ग़ज़ल-1
ऐ ख़ुदा! तू हो न हो पर मैं परेशानी में हूं
तैरना आता नहीं और आग़ के पानी में हूं
मुझको मुझसे पूछे बिन दुनिया में क्यूं लाया गया!
जबसे मैं पैदा हुआ तबसे ही हैरानी में हूं
कबसे आंखें मल रहा दुनिया के मेले देखकर
ज़िंदगी में ऐसे हूं जैसे मैं वीरानी में हूं
क्या करुं ऐ दोस्त मुझको प्यार आया ही नहीं
तुम ही कुछ करते जो कबसे मैं निगहबानी में हूं
उसने मौक़ा देखकर लो मुझको पतझर कह दिया
मैं कि अब तक सोचता था मैं मेहरबानी में हूं
तैरना आता नहीं और आग़ के पानी में हूं
जबसे मैं पैदा हुआ तबसे ही हैरानी में हूं
ज़िंदगी में ऐसे हूं जैसे मैं वीरानी में हूं
तुम ही कुछ करते जो कबसे मैं निगहबानी में हूं
मैं कि अब तक सोचता था मैं मेहरबानी में हूं
ग़ज़ल-2
किसीका कुछ भी पता नहीं
किसीसे कोई गिला नहीं
जो शख़्स समझा हो शख़्सियत
वो शख़्स अब तक मिला नहीं
जड़े ंतो क्या इन हवाओं से
वो पीला पत्ता हिला नहीं
हवाएं टपकी तो लपके ठूंठ
कमाल ये भी बुरा नहीं
इस आग़े-दिल को भी जांच लो
दिया अभी तक जला नहीं
वहीं पे ढूंढो तो कुछ मिले
यहां तो कुछ भी हुआ नहीं
ख़ुमार है तो उतार भी
दुआ से कुछ भी हुआ नहीं
उलझ गए मेरे रातो-दिन
ख़्याल का तो सिरा नहीं
वो शख़्स अब तक मिला नहीं
वो पीला पत्ता हिला नहीं
कमाल ये भी बुरा नहीं
दिया अभी तक जला नहीं
यहां तो कुछ भी हुआ नहीं
दुआ से कुछ भी हुआ नहीं
ख़्याल का तो सिरा नहीं