे-आगे बढ़ने की आपाधापी में जीवन को जटिल बनाता जा रहा है, जीवन का आनन्द जैसे चुक गया है, अगर अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर लिया जाये, तो
समय जरा विपरीत खड़ा हो
इच्छाओं का पेट बड़ा हो
दर्प दंश से गिरा पड़ा हो
और अरि भी उधर अड़ा हो
इनसे अगर रार ठन जाए
जीवन बहुत सरल बन जाए
माँ, बाबू जी कविता जीवन की चौथी अवस्था की हकीकत बयां करती, इस कविता को पढ़कर मुझे लगता है कि इस कविता का शीर्षक होना चाहिए हम अब बूढ़े होने लगे हैं, चूँकि रचनाकार स्वयं इस अवस्था से गुजर रहा है, हालांकि इस अवस्था में भी वह बहुत जीवन्त व गतिशील जीवन जी रहा है, जिसके लिए वह बधाई का पात्र है । जीवन के स्वर्णिम काल युवावस्था को पार कर वृद्धावस्था में प्रवेश करने पर अमूमन हर व्यक्ति को इन सभी समस्याओं व वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है, जवानी जैसा जोश बुढ़ापे मे कहाँ?
लेकिन माँ-बाबू जी दवाओं के बिल बढ़ने पर कभी महँगे नहीं लगते, नहीं लगने चाहिए, माँ बाबू जी स्वयं में ही बहुत महंगे होते है, आज की पीढ़ी को यह बात समझनी चाहिए । कवि ने इस अवस्था का बहुत ही सजीव चित्र प्रस्तुत किया है इन पंक्तियों में-
इन दिनों ज़रा दूर चलते हैं बुरी तरह हांफ जाते हैं
कोई दुखान्त फिल्म अगर देख ली तो कांप जाते है
किसी हम उम्र के गुजरने की खबर मिल जाती है
फिर मुश्किल से एक आध ही रोटी खाई जाती है
अनहोनी की आहट से दिल धड़कने लगे हैं
माँ बाबू जी इन दिनों थकने लगे हैं ।
युद्ध की विभीषिका व परिणामों को प्रस्तुत करती कविता है युद्ध । विंस्टन चर्चिल ने जिस प्रकार फौजियों की शहादत, उजड़े परिवार, ध्वस्त भवन और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की कीमत पर युद्ध जीता, विश्व युद्ध फतह कर वह युद्ध नायक तो बन गया, परन्तु कालान्तर में वो इतिहास की पुस्तरों में एक टिप्पणी बनकर ही रह गया । इसीलिए कवि का युद्ध की विभीषिकाओं से आहत हृदय कह उठता है-
यह याद रखने की बात है
युद्ध मानवता पर कलंक है
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क्योंकि युद्ध की जीत
हमेशा योद्धाओं की शहादत,
विधवाओं और अनाथ बच्चों के क्रंदन की कीमत पर होती है
यही नहीं लुढ़की अर्थव्यवस्था का दंश
विजयी राष्ट्र को भी साल दर साल झेलना पड़ता है
पर युद्ध पिपासु अपने अलग ही नशे में रहते हैं
और उनकी सनक की कीमत की पीढ़ियों को चुकानी पड़ती है ।
निःसंदेह यह कविता पूर्णतया समसामायिक है और इसमें युद्ध पिपासुओं के लिए एक संदेभ भी निहित है ।
बहुत दिनों के बाद बहुत ही भावविभोर कर देने वाली कविता है  ! अपनी युवावस्था की मित्र का प्रौढ़ावस्था का चित्र देखकर अतीत की स्मृतियों में गुम हो जाना अत्यन्त स्वाभाविक है । अधूरी प्रेम कथा की नायिका उम्र के इस दौर में दांत इम्पलान्ट करा चुकी है, बाल युवावस्था के बालों से ज्यादा काले दिख रहे हैं, हास्य व व्यंग्य का यह पुट सराहनीय है-
फोटो में तुम्हारे बाल
यौवन के दिनों से भी ज्यादा काले दिख रहे हैं
लगता है ब्यूटी पार्लर वाली आंटी ने
कुछ ज्यादा गहरे रंग का डाई लगा दिया है ….
