Sunday, October 6, 2024
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डॉ. देवेन्द्र गुप्ता की कलम से – सार्थक व्यंग्य लेखन का मिशन ; सींग वाले गधे

पुस्तक : सींग वाले गधे लेखक : प्रेम जनमेजय, विद्याविहार, नई दिल्ली मूल्य : रू०, 400 /=
समीक्षक : डा० देवेंद्र गुप्ता
प्रेम जनमेजय को जब हम पढ़ते है तो ऐसा लगता है लेखक यदि गद्य लेखन में कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण आदि विधाओं की तरफ लेखनी उठाते तो संभवत: और भी अधिक साहित्य जगत में मुकाम हासिल करते… यह एक सामान्य सोच है और आज जो भी लेखक व्यंग्य में लिखता या लिखना शुरू करता है उसे यही सुनाया जाता है |लेकिन ऐसा ख्याल प्रेम जनमेजय की सद्य:प्रकाशित पुस्तक  ‘सींग वाले गधे’ पढ़ते हुए बिलकुल निर्मूल सिद्ध हो जाता है | हमारे यहाँ व्यंग्य को एक शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है,किसी विधा, शैली  या रस के रूप में नहीं | हास्य साहित्य का रस है जबकि व्यंग्य एक शक्ति | लेकिन व्यंग्य साहित्यितिहस का अवलोकन करें तो  प्रेम जनमेजय  में व्यंग्य के प्रति प्रतिबद्धता सर्वविदित है | आप व्यंग्य को साहित्य में विधा का दर्जा दिलाने में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है |
इस से पूर्व ‘सींग वाले गधे’ पर चर्चा प्रारंभ करूँ पाठकों के लिए सूचनार्थ बताता चलूँ की प्रेम जनमेजय का व्यंग्य रचना  संसार बड़ा विस्तृत और सामाजिक विसंगतियों पर गहन चोट करता हुआ पाठकों को विचलित करता है और सही भी है  वो व्यंग्य ही क्या जो आपके ह्रदय को भेद सकने में सक्षम न हो | विचाराधीन पुस्तक से पूर्व भी  इनके पाच व्यंग्य संकलन तीन व्यंग्य नाटक ,संस्मरण सम्पादित पुस्तकें, साक्षात्कार  और व्यंग्य को समर्पित पत्रिका  “व्यंग्य यात्रा’ का प्रकाशन व् सम्पादन उनकी इस धारणा  को पुख्ता करते चलते है कि  व्यंग्य साहित्य की विधा है
पुस्तक में प्रवेश से पूर्व आपको प्रेम जनमेजय की ‘मेरी पगडंडियों’ के साथ साथ व्यंग्य की  की चढ़ाई चढ़ते हुए व्यंग्य की समझ के बारे में लेखक की विचारों को जानना होगा जिसमे वह पाठकों को सावधान करते चलते है कि “आज सब से बड़ी सावधानी यह है कि व्यंग्यकार पहले स्वय को “केवल अपने  केवल अपने को व्यंग्यकार ना समझे साहित्यकार समझे और माने  कि  उसके भी वही सामाजिक सरोकार है जो एक  साहित्यकार के होते है, तभी वह मानव मूल्य और साहित्य जैसे गंभीर विषय की गहराई  समझ पायेगा और इस विमर्श में हिस्सेदारी निभा पायेगा’| प्रेम जनमेजय की चिन्ताये वस्तुत; इस बात को ले कर है कि  व्यंग्य को दिल बहलाव का हल्का साधन माना जाता है और इसे उच्च  कोटि के गंभीर साहित्य की श्रेणी से बहिष्कृत किया जाता है |
प्रेम जनमेजय ‘मेरी पगडंडिया” में स्पष्ट लिखते है ,’जो परसाई हिंदी व्यंग्य के रक्षक दिखाई देते थे वही परसाई व्यंग्य के स्वतंत्र रूप को सिरे से ही नकारने लगे यह हिंदी व्यंग्य के लिए बड़ी दुर्घटना जैसा था,जिससे  हिंदी व्यंग्य विकलांग हो गया | सार्थक दिशायुक्त व्यंग्य की वकालत करने वाले तथा अपने आरंभिक लेखन काल में व्यंग्य के साथ शुद्र सा व्यवहार करने वालो का विरोध करने वाले हरिशंकर परसाई ने घोषणा कर दी कि व्यंग्य कोई विधा नहीं है , उसका कोई स्वतेंत्र अस्तित्व नहीं है….व्यंग्य को शुद्र से ब्राह्मण का दर्जा दिलाने को कृत संकल्प परसाई, व्यंग्यकार को ‘फनिथिंग’ माने जाने से रुष्ट परसाई स्वयं को व्यंग्यकार कहलाने से ही नकारने लगे | व्यंग्य को सहित्य के केंद्र मे लाने के प्रयासों  और संघर्षों का संक्षिप्त ब्यौरा है ‘मेरी पगडंडिया’ जो बड़े सुस्पष्ट तरीके से व्यंग्य के विरोध में और सपोर्ट में खड़े साहित्य जगत को बताते है कि , ‘सार्थक व्यंग्य मेरे लिए एक मिशन है | मैं हिंदी साहित्य में उपेक्षित व्यंग्य को उसका सहयात्री बनना चाहता हूँ’ |
