पुस्तक – ताकि मैं लिख सकूं कवयित्री – डॉ सीमा शाहजी
डॉ सीमा शाह जी का प्रथम काव्य संकलन”ताकि मैं लिख सकूं”पाठकों के सम्मुख है। संकलन में सीमा जी की 61 कविताएं हैं, हर कविता एक अलग सुवास, अलग रंग और बिल्कुल ताजे खिले पुष्प की ताजगी लिए, मनोहर गुलदस्ते सी।
इन कविताओं में कवियित्री ने अपने जीवन से जुड़े हर महत्वपूर्ण रिश्ते को बहुत आत्मीयता और संजीदगी से कविताओं में जिया है। सीमा जी स्वयं एक बेटी है तो बेटियों के बड़े होने में माता-पिता और रक्त से जुड़े रिश्तो की व्यापक भूमिका का गहराई से निष्पक्ष आकलन किया है।
‘बेटियां पानी की तेज धार’ ‘बेटियां: तीन संदर्भ’ ‘मां’ ‘हमारे पिता है वे” और ‘बच्चा’ कविताएं कवियित्री के हर्ष, कृतज्ञता, और मासूमियत के वे अभिलेख हैं ,जो हृदय की लेखनी , रक्त की मसि से समय पत्र पर उकेरे गए चित्रावलियों से लगते हैं।
बंद हथेलियों से
पकड़ लेती है
उत्ताल तरंगे
हर बार…….बार……बार…..
देती रहती चुनौतियों का संसार (पृष्ठ 40)
यहां , बार शब्द का तीन बार प्रयोग , त्रिकाल (भूत ,भविष्य ,वर्तमान, प्रातः, मध्यान्ह , सांझ ( दैहिक, दैविक, भौतिक) त्रिलोक को ,एक चंचल बाला द्वारा कर्म और पुरुषार्थ की मुट्ठी में बंद करने का प्रतीक है।
बेटियां: तीन संदर्भ , रचना मे पहला संदर्भ भारत की गौरवशाली संस्कृति की संरक्षक ललनाओ, दूसरा तथाकथित आधुनिकाओ का और तीसरा उन नारियों का, जो संघर्ष के बीच अपनी राहें चुनती है , परिवार और समाज को जीने का पाठ पढ़ाती है, प्रकाश की राह दिखाती है। कहना ना होगा कि पहले प्रकार की नारियों और आज की नारियों की देशकाल परिस्थितियों मैं बहुत भिन्नताए हैं तथापि उनके अंतस में आदि नारी की गौरवशाली गाथाओं के संस्कार हैं। वह तीसरे प्रकार की नारी का आह्वान अपने संस्कारों के अनुरूप करती है-
बेटियों, वैदिक ऋचाओं की स्वयंभू रचनाएं बनो
वंचनाए नहीं,,,,,,,(पृष्ठ 43)
‘मां’ उनकी चर्चित और प्रशंसित रचना है। ‘ मां ‘ उनके व्यक्तित्व का उत्स है उनके जिए हुए सत्य को इस रचना में वाणी मिली है, इसी तरह पिता भी केवल कल्पना की उपज ना होकर उनके जीवन का यथार्थ है–
विरासत की जड़ें
संस्कृति संस्कार के पल्लवो के संजोए
सहेजे
सहलाए
टूटते- झरते -बिखरते
मूल्यों के बीच स्नेहिल उष्मा का कवच बन जाएं,
हमारे पिता है वे,
सघन कलुष को तोड़
दीप से दीप जलाएं (पृष्ठ 46)
यहां संजोए, सहेजे ,और सहलाए शब्द एक पंक्ति में आ सकते थे किंतु कवियित्री ने उन्हें अलग-अलग लिखकर यह संकेत दिया है कि पहले तो किसी महान विरासत को संजोना फिर उसे सहेजना याने बिखरने नहीं देना और सहलाना यानी दुलार कर आगे की योग्य पीढ़ी को सौंपना…. यह तीन महान कार्य हैं जो एक पंक्ति में नहीं समा सकते। पीढ़ियां खप जाती है , इस लक्ष्य को प्राप्त करने में जैसे गंगा को धरती पर लाने में रघुकुल की तीन पीढ़ियां निरंतर तपस्या और शोधरत रही।
कहना न होगा कि कवियित्री का भाव जगत जितना समृद्ध है ,उतना ही शिल्प जगत भी ,जो तीन शब्दों की गागर में सागर को भर गया है। बच्चे और मां के अंतरसंबंधों को बच्चा कविता में देखा जाना चाहिए –
