इस कोरोना काल के तमाम आघातों में से एक बड़ा आघात हिंदी मंच के लोकप्रिय कवि डॉ. कमलेश द्विवेदी का जाना भी रहा। अभी कुछ समय पूर्व ही उन्होंने पुरवाई के लिए हिंदी कवि सम्मेलनों के इतिहास पर एक विस्तृत आलेख लिखा था। इसके बाद वे कोरोना संक्रमित हुए जो उनके लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ। यह कविता कमलेश जी ने कोरोना संक्रमण के दौरान लिखी थी और संभवतः यह उनकी अंतिम कविता है। उनके पुत्र दिव्यांश ने बताया कि वे हस्पताल तो पहुंच ही नहीं पाए। घर में ही दवा चल रही ती, इसी बीच उन्हें दिल का दौरा पड़ा। पुरवाई परिवार की तरफ से डॉ कमलेश द्विवेदी जी को विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए हम उनकी यह कविता अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं।
कोई कविता लिखी न मैंने, ना ही लिखी कहानी। पिता-पुत्र के संबंधों पर मेरी निजी बयानी।
गत हफ़्ते बीमार पड़ा तो उसकी रहा नज़र में। एक टांग पर खड़ा रहा वो अस्पताल क्या घर में।
कौन दवा कब देनी है, यह सारा चार्ट बनाकर। खाने में कब क्या देना है, मम्मी को समझाकर।
अपने हाथों से हर टिकिया खु़द ही मुझे खिलाए। मना करूं कुछ खाने को तो यों मुझको समझाए-
टेंशन-वेंशन छोड़ो पापा, टेंशन तो दुख देगा। खाते-पीते रहो मौज़ से, तन में यही लगेगा।
पता नहीं कब सोए-जागे, पल-पल लेता आहट। कभी कराहूं भी तो पूछे-पापा, कोई दिक्कत?
मैं जब कहूं- थके हो कितना, क्या तुम रेस्ट न लोगे? तो वह कहता- एक प्रश्न है, पापा उत्तर दोगे।
यह बतलाओ मेरे बाबा जब बीमार पड़े थे। उनकी सेवा से सुख पाया था या आप थके थे?
आगे बहस व्यर्थ थी कुछ भी, मौन हो गया राजी। उसमें खु़द को देखा, ख़ुद में मुझको दिखे पिताजी।
इसकी ख़ातिर परम पिता का मैं शत-शत आभारी। आगे भी यह संस्कार की यात्रा रखना जारी।