मैं विरह की चाँदनी में गीत गा लूँ
और थोड़ी देर तक सपने सजा लूँ
तुम फ़लक पर सजे रहना चाँद बनकर
श्वाँस की रफ़्तार से पहचान लूंगी
हृदय की झंकार से कुछ गान लूंगी
ढेर सन्नाटे बंधे हैं साथ मेरे
शून्य को ताका किया है मन-बधिर ने
आलसी आँखों में भरकर स्वप्न सुंदर
आज तुमको याद कर लूँ फिर विदा लूं
कितनी पीड़ा झेलती हैं मूक श्वाँसेें
कौन जाने बेंधती हैं किसकी आँखेें
लक्ष्मणी रेखा यहाँ पर है न कोई
फिर भी सीमाओं का बंधन जानती हूँ
मैं सुरीली साँझ के झौंके सँभालूं
और उसके साथ मिल एक गीत गा लूँ
फिर हठीले प्रश्न सी आकर तुम्हारी
द्वार की पदचाप को पहचान लूंगी —