पुस्तक : पीले हाफ पैंट वाली लड़की (कहानी संग्रह) कहानीकार : अरुण अर्णव खरे
मूल्य : रु 395/- प्रकाशक : हंस प्रकाशन
समीक्षक
विजय कुमार तिवारी
साहित्य विधा में कहानी लेखन खूब प्रचलन में है। दुनिया भर में कहानियाँ लिखी और पढ़ी जा रही हैं। समीक्षा करते समय आरोप लगता रहता है कि समीक्षक सारांश प्रस्तुत कर रहे हैं। रचना के पात्रों की परिस्थितियाँ,उनके संघर्ष,उनकी संभावनाएं,सुख-दुख,रचनाकार की प्रतिबद्धता और समझ सब तो परिदृश्य में उभरते ही हैं। यह सही है कि समीक्षा रचना आधारित होती है परन्तु चिन्तन किया जाय तो इसे भी प्रभावशाली बनाने की प्रविधियाँ विकसित की जा सकती हैं। लेखक या रचनाकार की संघर्ष-चेतना, प्रतिबद्धता,भाषा और शैली के संस्कार उभरने ही चाहिए। सबसे आवश्यक है संवेदना, मानवता के गुणों की छानबीन करना और सम्यक चरित्र खड़ा करना। रचनाकार के पास व्यापक दृष्टि होती है,वह अपने समय का चितेरा होता है और अपने अनुभवों को अनुकूल विधा में रच देता है। विधा चयन उसका अपना निर्णय है।
दरअसल सब कुछ मनुष्य की प्रवृत्तियों और चिन्तन से जुड़ा हुआ है। हमारा या हमारे समाज का चिन्तन जितना सारगर्भित और महत्वपूर्ण होगा,सृजन भी श्रेष्ठ होता जायेगा। इतना तो स्वीकार करना ही चाहिए,कोई भी रचनाकार कुछ लिखता है,उससे पहले,लेखन के पूर्व की सम्पूर्ण प्रक्रियाओं से गुजरता ही है। अभी तक हमारे साहित्य चिन्तन में ऐसे तत्वों की पड़ताल कम ही हुई है। मान लेना चाहिए कि लेखक का भीतरी,किसी घटना से,परिस्थिति से,व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों से प्रभावित हुए बिना लिख ही नहीं सकता। आदर्श परिस्थितियों से विचलन लेखक सह नहीं सकता,उसकी कलम जय बोलने लगती है। सारांशतः हर लेखक को समुचित सम्मान दिया जाना चाहिए क्योंकि वह ऐसा चितेरा है जो संगतियों-विसंगतियों को पहचानता है और समाज को दिशा देता है। देश हो या विदेश, पूरी दुनिया में साहित्यकार अपने-अपने तरीके से सृजन में लगे हैं और मानवता का मार्गदर्शन कर रहे हैं।
भोपाल के अरुण अर्णव खरे जी का कहानी संग्रह “पीले हाफ पैंट वाली लड़की” मेरे सामने है। अर्णव जी ने व्यंग्य,कहानी,कविता सहित अनेक विधाओं में लिखा है और पुरस्कृत हुए हैं। संग्रह के प्रथम भीतरी आवरण पर प्रकाशक की ओर से की गई टिप्पणी को उद्धृत करना अनुचित नहीं होगा,उन्होंने लिखा है-“अरुण जी की कहानियों में एक विशेष प्रकार का कथातत्व है,उनका ट्रीटमेंट और सरोकार पाठकों को चौंकाता है। वह अपनी कहानियों के विषय हमारे आसपास रह रहे लोगों की जिंदगी से उठाते हैं लेकिन वे ऐसे विषय होते हैं जो अधिकांश लेखकों की दृष्टि से ओझल रहते हैं।”
