बताए कोई क्या ख़ता हो गई है
कि दुश्मन हमारी हवा हो गई है
मरीज़ों के जेबों में पैसे भरे हैं
नदारद यहाँ से दवा हो गई है
कफ़न तक नहीं रह गया है बदन पर
यहां शर्म शायद विदा हो गई है
भरोसा नहीं रह गया है किसी का
शराफ़त बहुत बदनुमा हो गई है
वही सांस जो अब तलक हमक़दम थी
वही ज़िन्दगी की सज़ा हो गई है
चिता जल चुकी आदमीयत की ‘जोगी’
बुराई ही अब रहनुमा हो गई है ।