अ-अनार का
आ-आम का
देखे नहीं है उसने
आम-औ-अनार
बस किताबों के दर्पण में
देखा है रसभरा जलजला (पृष्ठ 48)
जलजला भी रसभरा हो सकता है? यह कवियित्री का नया उपमान है। वैसे वह यहां अधिक भावुक हो गई है। शिक्षा का एक सिद्धांत है-‘ज्ञात से अज्ञात की और ….अनार और आम उसी यात्रा का आरंभ है।
डॉ सीमा को सागर, झरने , नदियां, और, बादल आदि जल के उपादान मन के निकट लगते हैं। मेघदूत, ऋतुसंहार के जनक कालिदास में उनका मन बहुत रमा है। उज्जैन के पास ही उनका ननिहाल है ,अतः वह कालिदास की काव्य क्रीडा भूमि से सहज ही जुड़ी हुई है ।जग की विद्रूपता के बीच कालिदास उनकी चेतना में है , जो संस्कारजन्य है-
बस मेघ को
लौटा दे उसका प्यार
पानी को पवित्रता
समुद्र को गहराई
ताकि गुनगुना सके
फिर से कालिदास……..(पृष्ठ ३६)
या
खोज करो उस प्रेम की
पर्याय जिसका भारत है
पर्याय जिसका कृष्ण है
कालिदास है…….(पृष्ठ 98)
यही कवयित्री आधुनिकता को फटकार भी लगाती है-
यही तुम्हारी स्वार्थपरता
मेघ और कालिदास का
सामीप्य तुम्हें कब रास आया?
तुम्हें तो मेघ के पानी में
व्यापार ही नजर आया(पृष्ठ 92)
या
एक मानसून
बिक जाता है
बोतल में कैद होकर (पृष्ठ 130)
इसी तरह जमी ही मेरी है (पृष्ठ 128)
बूंदों का भाग्य (पृष्ठ 126)
ए मन तू जाग जा (पृष्ठ 30)
मेरी ऊर्जा के दूत चांद(पृष्ठ 123)
ओ मानसून (पृष्ठ130)
आदि रचनाओं में उनका जलीय (सरल-तरल) व्यक्तित्व उस युवती की तरह दिखता है ,जो ज्येष्ठ की धूप में झुलसी ,वनांचल के जलाशय में ,शीतलता की आस में तैर रही है ….ऊपर धूप और नीचे पानी और उसके बीच नीले नैनो से हाथ पैर मारती हुई स्वयं और तट के बीच की दूरी मापती हुई….।
जल ही की तरह प्रकृति के अन्य उपादान जैसे धूप,गौरैया ,पुष्प, बीज ,आम,अमराई ,फागुन ,पत्ते, पतझड़, कोयल, पलाश आदि को वर्तमान जीवन के संदर्भ में रखते हुए संस्कारित स्पर्श दिया है। इसलिए कठोर सत्य और आधुनिक विडंबनाओं को समेटने वाली यह रचनाएं कुंठा, उपदेशात्मकता और रोदन की नीरसता से मुक्त होकर भावात्मक संसार को सृजित करने में सफल रही है।
इस संग्रह की रचनाएं विविध पारिवारिक रिश्तो, भारतीय सांस्कृतिक पर्वों, गांवो,ससुराल को आबाद करती बेटियों, जीवन के काम आने वाली रेलों , पत्थर की चक्कियों आदि को बारीकी से परखती है, इन कविताओं में उनकी दृष्टि अतीत और वर्तमान पर बराबर है।
दीपावली, अक्षय- तृतीया ,संक्रांति ,शरद पूर्णिमा आदि पर्वों ने उनसे आधुनिक दृष्टि प्राप्त की है। (रक्षाबंधन नवरात्रि पर्युषण पर्व और दशहरे के लिए हमें उनके अगले संकलन की प्रतीक्षा करनी होगी)
इन रचनाओं का जीवन दर्शन सकारात्मकता लिए हुए हैं–
पूरा चंद्रमा
अमावस बनने के लिए
छुपा लेता है
अपने आप को ब्रह्मांड में
सारी चांदनी…….. चमक शीतलता और रोशनी को भी
कर देता है स्वाहा
तब ही जाकर
जन्म होता है
अमावस का (पृष्ठ 119-20)
अंधकार शाश्वत है और उजाले की पहचान अंधकार से ही है
या
ओ चांद!
