अश्विनी कुमार त्रिपाठी की ग़ज़लें
दर्द को अश्आर में कहने के फ़न से राब्ता
पेड़ से दीमक का,,, रोगों का बदन से राब्ता
दिल के साथी बन गए हैं दर्द-ओ-ग़म कुछ इस क़दर
ज़िंदगी थी , ज़िंदगी में ज़िंदगी थी ही नहीं
इश्क़ में यूँ राब्ता रक्खा करो मा’शूक़ से
गर सुख़न-वर इश्क़, उल्फ़त, प्यार से अंजान है
वक़्त-ए-रुख़्सत तुमसे मिलना चाहता हूँ इस तरह
सुन न पाया ख़ुद को ही, दुनिया का डर हावी रहा
शह्र की आब-ओ-हवा तन पर तो हावी हो गई
मंज़िलें मिलने की ख़ातिर राह देखेंगी तेरी
ख़ाक में मिलने तलक भी ख़ुद से मिल पाये नहीं
‘खेतिहर’, मजदूर में तब्दील हो कर रह गये
इस बदलते दौर की वे नब्ज़ पढ़ पाये नहीं
जिनको थी मंज़िल की चाहत मंज़िलें पा थम गये
दुश्मनों की बद्दुआएं , भी दुआ बनकर लगीं
अश्विनी कुमार त्रिपाठी
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अच्छी हैं आपकी गजलें अश्विनी जी! पहली ग़ज़ल में उदासी और मायूसी सी महसूस हुई। एक शेर जो अच्छा लगा-
*इश्क़ में यूँ राब्ता रक्खा करो मा’शूक़ से*
*ज्यूँ चमन का गुल से,, सूरज का किरन से इश्क़ में यूँ राब्ता*
आपकी दूसरी ग़ज़ल काफ़ी अच्छी लगी।
सभी शेर अच्छे लगे लेकिन सबसे आखिरी वाला एक नंबर!!
*”दुश्मनों की बद्दुआएं भी, दुआ बनकर लगीं*
*मुझ पे यूँ माँ की दुआओं का असर हावी रहा”*
सुन न पाया ख़ुद को ही, दुनिया का डर हावी रहा
‘दिल’ पे मेरे जब तलक, मेरा ये ‘सर’ हावी रहा
शह्र की आब-ओ-हवा तन पर तो हावी हो गई
मन पे लेकिन गाँव का, छोटा सा घर हावी रहा
मंज़िलें मिलने की ख़ातिर राह देखेंगी तेरी
हर सफर की मुश्किलों पर तू अगर हावी रहा
ख़ाक में मिलने तलक भी ख़ुद से मिल पाये नहीं
जिनके सर पर दौलत-ओ-ज़र उम्र भर हावी रहा
‘खेतिहर’, मजदूर में तब्दील हो कर रह गये
गाँव पर कुछ इस तरह से भी शहर हावी रहा
इस बदलते दौर की वे नब्ज़ पढ़ पाये नहीं
हाशिये पर आ गए जिन पर हुनर हावी रहा
जिनको थी मंज़िल की चाहत मंज़िलें पा थम गये
जिनमें थी यायावरी उन पर सफ़र हावी रहा
दुश्मनों की बद्दुआएं , भी दुआ बनकर लगीं
मुझ पे यूँ माँ की दुआओं का असर हावी रहा
बधाई आपको