लेकिन कवि के लिए
मेरे लिए तुम्हारा यह फोटो
अपनी गुदिश्ता ज़िन्दगी की
एक लम्बी सुरंग से कम नहीं है
जिसमें मैं वापस चलने की कोशिश कर रहा हूँ
लेकिन निकलने का रास्ता नहीं
कवि के अनुसार “राम गंगा नदी और नाचनी गाँव” रचना 1982 में लिखी गयी थी, जिसमें तिब्बत की सीमा पर अवस्थित नामिक ग्लेशियर से निकली नदी राम गंगा को प्रतीक माना है . ग्लेशियर से निकलते ही पड़ने वाले पहले पड़ाव नाचनी गाँव  के जीवन का अद्भुत खाका खींच दिया गया है. नाचनी गाँव चूंकि बाह्य सभ्यता संस्कृति से अनछुआ है, अतः वहाँ का परिवेश विशुद्ध सात्विक, ग्रामीण व पहाड़ी है । नदी किनारे बसे पहाड़ी क्षेत्र के ग्रामीणों के जीवन का सजीव चित्रण इस कविता में हुआ है । आज तो पहाड़ों पर फिर भी काफी विकास हो चुका है और हो रहा है, लेकिन 40 वर्ष पूर्व ये गाँव बहुत ही पिछड़े थे, जहाँ दिन में केवल एक बस आती थी, चिट्ठी पत्री, सब्जियाँ, समाचार-पत्र सब उस बस के आने पर ही प्राप्त हो सकते थे अन्यथा कुछ भी नहीं, इस सत्य का अनुभव में स्वयं 1974 में कर चुकी है ।
कवि रामगंगा के जल के स्पर्श में ‘नामिक’ ग्लेशियर, जहाँ से रामगंगा का जन्म हुआ है, की शीतलता और पवित्रता अनुभव करता है, कितना जुड़ाव है प्रकृति से ।कवि की दृष्टि से राम गंगा इस गांव का कम्युनिटी सेन्टर भी है, क्यों, देखियें-
महिलाएं यहाँ आ के नहाती है, कपड़े धोती है
अपने नन्हें मुन्नों को धूप सेकने के लिए लिटा देती हैं
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लौटते समय घर के लिए
वे पीने के लिए पानी की बाल्टी भर के ले जाना नहीं भूलती है ।
इस प्रकार ग्रामीण परिवेश और ग्रामीण जीवन का बड़ी ही सजीव वर्णन इस कविता में हुआ है ।
कवि की ये कवितायें कुछ तुकान्त है और कुछ अतुकान्त, भाषा भावाभिव्यक्ति में पूर्णतः समर्थ है, अंग्रेजी, उर्दू के शब्दों का प्रयोग भाषा को व्यवाहारिक बनाता है, प्रकृति चित्रण के प्रसंग मोहक हैं, सामाजिक विसंगतियों पर कड़ा प्रहार किया गया है, जीवन का यथार्थ कविताओं का प्राण है ।
रचना संग्रह के अन्त में विभिन्न देशों के कुछ प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का भावानुवाद संकलित है । कविता कविता होती है, चाहे किसी भी भाषा में हो, कवि की संवेदनाएं और ईमानदार भावाभिव्यक्ति कविता को कालजयी बना देती है ।इस पुस्तक का आवरण प्रख्यात वारली पेंटर अनिल वांगड ने बनाया है .
मैं कह सकती हूँ कि रचनाकार ने अपनी गज़लों व कविताओं में अपने अन्तर्मन की, अपनी संवेदनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति की है, सभी रचनाएं हमें अपने जीवन के करीब लगती हैं और हमारे हृदय को आह्लादित करती हैं
डॉ स्वीटी तालवाड़, हिंदुस्तानी अकादमी की सदस्य. दयानंद डिग्री कॉलेज, मुरादाबाद में लम्बे समय तक प्रधानाचार्य. पिताजी के रेलवे में होने के कारण प्रारंभिक शिक्षा अलग – अलग शहरों में .आगरा विश्व विद्यालय से कांस्य पदक व नेशनल स्कालरशिप .1974 में एम.ए. हिंदी बरेली कॉलेज, बरेली  से , आगरा विश्व विद्यालय में तृतीय स्थान . 1988 में रीतिकालीन कवि घनानंद एवं बिहारी की अप्रस्तुत योजना का तुलनात्मक अध्ययन पर पी.एच-डी

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