तुम हो तो
आशाओं के मधुमास हे
तुम हो तो आंखों में नए स्वप्न हैं और चांद !
कभी अस्त मत होना
जीवन की किसी भी सांझ में क्योंकि तुम रोशनी देते हो
जलाते नहीं( पृष्ठ 125)
तुम कौन हो (पृष्ठ 103) कविता तो जैसे खोज का अनंत सिलसिला है। किसकी खोज? कैसी खोज? सब कुछ अस्पष्ट, फिर भी एक प्रवाह है जो लहर- दर -लहर खुलता चला जाता है एक निष्कर्षहीन गंतव्य पर पहुंचकर पाठक के मन को उद्वेलित करता है।
यह शाश्वत प्रश्न है – तुम कौन?, मैं कौन? कुत:आगत:? कुत: गच्छन्ति? उपनिषदों से लेकर आचार्य शंकर तक ,कबीर से लेकर विवेकानंद तक ,आदि पुरुष विष्णु के प्रथम अवतार मत्स्य से लेकर बुद्ध तक, जिज्ञासाओं का विशाल गगन और गहन सागर है। कवियित्री डॉ सीमा शाहजी का मन भी उसी जिज्ञासा की एक छोटी सी कड़ी है, जिसका उत्तर मिलना शेष है।
‘मायके का हरसिंगार’ नारी मन की पूरी ‘रील’है
मायके का हरसिंगार
प्रीत की लड़ियों का
सुंदर संसार……..( पृष्ठ 52)
उक्त पंक्ति में कवियित्री ने बसंत ऋतु में हरसिंगार को याद कर मानो मायके के महत्व को रेखांकित कर दिया है । इस कविता में मालवी बोली का शब्द ‘उछेर’ माटी की अपनत्व भरी सोंधी गंध का एहसास कराता है ।यहां शिल्प और भाव का एकीकरण द्रष्टव्य है।
मेरे कमरे की दुनिया ,धूप रथ, पिता का गमछा, गडरिया कभी नहीं भटकता , बचपन और बाजार, मृग मरीचिका , शिशु बछड़ा आदि रचनाएं कवियित्री के रचना संसार की व्यापकता को दर्शाती है ।संकलन की हर कविता स्वतंत्र समीक्षा के योग्य है ;पठनीय है।
यह संकलन सीमा जी के मन की बगिया है ,जहां नारी – मन के बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के मनोभावों को पिरोया गया है। इस माला में रंग -रंगीले,सुवासित, कड़वी गंध वाले ,और कांटो के बीच खिलने वाले सभी तरह के पुष्प हैं। इन्हीं में से विविध सुगंधो की तरह अनजाने ही कई -कई संदेश निसृत होकर पाठकों को स्फूर्ति और ताजगी देते हैं।
अंतिम कविताएं ‘चले अब’ और फूल की यात्रा चलती रहे, में एक नन्ही बालिका का बिंब बनता है, जो एक ओर मां-पिता और दूसरी ओर जग के रक्त संबंधों के रिश्तो की उंगलियां थामे, संस्कार-पथ पर चलती हुई, आनंद की खोज में, अपने गंतव्य की और आगे बढ़ रही है।
यह बालिका बहुत आगे बढ़े …बहुत ऊंचाई पर पहुंचे… यह मां सरस्वती से प्रार्थना है। पुस्तक का कलेवर सुंदर और सार्थक है। प्रत्येक कविता के बाद,, कविता में निहित भावों को अभिव्यक्त करते शब्द नि:संदेह ‘चित्रकार ‘की भाव समृद्धि और अंतर्भेर्दी दृष्टि के परिचायक हे। ‘ग्राफिंग’ आकर्षक और दृष्टिप्रिय है, अतः यह दोनों प्रशंसा, अभिनंदन, बधाई और साधुवाद के पात्र हैं।

समीक्षक
डॉ. जया पाठक
वरिष्ठ चिंतक एवं रचनाकार
सेवानिवृत्त प्राचार्या
शा. महाविद्यालय
थांदला जिला झाबुआ
मोबाइल 8964988269

1 टिप्पणी

  1. सादर आभार पुरवाई टीम एवम संपादक महोदय तेजेंद्र जी शर्मा ।मेरी गुरु बहना आदरणीया जया पाठक जी की कलम से मेरे प्रथम काव्य संग्रह ” ताकि मैं लिख सकूं “की समीक्षा को आपने पुरवाई में स्थान दिया । बहुत बहुत धन्यवाद

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