राजेंद्र कुमार के प्रेम में पड़ी अल्हड़ सी लड़की को जब यूंसुफ साहब समझाने जाते हैं तो वह उनसे ही प्रेम करने लगती है। 22 वर्ष का लंबा अंतर, सोचिए तो कैसा कशमकश वाला रिश्ता रहा होगा। न सिर्फ उम्र का बल्कि एक दूजे से विपरीत स्वभाव के दो लोग, एक बेहद संजीदा, ट्रेजॅडी किंग से नवाजे जाने वाले, अभिनय के सरताज, और दूसरी हुस्न की मलिका मासूम सी कली की नज़ाकत लिए।
एक 22 बरस की अल्हड़ किशोरी जिसे कभी बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत अदाकार कहा जाता हो, नजाकत भी जिसके आगे पानी भरती हो, और सुर्ख गुलाबी दूध में मिला केशर सा दैवीय रंग, निश्चित ही रानी पद्मिनी की तरह पान खाने पर गले से पीक का लाल रंग दिखता होगा, ऐसी शीशे सी पारदर्शी त्वचा, कांति का दूसरा नाम । यूँ तो हर स्त्री का सौंदर्य अपने में अनूठा ही होता है, किंतु कुछ ही होती हैं जो सौंदर्य के तय प्रतिमानों पर खरी उतरती हैं।

जब शब्द न हों आपके पास उस सौंदर्य का वर्णन करने को तो आप उसे अप्सरा या परी कह देते हैं। हिंदी रजत पट की ऐसी ही अदकारा हैं सायरा बानों जिनके सौंदर्य के लिए सभी उपमान छोटे हो जाते थे उस वक्त। ऐसी परी को प्रेम हो जाता है, और जब जब होता है तब एक अपने उम्र में काफी बड़े इंसान से ही होता है, राजेंद्र कुमार हो या यूंसुफ साहब।
राजेंद्र कुमार के प्रेम में पड़ी अल्हड़ सी लड़की को जब यूंसुफ साहब समझाने जाते हैं तो वह उनसे ही प्रेम करने लगती है। 22 वर्ष का लंबा अंतर, सोचिए तो कैसा कशमकश वाला रिश्ता रहा होगा। न सिर्फ उम्र का बल्कि एक दूजे से विपरीत स्वभाव के दो लोग, एक बेहद संजीदा, ट्रेजॅडी किंग से नवाजे जाने वाले, अभिनय के सरताज, और दूसरी हुस्न की मलिका मासूम सी कली की नज़ाकत लिए ।
दुनिया के सामने जब यह मुहब्बत उजागर हुई होगी तो सलीम अनारकली के स्वाभाविक जोड़ी को सचमुच साथ में देखने का ख्वाब टूट गया होगा शहजादे सलीम और अनारकली के एक बार फिर जुदा होने के दर्द ने न जाने कितने मनों को मथ दिया होगा, और दूसरों के मन को क्यों खुद युसुफ साहब का मन न डोल गया होगा, कामिनी कौशल से टूटा दिल, जो मिला तो बॉलीवुड की वीनस से जा लगा ।
पूरी कायनात दिल थामें इस प्रेम कहानी के मुक्कमल होने की तैयारी में थी लेकिन इंसान के चाहने से क्या होता है । एक खूबसूरत रूहानी प्रेम कहानी में फिल्मी अंदाज़ मे पिता की भूमिका और प्रेमी की खुद्दारी ने एक मासूम दिल में काँटों के खंजर भौंक दिये । एक मासूम दिल में उसी कांटे ने छेद कर दिया, जिसने कभी अपने हिस्से आये कांटे को बड़ी अदा से कहा था “शुक्रिया शहजादे, काँटों को मुरझाने का खौफ़ नहीं होता”, दिलीप कुमार मधुबाला की प्रेम कहानी का त्रासद अंत। कुदरत भी रोई होगी तब!

कुदरत के हिस्से में टूटे हुए दिलों पर रोना ही आता है अक्सर, इस दुनिया ने किसी के प्रेम को सहज स्वीकार कर उसे खिलखिलाने के मौके कम ही दिये हैं, हर उभरती प्रेम कहानी को देख कुदरत उम्मीद से हो जाती है कि अब बीज खिलेगा, लेकिन लगभग हर उम्मीद का गर्भपात कर दिया जाता है, प्रेम की भ्रूण हत्या के खिलाफ़ भी कोई कानून होना चाहिए ना……
क्यों प्रेम इतना डराता है इस संसार को, काश नफरत से इतनी शिद्दत से नफरत की जाती तो दुनिया ए फ़ानी बड़ी खूबसूरत होती। खैर..
कुदरत की आँख से गिरे आँसू इंसान की आँख में ठहर जाते हैं, दिल में बर्फ बन जम जाते हैं। ट्रेजेडी किंग के दिल में भी वह दर्द बर्फ बन जम गया जिसे उन्होंने कभी पिघलाने की कोशिश भी नहीं की, सार्वजनिक रूप से तो निश्चित ही कभी नहीं। अपने सीने में उसी प्रेम रूपी कांटे का घाव लिए, जो सचमुच कभी मुरझाया नहीं और उसने घाव को हरा ही रखा, वीनस चली गई और उस मुहब्बत के खोने के पहले शहजादे को शहजादी मिल गई थी सायरा बानों के रूप में।
इस शादी को लेकर पूरे बॉलीवुड में एक असहजता थी, उत्सुकता भी, बहुत निजी होते हुए भी कई ने इसकी अस्वाभाविकता को महसूस किया और इसके असफल होने या टूटने का बरसों बरस इंतज़ार किया, लेकिन उन सभी अटकलों को धता बताया उस 22 बरस छोटी दुल्हन ने जिसने दिलीप साहब के यह कहने पर भी अपना फैसला नहीं बदला कि “मेरे सफेद बालों को तो देखिए”। और एक मासूम दिल में अपनी खुद्दारी का काँटा चुभो चुके, युसुफ साहब के दिल में भी तो वही काँटा चुभा था ना, और रीस रहा था, अब वह काँटा किसी और के दिल में चुभाने का साहस नहीं था, अब तो उस घाव को मरहम की जरूरत थी और सायरा सही मायनों में वो मरहम साबित हुई।
औरत ही एक मरहम हो सकती है, अफसोस अनारकली (मधुबाला)को वह मरहम नसीब नहीं हुआ, बिरले पुरुष ही मरहम हो पाते हैं। हर अमृता को ईमरोज़ कहाँ नसीब होता है! सोचिए कितनी उलझन रही होगी इस रिश्ते में जीवन भर, अपने हर फैसले को बहुत सहजता से ले लेने वाले दिलीप साहब किस भावनात्मक उलझन से गुजरे होंगें इसका अंदाज़ा हम नहीं लगा सकते ।
सायरा बानों और उनकी तस्वीर के हर फ्रेम में सायरा बानों का समर्पण का अंदाज़ खुद ब खुद हो जाता है। बैराग की इस जोड़ी ने कई फिल्में साथ की, लेकिन ज़िंदगी की जिन फ्रेम में, जिन रील में जो किरदार इन दोनों के हिस्से में आये वे दिलीप साहब की तमाम क्लासिक फिल्मों के किरदार पर भारी हैं। ज़िंदगी के रंगमंच पर उन्होंने अभिनय किया ही नहीं बस जीवन को उसकी स्वाभाविकता से जिया है।