‘अपनी बात’ में अरुण अर्णव खरे ने कहानी विधा को लेकर कहा है,”मेरी नजर में कहानी केवल जिंदगी के सुखद,भावनात्मक,मार्मिक,कलात्मक अथवा खुरदरे यथार्थ का चित्रण करने भर का नाम नहीं है अपितु उसे उद्देश्यपूर्ण और जनरुचि के अनुरूप ढालने का काम भी है। किसी व्यक्ति, घटना या प्रसंग में जब कहानी की संभावनाएँ दिखाई देती हैं तो उसके पीछे की वजह,प्रभाव,सरोकार और संवेदनाओं के उद्वेग को समझना जरुरी लगता है तभी कोई कहानी मुकम्मल आकार ले पाती है।” खरे जी की नजर में परिपूर्ण कहानी वही है जिसे लेखक एक निष्कर्षात्मक अंत तक ले जाता है, पाठकों को अंत जानने के लिए बेचैनी की स्थिति में नहीं छोड़ता। उन्होंने स्वयं लिखा है-“इस संग्रह की कहानियाँ भी आम लोगों की जिंदगी और परिवेश से जुड़ी कहानियाँ हैं जिनको एक अर्थपूर्ण अंत देने की कोशिश है।” इन कहानियों में जिंदगी के बहुत से रंगों का समावेश है,पात्र आसपास के हैं और स्त्री विमर्श भी अधिकांश कहानियों में अनुभव किया जा सकता है। खरे साहब लिखते हैं-“इन कहानियों में स्त्री की मौजूदगी,समाज में रची-बसी पारम्परिक स्त्री वाली नहीं है। वह जिंदगी को नये सिरे से परिभाषित करती है और अपनी उपस्थिति से चौंकाती है। अधिकांश कहानियों के केन्द्र में युवा और उनके सरोकार हैं।” उनकी “अपनी बात’ ने समीक्षकों/आलोचकों का काम सरल कर दिया है। यह बिल्कुल सही है,अपनी रचना में रचनाकार स्वयं होता ही है और जितनी गहराई व सच्चाई से वह जानता है,दूसरा नहीं जान पाता। इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं जो कहानीकार की कहानी लेखन क्षमता का परिचय दे रही हैं।
‘हारेगी नहीं आनंदिता’ संग्रह की पहली कहानी है और शुरुआत अंग्रेजी शब्दों वाले वाक्य से हुई है। वर्षों रुममेट रहे दो मित्रों की मुलाकात कड़वाहट भरे माहौल में होती है। दोनों विद्यार्थी जीवन से मित्र हैं। एक यानी शेखर अच्छा व्यक्तित्व वाला है और दूसरा प्रशांत उदण्ड,झगड़ालू और ईर्ष्यालु स्वभाव का है। अरुण अर्णव खरे जी के विद्यार्थी जीवन के अनुभवों पर आधारित यह तेजाब पीड़ित आनंदिता की कहानी है। खरे साहब ने कहानी को मार्मिक तरीके से विस्तार दिया है और पात्र अपना चरित्र बेहतर तरीके से निभाते हैं। कहानी संदेश देती है,गलत तरीका अपनाने वाला कभी सफल नहीं होता। दूसरी ओर तेजाब से चेहरा भयावह हो जाने के बावजूद शेखर आनंदिता से शादी करता है और दोनों सुख पूर्वक रहते हैं। आनंदिता का प्रशांत के साथ संवाद में रहस्य उजागर होता है। आत्मग्लानि से प्रशांत की आँखों से आँसू बहने लगते हैं। आनंदिता कहती है-‘रो लीजिए,मन हलका हो जायेगा,’ और कसम देती है-अपने बेटे और पत्नी को कुछ मत कहियेगा— वे जिंदगी भर इस सदमे से उबर नहीं पाएंगे।
‘पीले हाफ पैंट वाली लड़की’ जिजीविषा और आभाषी दुनिया के साथ जीवन के हर रंग को महसूस करने की अद्भुत चौंकाने वाली कहानी है। खरे जी इस कहानी को धीरे-धीरे बुनते हुए विस्तार देते हैं। वे रंग-विन्यास को डिकोड करते हैं,खुश होते हैं और उस लड़की के पीछे-पीछे चलना पति-पत्नी को भाने लगता है। लड़की फोन पर जोर-जोर से बातें करती है ताकि उसकी बातें लोग सुन सकें। नित्य साथ-साथ वाक करने से आत्मीयता पैदा हो गई है। वह भी प्रतीक्षा करती है,देर होने पर। उसके पक्ष में करन अंकल अपना वैचारिक मत भी बदलने को तैयार हैं। कहानी को विस्तार देता फोन पर उसका संवाद कथाकार की भावनाओं की अपनी विशेष उड़ान है। कहानी के इसी शीर्षक पर इस संग्रह का नामकरण हुआ है। कहानी मोड़ लेती है जब करन अंकल को गायत्री रंगराजन का फोन आता है और नीला यानी पीले हाफ पैंट वाली लड़की के बारे में सब कुछ पता चलता है। वह एक अनाथ लड़की है,उसे ‘नान-होजकिन लिम्फोमा’ बीमारी है और उसका जीवन खत्म होने वाला है। सहसा विश्वास नहीं होता। वैज्ञानिक चिन्तन लिए कलात्मक और मानवीयता के भावों से भरी कहानी खरे साहब के कथा लेखन का बेहतरीन उदाहरण है।