‘सींगवाले गधे’ में प्रेम जनमेजय के व्यग्य बाण समाज में व्याप्त कई तबको की खबर लेते दिखाई पड़ते है |प्रशासन,राजनीतिज्ञ,भ्रष्टाचार, कोरोनाकाल, नौकरशाह,रिटायर्ड,चुनावी समय और चुनावी तैयारियों के दृश्य, लेखक, पूरस्कार, सरकारी एजेंसियों के कथित सदुपयोग और दुरूपयोग, वी.आई.पी. सुख ,सुविधभोगी मध्यवर्ग, प्रदूषण, जलवायु संकट, सरकारी कागजी व् हवाहवाई योजनायें आदि विभिन्न क्षेत्रों में विसंगतियों पर प्रहारात्मक मुद्रा अख्तियार करने को विवश करती है |व्यंग्य संकलन में संकलित 40 व्यंग्य बोछारों से आप अपने को कितना बचा  सकते है इस कोई गुंजाईशनहीं दिखती |
सबसे पहले शीर्षक ‘सींगवाले गधे’ में सेवा निवृत  नौकरशाह पर टिप्पणी ,’ अरे अबोध ! जैसे ही उसका ढूध उतर जाता है उसके भक्त भी गायब हो जाते है |भक्त तो पद पर बैठे सींगधारी के भक्त होते है| इसीलिए समझदार गधे निरतर प्रयत्नशील रहते है कि उनके  सिर से सींग गायब न हो और वे दुधारू पद पर बने रहे’ |एक और बानगी देखिये ‘कोरोना संकट काल में ,जिनके घर नहीं थे |जिनके  घर मीलों दूर उनका इन्तजार कर रहे थे | वे सब तपती सडक पर पैर के छालों के दर्द के साथ अपने घर की और लोक डाउन होते ही चल दिए | वह करोना से नहीं भूख से डरे हुए थे ….और जिनके घर थे उन्होंने लोक डाउन का उत्सव मनाया, थालियाँ पीटीं | विभिन्न चेनलों पर उनके जश्न की तस्वीरें रंग बिखेरने लगीं जिनके घर थे उन्होंने बेघरों पर खूब लिखा …जिनके घर थे वे अपने वातानुकूलित घरों से सोशल मीडिया पर घडियाली आंसू  बहाते रहे’ |
बसंत चुनाव लड़ रहा है , ओ बे मास्टर जी ,आम चुनाव का मौसम, चुनाव लीला समाप्त आहे ! ,मन पंछी उडी उडी जाय आदि शीर्षक से व्यंग्य लेखो में भारतीय चुनाव व्यवस्था ,नेता, पार्टिया ,लोकतंत्र, मतदाता, चुनाव ड्यूटी पर अफसर, सभी पार्टियों में घुस आये अपराधी और अपराध वृति, कालाधन, बाहुबली अनेक ऐसे प्रसंगों का विवरण है जो समाज की विसंगतियों और अंतर्विरोधों पर प्रकाश डालती है | स्थानाभाव के कारन सभी उध्ह्र्ण  देना संभव न है | बुरा न मानो साहित्यिक छापे है ,बधाई,!पद्मश्री तो आ गयी है लेकिन,. मेरा …लाइनर लेखक का लोक डाउन, लोक डाउन में लेखक, प्रकाशक, पत्रकार, पुरस्कार रोयल्टी, वरिष्ठ लेखक, साहित्यिक कार्यकम, आदि विषय असल में साहित्यिक जीवन से जुड़े कटु यथार्थ की तस्वीर पाठकों के सामने अनावृत्त करते है | यह तीखे व्यग्य प्रेम जनमेजय को हिंदी की व्यंग्य विधा में अपनी बड़ी पहचान के साथ स्थापित करतें है और उन अन्य विधाओं के लेखकों की  जमात से भी अलहदा करते है जो भले ही अपने को व्यंग्यकार कहलाने से कतराते हों पर व्यंग्य लिखने से नहीं चुकते | लेकिन व्यंग्य को एक विवशता जन्य हथियार मानने वाले प्रेम जनमेजय ने प्रस्तुत व्यंग्य संकलन को साहित्य समाज के सम्मुख ला कर यह सिद्ध कर दिया कि  इन्होने व्यंग्य की धार को कुंद नहीं होने दिया है | किताब के ब्लर्ब में उधृत ममता कालिया के शब्दों को उधर लेते हुए इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि ‘प्रेम जनमेजय ने बहुत समझदारी और गहन अध्ययन से अपनी साहित्य विधा चुनी है | व्यंग्य विधा पर चाहे जितना हमला किया जाये सब जानते है की बिना व्यंग्य विनोद के कोई भी रचना पठनीय नहीं हो सकती |प्रेम जनमेजय में एक कथा तत्व समानातर  चलता है  | इसी कथा जाल में वे धीरे से अपना कम कर जाते है ’ | पाठक पुस्तक में व्यंग्य रस का भरपूर आस्वादन करेंगे – ऐसा मेरा विश्वास है |
डॉ. देवेंद्र गुप्ता
सम्पादक ‘सेतु’   आश्रय ,खलीनी, अपर चौक
शिमला-2,हिमाचल प्रदेश ,पिन :171002
मोब ; 94184 73675
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