अपनी कहानियों में खरे साहब कुछ नया संदर्भ,कोई नयी भाषा और नयी शैली डालते हैं। अंग्रेजी शब्दों,वाक्यों से कहानी का टोन सेट करते हुए पाठकों को रोमांचित करते हैं। रुमानियत के भाव गहरे होते हैं परन्तु मर्यादा के दायरे में। ‘तुम बुद्धू हो डियर’ कहानी को ही देख लीजिए और उनका अंदाज भी। ऐसे में उर्दू शब्दावली उनका साथ देती है। पहले लिली स्वेतलाना फेसबुक में आती है,इन्बाक्स में उक्रेन के सुन्दर स्थलों की उसकी तस्वीरें हैं,अब साक्षात् अवतरित हुई है और कहानीकार के मन की उड़ान पाठकों को भी उड़ाकर किन्हीं लोकों मे ले जाते हैं। कहानी मोड़ लेती है,जो दृश्य उभरता है, चौंकाने वाला है और मन का,देशों का,संस्कृति-सभ्यताओं का अंतर समझा देता है। उनकी कहानियों में ऐसे चमत्कार अक्सर देखे जा सकते हैं और आधुनिक जीवन का रुपान्तरण भी।
संग्रह की चौथी कहानी का शीर्षक ‘गुडमॉर्निंग आर.ए.सी.’ भी अंग्रेजी शब्दों के साथ है। अन्य कहानियों की तरह यहाँ भी युवा स्त्री शालिनी सिंह के साथ कहानी बुनी हुई है। कहानीकार खरे साहब अपने युवा स्त्री पात्रों के चित्रण में कोई कमी नहीं करते,देहयष्टि से लेकर पहनावे,रंग-रुप का दर्शन करवा देते हैं और अपनी रुमानियत का परिचय भी। एक विशेषता और देखिए,कहानी में बिंदास युवा स्त्री होती है तो आसपास मुँह बनाने वाला कोई न कोई होता ही है। पाठक कहानीकार के मनोचरित्र का आकलन कर चुके होंगे। वैसे हर कहानी बड़े स्वाभाविक तरीके से बुनी हुई रहती है। मन की भावनाओं को कहानी में पिरोने का अंदाज निराला है। शालिनी सिंह पुनः मिलती हैं तीन साल बाद, मुरझाई,उदास मानो उनका सब कुछ खो गया है। कहानी के नायक दीपेन्द्र के भाव प्रकटन का अंदाज भी कम नहीं है और उनके प्रस्ताव पर सहमति के भाव वाली आवाज उभरती है,’गुडमॉर्निंग आर.ए.सी.’। उनकी कहानियों में सुखद संयोग के खेल भिन्न तरीके से प्रभावित करते हैं और रचना को पठनीय बनाते हैं।
अरुण अर्णव खरे जी का साहस ही कहा जायेगा,उन्होंने समाज में व्याप्त विकृति को अपनी कहानी का विषय बनाया है और उसके दुष्परिणाम की भयावह तस्वीर प्रस्तुत की है।’माधव पचौरी की आत्महत्या’ दिल दहला देने वाली है। उनके जैसे खुशमिजाज व्यक्ति की ऐसी क्या परेशानी थी,उन्हें आत्महत्या जैसा क्रूर निर्णय लेना पड़ा। एलुमिनी मीट में 1980 बैच के छात्र पहुँचते हैं उसी में माधव पचौरी भी हैं। उनके रहने की व्यवस्था रवि इंगले के साथ की गयी है। उसने स्वागत में उनकी सुरुचि का ध्यान रखकर कमरे को सजाया था। वे बहुत खुश थे। पुलिस की छानबीन शुरु हो गयी। रवि इंगले से पूछताछ की जाने लगी। वह कैसे सच बता दे कि अंकल ने आत्मग्लानि के वशीभूत हो यह कदम उठाया है। माधव पचौरी ने रवि को पुस्तकें गिफ्ट की और घर के लोगों के बारे में पूछा। रवि ने कहा-‘मां-पापा,दादी और एक बड़ी बहन है,पापा इंजीनियर हैं,अकोला में कंस्ट्रक्शन का बिजनेस है।’ ‘अकोला’ सुनते ही उनकी सांसें तेज चलने लगी और सालों पहले की रवि के पिता की हैवानियत स्मृतियों में उभर आयी। उनमें हीन भावना ने जड़ जमा लिया, शादी नहीं की और पूरी जिंदगी मानसिक दबाव में जीते रहे। आज उन्हीं का लड़का बगल में मासूम सा सोया हुआ है। माधव बहके जरुर लेकिन तुरंत संभल गये। बेचैनी बढ़ गई। रवि विह्वल हुआ-क्या बात है अंकल? कौन सा बोझ आपको बेचैन किए हुए है? भावावेश में उन्होंने सारा सच बता दिया। कहानी पात्रों के भीतर के मनोचिन्तन और मनोविज्ञान का अद्भुत विश्लेषण करती है। पिता की करतूत ने माधव के जीवन को प्रभावित किया ही है और अब पुत्र सीढ़ियाँ उतर रहा है।
अरुण अर्णव खरे की कहानियों में स्त्री के प्रति लोगों की कुदृष्टि का जिक्र हिलाकर रख देता है। स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है और किसी पर विश्वास करना उसके लिए संभव नहीं है। मंगला उसी दौर से गुजरी है। पति की मृत्यु के बाद रिश्ते के देवर ने मदद की और शीघ्र ही अपना चरित्र दिखा दिया। अनुकम्पा के आधार पर नौकरी देने के लिए जिला शिक्षाधिकारी ने अकेले बंगले पर बुलाया था। मंगला ने नौकरी का विचार त्याग दिया। हेडमास्टर द्विवेदी जी हर तरह से सहायक रहे। पुत्र विनय की पढ़ाई और शादी में उन्होंने अभिभावक की भूमिका निभाई। विभू पोता है, दादी के लिए सहारा है। खरे साहब की कहानियों में शब्द ही नहीं,पूरे के पूरे वाक्य अंग्रेजी में होते हैं। बेहतर होता,साथ में वे उसका हिन्दी शब्द,वाक्य भी जोड़ देते। अंग्रेजी की अज्ञानता  मंगला को भारी पड़ रही है। थर्मामीटर टूट गया है और मीठी इलायची यानी ग्रेनुल्स बिखरे हुए हैं। बच्चे ने खा लिया और उल्टियाँ करने लगा। दादी को कुछ समझ में नहीं आया। डाक्टर के पूछने पर मंगला ने कहा-थर्मामीटर इलायची गेरेनुल जैसा कुछ बोला था उसने। डाक्टर ने कहा,’बच्चे ने मरकरी खा लिया है।”
‘बादशाह सलामत की मोहब्बत झूठी है’ ऐतिहासिक निर्ममता से भरी कहानी है। छोटी सी बच्ची अपने अब्बू से पूछती है-“रात में इतना लजीज खाना खिलवा कर सुबह-सुबह बादशाह सलामत ने सबके हाथ ही कटवा दिए—क्यों किया उन्होंने ऐसा।” खरे साहब लिखते हैं-बादशाह के नुमाइन्दों ने सबको झोली भर-भर कर अशर्फियाँ दी थी लेकिन बदले में पत्थरों को जीवन बख्शने वाली उँगलियाँ ले ली थी —वह भी केवल इसलिए कि दूसरा कोई राजा या नवाब मोहब्बत के इस मकबरे की प्रतिकृति इन कारीगरों से बनवाने की न सोचे। यह कैसी मोहब्बत है? मोहब्बत करने वाले के दिल में खुदा बसता है और खुदा इतना बेदिल नहीं होता। खरे जी ने इतिहास में दर्ज अत्याचार पर कहानी लिखकर साहस का काम किया है। भाषा-शैली की दृष्टि से इसमें उर्दू शब्द जुड़े हुए हैं और कहानी मार्मिक दृश्य दिखाती है।
हर रचनाकार अपनी पुरानी स्मृतियों,पुराने अनुभवों से गुजरता है,कोई कविता,कहानी या संस्मरण लिख डालता है। खरे जी ने इंजीनियर की पढ़ाई की है। पवन और प्रभजोत के बीच कुछ-कुछ होने लगा था। पवन आज भी अविवाहित है। खरे जी का भाव देखिए-अधर मौन हो जाते, आँखों में स्पष्ट पढ़ी जाने वाली भाषा को दोनों ही शब्द नहीं दे पाते। जुबान मौन रहे तो मन के कोमल भाव भी अन्दर ही अन्दर सिसकते रह जाते हैं। दोनों को डर था,मन का भाव व्यक्त करते ही,कहीं रिश्ता बनने के पहले ही टूट न जाए। दोनों में आर्थिक असमानता थी। प्रभजोत की सगाई की सूचना पर पवन के प्रेम को लेकर दार्शनिक चिन्तन को खरे जी ने विस्तार से लिखा है। उसने शुभकामनाएं और बधाई दी। ‘और कुछ नहीं कहना तुम्हें” प्रभजोत की आवाज भीगी हुई थी। फिल्मी कहानियों की तरह मोड़-चौराहों से घूमती हुई कहानी ने पवन-प्रभजोत को मिला दिया है। उसने भी शादी नहीं की है। ऐसी कहानियाँ सामान्य फार्मूले की तरह बहुत प्रभावशाली न भी लगे,पाठकों को बाँधे रखती हैं।
स्थानीय शब्दों में रची-पगी ‘रोशनी वाले दीए’ भाव-प्रधान मार्मिक कहानी है। देखने में सीधी-सादी, सपाट कहानी में गहरा संदेश छिपा है। त्रासदी,जीवन में विपत्तियाँ आती हैं तो चारों ओर से घेर लेती हैं,लोग टूट जाते हैं। सरसतिया को किसी ने जबरदस्ती अपवित्र कर दिया है। बिरंची काका भी आग की चपेट में आ जाने से मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। रत्ती और सरसतिया के हिस्से में न धूप है और न चाँदनी। ऐसे में सहयोग,सहारा मिलता है तो खड़ा होना संभव हो पाता है। चंदो के जीवन में दुख आया तो रत्ती काकी ने सहारा दिया,आज उस पर दुख है तो चंदो खड़ा होना चाहती है। उसने तय कर लिया है,इस दीपावली में सरस्वती और रत्ती काकी के घर में अंधेरा नहीं रहेगा। चंदो देखती है,बैसाखी का सहारा लिए गोकरन चला आ रहा है। रत्ती काकी की डेहरी दीपकों के प्रकाश से जगमगा उठी है। गोकरन कहता है-सरस्वती कभी मैली नहीं होती,उससे मिलकर गंगा और यमुना पवित्र हो जाती है। बस मुझे माफ कर दो,जब मेरी जरुरत थी,मैं तुम्हारे पास नहीं था। प्यार का दुर्लभ स्वरुप देखकर चंदो की आँखें भर आई हैं।
खरे जी कहानी का प्लाट नहीं बनाते,कोई मानसिक खाका नहीं खींचते,बस शुरु हो जाते हैं। अक्सर उनकी कहानियों में बेतरतीबी या बिखराव देखा जा सकता है। चर्चित कथाकार हैं,सहेजते हैं और कहानी बन ही जाती है। उनके पात्रों के बीच का प्रेम सहज ही पूर्णता प्राप्त नहीं करता बल्कि संघर्ष या प्रतीक्षा करना पड़ता है। ग्रामीण संस्कृति और दृश्य उनके भीतर रचा-बसा है साथ ही आधुनिकता की ओर झुकाव कम नहीं है। चरित्र-हीनता खूब है हमारे समाज में,उनकी कहानियों में यह प्रसंग दुखी करता है। एक और विशेषता है उनकी कहानियों में,दुख के क्षणों में नारी पात्र अक्सर उठ खड़ी होती हैं और जीवन में संघर्ष करती हैं। ‘चरखारीवाली काकी’ कहानी की काकी ऐसी ही हैं,पति की चार दिन बाद ही मृत्यु हो जाने पर उन्होंने नियति को स्वीकार कर लिया। खरे साहब लिखते हैं-“काकी ने कभी समय की मार के आगे घुटने नहीं टेके,जिंदगी को बोझ नहीं माना,बड़ी शिद्दत से,हौसले से और असीम संतोष भाव से जीवन जीती रहीं। उन्होंने दूसरों की खुशियों में अपनी खुशी तलाश ली और रंग भरती रहीं।” उसके बाद कहानी में भावुकता है,संवेदनाएं हैं,समाज का विकृत चेहरा है और उसके विरुद्ध खड़ा होने का साहस भी।
‘वजूद’ तलाक के दंश से गुजर रही आरिफा की मार्मिक कहानी है। एक खुशहाल परिवार तबाह हो जाता है। उस्मान तलाक दे देता है और बाद में पछताता है। दोनों परिवार परेशान है। वापस लौटने की जो प्रक्रिया है,किसी भी स्त्री के लिए सहज नहीं है। कहानी को बुनते हुए,विस्तार देते हुए खरे जी ने स्त्री-पुरुष सम्बन्ध,ईर्ष्या-द्वेष के दुष्परिणाम आदि का चित्रण किया है। समाज को इस दिशा में गहराई से विचार करना और ऐसी व्यवस्था को खत्म करना चाहिए। कहानी को खरे जी एक मोड़ देकर आरिफा के स्वाभिमान की रक्षा करते हैं। कहानी प्रश्न खड़ा करती है और उसका उत्तर समाज को खोजना है। आरिफा के इस प्रश्न का उत्तर उस्मान के पास क्या है कि मोहनीश की तस्वीरें देखकर विचलित होने वाला उसका दिल मुझे किसी के साथ हमविस्तर होते हुए बर्दाश्त कर सकेगा। ऐसी कहानियाँ,ऐसी घटनाएं समाज पर कलंक की तरह हैं और विचलित करने वाली हैं।
संग्रह की अन्तिम कहानी ‘पुनर्जन्म’ भावुक कर देने वाली है।  अमेरिकी समाज की स्वछन्दता,स्त्री-पुरुष दोनों का बच्चों के प्रति बेरहम व्यवहार इस कहानी में उभरा है। रिची की मां जेन दो साल के बच्चे को छोड़कर किसी दूसरे के साथ चली जाती है। वह दूसरे को भी छोड़ती है और किसी तीसरे के साथ कहीं बहुत दूर रहने चली गई है। पिता जैकब भी किसी दूसरी लड़की नैन्सी को ले आते हैं। दूसरी ओर समीर का भारतीय परिवार है जिसमें दादी हैं,मां-पिता हैं,बहन है,सालों चलने वाले पर्व-त्यौहार हैं और भारतीय परम्पराएं है। खरे साहब ने बेहतरीन तरीके से दोनों संस्कृतियों के माध्यम से कहानी की बुनावट की है। स्पष्ट दिखाई देता है,वहाँ के समाज में प्रेम,करुणा,संवेदना नहीं है जबकि हमारी दिनचर्या में इनके बिना कुछ भी सोचा नहीं जा सकता। हमारे परिवारों में बच्चा सर्वोपरि है,मां-बाप उसके लिए हर तरह का त्याग करते हैं और सब कुछ करते हैं अपनी सामर्थ्य में। वहाँ अपना मामा लैरी बच्चे के जीवन को वासना के नरक में ढकेलना चाहता है।
खरे साहब के सृजन संसार में खास तरह का कथातत्व और बुनावट दिखाई देती है जो चौंकाती है और आकर्षित करती है। उनकी कहानियाँ देश की हैं और विदेश की भी। उनके विषय झकझोरते हैं,विचलित करते हैं और भावुक भी। कहानियों में मोड़ देकर सन्दर्भ को जीवन्त करना उनकी अपनी शैली है। वे स्थानीय बोली,भाषा का खूब प्रयोग करते हैं,उनके पात्र लम्बा-लम्बा वाक्य बोल जाते हैं,वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी शब्दों,वाक्यों की भरमार है। उनकी रचनाएं स्पष्ट करती हैं,उनकी शिक्षा इंजीनियरिंग की हुई है। कहीं-कहीं कहानियाँ सपाट तरीके से चित्रित हुई हैं फिर भी हर कहानी कोई न कोई संदेश देने में सफल है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है,खरे साहब बेहतर कथाकार हैं,प्रभावित करते हैं और अपनी कहानियों के माध्यम से पाठकों को गुदगुदाते हैं।

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